Sunday 6 January 2008

मनचले होने का हुनर सबमें कहाँ।

माना आप मनचले ना हों और आपने कभी किसी से छेड़छाड़ भी नहीं किया हो , लेकिन अगर किसी केस में कोई टीवी पर दिख रहा आरोपी का चेहरा आपसे मिलता-जुलता हो और कोई सजग नागरिक टीवी पर दिखने की चाहत में आपको पुलिस हिरासत में भिजवा दे। अगले दिन की शिनाख्त परेड में आप मनचलों की जमात में सर झुकाए खडे हों। सारे गवाह आपके एक-एक कर लोगों को पहचानने के काम में लग जायेंगे। एक-एक मनचले का चेहरा देखते हुए जब वे आपकी तरफ बढ़ रहे होंगे तब आपके दिल में क्या चल रहा होगा- भगवान् इस बार तो बचा लो एक किलो लड्डू लेकर कल सुबह मंदिर आऊँगा।

आपको ये यकीं तो होगा कि मैंने छेड़छाड़ नहीं किया है लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि आप बच ही जाओगे। अगर बच भी गए तो आपको पसंद नहीं करने वाले पड़ोसी कहाँ आपको माफ़ करने वाले हैं। जब भी आप मोहल्ले से निकलोगे, लोग आपस में भुनभुनायेंगे की देखो यहीं हैं जनाब छेड़-छाड़ के चक्कर में जेल गए थे वो तो किस्मत अच्छी थी की पहचाने नहीं गए वरना आज जेल में सड़ रहे होते। सबसे ज्यादा मजा वही लोग लेते पाए जायेंगे जो चौक-चौराहों पर बैठकर आती-जाती महिलाओं और लड़कियों पर या तो फब्तिया कसते रहते है या शराफत का लबादा ओढे दांत निपोरते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए मेरे एक मित्र महोदय अक्सर हिपोक्रेसी शब्द का इस्तेमाल करते रहे हैं। उनका कहना है कि ये वर्ग उन्ही बातों का विरोध करता है जिसमें उसे खुद ज्यादा मज़ा आता है।

अब मैं मनचलों की जमात के बारे में तो ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा लेकिन उनकी विचारधारा का मैं कायल हूँ। किस मौक़े पर क्या बोलना है और कैसे-कैसे आवाज कब निकालने हैं इसकी कला इनसे जरूर सीखनी चाहिए। एक बात और, मनचले होने के लिए एक कला का आना बहुत जरुरी है। सिटी बजाना। ये नहीं आया तो मनचले होने के प्रोफेशनल में आपकी सफलता वाकई मुश्किल है।

3 comments:

Dr Parveen Chopra said...

संदीप जी, कोई आपबीती है तो हम से शेयर कीजिए---यहां सब अपने ही हैं।

36solutions said...

संदीप जी एक हद तक उम्र की यह स्‍वाभाविकता है, अच्‍छा प्रस्‍तुत किया है आपने । धन्‍यवाद ।

संदीप जी कमेंट वाला फोंट का रंग बदल देवें हमारे जैसे कलरब्‍लाइंडनेस को काफी देर तक उजाले में इसे खोजना पडा ।

संजीव

छत्‍तीसगढ के शक्तिपीठ – 2

Anonymous said...

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