Sunday 31 August 2008

कोसी, कंधमाल और कश्मीर के देश में...

आज की तारीख में अखबारों, टीवी और तमाम तरह की मीडिया में बस ये ३ मसले छाये हुए हैं। इन तीनों जगहों से सम्बन्ध रखने वाले लोग अपना अस्तित्व और अपनी जान बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। लेकिन ये बाकी के देश के लिए मसले हैं और देश इनको बड़ी ही उत्सुकता से देख रहा है। बाढ़ से घिरे और अपना सबकुछ गवां कर रोते हुए लोगों को टीवी पर देखकर लोग सहानुभूति के दो शब्द कह लेते हैं, कश्मीर का मसला इससे थोड़ा अलग है। सब अपने चश्में से इस मामले को देख रहे हैं। कंधमाल का मामला तो और भी अलग है। इसे धार्मिक बर्चस्व और एक दूसरे के धर्म के लिए खतरा बनने जैसे शब्दों से प्रज्वलित किया जा रहा है।

बिहार में बाढ़ आई है। शायद नई पीढी के लिए अब तक की सबसे भयंकर बाढ़। लाखों लोग अपने घरो से बाहर धकेल दिए गए हैं और सड़कों, बांधों और अन्य ऊँची जगहों पर शरण लेकर जीने को बिवश हैं। बड़े नेता लोग वहां का हवाई सर्वेक्षण करके लौट चुके हैं और मदद के लिए घोशनाए हो चुकी है। सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बिच बयानबाजी चल रही है कि इस बाढ़ के लिए दोषी कौन है. सत्ता पक्ष का कहना है कि पिछली सरकार की लापरवाही के कारण ऐसा हुआ तो विपक्ष का कहना है कि वर्तमान सरकार ने अगर समय रहते हमारी बात सुन ली होती तो ये तबाही नहीं होती. इन तमाम बयानों के साथ नेता जी लोग रोज अखबारों में छप रहे हैं और जनता वहां पानी-पानी हुई जा रही है. ऐसे मौके पर अपनी जान और अपनी प्रतिष्ठा बचाना लोगों के लिए बड़ी चुनौती बनती जा रही है.

कश्मीर का मामला कुछ अलग ही है। वहां जो जिस पक्ष से हैं वे उसी पक्ष को सही मानते हैं। किसी के लिए जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ जमीन विवाद धर्म और राष्ट्रहित का मसला बन गया है तो कोई इसे कश्मीरियों की हक़ की लड़ाई मानकर जायज ठहरा रहा है। बिच-बिच में पड़ोसी पकिस्तान भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता रहा है. भले ही उसे ख़ुद के अपने घर में आग लगी हो लेकिन हमारे घर कि इस लड़ाई में बोले बिना उसे भी चैन नहीं आ रहा है. कई दिनों से जारी जद्दोजहद के बाद आज जब सरकार ने बीच का रास्ता निकला है तो आग फ़िर भड़क उठी है। सम्झुते के अनुसार वो जमीन अमरनाथ यात्रा के वक्त बोर्ड को इस्तेमाल के लिए दी जायेगी लेकिन इसका उसे मालिकाना हक़ नहीं रहेगा. होना तो चाहिए था इसपर दोनों पक्षों को खुश लेकिन जब मामला सलट ही जाएगा तो फ़िर राजनीति का क्या होगा. इसलिए अभी भी कश्मीर और जम्मू में हाई अलर्ट जारी है. कश्मीर में कश्मीर के अलगाववादी इसका विरोध कर रहे हैं तो जम्मू में आतंकवादी हमले का डर बढ़ गया है. ऐसे में लोग क्या करे. अपने घर में दुबक के रहने के सिवा. और वो भी क्या भरोसा कि आतंकवादी उनके घरों में नहीं घुस जायेंगे.

कंधमाल भी जल रहा है। पड़ोसी जिले भी जल रहे हैं. हिंदू किसी को इसाई बन्ने नहीं देंगे और इसाई अन्य लोगों को ईसाई बनाने से नहीं मानेंगे. अब आप ही बताओ कि इसका हल क्या हो. हिंदू संगठन नहीं मानेंगे और रोम के पोप भी लगातार इसपर बयान देते रहेंगे तो फ़िर कौन पीछे हटेगा. सभी दलों कि राजनीति इसपर अलग-अलग है।

ये मसले देश के लिए है, देश की जनता के लिए है लेकिन नेतृत्व के लिए और भी कई मसले हैं जो इससे ज्यादा जरूरी है। भाजपा के लोग कर्णाटक में होने वाली राजनीतिक कार्यकारिणी की बैठक की तैयारियों में लगे हुए हैं, अगले हफ्ते होने वाली बैठक में अगले लोकसभा चुनाव के लिए मुद्दों कि तलाश के लिए तैयारियां जारी है. कांग्रेस के पास परमाणु करार जैसे कई मसले हैं. जिनपर उनकी प्रतिष्ठा टिकी हुई है. अगले लोकसभा चुनाव में ये उनके लिए मुद्दा बन सकता है. बुश प्रशासन के लिए भी तो ये एक चुनावी मुद्दा बन गया है. अब अगर अमेरिका के लिए ये इतना बड़ा मसला है तो फ़िर हमारे लिए बाढ़, दंगा और मार-काट से बड़ा मसला क्यूँ नहीं हो सकता. इस मुद्दों की लड़ाई में कौन किससे पीछे रहे. ऐसे ही मुद्दे बनते रहेंगे और बिगरते रहेंगे. जनता ऐसे ही समस्यायों से जूझती रहेगी और फ़िर चुनाव के लिए भीड़ बनती रहेगी. उसे न तो अपने लिए नेतृत्व बनाने आया है और ना ही वो अपने लिए इसका इस्तेमाल कर सकेगी...और ऐसे ही देश में कोसी...कंधमाल और कश्मीर और भी ना जाने क्या-क्या बनते रहेंगे...

Thursday 28 August 2008

दुनिया के हर 3 में से 1 गरीब भारतीय...!

ऐसा नहीं है कि विश्व बैंक के इस आंकडे पर हमें कोई हैरानी हुई है. क्योंकि न तो हम भारत को विकसित देश मानने के मुगालते में जी रहे हैं और ना ही हमारी नज़र में भारत के चमकते मॉल पूरे देश की सम्पन्नता का प्रतीक है. लेकिन विश्व बैंक के ताज़ा अध्ययन से प्राप्त आंकडे बताते हैं कि गरीबी में हमने सबसे गरीब माने जाने वाले सारा-सहारा अफ्रीका इलाके को भी पीछे छोड़ दिया है. और रही बात हमेशा चीन से तुलना करने की हमारी आदत की तो चीन ने हमें अब इस लायक नहीं छोड़ा है. चीन में गरीब(?) हमारे देश की तुलना में आधे से भी कम हैं. विश्व बैंक द्वारा गरीबी के आकलन का ये हिसाब प्रतिव्यक्ति आय और खरीद क्षमता से लगाया गया है. जिसके अनुसार हर वो व्यक्ति गरीब माना जाएगा जो रोज १.२५ डॉलर से कम कमा पाता है.

आंकडे बताते हैं कि २००५ में हमारे देश में गरीबी रेखा से निचे जीवन-यापन करने वाले लोगों की संख्या ४५ करोड़ के आसपास है. ये अलग बात है कि भारत में गरीबी रेखा का मानक कुछ और है और पश्चिमी देशों में कुछ और. लेकिन गरीबी तो गरीबी है, वो चाहे भारत में हो या फ़िर पश्चिम के किसी देश में. वैसे भी भारत हो या कोई और देश चुनाव के वक्त सबसे ज्यादा बिकाऊ आइटम गरीबी ही होता है. अगर ऐसा नहीं होता तो हमारे देश में राजनीति चमकाने के लिए सभी बड़े नेता गरीबों के साथ फोटो क्यूँ खिंचवाते. गरीबो के घरों का दौरा क्यूँ करते और गरीबों के घरों की रोटियाँ तक क्यूँ खाते.

भारत में गरीबी के इस भारी-भरकम आंकडे को देखकर मन में कई सवाल उठते हैं. आंकडों के अनुसार एक अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश के करीब ४२ फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं. असल मसला ये है कि इस गरीबी के परिधि में कौन-कौन लोग शामिल हैं. जाहिर है इसमें देश के खेतों में पसीना बहाने वाले लोग तो शामिल होंगे ही. खेतो में पसीना बहाने वाले अधिकाँश लोगों की रोजाना की आय न तो १.२५ डॉलर से ज्यादा है और न ही उनके पास पूरे साल भर के लिए काम होता है. भारत में ऐसे लोगों के पास काम हो इसके लिए सरकार ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शुरू की ताकि कम से कम इनके पास साल में १०० दिनों का रोजगार सुनिश्चित किया जा सके. इसके तहत लोगों को सड़क आदि बनाने के काम में रोजगार प्रदान किया जाता है. इस योजना में कई पेंच है. किसी के लिए ये सूटेबल नहीं है तो किसी के लिए ये पाना आसान नहीं है. दूसरी बात की अगर साल में १०० दिन ८० रुपया कम भी लोगों तो साल भर की औसत कमाई आपको गरीबी रेखा से ऊपर नहीं पहुँचा सकती.

इस ४२ फीसदी की परिधि में वे भारतीय भी शामिल हैं जो किसी न किसी प्राकृतिक आपदा के शिकार होते रहे हैं. अब बिहार में ही देखिये वहाँ इन दिनों भयंकर बाढ़ आई हुई है. नेपाल से आने वाली कोसी नदी का पानी १५ जिलों में घुस चुका है और ३० लाख से भी ज्यादा लोग अपना घर छोड़कर बांधों और टीलों पर जीवन बिताने को मजबूर हैं. ये लोग ऊँचे स्थानों पर बैठकर अपने घर के सामानों को बाढ़ के पानी में बहते हुए देखने को मजबूर हैं. कितने डूबकर मर गए इसका हिसाब लगाने की फुर्सत किसी को नहीं हैं. तत्काल राहत के लिए लोग भले ही पैसे की बरसात कर रहे हों लेकिन किसी को भी इसके स्थायी हल के लिए कुछ नहीं करना है. उत्तर प्रदेश, असम जैसे कई राज्यों में भी ऐसी ही बाढ़ आई हुई है. इन राज्यों में हर साल ऐसी बाढ़ आती है. दूसरी ओर कई राज्य सूखे की समस्या की जद में हैं. विदर्भ, तेलंगाना, बांदा जैसे इलाके के लोगों के लिए सुखा जैसे उनकी नियति बन गया है. अब अगर ये लोग गरीबी रेखा से ऊपर ख़ुद को नहीं उठा पा रहे हैं तो इसमें उनका क्या कसूर है. वे न तो नेपाल से आने वाले पानी को रोक सकते हैं और ना ही सूखे के लिए ख़ुद कोई प्रबंध कर सकते हैं. गरीबी रेखा में रहना उनके लिए गाड गिफ्टेड है.

वर्ल्ड बैंक के इस आंकडे में उडीसा और जम्मू-कश्मीर के वे लोग भी शामिल हैं जो कार्फू के कारण अपने काम पर नहीं जा पाते होंगे, जिनकी दुकाने, जिनके घर, जिनकी गाडियां और अन्य सामन दंगाइयों ने तहस-नहस कर डाली. उन्हें भले ही उन मुद्दों से कोई मतलब नहीं हो जिनके नाम पर जारी बवाल में उन्हें नुक्सान उठाना पड़ रहा हो लेकिन इसी बहाने बिना कोई गलती किए ये लोग वर्ल्ड बैंक द्वारा चिन्हित गरीबों की सूचि में डाल दिए गए.

इन आंकडों में वे लोग भी शामिल होगे जो झारखण्ड, छत्तीसगढ़, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों के नक्सल प्रभावित इलाकों में रहते हैं और खुलकर अपना जीवन जीने की सुविधा से भी वंचित हैं. ये लोग विभिन्न नक्सली संगठनों की आपसी लड़ाई के सबसे आसान शिकार बन्ने के आदि हो गए हैं. इस आंकडे में पूर्वोत्तर भारत के वे लोग भी शामिल होंगे जो अलगाववाद की राजनीति की लड़ाई में बम-गोलियों के शिकार हो रहे हैं.

सवाल उठता है कि अगर वर्ल्ड बैंक के आंकडों में भारतीय गरीबी का ग्राफ ऊपर उठता जा रहा है तो इसके लिए किसे कसूरवार ठहराया जाए. मेह्नात्कास भारतियों को गरीब बनाने वाला कोई एक कारण हो तो कुछ बात भी बने लेकिन जब इतने सारे कारण हो तो मामला काफ़ी जटिल हो जाता है. दूसरी बात ये भी है कि अगर देश से गरीबी मिट गई तो चुनाव के वक्त गरीबी हटाओ का नारा देकर भूखे-नंगे लोगों को गोलबंद करने का अवसर भी ख़त्म हो जाएगा. इसके लिए भी देश में गरीबों का होना जरुरी है. लेकिन इसका मतलब ऐसा भी नहीं है हमारी राजनितिक बिरादरी इस समस्या पर कुछ नहीं कर रही है. चुनावी रैलियों और सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए लोगों को पैसे देकर लाने की परिपाटी भी तो रोजगार प्रदान करने का एक प्रयास ही माना जाना चाहिए. क्या पता ऐसे प्रयासों से ही वर्ल्ड बैंक के गरीबों के ग्राफ में हम नीचे अपना स्थान बना सकें...

Monday 25 August 2008

इस बार के नाटक का टॉपिक क्या हो...

गाँव में सालाना नाटक के मंचन का दिन नजदीक आता जा रहा है। हर साल नाटक मंडली में सक्रिय रहने वाले लोगों को इस बार कोई मुद्दा ही नहीं सूझ रहा है। सूझता भी कैसे, कल ही के अखबार में सरकार का बयान पढ़ा था कि इस बार विपक्ष के पास कोई मुद्दा ही नहीं है। जाहिर है जब विपक्ष के पास मुद्दा ही नहीं है तो सत्ता पक्ष के पास मुद्दे कहाँ से होंगे। सत्ता पक्ष तो वैसे भी हमेशा मुद्दाविहीन होता है। इस मुद्दाविहीन माहौल में उम्मीद की किरण तलाशने के लिए शाम को गाँव के चौपाल पर बैठक बुलाई गई। शाम को जल्दी ही सब तैयारी में लग गए, आख़िर अपने लिए एक अच्छा रोल झटकना था। कोई भी तैयारी में कमी नहीं रहने देना चाहता था। तैयारी भी ऐसी कि संचालक मंडल के सदस्य इम्प्रेस होकर उनका मनचाहा रोल देने के लिए हामी भर दे।

चौपाल सजी। बीच में बुधुवा काका आसान लगाये बैठे। मंडली के सबसे वरिष्ठ सदस्य होने के नाते ये स्थान उनके लिए पक्का है। भले ही १० सालों से बुधुवा काका स्टेज पर नहीं दिखे हो लेकिन ऑफ़ स्टेज उनके अनुभव और मैनेजमेंट के सब कद्रदान है। अब रामलीला के दौरान हुई घटना को कौन भूल सकता है। राम-सीता के विवाह का सीन नजदीक आ रहा था और सीता का रोल कर रहा मंगल बाहर दर्शकों की भीड़ देखकर अचानक शरमा गया। शरम के मारे मंगल स्टेज पर आने को तैयार ही नहीं दिख रहा था। ऐन वक्त पर बुधुवा काका ने उबार लिया। मंगल के कान में जाने काका ने क्या मन्त्र फूंका। मंगल स्टेज पर भी पहुँचा और ऐसी अदाकारी दिखाई कि दर्शकों को जी भरकर तालियाँ पीटनी पड़ी।

हाँ तो हम बात मुद्दे की कर रहे थे। बुधुवा काका ने चौपाल पर बैठे बाकी साथियों पर एक नज़र दौडाई और कार्यक्रम शुरू किया। हां तो भाइयों इस बार गाँव में भारी बारिश और बाढ़ से बहुत तबाही हुई है और कल ही पंडित जी कह रहे थे कि देवी माई की नाराजगी के कारण ऐसा हुआ है। तो क्यूँ न इस बार का नाटक देवी माई को प्रसन्न करने के लिए खेला जाए। मंडली के बाकी सदस्यों ने हो-हो कर काका का सपोर्ट किया। लेकिन लक्ष्मण को ये प्रस्ताव बिल्कुल नहीं जंची। उसे लगा कि अगर नाटक देवी माई पर खेला जाएगा तो रोज अखबारों में से पढ़े हुए उसके राजनीतिक ज्ञान का क्या इस्तेमाल होगा। उसने फट से कह डाला- काका, मेरे विचार में इस बार कुर्सी के खेल पर नाटक खेलते हैं। सब अचानक लक्ष्मण की ओर देखने लगे। तवा गरम देख हथौरा मारने की बात सोच उसने कहा- काका इस बार देश-दुनिया में कई दिग्गजों की कुर्सियां चली गई और कई की जाने वाली है। क्यों न हम इसपर नाटक खेले। परमाणु करार के बवाल में झारखण्ड के मधु कोडा को कुर्सी से हाथ धोना पडा और गुमनामी में दिन काट रहे गुरूजी को अचानक कुर्सी हथियाने का मौका मिल गया। उधर पाकिस्तान में जनरल साहब की कुर्सी चली गई। १० सालों से मुल्क में मनमानी कर रहे जनरल साहब पर वक्त की मार ऐसी पड़ी कि कुर्सी तो गई ही मुल्क छोड़ने तक का मौका नहीं मिला। कहाँ कल तक सबको अन्दर किए जा रहे थे और भारत को गरियाया करते थे, आज उसी मुल्क में अपने ही घर में नजरबन्द पड़े हुए हैं। मुश् साहब के अलावा अपने बुश साहब की कुर्सी जाने का वक्त भी आ गया है। इराक़, अफगानिस्तान और ईरान को सुधारने में लगे हुए कब वक्त बीत गया पता ही नहीं चला। और अब इन सबकों न सुधार पाने की टीस मन में लिए बुश साहब इस बार व्हाइट हाउस को अलविदा कह देंगे। कुर्सी जाने का खतरा तो अपने सरदार मनमोहन सिंह जी पर भी आ गया था। वो तो किस्मत अच्छी थी कि विपदा टल गई. सबको खामोश देख लक्ष्मण ने आवाज ऊँची करते हुए कहा कि इस बार के नाटक के लिए ये आईडिया हिट साबित हो सकता है.

लक्ष्मण को बोलते देख रंगीला से नहीं रहा गया। फट से बोल उठा- का इ बोरिंग आईडिया सुन रहे हैं आपलोग। इस बार तो कजरारे-कजरारे टाइप कुछ रंगीन होना चाहिए। मन ही मन रंगीला सोच रहा था कि अगर इस बार स्टेज पर डांस करने का मौका मिल गया तो पूरे गाँव के साथ चमकी भी तो मेरे लटके-झटके देख सकेगी। क्या पता इस बार उसका दिल मुझ पर आ ही जाए। और मेरे स्टाइलिश बालों की कटिंग पर हर महीने खर्च होने वाला २० रुपया भी तो वसूल हो जाएगा। बाल लहराते हुए उसने अपना आईडिया सबको सुना डाला। सबके चेहरे चमक उठे लेकिन जैसे ही सवाल उठा कि आइटम गर्ल कौन बनेगा तो सब के मुंह पर ताला लग गया। रंगीला का आईडिया स्टेज पर आने के पहले ही फ्लॉप हो गया।

रंगीला को पस्त होते देख झब्बू की बांछे खिल उठी। आख़िर रंगीला ही तो गाँव की लड़कियों के लिए रेस में उसे टक्कर देता है। लेकिन झब्बू अपनी निशानेबाजी के लिए पूरे गाँव में मशहूर है। आम के पेड़ पर से आम तोड़ने में शायद ही उसके किसी ढेले का निशाना फेल होता है। ओलम्पिक के समय से तो लोग उसे गाँव के अभिनव बिंद्रा के नाम से पुकारने लगे हैं। झब्बू भी इधर कुछ दिनों से मैडल जैसा कुछ गले में लटका कर घुमने लगा है। उसका सपना है कि आस-पास के गाँव में कभी कोई ढेलेबाजी का चैंपियनशिप हो तो वो गोल्ड मैडल जीत कर लाये और तब असली मैडल गले में लटका कर घूमेगा। तभी चमकी को इम्प्रेस कर रंगीला को पछाडा जा सकेगा। झब्बू ने ओलम्पिक पर नाटक का प्रस्ताव रखा। लेकिन राम्बुझावन बीच में बोल उठा- भाई टीवी हम भी देखते हैं। ओलम्पिक के आईडिया तक तो ठीक है लेकिन उदघाटन समारोह के लिए छोटे-छोटे कपड़े पहने बहुत सी लडकियां कहाँ से लोगे। सब फ़िर खामोश हो गए और झब्बू मन मसोस कर रह गया।

झब्बू के पीछे बैठा रामखेलावन अलग ही दुनिया में खोया हुआ था। उसकी आंखों में इस बार गाँव में आई बाढ़ का सीन तैर रहा था। बीमार माँ-बाप और नन्हे भाई-बहनों को लेकर पानी से भरे अपने घर को छोड़कर उसे ४० दिन तक गाँव के नहर पर रहना पडा था। पहली बार इस बार उसे श्यामू काका के साथ नाव पर चढ़ने का भी मौका मिला था। और सबसे ज्यादा मजा तो उसे तब आया था जब खाना गिराने वाला हेलीकाप्टर ऊपर मंडरा रहा था। शायद पहली बार आकाश में उड़ते हुए हेलीकाप्टर को उसने इतने करीब देखा था। लेकिन तब उसे इस बात का होश कहाँ था। ऊपर से गिरते हुए खाने के पाकेटों को लुटने के लिए उसे हमेशा बापू की शाबाशी मिलती थी। आगे-पीछे भागते लोगों को धकिया कर २ पाकेट खाना तो वो आसानी से लूट लाता था. रामखेलावन के मन में आया कि बाढ़ पर नाटक का आईडिया काका को सुना दे लेकिन लक्ष्मण, रंगीला और झब्बू के रंगारंग आईडिया को फ्लोप होते देखकर अपने आईडिया को वह मन में ही दबा गया. फ़िर बाढ़ वाले दिन का वो पल तो वो कभी भूल ही नहीं सकता है. कैसे घुमने आए नेताजी ने उसके सर पर हाथ फेरा था. रामखेलावन ये तो नहीं जानता था कि ये नेता जी कौन हैं और उनका काम क्या है. पूछने पर श्यामू चाचा ने बस इतना ही कहा कि नेता जी बहुत बड़े आदमी हैं और पास के ही गाँव के हैं. लेकिन हम लोगों के कल्याण के लिए इन दिनों दिल्ली में रहने लगे हैं. इस काम के लिए सरकार ने उन्हें दिल्ली में बड़ा सा बंगला दिया है और ऊपर उड़ने वाले हवाई जहाज से ही ये आते जाते हैं. रामखेलावन ने हवाई जहाज तो देखा था लेकिन दिल्ली कभी नहीं देखा. उसे लगा जैसे उसके पास रहने के लिए उसका अपना घर है वैसे ही नेताजी के पास दिल्ली होगी। चौपाल पर क्या चल रहा था इससे रामखेलावन को कोई मतलब नहीं रह गया. वो अपनी पुरानी यादों में खो गया. झब्बू और रंगीला की तरह उसका कोई सपना भी नहीं था. उसके ख्यालों में बाढ़ का पानी और उसमें डूबते-उतराते उसके अपने घर का सामान तैरने लगा। उसके सपनों में नहर पर जमा इत्ते सारे लोग और चारो ओर पानी का अथाह समंदर और भी जाने क्या-क्या घुमड़ने लगा...

Saturday 23 August 2008

बिहारी होने का मतलब कोई कुछ भी कहेगा क्या...

गोवा के गृह मंत्री रवि नाईक का एक बयान इन दिनों चर्चा में है. महाराष्ट्र के राज ठाकरे की तरह जब उन्हें चर्चा में आना था तो उन्होंने एक बयान दे डाला. अब बात थी कि बयान किस मसले पर दिया जाए. जाहीर था कि सबसे आसान निशाना बिहार को बनाया जा सकता था. मौका भी उन्हें मिल गया. पटना से गोवा की राजधानी पणजी जाने वाली नई प्रस्तावित रेल गाड़ी का मसला उठा उन्होंने बयान दे डाला कि इस रेल के चलने से बिहार से बड़ी संख्या में भिखारी गोवा आने लगेंगे. उन्हें मालुम था कि ये ऐसा मसला है जिसपर उन्हें स्थानीय लोगों और तमाशबीनों की वाहवाही मिलेगी. अब रवि नाइक ने अपने पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र से ही तो सबक लिया है. वहाँ जब भी किसी की राजनीति की धार भोथरी होती है तो उसे चमकाने के लिए सभी को बाहरी लोगों के विरोध का रास्ता दिखाई देता है. फ़िर चाहे बाला साहब ठाकरे हो या राज ठाकरे- सब ने इस मोहरे का जमकर इस्तेमाल किया है और इस खेल में सबसे आसान शिकार बिहार के लोग बनते है जो रोजी-रोटी के लिए देश के विभिन्न राज्यों में बड़ी संख्या में फैले हुए हैं और बिहारियों की यही खूबी उन्हें सबका निशाना बनाती है.

ऐसा नहीं है कि बिहारियों को केवल महाराष्ट्र और गोवा में ही ऐसे भेदभाव का शिकार होना पड़ता है. बल्कि राजधानी दिल्ली हो, पश्चिम बंगाल हो, पंजाब हो या फ़िर देश का कोई भी हिस्सा सभी जगह बिहार के लोग रोजगार के लिए एक खतरे के रूप में देखे जाने लगे हैं और स्थानीय लोगों का यही डर वहां ने नेताओं के लिए भुनाने लायक मसाला बन जाता है. पंजाब, दिल्ली जैसे जगहों पे तो हालत ऐसी है कि अन्य किसी राज्य का रिक्शा चालाक तक आसानी से किसी भी हंसने लायक बात को बिहार से जोड़कर दांत निपोरने की आदत बना चुका है. राजधानी दिल्ली के बसों में काम करने वाले खलासी तक किसी भी मजदूर से दिखने वाले आदमी को बात-बात पर बिहारी कहने से नहीं चुकता. वे इसका इस्तेमाल ऐसे करते हैं जैसे कोई गाली दे रहे हों. भले ही जिसे वे कह रहे हैं वे किसी भी राज्य से हो लेकिन हर मजदूर दिखने वाला आदमी उसे बिहारी दीखता है. भले ही उसकी ख़ुद की हालत उस सामने वाले से ज्यादा ख़राब हो.

मैं पिछले ४ सालों से देश की राजधानी दिल्ली में रह रहा हूँ. मैं यहाँ जब नया-नया आया था तब ये चीजे मुझे भी बिचलित करती थी. यहाँ जब भी कोई अपराध होता था तब लोग इसे सीधे बिहार से जोड़ देते थे, चाहे मामूली चोरी हो या फ़िर हत्या तक का मामला. लेकिन अब मेरा नजरिया बदल चुका है. इन सालों में मैंने इतने मामले होते हुए यहाँ देखे हैं और उनमे अन्य राज्य के लोगों कि संलिप्तता देखकर लगता है कि ये सब कुछ लोगों की मानसिकता का दोष है जो वो किसी भी अपराधी को बिहार से ही जोड़कर देखते हैं. कुछ चर्चित मामले जैसे कि नॉएडा का आरुशी-हेमराज हत्याकांड, निठारी-हत्याकांड, मुंबई का नीरज ग्रोवर हत्याकांड जैसे मामलों में एक भी आरोपी को लोग बिहार से नहीं जोड़ सके और ये सारे लोग वैसे राज्यों से रहे जिन्हें अपने होने पे बहुत गर्व है. इन राज्यों के कुछ लोग अपनी कुंठा में हमेशा बिहार को ग़लत चीजों से जोड़कर देखने की आदत बना चुके हैं.

इतना ही नहीं जिस गोवा के गृहमंत्री का ये बयान आया है उसी गोवा में अब से कुछ महीने पहले एक ब्रिटिश किशोरी पर्यटक की हत्या कर दी गई. इस मामले में पता नहीं नशा और जाने किन-किन बुराइयों की चर्चा हुई. पर्यटन के नाम पर चमक-दमक में लिपटे गोवा के समंदर किनारे के इन इलाकों की सच्चाई भी इस मामले में खुलकर लोगों के सामने आ गई. देश में मौजूद हर बुराई के लिए बिहार जैसे राज्यों को दोष देने वाले बड़े शहर अगर अपने अगड़े होने पर गर्व करते हों तो वहां की सच्चाई इस पर सवाल खड़ा करती है. अब राजधानी दिल्ली के अखबारों में रोज ही ख़बर छपती रहती है कि २ करोड़ की हेरोइन के साथ इतने लोग पकड़े गए तो ३ करोड़ के चरस के साथ इतने लोग गिरफ्तार किए गए. ऐसी खबरें यहाँ की अखबारों में रोज ही छपती है. ये तो बस उतना ही होता है जितना पकड़ा जाता है इससे भी जाने कई सौ गुना ज्यादा माल तो पकड़ में ही नहीं आ पाता होगा. अब ये बताइए कि ये सारा गाजा, चरस, अफीम कौन खाता होगा. अब इसके लिए किसे दोषी कहा जाए. इन सब चीजों से इन बड़े कहे जाने वाले राज्यों का सर शर्म से नहीं झुकता.

उन्हें तो परेशानी इस बात से होती है कि बिहार से अगर सीधी रेल चलने लगेगी तो वहां से भिखारी ज्यादा संख्या में आने लगेंगे. अगर बिहार में ये भिखारी ज्यादा होते हैं तो देश के अन्य इलाकों में कौन सी हालत ठीक है. दिल्ली में सरकार के आंकडों पर गौर करे तो यहाँ की सड़कों और चौराहों पर ७५,००० भिखारी हैं. ऐसी ही हालत इन सभी राज्यों और शहरों में भी है. अब इस बात का फ़ैसला कैसे हो कि कितने किस राज्य से आए हैं. क्योंकि यहाँ तो सभी राज्यों से सीधी ट्रेन आती है...

Sunday 17 August 2008

आखिरकार भगत सिंह को संसद परिसर में मिली जगह!

देश की आजादी की ६२वे वर्षगाँठ के अवसर पर आज़ाद हवा में साँस ले रहे हर भारतीय के लिए एक ख़बर सुकून देने वाली रही। इन्कलाब जिंदाबाद के नारे के साथ देश के लिए महज २३ साल की उम्र में फांसी पर चढ़ जाने वाले वीर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा संसद भवन परिषद् में लगाई गई। भगत सिंह देश से मिलने वाले इस सम्मान के हकदार थे लेकिन इतने साल बाद भी देश के इस वीर सपूत को ये सम्मान नहीं दिया जा सका था। सरकार का ये कदम वाकई स्वागत योग्य है। इसके आगे भी इस देश के इस बहादुर बेटे को भारत रत्न जैसे सम्मान मिलने चाहिए.

आजादी की वर्षगाँठ के इस अवसर पर पत्रकार कुलदीप नैयर की भगत सिंह पर लिखी किताब "विदाउट फीयर-द लाइफ एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह" का विमोचन भी हुआ। इसमें देश की आजादी और लोगों की आजादी के लिए चल रही लड़ाई में आवाज उठाने के लिए भगत सिंह द्वारा अपनाए गए रास्ते पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है. विमोचन के अवसर पर लेखक ने कहा कि भगत सिंह हिंसा में विश्वास नहीं करते थे और विधानसभा में खाली जगह पर बम फेंककर उन्होंने ये सिद्ध कर दिया. बल्कि भगत सिंह का विश्वास था एकजुट भारत में- जो साम्प्रदायिकता और तमाम तरह के भेदभाव से मुक्त हो. और जहाँ व्यवस्था का काम गरीब और जरुरतमंदों के लिए काम करना हो.

बाकी चीजे तो आज के अवसरवादी युग में सम्भव नहीं लग रहा है लेकिन कम से कम इस शहीद को देश के लिए किए गए उसके त्याग और बलिदान के लिए सम्मान मिला यही बड़ी बात है. भगत सिंह ने जो किया सभी के लिए ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं है. २३ साल की उम्र में जब युवा तमाम तरह की फंतासी में डूबे रहते हैं ऐसे में इस वीर ने जान-बूझकर विधानसभा में बम फेंका ताकि अंग्रेजी प्रशासन और देश तक अपनी बात पहुचाने के लिए उसे अदालत का मंच मिल जाए. अंग्रेजी शासन ने जब भगत को फांसी पर चढाया तब भी हँसते-हँसते ये वीर फांसी के फंदे पर झूल गया. ...ऐसे वीर को शत-शत नमन....

Friday 15 August 2008

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे...

देश भर में आज जश्न मनाया गया. स्वाधीन होने(?) की ६२वी बरसी पर हम कितने खुश हैं इसका अंदाजा पिछले कुछ दिनों से लगने लगा था. बाज़ार में सजे तिरंगे, रेडियो और टेलीवीजन पर देशभक्ति के गाने और फ़िर अचानक १४ अगस्त को जब सारे टीवी चैनलों के लोगो(प्रतीक) तिरंगे के रंग में रंग गए तो अपने स्वाधीन होने पर काफ़ी गुमान सा होने लगा. इसी गुमान में आज के अखबार को देखकर एक खुशनुमा सुबह की उम्मीद बंधी. पहले पन्ने से ही हर तरफ़ तिरंगा ही तिरंगा दिख रहा था. विभिन्न पन्नो पर विभिन्न सरकारी मंत्रालयों और दलों द्वारा स्वाधीनता दिवस के लिए बधाई संदेश पुते थे. बधाई संदेश बड़े-बड़े अक्षरों में और तिरंगे की बड़ी-बड़ी तस्वीरों के साथ छपे थे और उससे भी बड़े-बड़े विकास के दावे भी किए गए थे. आर्थिक-सामाजिक और पता नहीं अभूतपूर्व विकास के और भी कितनी बड़ी-बड़ी उपलब्धियों के लिए बधाईयाँ दी गई थी. राज्य सरकारों के भी बधाई संदेश थे और राजनीतिक दलों ने भी अपने-अपने बधाई संदेशों को अखबारों में जगह दिलवाने में कामयाबी पाई थी.

स्वतंत्रता दिवस के इन इश्तहारों से हटकर नज़र जब ख़बरों पर गई तो ये गुमान कम होता हुआ लगा. ये हैरान करने वाली बात थी इतने खुशनुमा माहौल में ये सब भी साथ-साथ चल रहा है. दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा में उदोग्यों की स्थापना के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसान ख़बरों में थे. किसानों ने अपनी जमीन की उचित कीमतों के लिए आवाज उठाई थी और इसके लिए उन्हें व्यवस्था से लड़नी पड़ी. पुलिस से हुई मुठभेड़ में ६ लोग मारे गए. घटनास्थल पर पहुंचकर राजनीति चमकाने के लिए नेताओं की लाइने लगी थी. इलाके को अर्द्धसैनिक बालों ने घेर लिया था और तमाम नेता विरोध जताने वहां पहुँच रहे है और सुरक्षाकर्मियों द्वारा रोक दिए जाने के बाद वापस लौट जा रहे हैं. दिल्ली से सटे होने के कारण नेता बड़ी संख्या में उधर पहुँच रहे हैं. मेरे विचार में उन्हें वापस कर सुरक्षाकर्मियों ने ठीक ही किया होगा. आख़िर उन्हें १५ अगस्त के कई कार्यक्रमों में भाग लेना है. इससे उनकी उपस्थिति भी दर्ज हो गई और आजादी के जश्न में जाने की फुर्सत भी मिल गई.

दूसरी ख़बर जम्मू-कश्मीर से आई थी. अमरनाथ मसले पर चल रहा विरोध बदस्तूर जारी है. मरने वालों की संख्या दो दर्जन तक पहुँच गई है. कोई भी पक्ष पीछे हटने को तैयार नही है. पूरे राज्य में कर्फु जैसे हालात है और राष्ट्रवादी तत्वों(?) ने घोषणा की है कि किसी भी कीमत पर वे झंदतोलन करेंगी. इसके लिए कई जगहों पर कार्यक्रम रखे गए हैं.

स्वाधीनता दिवस के जश्न के लिए राजधानी दिल्ली में अभूतपूर्व सुरक्षा कि खबरें भी थी. लालकिले के सामने खड़े मुस्तैद जवान की फोटो के साथ ख़बर की हेडिंग छपी थी- जमीन से लेकर आसमान तक पर नज़र! हर साल की तरह राष्ट्रपति का देश की जनता के नाम संदेश भी छपा था- आतंकी डिगा नहीं पायेंगे हमारा हौसला.

आजादी के जश्न पर सबसे बड़ा आकर्षण था अखबार का कार्टून कोना. उसमें एक तस्वीर बनी हुई थी जिसमें हथियारों के साथ मुस्तैद सुरक्षाकर्मी चारो ओर से घेरे हुए थे, चौकन्ने थे. उनके बीच से एक हाथ ऊपर की ओर उठा हुआ दिखाई दे रहा था. हाथ में तिरंगा था और सुरक्षाकर्मियों के बीच से केवल हाथ और तिरंगा ही दिख रहा था. ऊपर संदेश लिखा हुआ था-- हमारी आजादी अमर रहे...!

बंदूकों के साए में तिरंगा...

टीवी के परदे पर
हाथों में तिरंगा लेकर देशभक्ति के गाने गाते बच्चे
लुभाते हैं।
बढाते हैं वे देश की शान..
टीवी कैमरों के लिए भी अच्छा मसाला है ये
नमक-तेल के...
विज्ञापनों के साथ मिलाकर बेचने लायक मसाला!

लेकिन साथ ही टीवी के परदे पर
आतंक और हिंसा की खबरे भी है..
हर साल की तरह आतंकी हमलों की
चेतावनी भी...
रह-रह कर दे रही है दस्तक
टीवी के परदे पर...!

हर भारतीय के लिए शान की बात है
तिरंगे के साथ चलना...
देश की आजादी(?) के करीब ६ दशकों बाद भी
सब के दिलों में है
तिरंगे को हाथ में लेकर चलने का सपना
एक और आजादी की ललक भी
जो दिला सके उन्हें इस डर से मुक्ति
लेकिन सब इतने खुशकिस्मत नहीं हैं
और नहीं फहरा सकता कोई
तिरंगा
बंदूकों के साए में
इस डर में मर-मर के जी रहे हैं सभी
कोई भी शहर और राज्य नहीं है
इस डर से आज़ाद॥!

टीवी के परदे तक तो ठीक है
लेकिन कश्मीर से पूर्वोतर के राज्यों तक
या फ़िर बेंगलोर से अहमदाबाद तक की
सड़के...
नहीं हैं इस डर से मुक्त
और शायद व्यवस्था भी
नहीं दिला पा रहा है भरोसा
इस डर से मुक्त होकर जी पाने का...!

Thursday 14 August 2008

कई रोगों की एक दवा है...चक्काजाम!

भारत में सड़कों की बदहाली का रोना सब रोते रहते हैं लेकिन हमारी राजनीतिक बिरादरी ने इसका हल निकल लिया है। सडको में गड्डे हैं और लोगों को आने-जाने में बड़ी परेशानी होती है इसके लिए क्या करना चाहिए? विशेषज्ञों से पूछने जाइये तो करोड़ों का खर्च बता देंगे तो चलिए इसके लिए किसी देशी नुस्खे को आजमाते हैं। अचानक आज अखबार पढ़ते हुए ये विचार आए हमने सोचा क्यूँ न आप लोगों के सामने भी रक्खा जाए क्या पता देश की तक़दीर और तदवीर बदलने वाली खोज साबित हो जाए। हुआ यू कि आज के अखबार में वीएचपी के देशव्यापी चक्काजाम कि ख़बर छपी थी और उसे पढ़ते हुए मुझे ऐसे लगा कि मेरे ज्ञान चक्छु खुल गए हैं। दरअसल ख़बर छपी थी कि अमरनाथ मसले पर चक्काजाम है, कश्मीर की सदके बंद है और वहां लोगों को खाने के समान नहीं मिल रहे हैं। सही भी है अब खाने वाला सामान है तो सड़क मार्ग से ही तो पहुचेगा, अब प्लेन से गोभी-भिन्डी ले जाना तो आसान नहीं है वरना प्लेन से ले जाने पर भिन्डी की कीमत होगी सोने जैसा हो जायेगा। तब १० ग्राम भिन्डी-लौकी के लिए हजारों की कीमत चुकानी पड़ेगी। तब सोचिये इन्फ्लेशन की क्या हालत होगी। फ़िर सोचिये अगर सरकार पर दबाव बनाना है तो विपक्ष के लिए चक्काजाम कितना कारगर हथियार साबित हो सकता है। ऐसा नहीं है कि ये केवल वोपक्ष के लिए फायदे का सौदा है बल्कि सरकार के लिए भी ये नाम कमाने का अच्छा मौका साबित हो सकता है। सब्जियाँ महँगी होंगी तो सरकार उसपर सब्सिडी देकर जनता की वाहवाही भी लूट सकती है.

सड़कों के मरम्मत और निर्माण कार्य पर करोड़ों फूंकने वाले भारत देश में अगर सरकार चक्काजाम को एक राष्ट्रीय पर्व घोषित कर दे तो कितना फायदा होगा। हमारे देश में वैसे भी बात-बात पर चक्काजाम होते रहता है और इतने सारे सम्प्रदाय, दल, संगठन और संघ चक्काजाम करने के दावेदार हैं कि आधा साल तो चक्काजाम में ही बात जायेगा। रही आधे साल कि बात तो उसका भी कुछ जुगाड़ हो ही जाएगा। अब आप सोच रहे होंगे कि चक्काजाम से देश की अर्थव्यवस्था को कैसे फायदा होगा। बात सीधी सी है भाई- अब चक्काजाम होगा तो आधे लोग घर से बाहर ही नहीं निकल पाएंगे, गाड़ियों को बाहर निकालने का तो सवाल ही नहीं है। अब कौन अपनी म्हणत की कमाई से खरीदी हुई गाड़ी को भीड़ का शिकार होते देखना चाहेगा। फ़िर तो आधे साल न लोग सड़कों पर होंगे और ना गाडियां। जब लोग ही घर से बाहर नही निकलेंगे तो सड़के टूटेंगी कैसे। फ़िर हर साल के बजट में सड़कों के लिए जाने वाला करोड़ों रुपया तो बचेगा ही॥

लोग सड़क पर कम आयेंगे तो रोड रेज जैसे पाप भी नहीं होंगे और छेड़छाड़ का तो सवाल ही नहीं उठता। और ऐसे वक्त पर सामाजिक ठेकेदार लोग तो सड़क पर रहेंगे ही ताकि कोई चक्काजाम जैसे महापर्व का उल्लंघन कर सड़क पर आने का पाप न करे। जब लोग एक-दूसरे के आमने-सामने नहीं आयेंगे तो लडाइयां नहीं होंगी और इससे सामाजिक सौहार्द भी बना रहेगा। इधर राजधानी दिल्ली में इन दिनों बाईकर्स गैंग का आतंक सड़कों पर छाया हुआ है। अगर चक्काजाम हुआ तो ये बाईकर्स गैंग के भाई लोगों सड़कों पर आ ही नही सकेंगे और इससे लोगों को मुक्ति मिल जायेगी॥

इससे भी ज्यादा फायदा चक्काजाम का सेहत के लिए हो सकता है। बल्कि ये तो कई अस्पतालों और सेहत चमकाने वाले बाबा लोगों की दूकान भी बंद करा सकता है। अब जब सड़क से चक्का गायब हो जायेगा तो लोगों पैदल ही तो चलेंगे। फ़िर कई रोगों से उन्हें अपने-आप मुक्ति मिल जायेगी। फ़िर तो देश में स्वास्थ्य मद पर खर्च हो रहा करोडो-अरबो रुपया बचने लगेगा। और जनता की सेहत चमकाने के लिया सुबह-सुबह जग कर टीवी पर मशक्कत करने वाले बाबा लोगों को भी इस मुसीबत से छुटकारा मिल जाएगा। अब अगर भारत के लोगों ने इस चक्काजाम को जल्द से जल्द सरकारी नीति में शामिल नहीं कराया तो पश्चिमी देशों की नजर इसपर पर जायेगी और वे इसका पेटेंट करा लेंगे। और इस अद्भुत खोज के लिए कोई नोबल पुरस्कार ले जाएगा...इसलिए कहता हूँ इसके पहले की कोई इस रामबाण को झटक ले हमें जल्द ही धरोहर को राष्ट्रीय नीति के रूप में अपना लेनी चाहिए...

Monday 11 August 2008

बंद लिफाफे में राजनीतिक वारिश...

" ९ अगस्त को लखनऊ में बसपा की राष्ट्रिय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी सुप्रीमो मायावती ने सबको चौंका दिया. पार्टी सुप्रीमो घोषणा कर दी कि उन्होंने बसपा का उतराधिकारी खोज निकाला है. वहा उपस्थित सभी लोग हैरानी से इधर-उधर देखने लगें. उन्हें उम्मीद थी कि वो वारिश सुप्रीमो के इर्द-गिर्द ही कही होगा. लोगों कि नजरें सुप्रीमो पद के उस दावेदार को ढूंढने लगी. लेकिन तभी सुप्रीमो के खुलासे ने सबको चौका दिया. उन्होंने ऐलान किया कि अपने वारिश का नाम उन्होंने बंद लिफाफे में दो गणमान्य लोगो को सौप दिया है जो उस समय लिफाफा खोलकर घोषणा करेंगे जब मैं नहीं रहूंगी. वहां मौजूद सभी लोगों की निगाहें उस दावेदार को ढूंढने लगी की कौन होगा और कैसा होगा वो. लोगों की बेकरारी के जवाब में सुप्रीमो ने बस इतना बताया- वो एक जाती विशेष का है और मेरी उम्र से १८-२० साल छोटा है. सबकी निगाहें दौड़ने लगी लेकिन ऐसा कोई नहीं दिखा और राज-राज ही रह गया. "

वैसे तो देखने में ये बिल्कुल फिल्मी कहानी जैसी लगती है. ठीक उस फ़िल्म की कहानी की तरह जिसमे डॉन या सुप्रीमो नाम का आदमी सबसे बीच में और ऊपर की ओर बने सिहासन पर विराजमान होता है और उसके दरबार में लगे बाकी कुर्सियों पर बाकी माफिया लोग आसन लगाये होते हैं. बात-बात में अचानक सुप्रीमो का उतराधिकारी बनने के लिए उसके दो शागिर्द आपस में उलझ जाते है और ऐसे में गुस्से से आगबबूला हो सुप्रीमो खड़ा होता है और घोषणा करता है कि उसने अपना उतराधिकारी चुन लिया है. ऐसे सीन दर्शकों को बहुत पसंद आते हैं. लेकिन लखनऊ वाले सीन में ऐसा बिल्कुल नहीं था. वहां लोगों कि पसंद कोई मायने नहीं रखती थी. ये भारत का लोकतंत्र है और यहाँ राजनीतिक वारिश अक्सर घोषित होते हैं न कि चुने जाते हैं.

हमारे यहाँ राजतन्त्र से लोकतंत्र में व्यवस्था तो परिवर्तित हो गई लेकिन उअतार्धिकारी चुनने का तरीका नहीं बदल सका. यही कारण है कि लगभग सभी दल आज भी पारिवारिक प्रतिबद्धता इर्द-गिर्द अपनी राजनीति चमकाते रहे हैं. इससे आगे जब छोटे और छेत्रिय दलों का दौर आया तब तो पार्टियाँ अधिकांश व्यक्तिगत रूप से बनने लगी. अगर आप पार्टी के एकाधिकार वाले परिवार के प्रति वफादार है तो ठीक वरना अपनी अलग पार्टी बना सकते हैं. स्थिति ऐसी बनती जा रही है कि कल को हर नेता का एक अपना दल होगा और वे केवल सरकार बनाने और गिराने के वक्त किसी गठबंधन के अन्दर होंगे. ये पार्टी भी उनकी होगी और उसका वारिश भी उनके अपने घर से होगा. बनाने कि ये प्रक्रिया अभी तक राज्य स्तर और छेत्र स्तर तक ही सीमित था लेकिन अब लग रहा है कि पार्टियाँ जिला और पंचायत लेवल पर भी बनने लगेंगी और तब सारे लोग अपने-अपने वारिश का नाम ख़ुद तय कर सकेंगे. तभी सही मायनों में हमारा देश लोकतांत्रिक कहला पायेगी.

Thursday 7 August 2008

अमरनाथ मामला श्रद्धा से आगे भी कुछ है!

जम्मू जल रहा है...ख़बर लिखने के लिहाज से ये लाइन बिल्कुल ठीक है, राजनीति करने वाले और इसकी दूकान चलाने वालों के लिए भी ये काफ़ी मजेदार कहानी है लेकिन जम्मू के लोग इसे किस रूप में लें। क्या इस ख़बर को सुनकर उनके चेहरे पर मुस्कान उभर आती होगी। दिल्ली में बैठकर इसका अनुमान शायद नहीं लगाया जा सकता और ना ही हिंसा के माहौल में जी रहे इन लोगों की पीडा को समझा जा सकता है। एक और बात ध्यान देने लायक है कि क्यूँ जम्मू के लोग अपने ही प्रशासन और अपने सैनिकों के ख़िलाफ़ लड़ने को खड़े हुए है। इससे बड़ी बात ये भी है कि क्यूँ इन लोगों को राज्य के बाहर के लोगों का भी समर्थन मिल रहा है। और इन सब से बड़ी बात की शासन में बैठे लोग इसे रोकने और अपने लोगों को बचाने के लिए क्या कर पाये और समय रहते इसे क्यूँ नहीं रोका जा सका...

सप्ताह भर से ज्यादा हो गया, जम्मू में अपने ही राज्य के बड़े हिस्से कश्मीर के प्रति गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है। सारा विवाद हिंदू धर्म के पवित्र तीर्थ अमरनाथ धाम जाने वाले यात्रियों की सुविधा बढ़ाने के लिए ४० एकड़ जमीन देने के फैसले से पैदा हुआ। इस विवाद का सम्बन्ध कश्मीर के इतिहास से भी है और भारत की राजनीति से भी- जिसमें छेत्रवाद और सम्प्रदायवाद हमेशा से हावी रहा है। राज्य सरकार ने तीर्थयात्रियों के लिए जमीन अलोट की और राजनीति के लिए उसका विरोध शुरू हुआ। सरकार दबाव में आई और उसपर राजनीति हावी हो गई। सरकार गिर गई। राज्यपाल ने फ़ैसला बदल दिया। इसका विरोध करने वालों ने कहा की केन्द्र के दबाव में आ गए।

अब शुरू हुई असल राजनीति। कश्मीर के लोगों का कहना था शेष भारत से यहाँ आने वाले लोगों के लिए हमारी जमीन क्यूँ दी जाए। जमू के बहुसंख्यक हिंदू इससे कुछ अलग सोचते थे। उनका कहना था ये जमीन हमारी भी है और इसे हमारे धर्मस्थल को देना ही होगा। लोग सड़कों पर आए, पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा। लोग अपने धर्म के लिए सड़कों पर आए थे सो हटने वाले कहाँ थे और यहीं कारण है की कर्फु लगाकर भी प्रशासन उन्हें घर के अन्दर नहीं भेज पा रहा है। इस लड़ाई की आग दिल्ली तक भी पहुची, पहुचनी भी थी। मामला देश के दो बड़े सम्प्रदायों से सम्बंधित था। सरकार के लिए दुविधा थी-किधर जाए। किसी एक पक्ष का साथ दिया तो दुसरे की नाराजगी झेलनी पड़ेगी। मामला संविधान से भी संबध था इसलिए भी छेड़-छाड़ सम्भव नहीं था....

इस सारी रस्सा-कस्सी के बावजूद मामले का कोई हल निकलता नजर नहीं आता। कश्मीर के लोग इस बात के लिए लड़ रहे हैं की उनकी जमीन कैसे बाहर के लोगों के दी जायेगी। जम्मू के लोगों के लिए मसला ये है की कैसे कश्मीर के सामने राज्य में वे अपनी बात सामने रख पाएंगे। शेष भारत के लोगोंके लिए मसला राष्ट्रवाद का भी है। अपने देश में अपने धर्मस्थल की सुविधा बढ़ाने के लिए अगर जमीन नहीं दी जायेगी तो इसका असर आगे चलकर रास्ट्रीय हो सकता है....कई पेंच हैं इस मामले में...जम्मू और देश के बाकी हिस्सों के लोग ये भी तर्क दे रहे है की अगर कश्मीर का जमीन बाकी देश इस्मेताल नहीं कर सकता तो बाकी देश का पैसा कश्मीर के विकास में क्यूँ लग्न चाहिए। अगर ये मसला हिन्दुओं और मुसलमानों का है तो लोगों का ये तर्क है की अगर अमरनाथ धाम को जमीन देना ग़लत है तो हज यात्रा के लिए सब्सिडी कहाँ तक उचित है.......न तो ये सवाल ख़त्म होने वाले हैं और न ही इसे उठाने वाले...ये ऐसा ही चलता रहेगा.