Monday 31 December 2007

काश मेरा जन्मदिन भी साल में कई-कई बार आता!

प्रेम और जन्मदिन में क्या संबंध है?
आप भी सोचियेगा कि क्या फालतू का सवाल मैं कर रहा हूँ। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन आधुनिक प्रेम में जन्मदिन का काफी महत्त्व है। आज-कल कई बार ऐसा होता है कि किसी दोस्त के बारे में एक साल के अन्दर कई बार उसके जन्मदिन के बारे में सुनने को मिल जाता है। पहले तो थोडी हैरत होती थी लेकिन अब इसमे कोई हैरानी नहीं होती। अब दोस्ती का मामला है भेद तो खोल नहीं सकता।

एक मेरे मित्र ने अप्रैल में एक बार जन्मदिन मनाई थी लेकिन अभी २-३ माह ही बीते थे कि बेचारे को एक दिन प्रेम हो गया। अब जो लड़की पसंद आई थी उसको इम्प्रेस करने के लिए उन्होने पार्टी देने कि सोची और कहा कि मेरा जन्मदिन पहली जनवरी को है। और इसी के साथ साहब ने अपनी नयी प्रेमिका को जन्मदिन मनाने के लिए पार्टी के लिए १ तारीख को दावत दे दी। मुझे पार्टी के लिए आमंत्रित करते हुए बताया गया कि बताना मत। अब मैं क्या कह सकता था। अगर मुझे ६ माह में सालाना जलसे की मिठाई खाने को मिले तो मुझे क्या हर्ज हो सकता था।

लेकिन मुझे सबसे ज्यादा हैरानी अपने मित्र महोदय के आत्मविश्वास से हुआ। उन्हें इस बात का पक्का यकीं था कि अगले साल पहली जनवरी से पहले इस महबूबा से छुटकारा मिल जायेगा। नहीं तो बेचारे ने इतना झूठ बोलने कि हिम्मत नहीं की होती। अब भईया हम तो साल में एक बार जन्मदिन मनाने का मौका मिलता नहीं २ बार-३ बार कहाँ से मनाता, आख़िर किसके लिए मनाता। ये सब बडे जिगर वालों का काम है जो प्यार को इस तरह से मैनेज करने का जिगर रखते हैं। वैसे भी प्यार कोई बच्चों का खेल नहीं।

भाजपा को फिर से याद आये रामजी!

रविवार ३० दिसम्बर को भाजपा के नेताओं के लिए काफी व्यस्त दिन रहा। एक दिन में दो बड़े आयोजन थे। हिमाचल में भाजपा की सरकार सत्ता में आई थी प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री पद कि शपथ लेनी थी वही दिल्ली में विश्व हिन्दू परिषद कि रैली थी जो राम सेतु के मसले पर बुलाई गई थी। पहले जब शिमला में मंच पर पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह नहीं दिखे तो लोगों को हैरत हुई कि अरे ये क्या हुआ. पार्टी का इतना बड़ा आयोजन और राजनाथ जी कैसे गायब हो सकते हैं। शिमला के मंच पर दिल्ली से आडवाणी जी और नकवी जी दिखे।

थोडी देर बाद जवाब खुद मिल गया। दिल्ली में विहिप की रैली के मंच पर बाक़ी के नेता दिख गए। राजनाथ सिंह जी के साथ मुरली मनोहर जोशी जी और सुषमा जी भी विहिप की रैली में मंच पर साधू-संतों की भीड़ में दिख गए। जोशी जी ने बाहर निकल कर मीडिया के बीच राम सेतु मसले पर केन्द्र की कांग्रेस सरकार को घेरने का प्रयास किया। राजनाथ जी की दिल्ली में उपस्थिती ये बता रही थी की हिमाचल में जीत की ख़ुशी मनाने से ज्यादा जरूरी पार्टी अध्यक्ष जी के लिए राम सेतु के मसले पर हो रही रैली थी। लेकिन काफी लोगों को दिल्ली के इस मंच पर मोदी जी को न देखकर निराशा हुई।

गुजरात के कुछ ऐसे लोगों से मेरी बात हुई जो विहिप से जुडे हुए है और काफी सक्रिय हैं। रैली में मोदी के न आने को लेकर उनमें कोई हैरानी नहीं थी। उनका कहना था की मोदी जी ने अपने काम के बदौलत सत्ता बरक़रार रखी है और दिल्ली रैली में मोदी के न आने को लेकर उनका कोई स्पष्ट विचार सामने नहीं आया। लेकिन राम सेतु के मसले ने बीजेपी को एक ऐसा मसला दे दिया है जिसे अगले चुनाव में बीजेपी राम मंदिर के मामले के बदले भुना सकती है और बीजेपी इस बात की गंभीरता को समझ रही है। इसी कारण राम सेतु पर कोई भी मौका बीजेपी गवाना नहीं चाहती। बीजेपी को ऐसा लगने लगा है कि जो पार्टियां अभी इसे हल्के में ले रही है आगे चलकर उन्हें इसका नुकसान हो सकता है। बीजेपी इसे ऐसे मौक़े के रुप में देख रही है जिस पर वह दक्षिण भारत के हिन्दुओं को भी अपने पक्ष में गोलबंद कर सकती है। अपने पक्ष में अचानक आये इस मौक़े को देखकर बीजेपी को फिर वो राम याद आ गए हैं जिन्हें १९९८ में सरकार बनाने के बाद उसने भुला दिया था।

Sunday 30 December 2007

न्यू ईयर पर बाज़ार में खूब बिक रहा है दिल!

न्यू ईयर पर बाज़ार में ग्रीटिंग कार्ड्स की धूम में दिल की खूब बिक्री हो रही है । कई कार्ड्स पर तो एक की बजाय कई-कई दिल छपे हुए है। किसी को उपहार देना हो बाज़ार में एक रूपये से लेकर मंहगे से महंगा ग्रीटिंग कार्ड है। लेकिन एक बात सब में समान है। सब में नए साल की शुभकामनाएं छपी है साथ में लगभग हर कार्ड में एक , दो या फिर ढेर सारे दिल लगे हुए है। आपको अब अगर किसी को दिल देना है तो अपना दिल जाया करने कि जरूरत ही क्या है, जाइये बाज़ार और खरीद lijiye एक सस्ता सा दिल और उसपर किसी शायरी कि किताब से एक अच्छी सी शायरी चुनकर अच्छी सी लिखावट में लिख डालिए और दे दीजिए अपने अजीज को अपना ये प्यारा सा दिल ।

इस दिल के कई फायदे हैं। अगर बाद में आपके अपने अजीज ने आपका दिल तोड़ दिया तो आपकी जिंदगी बर्बाद होने से भी बच जायेगी. और इस खेल में आपका खर्च भी बमुश्किल एक या दो रूपये का आयेगा। वैसे भी इस सस्ते दिल की आजकल के युवावों को काफी जरुरत है। अब उन्हें कईयों को अपना दिल देना पड़ता है। अब भाई असली दिल इतने कहाँ से आएंगे। वो तो केवल गानों में होता है कि दिल के टुकरे हजार हुए , कोई यहाँ गिरा- कोई वहाँ गिरा। अब असल में दिल के अगर कई हिस्से हुए तो न वो बेचारा किसी काम का रहेगा और न ही बेचारे का बेचारा दिल। वैसे अब अगर आपका अजीज आपसे काफी दूर है तो आपको अपना दिल भेजने के अब कई माध्यम मिल जायेंगे। इंटरनेट पर जाइये और ग्रीटिंग्स में से कोई अच्छा सा दिल वाला ग्रीटिंग चुनकर ई-मेल कर दीजिए। वैसे भी न हो तो मोबाइल पर एक दिल वाला ग्रीटिंग ही चिपका दीजिए। अब अपने अजीज को ख़त भेजने के लिए ना तो किसी कबूतर कि मिन्नत करनी है और ना ही डाकिये की चिरोरी । आधुनिकता ने प्रेमियों को कितनी सुविधाये दे दी है। वैसे नए साल पर दिल भेजने वालों को थोडा सा दिल वैलेंटाइन डे के लिए भी बचाना पड़ता है कारण कि अब प्रेमियों का ये पर्व भी अब ज्यादा दूर नहीं है। इसकी तैयारी तो अभी से ही शुरू करनी पड़ेगी ना।

Sunday 23 December 2007

विधायक, सांसद टाई-सूट में नज़र आएंगे!

ग्लोबलाइजेशन के बाद इधर अपने नेता जी लोगों के लिए विदेश यात्रा की संभावनाएं काफी बढ़ गयी है। तब से लेकर नेतागिरी के पेशे में आने वाले कुछ पढे-लिखे लोग हमेशा ये कोशिश करते रहे हैं कि जो नेता विदेश जाये उन्हें थोडा स्मार्ट बनाया जाये। अब चुकी ये बात तय नहीं है कि कौन विदेश जाएगा और कौन नहीं। इधर गठबंधन सरकारों के आने से पहली बार विधायक बने या फिर निर्दलीय विधायकों के विदेश जाने कि संभावनाए ज्यादा हो गई है। आख़िर सरकार चलाने की ज्यादा जिम्मेदारी अब उन्ही पर आ गई है। झारखण्ड इसका सबसे अच्छा उदाहर पेश कर रहा है। वहा तो किसी भी विधायक के लिए विदेश यात्रा बहुत ही आसान है, आख़िर निवेश लाने के लिए उनसे बेहतर विदेश यात्रा और कौन कर सकता है।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए झारखण्ड के सारे विधायक जल्द ही जींस, रंग-बिरंगी शर्टे और टोपी पहने दिखाई दे सकते हैं । झारखड विधानसभा के अध्यक्ष्र आलमगीर आलम विधानसभा में एक ड्रेस कोड लागू करने का मन बना चुके हैं। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और स्वतंत्र विधायक इंदर सिंह नामधारी द्वारा ड्रेस कोड का मुद्दा उठाए जाने के बाद आलम ने कहा है कि सभी पार्टियों के नेताओं और विधायकों के साथ बैठक कर ड्रेस कोड की जरूरत पर सहमति बनाई जाएगी। ठीक ऐसा प्रयास केन्द्रिया संसदीय कार्य मंत्री प्रिय रंजन दास मुंशी भी कर चुके हैं। उनका विचार था कि सभी सांसद सूट - में आया करे । लेकिन दरजी के नाम पर सहमति नहीं बन सकी और ये प्लान अभी पूरा नहीं हो पाया है। हम उम्मीद करते है कि जल्द ही ये भी होगा।

जाएँ या रहें- मोदी तो मोदी ही रहेंगें!

अब कुछ घंटों में गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणाम आने शुरू हो जायेंगे। पूरा देश इंतज़ार कर रहा है की क्या आयेगा परिणाम। इस चुनाव में सबसे ज्यादा नरेन्द्र मोदी का दांव पर लगा हुआ है। परिणाम कुछ भी हो मोदी ने आखिरी समय तक जिस आत्मविश्वास का परिचय दिया है भारत की जनता को अब आगे एक ऐसे ही प्रधानमंत्री कि जरूरत है। कार्यवाहक मुख्यमंत्री होते हुए भी राष्ट्रीय विकास आयोग कि दिल्ली में हुई बैठक में मोदी ने जिस आत्मविश्वास से देश से जुडे हुए मसलों पर प्रधानमंत्री और केन्द्र सरकार से नज़र मिलाकर बात की है देश में उससे बहुत अच्छा संकेत गया है। २१वी सदी के भारत और इसके सम्मान के बारे में सोचने वाले हर भारतीय के लिए अब मोदी एक प्रतीक बनते जा रहे हैं । इस चुनाव में मोदी का रास्ता रोकने के लिए उनकी पार्टी के अन्दर भी कई लोग खड़े हुए लेकिन ईससे मोदी का आत्मविश्वास नहीं डिगा और शायद मोदी कि यही छवि अब उन्हें गुजरात के अलावा पूरे देश में लोकप्रिय बनाती जा रही है। गुजरात में विपक्षी कांग्रेस तो मोदी के कद का कोई नेता भी नहीं दे सकी, मुद्दों कि बात ही छोड़ दीजिए।

रही विचारधारा कि बात तो अब मोदी ही अकेले ऐसे नेता दिख रहे है जो देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बन रहे आतंकवाद के खिलाफ खुलकर बोलने कि हिम्मत कर रहे है। बाक़ी तो सारे लोग जनता को या तो डराने का काम कर रहे है या फिर हमलों के बाद निंदा करने का। मोदी ने गुजरात में आतंकवाद पर लगाम लगा कर दिखाया है कि आतंकवाद को हराया जा सकता है, दबाया जा सकता है। जब पूरा देश आतंकवादियों से आजिज आ चुका होगा तब सभी मोदी की ओर ही देखेंगे।...

Thursday 20 December 2007

अब 'भारत' भी चलेगा कार पर!

१९९० के दशक के अंत में देश में ये डिजिटल डिवाईड को लेकर बहस बहुत तेज थी । लगभग हर बहस-मुबाहिसे में भारत और इंडिया को अलग कर देखने और दोनों के जीवन स्तर में अंतर पर बाहर एक फैशन जैसा हो गया था। इन दोनों दुनिया में फर्क कार पर चलने वाली आबादी तय करती थी। अर्थात जो कार पर चलते हों वो अगर और जो कार पर नहीं चलते वो देश भारत के लोग।

इधर जल्द ही इस बारे में टाटा कंपनी बड़ा बदलाव लाने वाली है। january २००८ में वह lakhtakiyaa कार के साथ बाज़ार में उतरने वाली है। जाहीर है कि यह एक ऐसी राशी है जिसे देश की बहुसंख्यक जनता या तो खुद के कार खरीदने पर खर्च कर सकती है या फिर सर्वजिंक रुप से चलने वाली कारों की सवारी कर सकती है। कल ही एक खबर आई थी कि टैक्सी एजेंटों कि निगाह टाटा के इस कार पर टिकी है। अगर ये कार उनकी अपेक्षावों पर खरी उतरती है तो जहीर है भारत कि अधिसंख्य आबादी कारों पर चलने लायक होगी। और फिर शहरी आबादी को कारो पर चलन के अलावा आगरा दिखने के लिए कोई और जुमला गढ़ना होगा.....................

सब्सिडी नहीं तो फिर आरक्षण क्यूँ!

सरकार का हाथ आम आदमी के साथ नारे वाली पार्टी कि सरकार है हमारे देश में। उस सरकार के मुखिया ने एक दिन कहा कि अब वक्त आ गया है कि किसानों को मिलने वाली सब्सिडी ख़त्म कर दी जाये। सरकार का कहना है कि इस से सरकार के ऊपर बोझ बहुत ज्यादा हो गया है और सही लोगों को इसका फायदा भी नहीं पहुंच रहा है। इसके कुछ दिन बाद ही उस सरकार ने देश के अल्पसंख्यकों के लिए पंचवर्षीय योजना मी से १५ फीसदी फंड एलौट कर दिया । सरकार को ये कोई बोझ नहीं लगा। अगर इस बात का कोई विरोध करे तो ये सरकार उसे सांप्रदायिक कहने से पीछे नहीं हटने वाली।

अब सरकार को ये भी सुनिश्चित करना चाहिऐ कि बाक़ी के बचे ८५ फीसदी पैसे से बने सड़क पर कोई अल्पसंख्यक नही चले, उस पैसे से हुए किसी काम का फायदा किसी अल्पसंख्यक को नहीं हो। अगर देश का बहुसंख्यक समुदाय इस तरह की माँग उठाने लगे तो इसमे बुराई क्या है। अगर १५ फीसदी पैसे पर अल्पसंख्यकों का अधिकार है तो बाक़ी के ८५ फीसदी पर बहुसंख्यकों का अधिकार भी तय होना चाहिऐ। सरकार का ये कदम देश को सांप्रदायिक अधर पर बांटने वाला है। अब ये भी तय होना चाहिऐ कि इस पैसे का ऐसे लोगों को भी फायदा नहीं होना चाहिऐ जो देश के खिलाफ काम करने वाली शक्तियों से मिले हुए हों। आतंकी हमलों को रोक पाने में असफल रही इस सरकार को ये भी तय करना चाहिऐ।

Wednesday 12 December 2007

नंदीग्राम में वामपंथ का पंथ गायब!

१९६० के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सल बारी में हुए वामपंथी आन्दोलन ने वाम पंथ के लिए एक आईने का काम किया था। उसने समाज को ये दिखाया था कि भारत का वामपंथ अपने पंथ से हट रहा है। उस दौर में बंगाल में मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों ने मध्य वर्ग को विस्वास में लेकर, विशेषकर ग्रामीण आबादी को भरोसे में लेकर पश्चिम बंगाल में सरकार बनाई थी. लेकिन आज नंदीग्राम में चल रही लड़ाई भारत के वामपंथी विचारधारा से ताल्लुक रखने हर आदमी के लिए अहम् है। आज वहाँ चल रही लड़ाई में किसान और आम आदमी जमीन अधिग्रहण के खिलाफ खड़ा है और जो वामपंथी सरकार और वामपंथी पार्टी (सत्ताधारी) है वो उसके खिलाफ लड़ाई के मैदान में है। इस लड़ाई में माकपा को छोड़कर अन्य जो पार्टियां हैं, चाहे वे सरकार में साझेदार ही क्यों न हो माकपा के खिलाफ हैं। लेकिन उन्हें अपनी आवाज इस दर से दबानी पद रही है कि कह इस लड़ाई(sattasangharsh) कि आड़ लेकर माकपा उनकी वाम विचारधारा और वोट बैंक को हाईजैक ना कर ले।

नंदीग्राम में संघर्ष शुरू हुए एक साल होने जा रहा है। वहाँ लड़ाई किसान की अपनी जमीन बचाने को लेकर है। अब नंदीग्राम की लड़ाई एक प्रतीकात्मक लड़ाई बन गई है। ये लड़ाई अब देश के हर उस किसान की है जो औधोगिक इकाई लगाने के लिए किसी भी कीमत पर अपनी जमीन नहीं देना चाहता। मेरे विचार में इस मामले पर एक कानून बनना चाहिऐ। आखिर एक किसान को अपने पुरखों कि जमीन को जबरदस्ती बेचने को मजबूर कैसे किया जा सकता है। अपनी जड़ों को छोड़कर वो कहाँ जायेगा। उसे इस बात का अधिकार होना चाहिऐ कि वो अपने पुरखों कि जमीन को बेचने से इनकार कर सके। इस लड़ाई में दूसरा पक्ष सरकारी मशीनरी है जिनका ये काम है कि वो किसी भी कीमत पर विकास का काम आगे बढाये। अब ये अलग मसला है की सरकारी मशीनरी किस पार्टी के हाथ में है।

Tuesday 11 December 2007

'भाजपा का आत्मविश्वास लौट रहा है'

गुजरात में प्रथम चरण के चुनाव से महज १८ घंटे पूर्व भाजपा के सारे दिग्गज मीडिया के सामने आये और एक सुर से प्रधानमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार के लिए आडवाणी जी का नाम घोषित कर दिया। इसी के साथ अब ये मान लिया जाना चाहिऐ की भाजपा में वाजपेयी युग का अंत हो गया। अब कमान आडवाणी जी के हाथ में होगी. आडवाणी जी अब भाजपा का चेहरा होंगे। केन्द्र की सत्ता से बहा होने के तीन सालों भाजपा ने आडवाणी जी को अपना नेता घोषित कर साहस का परिचय दिया है। अब तक भाजपा उन्हें आगे करने में अपने सहयोगी दलों के कारण डर रही थी। जाहिर है भाजपा ने अब इस डर से खुद को मुक्त कर लिया है।

१८० सीटें लेकर भाजपा जब १९९८ में सत्ता में आई थी तब से लेकर सत्ता से बाहर आने तक भाजपा सहयोगी दलों के हाथों में खेलती रही। वाजपेयी जी को पीएम के रूप में देखने की चाहत रखने वाले लोगों को उनके लचीलेपन से काफी निराशा हुई थी। भाजपा ने सरकार चलाने के लिए मुख्य मसलों को भुला दिया। लेकिन आज आडवाणी की ताजपोशी भाजपा के लौटते आत्मविश्वास का संकेत है। वैसे भी गुजरात के चुनाव में भाजपा पूरे आत्मविश्वास से उतर रही है। उसे उम्मीद है की गुजरात में फिर से उसकी सरकार बनेगी। भाजपा को ही नहीं उसकी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले लोगों को भी उम्मीद है की अगले साल होने वाले लोक सभा चुनाव के पहले भाजपा फिर से उन मुद्दों को उठाने का साहस कर लेगी जिन्हें सत्ता के लिए उसने पिछली बार भुला दिया था। देखते हैं आडवाणी जी की अगुवाई में भाजपा भारत के बहुसंख्यक समुदाय के लिए आवाज बुलंद करने का कितना साहस बटोरे पाती है? ये जरूर होगा की सहयोगी दल फिर से रुकावट डालेंगे। लेकिन ऊससे क्या फर्क पड़ता है। आप आगे तो बढो बाकि लोग साथ होते जायेंगे।

Wednesday 5 December 2007

"इंटरनेशनल डॉग शो में ४२ लाख का कुत्ता"

एक कुत्ते कि कीमत ४२ लाख ! आपको शायद इसपर यकीन न हो लेकिन यही सच है। उत्तरांचल की राजधानी देहरादून के सर्द मौसम में दुनिया भर के कुत्तो को लेकर उनके मालिक(अभिभावक - कृपया कोई बुरा ना माने) पहुंचे। मौका था इंटरनेशनल डॉग शो का। बंगलोर से आये एक कुत्ते की कीमत ४२ लाख थी। और ना जाने कितने नए-नए नस्ल के कुत्ते भी यहाँ लाये गए थे। भैया हमारे लिए तो नयी बात थी। हम तो गाँव के रहने वाले हैं और हमे याद है बचपन में जो कुत्ते हमे पसंद आ जाते थे उन्हें स्चूल से लौटते वक्त हम अपने बसते में छुपा चुपके से उठा लाते थे। न कोई कीमत देना होता था और ना ही कोई दोग शो में जाना पड़ता था। और कुत्ते भी साहब बडे होने के बाद इतने बहादुर निकलते । थी किसी कि मजाल जो रात को हमारे घर की ओर कदम बढ़ा लें।

देहरादून में पौंचे कुत्ते एक से एक उन्नत नस्ल के। उनके साथ आये थे उनके नखरे उठाते आ रहे उनके अभिभावक भी मुझे इसके पहले जानकारी नहीं थी कि कोई इस तरह का आयोजन भी दुनिया में होता हैं। कहीं और होता है या नहीं लेकिन यहाँ अपने देश में इस तरह का ये मेरा पहला अनुभव था। मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि चलो अब तक कुत्तों को मालिकों के प्रति वफादारी के लिए जाना जाता था और अब आने वाली दुनिया में मालिकों को उनके कुत्तो के प्रति संजीदगी के लिए भी जाना जाएगा। दूसरी जिस बात पर मुझे ज्यादा ख़ुशी हुई की चालों इस तरह के आयोजन से कुत्तो का अंतरराष्ट्रीयकरण हो रहा है।

मुझे याद है वो कवी सम्मेलन । बात तब की है जब मैं बनारस में रहता था। बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी के लंका गेट पर हुए एक कवि सम्मेलन में एक युवा कवि ने सुनाया था "काश मैं किसी आमिर का कुत्ता होता" । उस बेचारे कवि कि व्यथा थी अमीरों के कुत्तों कि देखरेख कि व्यापक व्यवस्था को लेकर। बेचारे कि कविता में आमिर कुत्तो कि सम्पन्त्ता से जलन साफ दिख रही थी।

Sunday 2 December 2007

माउस नहीं हुआ जैसे अल्लादीन का चिराग हो गया!

रोज इस तरह की कोई न कोई नई खबर देखने को मिलती है- माउस दबाइए ट्यूटर पाईये। माउस दबाये अपने ग्रुप का ब्लड पाईये। अब आप का मनपसंद साथी मिलेगा बस माउस को क्लीक करिये । इस तरह कि खबरें रोज अखबारों में, वेबसाइट्स पर और सड़क किनारे लगे इस्तेहारों पर हर जगह मिल जायेंगे । अब आप ही बताईये क्या ये सारी सुविधाएं मुफ्त में मिलेगी। अब इनके दावे देखने से तो ऐसा लगता है कि जैसे ये अल्लादीन का चिराग हों । आपने मसला और जिन हाजिर होकर बोलेगा क्या हुक्म हैं मेरे आका. मैंने जैसे ही उससे कहा कि कोई परी कोई हर मेरे सामने पेश कर और वो बस पलक झपकते ही लाकर किसी नाज़नीं को मेरे सामने हाजिर कर देगा।

ऎसी ही एक वेबसाइट पर देखा मैंने कि नए दोस्त पैयी। मैंने भी सोचा यार चलो कुछ नए लोगों से दोस्ती कर ली जाये । आजकल के जमाने मैं अच्छे दोस्त मिलते भी कहाँ हैं। भैया इसी जोश में मैंने उस वेबसाइट पर रजिस्ट्रेशन के लिए लगी फॉर्म को भर दिया। बस क्या था मेरे सामने एक बधाई पत्र तुरंत आ गया। उसमे मुझे बधाई देते हुए कहा गया था कि २४ घंटे के बाद आप नये दोस्तों से सम्पर्क कर सकेंगे । अगले दिन मेरे उत्साह का पारा नही था। पट से फिर उसी साइट पर आ गया. लोगिन की और नए लोगों कि लंबी लिस्ट हाजीर । कोई बोम्बे से तो कोई कोलकाता से। कोई मोस्को से तो कोई न्यूयॉर्क से। मेरी ख़ुशी और धरकन एक साथ तेज हो रही थी। मैंने सोचा जब मौका मिला है तो पट से एक लड़की को पत्र लिख ही दूँ , लेकिन ये क्या, इससे पहले कि मैं कुछ लिख पाता सामने सुब्स्क्रिप्शन कि लिस्ट आ गयी । उसमे मेंबर शिप के लिए शुल्क कि कई श्रेणियां थी । सआरी किम्तें डॉलर में थी। अपन लोग दोस्ती पर रुपया तो खर्च कर सकते नहीं अब डॉलर कौन करे। सो कर दिए बाय। लोग कहते हैं ना कि खोजने से तो भगवान् भी मिल सकता है । भैया लेकिन दोस्त पाने के लिए खोजने के साथ - साथ डॉलर का होना भी उतना ही जरुरी हो जाता है। अब जाकर समझ में आया अब वक्त बदल गया है और इसी कारन आजकल लोगों को अच्छे दोस्त नहीं मिल पा रहे हैं।

गुजरात की बेजान पिच पर डटे धुरंधर!

गुजरात में चुनावी बिसात बिछ चुकी है, सारे धुरंधर अपने-अपने बल्ले और गेंद का जौहर दिखाने के लिए गुजराती पिच पर उतर चुके हैं। क्या भाजपा और क्या कांग्रेस सभी २०-२० स्टाइल में अपनी जीत कि उम्मीद लगाए हुए हैं। लेकिन कोई कुछ भी कहे भाजपा के मास्टर ब्लास्टर नरेन्द्र मोदी गुजरात के बेजान पिच पर फिर परचम लहराने कि स्थिति में लग रहे हैं। हालांकि कांग्रेस ने पूरा जोर लगा लिया है मोदी से असंतुष्ट लोगों को अपनी तरफ करने में लेकिन कई लोगों के जाने के बाद भी मोदी का दमख़म कम होता नहीं दिख रहा है।

बेजान पीच पर कांग्रेस ने पूरा प्रयास किया कि गेंद को मोदी के शरीर के सिद्ध में रखकर निशाना बनाया जाये और इसके लिए मोदी के गढ़ में दरार डालने कि कोशिस भी की गई । यहाँ तक कि जिस दंगे के लिए कांग्रेस मोदी को kos रही थी उसी मोदी सरकार के ग्रीह मंत्री को मोदी के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए तैयार दिख रही है। यहाँ बात वही हुई ना कि राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन या दोस्त नहीं होता, और राजनीति किसी सिद्धांत कि मोहताज नहीं होती, मौका पड़ने पर राजनितिक दल अछे-बुरे कि अपनी परिभाषा बदल सकते हैं। हालांकि आखिरी फैसला गुजरात कि जनता को ही करना है। और अब वक्त भी ज्यादा नहीं बचा है। देखते है कौन गुजरात सीरीज़ मैं चैम्पियन बनके उभरता है।

पिछली बार मोदी ने दो तिहाई सीटें जीती थी इस बार ये आंकड़ा कम जरूर होगा लेकिन लगता नहीं है कि मोदी कि सत्ता को कांग्रेस अभी उखाड़ पाने में सफल होगी। कारन वही है कि कांग्रेस ने अबतक अल्पसंख्यक तुस्तीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया है इसके ठीक उलट मोदी ने बहुसंख्यक आबादी को रिझाने पर ध्यान दिया है। मोदी का ये नज़रिया लोकतांत्रिक व्यवस्था के मनमाफिक ही लगता है। आलोचना करने वाले चाहे जो भी कहें लेकिन लोकतंत्र वास्तव में बहुसंख्यक आबादी कि सत्ता ही होती है।