Thursday 31 January 2008

अगर जल्लिकट्टू में आस्था है तो रामसेतु में क्यों नहीं!

सवाल केवल रामसेतु का नहीं है। अब ये हिन्दू आस्था का सवाल बन गया है। अगर कोई रामसेतु मामले पर आस्था के सवाल को टालने की फिराक में है तो उसे तमिलनाडु में हाल में मिले जल्लिकट्टू यानि की सांढों की बर्बर लड़ाई के आयोजन को आस्था के नाम पर अनुमति मिलने का विरोध करना चाहिए फिर उसे राम सेतु पर हिन्दू भावनाओं की बात को नकारने की मांग रखनी चाहिए। राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील हो चुके सेतुसमुद्रम परियोजना को रोकने और इसे आगे बढाने को लेकर तमाम दावे और तर्क दिए जा रहे हैं। इसमें ताजा बयान तटरक्षक बल का आया है। जिसने आदम पूल या रामसेतु को तोड़ने और वहाँ सेतुसमुद्रम परियोजना पर काम करने को देश की समुद्री सीमा के लिए ख़तरा बता कर राम सेतु को तोड़ने का समर्थन करने में लगे लोगों को एक झटका दे दिया है। तटरक्षक बल के 31 वें स्थापना दिवस की पूर्व संध्या पर संवाददाताओं को संबोधित करते हुए संगठन के महानिदेशक रूसी कांट्रैक्टर ने कहा कि इस परियोजना से सुरक्षा के कई मुद्दे जुड़े हैं और पड़ोसी देश की सीमा के यह बहुत नजदीक है जो समस्याओं का सामना कर रहा है। उन्होंने कहा कि सेतुसमुद्रम का रास्ता भी बहुत संकरा और किसी पोत के वहां फंसने से पेचीदगियां पैदा हो सकती हैं।

कांट्रैक्टर ने कहा कि यह एक बड़ी परियोजना है और इससे सुरक्षा के कई मुद्दे जुडे़ हैं। इसके अलावा पर्यावरण के भी मामले इससे संबद्ध हैं। महानिदेशक ने कहा कि उन्होंने तटरक्षक बल की राय सरकार को बता दी है और उस पर विचार किया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह परियोजना श्रीलंका की सीमा से बहुत नजदीक है जो समस्याओं का सामना कर रहा है। अब सुनिए उन्होने इस प्राकृतिक सीमा रेखा को बचाने के पीछे क्या तर्क रखे हैं। उन्होंने कहा कि अगर समुद्र का यह रास्ता मुक्त रूप से खोल दिया गया तो पाइरेसी और आतंकवाद समेत तमाम तरह के समुद्री खतरों से जुडे़ मुद्दों से भी निपटना होगा। जाहिर है राम सेतु को बख्शने के पीछे आस्था के साथ-साथ अब सुरक्षा का मसला भी तर्क का काम करेगा।

भले ही कांट्रैक्टर का यह बयान कई राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट जुटाने का कारण बन जायेगा, लेकिन आम हिन्दू जनमानस जिनके लिए आज भी राम काफी श्रधेय हैं और जो किसी भी कीमत पर राम से जुडे सभी स्मारकों को बचाने के पक्ष में है एक बड़ी सफलता है। राम आज भी लाखों-करोडों हिन्दू घरों में पूजे जाते हैं. और सभी हिन्दुओं के लिए रामसेतु आस्था का एक सवाल बन गया है। अगर आज के वक्त में राम सेतु को तोड़ने का साहस कोई भी सरकार करेगी तो ये सीधे तौर पर हिन्दू भावनाओं पर कुठाराघात के रूप में देखा जायेगा और जाहिर है कि उस सरकार को हिन्दुओं के गुस्से का सामना करना पडेगा। इस मामले पर हो रही राजनीति इसे अयोध्या मामले के राह पर लेकर जा रही है।

Wednesday 30 January 2008

भाषण की पुरानी शैली अब बोर करने लगी है!

मुझे आज लगता है कि जैसे चिट्ठी लिखने की शैली अब बोरियत वाला काम लगने लगा है वैसे ही नेताओं की भाषण देने की पुरानी शैली भी अब बोर करने लगी है। बहुत साल नहीं हुए, यही कोई १०-१२ साल हुए होंगे जब मैं गाँव में रहता था। उस समय मुझे याद है की मेरे गाँव में उस समय टेलीफोन नहीं हुआ करते थे और अगर था भी तो पीसीओ वाले के पास। उस समय घर से बाहर रहने वाले लोगों के पास चिट्ठी भेजना पड़ता था। एक दिन चिट्ठी लिखिए फिर उसे जाकर ३ किलोमीटर दूर के डाकखाने में डालना होता था। ८-१० दिनों में चिट्ठी पहुंचती थी और फिर अगले ८-१० दिनों बाद उसका जवाब आता था। आगे जब फोन की सुविधा बढ़ी तब ये काम बहुत बोरियत वाला लगने लगा। हालांकि गाँव छोड़ने के बाद भी २-३ सालों तक मैंने चिट्ठी लिखने के काम को अपने परिवार की परम्परा मानकर धोया। लेकिन समय के साथ ये काम बड़ी बोरियत वाला लगने लगा और अब तो चिट्ठी की जगह फोन ने ले ली है . बस मोबाइल उठाया और फ़ोन घुमा दिया। और कर ली बात। और हां चिट्ठी में जो भूमिका होती थी बड़ी मजेदार लगती थी। मैंने अपने बचपन में अपने दादा जी की चिट्ठी से जो भूमिका चुराई थी उसे कुछ sansodhanon के साथ आख़िर तक चेपता रहा।

ठीक इसी तरह भाषण का भी हाल अब बोर करने लगा है। बचपन में १५ अगस्त और २६ जनवरी को मास्टर साहब लोगों और इलाक़े के सज्जन लोगों के भाषण सुनने पड़ते थे। लेकिन लड्डू के चक्कर में वो अखरता नहीं था। आगे जाकर कॉलेज में छात्र नेता लोग कभी-कभी बोर करते थे। वो भी चला। वैसे भाषण से कोई परहेज तो नहीं रहा है मुझे लेकिन जो भाषण का पहला हिस्सा होता है वो श्रीमान, श्रीमती, सज्जनो और भाईयो-बहनो वाला भाग हमेशा से बोरियत वाला लगता रहा है। लेकिन अब जाकर ये भाग काफी झेलाऊ लगने लगा है। मैंने कभी किसी नेता का भाषण सुनने के लिए कोई मुसीबत अब तक नहीं उठाई है। सच कहें तो कभी कोई भाषण सुनने के लिए मैं कहीं गया ही नहीं। लेकिन अब एक पत्रकार के तौर पर कभी-कभी सुनना पड़ता है। हालांकि अपने काम भर ध्यान देता हूँ और बाक़ी सर के ऊपर से जाने देना अच्छा लगता है। लेकिन आज ३० जनवरी को करीब आधे घंटे तक लोगों को लोगों को गांधी जी के बारे में सुनना पडा और वो भी एक आम श्रोता की तरह। वो भी ये जानते हुए की बोलने वालों में से किसी का भी गांधीजी से कोई वैचारिक लगाव नहीं है। आप सोच सकते हैं की कितना झेलाऊ आधा घंटा काटा है मैंने आज। आज एक आम श्रोता की तरह भाषण सुनने के बाद दिन भर में मेरे मन में कई बार ये विचार आया की अब नेता लोगों को भी भाषण का अपना पुराना तरीका बदल देना चाहिए। जब मैं आधे घंटे में इतना बोर हो सकता हूँ तो लोग तो अपने नेता को सुनने के लिए कई-कई घंटे तक इंतज़ार करते हैं और उसके बाद भाषण को सुनते भी हैं। पता नहीं लोगों में इतनी सहनशीलता कहाँ से आती है।

Sunday 27 January 2008

बाबा ने कहा- इस बार किस्मत जरूर बदलेगी।

इस बार गाँव जाना हुआ। वहां पर कई साधू-महात्मा लोगों से मुलाक़ात हुई। वहाँ कि दुनिया वैसी ही है। बाबा लोगों के लिए गाँव अभी भी ठौर बने हुए है। ऐसे ही एक बाबा आये हुए थे। परिवार के सब लोगों को भविष्य की किस्मत का चिटठा बंचवाते देखा तो सोचा कुछ अपने बारे में भी जानता चलूँ। कौन नहीं चाहता की उसे उसके भविष्य के बारे में पता चले। मैंने भी झट से पंडित जी के आगे हाथ पसार दिया। मैंने सोचा परिवार के फीस में ही अपना भी काम चल जायेगा। बाबा ने कुछ देर ह्थेली को देखा। करीब ४-५ सेकंड तक। फिर बोले बच्चा अब तेरे अच्छे दिन आ गए हैं। मैं नहीं समझ सका इन ४-५ सेकंड में बाबा को मेरे हाथ में ऐसा क्या दिख गया। बाबा ने कहा बस एक पत्थर चांदी की अंगूठी में लगाकर पहन ले और भी अच्छे दिन आ जायेंगे। इतना सुनना था की मेरे दादा जी का कान उनकी बात पर आकर ठहर गई। झट से कलम मंगाया गया और पंडित जी को देकर कहा गया पत्थर के बारे में पूरा डीटेल लिखकर दे दीजिए। मैंने हाथ बढाया लेकिन लोगों को मुझपर भरोसा नहीं था, उन्हें लग रहा था की शायद कहीं गलत नाम ना लिख दूँ इस लिए पंडित जी के हाथ से ही लिखवाना बेहतर होगा। मैंने भी लोगों की इक्षा को देखते हुए पंडित जी के हाथों से अपनी किस्मत लिखता हुआ देखने की बात मान ली। अगर कोई विरोध करता तो आस्था तोड़ने का आरोप झेलना पड़ता।

इससे पहले भी कई बार मेरे बारे में ज्योतिष लोगों ने कई-कई भविष्यवानियाँ की है लेकिन पता नहीं क्या हुआ लेकिन इस बार की भविष्यवावाणी के बाद लग रहा है की शायद किस्मत का हाल कुछ-कुछ वैसा ही बदल जायेगा जैसे कि नीतिश सरकार के आने के बाद बिहार की जनता को लगने लगा है कि राज्य की किस्मत जरूर बदल जायेगी. यही हाल है एक मेरे मित्र का भी. वे बेचारे फील गुड के चक्कर में हमेशा ज्योतिष के चक्कर में फंसते रहते हैं। अब एक दिन उनके किसी ज्योतिष ने कह दिया की आपकी कुंडली में बुढापे तक प्रेम का योग है। अब क्या था उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। मेरा भी मानना है कि उनके अतीत को देखकर उनके भविष्य के बारे में पंडित जी का आकलन जरूर सही होना चाहिए।

धोनी और सचिन बनने का फेर!

बचपन में लोग कहते थे कि बेटा जितनी मस्ती करनी हो अभी कर लो, जीवन में ऐसा मौका बार-बार नहीं आता. मेरा छोटा भाई भी अक्सर पढाई के लिए कहने पर अपने बचाव में कहता है- कि आपने वो कहावत नहीं सुनी है क्या कि 'पढोगे-लिखोगे बनोगे खराब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे नबाब'। उसके लिए कहने का सही वक्त भी है। अपने बचाव में वो बेचारा सचिन, धोनी, शाहरुख खान जैसे ना जाने कई बड़ी हस्तियों का नाम ले बैठता है। उस बेचारे में भी क्रिकेट और फिल्मों को लेकर काफी क्रेज है। 'सन्डे हो या मंडे-रोज खाए अंडे' कि तर्ज पर उसे बस पता चलना चाहिए कि कब उसके दोस्त लोग स्कूल नहीं जा रहे हैं और सब क्रिकेट के मैदान में हाजिर रहेंगे। बेचारा क्रिकेट के मैदान तक जाने का बहाना निकाल ही लेता है।

अब हमे भी लगता है कि उसका कहना सही ही है लेकिन एक बात भी सही है कि क्रिकेट के मैदान पर उतरने वाले सभी लोग धोनी और सचिन नहीं बनते, ये भी सही है कि ऐसा बनने के लिए ही सभी लोग खेल के मैदान तक नहीं उतरते। स्वास्थ्य के लिए भी ये खेल काफी लाभदायक होते हैं। ऐसा नहीं है कि अपने बचपने में हम ऐसा मौका नहीं निकालते थे। सच कहे तो हम आज भी ये मौका निकालने की जुगत में रहते हैं. लेकिन अब शायद ही ये मौका कभी निकल पाए। हाँ अपनी भडास निकालने के लिए कभी-कभी हम फील्ड में जरूर पहुंच जाते हैं। लेकिन ये देखकर काफी हैरत होती है कि कई लड़के अपनी जुल्फें काफी बड़े-बड़े रखे हुए हैं। जैसा कि किसी जमाने में धोनी ने रखे थे। उस लड़के के सारे दोस्त भी उसे धोनी के नाम से आवाज़ देते हैं। मसलन अगर वो लड़का बाउंड्री के बिल्कुल पास ही फील्डिंग क्यों ना कर रहा हो,बाँल जाने के बाद उसके दोस्त आवाज़ देते हैं धोनी डाईव लगाकर रोक ले भाई। अब बेचारे उसके माँ-बाप को पता नहीं मालूम है कि नहीं कि जो नाम उन्होने अपने बेटे का रखा था बेटे ने धोनी बनने के चक्कर में उसकी ऐसी की तैसी कर रक्खी है।

अब इधर बच्चों में इरफान पठान का भी अच्छा-खासा क्रेज हो गया है। अब मैं तो एक दिन इस चक्कर में मुसीबत में पड़ गया था। मेरा साढे ३ साल का भतीजा एक दिन प्लास्टिक के छोटे से बल्ले और प्लास्टिक के बाँल से क्रिकेट खेल रहा था। उसे उस समय कोई साथी नहीं मिला इस लिए कहा कि चाचा मेरे साथ क्रिकेट खेलो। मैंने सोचा कि चलो कुछ देर बेचारे का साथ दिया जाये। मैंने कुछ देर उसे ऐसे ही बाँल फेंका। अचानक वह बोला चाचा अब मैं थक गया हूँ। अब आप बैटिंग करों मैं इरफान पठान बनूंगा। अब मैं तो फंस गया। अगल-बगल में देखा कोई देख तो नहीं रहा। अब लोग मुझे प्लास्टिक के उस छोटे से बल्ले से बल्लेबाजी करते हुए देखेंगे तो पता नहीं क्या-क्या सोचेंगे। मैंने थोडी सख्ती से काम लेना बेहतर समझा और कहा बेटा बैटिंग तो तुम ही करो और इरफान पठान मुझे ही रहने दो, तुम सचिन बने ही बेहतर लगते हो। बच्चा ऐसे समझने को तैयार नहीं दिख रहा था। इस कारण मुझे उसे बिस्किट के ऐड के माध्यम से समझाना पडा कि कैसे बेटा सचिन बनो रहोगे तो सचिन वाले बिस्किट खाने को मिलेंगे। इसके बाद वो बेचारा सचिन बना रहा और मैं इरफान बनकर उसे बाँल भी फेकता रहा और युवराज सिंह बनकर फील्डिंग भी करता रहा ...

क्या होगा इस बार इंडिया शाइनिंग के नारे का!

देश में लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट होने लगी है। देश की मुख्य विपक्षी दल भाजपा की बैठकों की संख्या भी बढ़ने लगी है। भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार के रुप में आडवाणी जी के नाम की घोषणा भी कर दी है। इस मामले पर कांग्रेस अभी पशोपेश में हो या फिर ऐसा हो सकता हो की कांग्रेस मौका मिलने पर मनमोहन जी को फिर से रिपीट करे। माकपा नेता प्रकाश कारत ने तीसरे मोर्चे का नारा उछाल फिर रोमांच पैदा कर दिया है। शायद ये मोर्चा इस बार कुछ नया गुल खिलाये या फिर ये चुनाव के बाद टूटकर दोनो खेमो में शामिल हो जाये। या फिर ऐसा भी हो सकता है की ये मोर्चा बने ही ना। २७ जनवरी को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में ऐश्वर्या कालेज के उद्घाटन के अवसर पर मुलायम सिंह जी के साथ चंद्रबाबू नायडू और फारुक अब्दुल्ला की उपस्थिति एक नए समीकरण का संकेत जरूर दे रही है।


इसी दिन यानी कि आज ही भाजपा कार्यकारिणी की बैठक हुई। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने पार्टी कार्यकर्ताओं को लोक सभा चुनाव कि तैयारी में लग जाने का आह्वान किया और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से कहा है कि वे विकास के मसले पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का अनुसरण करें। उन्होने देश के लोगों से अपील किया कि आडवाणी जी के लंबे अनुभव के करान उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के काम में वे भाजपा के साथ आयें। लेकिन एक बात कहीं पर नहीं दिखी। ४ साल पहले तक इंडिया शाईनिंग का नारा लगाने वाली भाजपा इस बार भूलकर भी इस नारे को नहीं लगा रही है। अब ये बारी कांग्रेस की है। जो ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को अपने सरकार कि सबसे बड़ी उपलब्धि के रुप में दिखाने के prayaas में है। और इसका श्रेय पार्टी के राजकुमार राहुल जी के खाते में दर्ज कराने का प्रयास किया जाएगा। इस अभियान के तहत राहुल जी इन दिनों आम आदमी तक अपनी पहुंच बनाने में लगे हुए हैं। टाटा के लखटकिया कार के लॉन्च के अवसर पर राहुल जी की उपस्थिति इसी कवायद का हिस्सा लग रही है. आख़िर ये कार आम aadami की कार kahi जा रही है और congress party daavaa करती है की vo आम आदमी की party है। lekin पिछले chunaav mein इंडिया shaaining के naare की बुरी gat को देखते हुए कम ही ummid है की कोई भी morcha इंडिया shaaining का naaraa uchhalegii

Saturday 26 January 2008

वाया राजपथ: सुपरपावर होने का गुमान!

राजधानी नई दिल्ली के राजपथ पर २६ जनवरी का जश्न मनाया जा रहा था। सुपरपावर कहलाने को आतुर भारत अपनी ताकत और शौर्य का प्रदर्शन कर रहा था। सेना के जवान पूरी वर्दी में कदमताल मिलाकर राजपथ की शान बढ़ा रहे थे। ब्रह्मोस से लेकर उन सभी हथियारों का प्रदर्शन किया जा रहा था। उन सभी चीजों का प्रदर्शन हो रहा था जिनके बल पर ये उम्मीद है कि इससे रीझकर बडे देश हमे भी सुपर पावर की जमात में शामिल कर लेंगे। इस भव्य जश्न को दुनिया भी देखे इस लिए फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी को भी न्योता देकर बुलाया गया था। इंडिया गेट पर सजे मंच पर वो बेचारे भी हमारे बड़े नेताओं के बीच बैठकर नज़ारा देख रहे थे। उदघोषक पूरे जोश-खरोश से भारत की शान में कसीदे पढ़ रहे थे। मैं हर साल की तरह टीवी पर चिपक कर ये नज़ारा देख रहा था। लेकिन कोई नयापन नहीं देख जल्द ही मुझे बोरियत होने लगी, कुछ ठंड को भगाने और कुछ बोरियत ख़त्म करने के लिए मैंने चाय पीने के लिए दुकान की राह पकड़ी।

दुकान पर सबकुछ वैसा ही था जैसा मैं अमूमन देखता हूँ। चाय की डिलिवरी देने वाले छोटू कि जिंदगी में ना तो कोई बदलाव दिख रहा था और ना ही उसकी किस्मत में। रोज की तरह छोटू बेचारा मालिक के आदेश पर आस-पास के घरों और दुकानों में चाय पहुचांने के काम में मशगूल था। आज आम दिनों की अपेक्षा चाय की माँग कुछ ज्यादा थी इस लिए बेचारा कुछ ज्यादा ही व्यस्त दिख रहा था। आम बच्चों जैसी उस बेचारे की किस्मत नहीं थी। इस लिए वो आज किसी स्कूल का छात्र नहीं है और इसी कारण आज गणतंत्र दिवस की छुट्टी न मनाकर वो रोज के अपने काम पर लगा हुआ है।

सच में देखा जाये तो छोटू समाज के उस वर्ग से आता है जिसके लिए गणतंत्र आज भी एक सपना है। ये वर्ग आज भी उस दौर में जी रहा है जो गणतंत्र का जश्न मनाने में अक्षम है। वो आज भी भारतीय रुतबे पर एक बदनुमा दाग है। उसकी शक्ल राजपथ पर दिखे किसी भी शान से मेल नहीं खाता है। भारत के गणतंत्र बने ५९ साल हो जाने के बाद भी उस अबोध बच्चे को बुनियादी जरूरते अपनी व्यवस्था से न मिलकर खुद जुटानी पड़ती है। उसे अपनी पेट की आग बुझाने के लिए इसी उमर में काम करनी पड़ती है। ऐसा नहीं है की सरकार ने इस भेद को मिटाने के लिए कुछ नहीं किया है लेकिन ६ दशक के बाद जितनी प्रगति होनी चाहिऐ उतनी पाने में हम अब भी सफल नहीं हुए हैं। हमे तब अपने को सुपर पावर बनने का दंभ पालना चाहिए जब हम अपने देश के हर बच्चे को कम से कम बुनियादी शिक्षा मुहैया करा सकें। हम असल में सुपर पावर बनने के काबिल तभी होंगे जब हर बच्चे को वास्तव में स्कूल की शिक्षा और कम से कम स्वरोजगार के काबिल बना सके। फिर हमे राजपथ पर करोडों रुपया फूंककर विदेशी मेहमानों को अपनी शान दिखाने में कोई शर्म भी नहीं आनी चाहिए। लेकिन अभी विदेशों से ख़रीदे हुए हथियारों और विदेश में बने हवाई जहाजों का करतब दिखाकर हम अपने गणतंत्र का मजाक ही बना रहे हैं। हमे इस मानसिकता से उबरने की जरूरत है. हमे वास्तव में गणतंत्र बनने के लिए अभी मेहनत करनी होगी। इसके बिना ये सारी शान वैसे ही है जैसे की शादी व्याह में लोग भाड़े के सामियाने और कुर्सी टेबल लाकर अपनी शान बघारते हैं।.....

Thursday 24 January 2008

कमबख्त इश्क ने लड़की को बनाया स्नैचर!

एक बहुत विख्यात सा गाना है- (तेरे प्यार में क्या-क्या न बना मीना, कभी-...... और कभी......), जिसे अक्सर आशिक लोग एक तरफा प्यार के दिनों में अपने महबूब की गलियों से गुजरते हुए गुनगुनाते रहते हैं। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली की एक घटना ने साबित कर दिया है की ये काम केवल लड़के ही नहीं अब लड़कियाँ भी कर सकती हैं। दिल्ली की एक लड़की ने अपने मन-पसंद लड़के से शादी करने के लिए अजीब सा तरीका अपनाया। पसंदीदा दूल्हे को वरमाला पहनाने के लिए कॉल सेंटर इग्जेक्युटिव ने फिल्मी स्टाइल में स्नैचिंग की दो दर्जन वारदातें कर डालीं। इसके लिए उसने अपने नाबालिग भाई और उसके दोस्तों का गिरोह बनाया। लड़की का मकसद पिता के दो लाख रुपये लौटाने के बाद घर बसाना था। पुलिस के मुताबिक, गोल मार्केट में रहने वाले बिजनेसमैन की बेटी नॉर्थ कैम्पस से हिस्ट्री (ऑनर्स) और कम्प्यूटर ऐप्लिकेशन में दो साल का डिप्लोमा करने के बाद नोएडा में कॉल सेंटर में नौकरी करने लगी। इस दौरान वह वहीं नौकरी करने वाले एक लड़के को दिल दे बैठी। बात शादी तक जा पहुंची। पिता तैयार नहीं हुए। वह अपनी बेटी की शादी किसी और से तय कर चुके थे। उन्होंने लड़की के अकाउंट में दो लाख रुपये जमा कराए हुए थे, जिन्हें वह उड़ा चुकी थी। लड़की ने फैसला किया कि शादी तो वह अपनी पसंद के लड़के से ही करेगी, लेकिन पिता को दो लाख लौटाने के बाद। उसने बैंकों से लोन हासिल करने की कोशिश की। उसके पास सैंट्रो कार थी, लेकिन वह उसे बेचना नहीं चाहती थी। 10वीं क्लास में पढ़ने वाले भाई के दोस्त ने सलाह दी कि स्नैचिंग कर पिता का कर्ज वापस किया जा सकता है। पिछले महीने की 8 तारीख को चारों कार में सवार हुए और पहाड़गंज के एक गेस्ट हाउस के सामने जा पहुंचे। एक विदेशी लड़की अपने कंधे पर पर्स लटकाए हुए बाहर निकली। कार उसके नजदीक लाई गई। पिछली सीट पर बैठे लड़कों ने पर्स झपटा और लड़की ने कार तेज दौड़ा दी। पहली कामयाबी के बाद गिरोह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। डेढ़ महीने में 24 वारदातें इसी स्टाइल में अंजाम दी गईं। टारगेट बनीं पर्स लटकाए बाजारों से गुजरती महिलाएं। ताबड़तोड़ हो रही वारदातों की वजह से गिरोह का नाम 'ब्लैक सैंट्रो गैंग' पड़ गया। लेकिन ये कब तक चलता, कभी ना कभी तो ये रुकना था। पुलिस जगी और ये पकडे गए। इनके कब्जे से चोरी का डिजिटल कैमरा, महंगा सेलफोन, अमेरिकन एक्सप्रेस बैंक का क्रेडिट कार्ड, विदेशी मुद्रा के 29 सिक्के और दो फर्जी नम्बर प्लेट बरामद हुईं। अब शादी तो पता नहीं होगी या नहीं लेकिन लड़की के जुबान पर ऊपर वाला गाना जरूर चढ़ जाएगा......तेरे प्यार में....

Wednesday 23 January 2008

अतिथि महामहिम की प्रेमिका से बैर!

आज सुबह के सारे अखबार इस खबर को प्रमुखता से छापे हुए थे कि फ्रांसीसी राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी की प्रेमिका और सुपर मॉडल कार्लो ब्रुनी उनके साथ भारत की यात्रा पर नहीं आयेंगी। उन्होने ब्रुनी का ये बयान छापा था कि अभी उनकी शादी सारकोजी के साथ नहीं हुई है इसलिए वे इस यात्रा पर नहीं आयेंगी। पिछले कई दिनों से ये खबर भारतीय मीडिया की सुर्खियाँ बनी हुई हैं और पूरा मीडिया जगत इस खबर को भारतीय पाठकों को पूरे मसाले के साथ पढाने में लगा हुआ है। इसका कारण है कि इस बार भारतीय गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि फ़्रांस के राष्ट्रपति सारकोजी हैं जो आजकल ब्रुनी से अपने प्रेम के लिए पूरी दुनिया की मीडिया में छाये हुए हैं। जाहीर है कि वे भारत के राजकीय अतिथि के रुप में आ रहे हैं तो यहाँ कि सांस्कृतिक विरासत का वास्ता देकर उन्हें अपनी प्रेमिका को साथ लाने से रोका जाता। हालांकि उनके समान के कारण भारतीय अधिकारी कुछ कह नहीं पा रहे थे। लेकिन बरूनी ने अपनी तरफ से आने से मना कर सरकारी अधिकारियों कि मुश्किल हल कर दी है। अगर ब्रुनी यहाँ आ भी जाती तो तो भारतीय संस्कृती को बचाने के नाम पर हाथों में तख्तिया लिए कई संगठनों के लोग दिल्ली की सड़कों पर बवाल काटते। हम भारतीय वैसे भी भले ही अपनी संस्कृती का खुद ख्याल ना रखते हों लेकिन दूसरो से इसके पालन की अपेक्षा करना अपना अधिकार समझते हैं।

शेयर बाज़ार में १० लाख करोड़ गंवाने वाले!

२१ और २२ जनवरी २००८ का दिन शेयर बाज़ार के कारोबार में रूचि रखने वाले लोगों के लिए बहुत भागम-भाग वाला दिन रहा। अमेरिकी बाज़ार में आई मंदी से शेयर बाज़ार में तबाही का आलाम रहा। बहुत से कारोबारी शेयर बाज़ार में इन दो दिनों की हलचल में मालामाल हो गए तो बहुत से कंगाल। एक अनुमान के अनुसार निवेशकों को १० लाख करोड़ का चूना लगा। जाहीर है इसमें छोटे निवेशक ज्यादा होंगे। ज्यादातर वैसे निवेशक होंगे जो शेयर बाज़ार में आई उछाल को देखकर अपने बचत में से कुछ पैसा शेयर में लगाने की हिम्मत किये होंगे, आगे उनमें से ज्यादातर इस बाज़ार की ओर देखने से पहले कई-कई बार सोचेंगे।

बाज़ार में आये इस भूचाल के बाद कई लोगों ने वित्त मंत्री साहब का इस्तीफा माँग डाला। वैसे आपको बता दें की वित्त मंत्री साहब इन दिनों स्विट्ज़रलैंड के शहर दावोस के दौरे पर हैं। वहाँ पर वी विश्व आर्थिक मंचमें भाग लेने गए हैं। जाते वक्त उन्होने कहा कि निवेशकों को घबराने की जरूरत नहीं है और सरकार सभी जरुरी कदम उठाएगी। उन्होंने कहा की निवेशकों को रिलैक्स रहना चाहिऐ। अब बताये की १० लाख करोड़ गवाने वाले लोगों में रिलैक्स कहाँ से आयेगा। जिन लोगों ने अपने पैसे गवां दिए उनके लिए चैन कि तलाश हम-आप तो क्या बडे-बडे संत-महात्मा भी नहीं कर पायेंगे।

Monday 21 January 2008

सात साल से भारत को नहीं मिल रहा है अपना रत्न!

आपको जानकर हैरत होगी कि देश में सात सालों से किसी को भी भारत रत्न नहीं दिया गया है। इस सम्मान की शुरुआत १९५४ में की गई थी। ये सम्मान विभिन्न क्षेत्रों में अच्छा काम करने वाले लोगों को दिया जाता है। लेकिन हैरत कि बात है कि २००१ के बाद देश में कोई रत्न खोजा नहीं जा सका। २००१ में सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर और शहनाई सम्राट बिस्मिल्लाह खान को ये सम्मान दिया गया था उसके बाद से अब तक ये तलाश जारी है। इस साल जब फिर सम्मान पर फैसले कि बारी आयी तो राजनीति होनी शुरू हो गई।

आडवाणी जी ने इस सम्मान के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के नाम की सिफारिश कर दी। फिर क्या था सभी पार्टियां अपने नेताओं के लिए इस सम्मान की माँग के साथ आगे आने लगी। हालांकि कई मांगे जायज भी लग रही है। सभी मांगों के साथ अपने-अपने कारण है और उन कारणों को जायज ठहराने के अपने-अपने तर्क। वैसे भी इस साल जैसी कि खबरें आ रही हैं कि शायद ये सम्मान किसी को भी नहीं दिया जायेगा। इसका मतलब है कि भारत लगातार ८वे साल बिना रत्न पाए रह जाएगा।

वैसे यह जरूरी भी नहीं है कि भारत रत्न हर वर्ष किसी को दिया ही जाए। लेकिन अगर देश ये सम्मान देता आ रहा है तो ये जायज भी है कि ७-८ सालों में किसी ना किसी को भारत रत्न अलंकरण के लायक समझ लिया जाये। इतनी बड़ी जनसंख्या में हर साल एक रत्न तो जरुर खोजा जा सकता है। इस अलंकरण के लिए इतने काबिल लोग तो हमारे देश में है हीं।

Sunday 20 January 2008

कहलगांव में बिजली मांगने पर मिली गोलियाँ!

बिहार के भागलपुर जिले के कहलगांव में लोग और ज्यादा बिजली आपूर्ति की माँग के साथ सड़क पर उतरे। लोगों ने बाज़ार बंद कर दिए और आम-जन जीवन ठप्प कर दिए। लालू राज से नीतिश राज में आकर जी रही बिहार पुलिस के जवान जागे और उन्होने लोगों को काबू करने के लिए कारवाई की। इस दौरान गोलियाँ चली और ३ लोग मारे गए। ये है आज के बिहार में प्रशासन और आम जनता के अधिकारों कि हालत। लोगों का कहना था की कहलगांव में बिजली संयंत्र होने के बावजूद भी यहाँ ४-५ घंटे से ज्यादा बिजली नहीं रहती। अगर लोग ज्यादा बिजली कि माँग कर रहे हैं तो इसमे गलत क्या था। क्या प्रशासन को लोगों से बात करके लोगों कि शिकायतों को दूर नहीं करना था। क्या प्रशासन का काम यही नहीं है।

मैं हाल ही में बिहार के अपने गाँव से लौटा हूँ। मुझे अपने यहाँ बिजली, सड़क, स्वास्थ्य के मोर्चे पर कोई बदलाव अब भी नहीं दिखा। सबकुछ ऐसा ही है जैसा मैं बचपन से देखता आ रहा हूँ। अब चलते हैं बिहार कि बुनियादी हालत पर। तमाम सरकारें आयी और विकास के तमाम दावे करती रहीं। मैं खुद बिहार के छपरा जिले का रहने वाला हूँ जहाँ से कई मुख्यमंत्री बने। यहाँ तक कि जिला मुख्यालय से अन्य भागों को जोड़ने वाले मुख्य रास्ते को मैंने आजतक अच्छी हालत में नहीं देखा। हालांकि हमेशा उस रास्ते पर काम लगा हुआ ही देखता हूँ। इस बार हाल में मैं फिर गाँव गया था और फिर उस सड़क पर काम लगा ही देखा। आने-जाने के लायक तो उस रास्ते के होने का सवाल ही नहीं था। इस बार लोग थोडे उम्मीद में थे। लोगों ने कहाँ कि इस बार जरूर रोड ठीक हो जायेगा। अब देखना है कि बिहार कि यही नीतिश सरकार जनता कि उमिददों पर कितनी खड़ी उतरती है।

Sunday 6 January 2008

मनचले होने का हुनर सबमें कहाँ।

माना आप मनचले ना हों और आपने कभी किसी से छेड़छाड़ भी नहीं किया हो , लेकिन अगर किसी केस में कोई टीवी पर दिख रहा आरोपी का चेहरा आपसे मिलता-जुलता हो और कोई सजग नागरिक टीवी पर दिखने की चाहत में आपको पुलिस हिरासत में भिजवा दे। अगले दिन की शिनाख्त परेड में आप मनचलों की जमात में सर झुकाए खडे हों। सारे गवाह आपके एक-एक कर लोगों को पहचानने के काम में लग जायेंगे। एक-एक मनचले का चेहरा देखते हुए जब वे आपकी तरफ बढ़ रहे होंगे तब आपके दिल में क्या चल रहा होगा- भगवान् इस बार तो बचा लो एक किलो लड्डू लेकर कल सुबह मंदिर आऊँगा।

आपको ये यकीं तो होगा कि मैंने छेड़छाड़ नहीं किया है लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि आप बच ही जाओगे। अगर बच भी गए तो आपको पसंद नहीं करने वाले पड़ोसी कहाँ आपको माफ़ करने वाले हैं। जब भी आप मोहल्ले से निकलोगे, लोग आपस में भुनभुनायेंगे की देखो यहीं हैं जनाब छेड़-छाड़ के चक्कर में जेल गए थे वो तो किस्मत अच्छी थी की पहचाने नहीं गए वरना आज जेल में सड़ रहे होते। सबसे ज्यादा मजा वही लोग लेते पाए जायेंगे जो चौक-चौराहों पर बैठकर आती-जाती महिलाओं और लड़कियों पर या तो फब्तिया कसते रहते है या शराफत का लबादा ओढे दांत निपोरते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए मेरे एक मित्र महोदय अक्सर हिपोक्रेसी शब्द का इस्तेमाल करते रहे हैं। उनका कहना है कि ये वर्ग उन्ही बातों का विरोध करता है जिसमें उसे खुद ज्यादा मज़ा आता है।

अब मैं मनचलों की जमात के बारे में तो ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा लेकिन उनकी विचारधारा का मैं कायल हूँ। किस मौक़े पर क्या बोलना है और कैसे-कैसे आवाज कब निकालने हैं इसकी कला इनसे जरूर सीखनी चाहिए। एक बात और, मनचले होने के लिए एक कला का आना बहुत जरुरी है। सिटी बजाना। ये नहीं आया तो मनचले होने के प्रोफेशनल में आपकी सफलता वाकई मुश्किल है।

जब सांसद महोदय संसदीय क्षेत्र से दूर रहने लगें।

हम एक संसदीय व्यवस्था में रहते हैं और देश के हर आदमी का अपना कोई ना कोई सांसद होता है। हर नागरिक किसी ना किसी संसदीय क्षेत्र में रहता है। यही हमारी व्यवस्था है। सरकारी कोष से हर सांसद को एक निश्चित राशी मिलती है ताकि वो अपने क्षेत्र में विकास के काम करते रहें। मसलन स्कूल, कॉलेज, सड़क, स्वास्थ्य संबंधी काम करवाते रहें। इस काम के लिए क्षेत्र की जनता अपने सांसद को ५ साल के लिए चुनकर लोकसभा भेजती है। अब आइये एक आपको एक खबर पढाते हैं जो मुम्बई उत्तर लोकसभा क्षेत्र के लोगों से जुडी हुई है।

उत्तरी मुम्बई लोक सभा क्षेत्र के लोगों ने अपने सांसद महोदय को खोज कर लाने वाले के लिए ५१ लाख रूपये के इनाम की घोषणा की है। वहाँ के लोगों का कहना है कि वर्ष 2004 में चुनाव जीतने के बाद से हमारे इलाक़े के सांसद महोदय ने अपना चेहरा नहीं दिखाया है। इसके लिए महाराष्ट्र अल्पसंख्यक मार्चे के अध्यक्ष मोहम्मद फारूक आजम ने उनका पता लगाने के लिए 51 लाख रुपए का इनाम देने की घोषणा की है। सच्चाई कुछ भी हो सकती है लेकिन अगर ये सच है तो वाकई गंभीर मसला है। मोर्चे ने इस संबंध में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को भी पत्र लिखा है। चटर्जी से आग्रह किया है कि चुनाव जीतने के बाद अपने निवार्चन क्षेत्र से गायब रहने वाले सांसदों को अयोग्य ठहराया जाए।

लेकिन इस मामले पर इससे इतर भी कुछ होना चाहिए। वोटरों को ये अधिकार दिया जाना चाहिऐ कि ऐसे सांसद
जो चुनाव जीतने के बाद अपने संसदीय क्षेत्र से दूरी बनाने लगें उन्हें सबक सीखा सके। ईस पहले भी कई इलाकों के लोगों ने अपने जनप्रतिनिधियों के खिलाफ इस तरह का कदम उठाया था ताकि लोगों का ध्यान इस ओर जाये। लोगों को इस बात का अधिकार है कि वो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल कर सके। हां इस तरह के मामलों को अपने राजनितिक फायदे के लिए उठाने वाले लोगों पर भी लगाम लगना चाहिए। लोकतंत्र में सभी धडो की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और साथ ही ये भी तय होना चाहिये कि सभी उसे निभा रहे हैं कि नहीं।

Saturday 5 January 2008

अगर आप आतंकी नहीं हैं तो आइडेंटिटी कार्ड जेब में रखें।

अगर घर से बाहर निकलते वक्त पर्स और आइडेंटिटी कार्ड छूट जाने की आपकी आदत हो तो अपनी आदत को ज़रा बदल लें। और अगर आप देश कि राजधानी दिल्ली में रह रहे हैं तब तो इस आदत से छुटकारा पाना आपके लिए बेहद जरुरी हो गया है। वरना ये आदत किसी दिन आपको बहुत महंगा पर सकता है। राजधानी में आतंकवाद के बढ़ते ख़तरे से निपटने के लिए पुलिस वालों को ये आदेश दिया गया है कि वे जब भी चाहें किसी भी व्यक्ति को रोककर उससे उसकी पहचान पत्र माँग सकते हैं। और नहीं पाए जाने पर उसके बारे में जांच करना जरूरी है। अगर आपकी आदत देर रात तक इधर-उधर घूमने की है तब तो ये आपके लिए बेहद जरुरी हो जाता है।

हाल के वर्षों में जिस तरह से आतंकियों की सक्रियता दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में बढ़ी है उससे निपटना पुलिस के लिए काफी चुनौतीपूर्ण हो गयी है। वो भी एक ऐसे शहर में जहाँ डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं। तो आप जब भी घर से निकले अपना पर्स भले ही छोड़ दें लेकिन अपना पहचान पत्र जरुर जेब में डाल लें। देशभर में आतंकी हमलों के बढ़ते खतरे के मद्देनजर राष्ट्रीय राजधानी में पुलिस 15 जनवरी से किसी भी नागरिक की कभी भी पहचान से जुड़ी जांच कर सकती है। ऐसे में पुलिस के मांगने पर उन्हें पहचान के रूप में ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड, पासपोर्ट, राशन कार्ड, ऑफिस का आइ कार्ड या दूसरा कोई ऐसा प्रमाण दिखाना पड़ सकता है। ऐसे लोग जिनके पास कोई भी आइडेंटिटी कार्ड नहीं है वे पुलिस अधिकारोयों से मिलकर अपने लिए कार्ड बनवा सकते हैं।

Friday 4 January 2008

सुरापान में गाँव वाले शहरवालों को दे रहे हैं टक्कर।

वैसे देश में शराब पर खुलकर बात करना अच्छा भले ही ना माना जाता हो लेकिन आज इसका बाजार कई हजार करोड़ रूपये में पहुंच चुका है। साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन ने मधुशाला में इसपर खुलकर चर्चा की है। इसपर खुलकर चर्चा होनी भी चाहिऐ। आख़िर एक बड़ी आबादी इसका सेवन करती है। अब आइये देश में शराब से जुडे कुछ आंकडो पर गौर फरमाते हैं। आपने विकास के लिए शहर और गाँव के बीच तुलनात्मक अध्ययन तो बहुत पढे होंगे। मसलन अब गाँव भी तेज विकास की ओर या विकास में शहरों को टक्कर दे रहें है गाँव वगैरह-वगैरह। लेकिन आपको ये जानकार हैरत होगी कि भारत के गाँव सुरापान में भी शहरों को टक्कर देने कि स्थिति में आ रहे हैं।

अगर एसोचैम की रिपोर्ट की माने तो गांवों और छोटे कस्बों में शराब की खपत बहुत तेजी से बढ़ रही है। एसोचैम का अनुमान है कि चालू वित्त-वर्ष के अंत तक ये खपत ५०० करोड़ रूपये तक पहुंच सकता है। एसोचैम का अनुमान है कि चालू वित्त-वर्ष में देश में ८५ लाख लीटर शराब बिक्री कि उम्मीद है, जिसमें से गांवों और छोटे कस्बों का हिस्सा ३५ लाख लीटर का होगा। यानी की करीब ४० फीसदी शराब गांव वाले गटक जा रहे है। एसोचैम के इस रिपोर्ट से इत्तर मैं ये भी साफ कर दूँ कि ये केवल एक रिपोर्ट है। गांवों और छोटे में इससे कितना गुना ज्यादा शराब छोटे स्तर पर बँटा है और बिकता है जिसका कोई आंकड़ा एसोचैम के पास नहीं पहुंच सकता। और हां ये कोई छुपा हुआ रहस्य भी नहीं है बल्कि गांवों में इसका कारोबार खुलेआम होता है।

ये आंकडे गांवों की सेहत सुधारने के लिए उठाये जा रहे तमाम सरकारी प्रयासों के लिए गंभीर चिंता का विषय हो सकती है. शराब के अलावा तम्बाकू और गुटखा वगैरह का एक बड़ा बाज़ार भी इन्हीं ग्रामीण इलाकों में है। एक तरफ गांवों में रोजगार गारंटी और तमाम योज्नावों के माध्यम से सरकार वहाँ के लोगों के पॉकेट को भरने में लगी है दूसरी ओर सुरापान में इन इलाकों का करोड़ों रुपया जा रहा है। वैसे शहरों और गांवों में अब एक बात समान हो गयी है की किसी भी खास दिन को मनाने के लिए लोग सुरापान का मौका जाने देने को तैयार नहीं है। अब पहली जनवरी के दिन दिल्ली के एक अखबार ने शीर्षक दिया था कि नए साल पर करोड़ों की शराब गटक गए दिल्ली वाले। भैया दिल्ली वालो अब सचेत हो जाओ वो दिन दूर नहीं जब गाँव के लोग भी आपके इन रेकोर्ड को चुनौती देने लगेंगे।

Thursday 3 January 2008

तीसरे मोर्चे की मृगमरीचिका!

भारतीय राजनीति में आजादी के बाद से ही बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था रही है, भले ही ज्यादातर पार्टियों का प्रभाव कम ही देखने को मिला है। क्षेत्रिय राजनीति में तो तमाम पार्टियां लगातार अपना बर्चस्व कायम करती रही हैं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में अब तक की राजनीति पहले कांग्रेस और अब उसके साथ भाजपा के इर्द-गिर्द सिमटी रही है।

वीपी सिंह की सरकार बनने के बाद भारत में कांग्रेस और भाजपा से इत्तर सरकार बनाने का कई बार प्रयास हुआ है। इसके लिए हमेशा एक जुमला गढ़ा गया- "तीसरे मोर्चे " का। लेकिन हमेशा ये नाम अवसरवाद का एक रुप साबित हुआ। कुछ दिन वीपी सिंह की सरकार देश चलाने में सफल रही तो थोडे-थोडे दिनों तक देवेगौडा और गुजराल की सरकार। लेकिन अब तक की राजनीति में तीसरे मोर्चे को कोई खास पहचान नहीं मिल सकी है।
राज्यों में छोटे दलों के बढ़ते प्रभाव के कारण जब राजग और सप्रंग बना तब भी कमान या तो भाजपा के पास रहा या फिर कांग्रेस के पास। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के समय भी कुछ दलों ने तीसरे मोर्चे का राग अलापना शुरू किया था लेकिन फिर पता नहीं वे सारे दल किसी ना किसी खेमे में देखे जाने लगे।

इधर अब जब लोकसभा के चुनाव फिर सामने दिख रहें हैं फिर कुछ दलों ने तीसरे मोर्चे के जुमले का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। इस बार माकपा इसकी अगुआ दिख रही है। लेकिन उसे भी अभी इस जुमले के सच होने में उतना यकीन नहीं है इसलिए अभी इसपर काफी आराम से चर्चा चलाने की कोशिश की जा रही है। वरिष्ठ वाम नेता ज्योति बासु ने कहा है की अभी हाल-फिलहाल इसपर तुरंत किसी परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे इसमें कोई हैरत नहीं होगी अगर कई ऐसे दल जो अलग-अलग राज्यों में अच्छी स्थिति में है एक साथ हो जाएँ। लेकिन वो गठजोड़ कितना मजबूत होगा ये देखने लायक होगा। इसके साथ ही की लोकसभा चुनाव में देश की जनता को उस गठजोड़ पर कितना यकीन होता है। हालांकि अब देश की जनता पहले से ज्यादा जागरूक है और कई राज्यों के चुनाव परिणाम कुछ इसी तरह के संकेत दे रहे हैं।

Wednesday 2 January 2008

भारत के हर 22वें व्यक्ति के पास फोन!

वर्ष 2007-08 की दूसरी तिमाही [जुलाई-सितंबर] के दौरान देश में टेलीफोन ग्राहकों की संख्या 24 करोड़ 86 लाख 50 हजार पर पहुंच गई है। इस अवधि में ग्राहकों की संख्या में 2 करोड़ 41 लाख 50 हजार का इजाफा हुआ है। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण [ट्राई] द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में अब करीब प्रति 22 व्यक्ति में से एक के पास टेलीफोन है। -- ये खबर पढ़ते हुए एक भारतीय के नाते मुझे भी भारत में दूरसंचार क्षेत्र में आई क्रान्ति पर काफी गर्व हुआ। जाहीर है लोगों के पास फ़ोन बढे हैं तो लोगों की परचेजिंग पॉवर(खरीद क्षमता) बढ़ी है। मैं भी उस वर्ग से आता हूँ जिसकी पहुंच वर्ष २००० के बाद मोबाइल तक हुई। जो १९९० के दशक में भारत में शुरू हुई उदारीकरण की नीति का परिणाम है। इसने देश के फ़ोन बाज़ार में नए खिलाड़ियों को उतरने का मौका दिया और इस कारन फ़ोन और उसको उपयोग करने का शुल्क कम हुआ। अब हालत ऐसी हो गयी है कि कई कंपनियां ५०० रूपये में भी मोबाइल देने लगी है। जाहीर है कीमतों में आई इस गिरावट के कारण आम लोग भी मोबाइल खरीदने में सक्षम हुए हैं। अब फ़ोन स्टैटस सिमबॉल नहीं रह गया, बल्कि के जरुरत बन चुकी है। बाज़ार की बिल्कुल यही हालत टाटा कि लखटकिया कार के आने के बाद भारत के कार बाज़ार का होने वाला है।

लेकिन एक बात ध्यान देने वाली है कि अब तक बाज़ार के आंकडे बता रहे थे कि गांवों में फ़ोन की संख्या बढ़ रही है। लेकिन ताजा रिपोर्ट में ये बात सामने आई है गांवों के टेलीफोन ग्राहकों में इस दौरान 2.28 प्रतिशत की गिरावट दिखी। इनकी संख्या पहले के एक करोड़ 22 लाख 70 हजार से घटकर एक करोड़ 19 लाख 90 हजार रह गई। इस दौरान इंटरनेट ग्राहकों की संख्या बढ़कर 96 लाख 30 हजार पर पहुंच गई। जाहीर है कि इंटरनेट का उपयोग शहरों में ही होता है। अभी भी गांवों में फ़ोन कि सुविधा देने में केवल सरकारी कंपनियां आगे हैं। अब जब निजी कंपनियां आगे आएँगी तो गाँव में सुविधाएं बढेगी। अभी गाँव में मोबाइल तो पहुंच गएँ हैं लेकिन बात करने के लिए लोगों को काफी समय तक मशक्कत करनी पड़ती है। फ़ोन लगते नहीं और लैंड लाइन फ़ोन कि हालत तो और खराब है। आप को अगर गाँव में नया कनेक्शन लेना है तो पता नहीं कब आपका नम्बर आयेगा। अगर लग भी गया तो पता नहीं कब खराब हो जाये या फिर पता नहीं कितने गुने ज्यादा का बिल आपको भेज दिया जाये। इन सब समस्याओं से अगर फ़ोन कोम्पनिया निजात दिलाएं तो भारत के गाँव में के बड़ी आबादी और इंतज़ार कर रही है फ़ोन कि सुविधा लेने के लिए।

Tuesday 1 January 2008

न्यू ईयर पर मिडनाईट सेलीब्रेशन का तडका!

नए साल को मनाने के लिए लोग आधी रात तक जगे हुए थे। पूरे देश में नए साल कि तैयारियां हुई थी और जैसे घड़ी में रात के १२ बजे (मैं बस एक मिनट कि बात कर रहा हूँ।) लोगों में न जाने कहाँ से गजब का उत्साह आ गया। इधर घड़ी कि सुई १२ पर पहुंची और उधर लोग झूम उठे । सबसे ज्यादा उछल रहे थे टीवी चैनल वाले। १२ बजते ही उनका उत्साह भी अचानक कई गुना हो गया। मुझे ये महीन समझ में आया कि आख़िर इस एक मिनट में ऐसा क्या बदल गया। तारीख तो रोज बदलती है और उसपर तो लोग बस ये मानकर खुश हो लेते हैं कि चलो एक और दिन गुजर गया। इधर पिछले कुछ सालों में न्यू ईयर पर टीवी चैनलों मिडनाईट सेलीब्रेशन का तडका लगाकर लोगों का उत्साह बढ़ा दिया है। दिल्ली के कई होटलों ने तो लोगों को आधी रात का ये जश्न मनाने के लिए लाखों का बजट थमा दिया। अब बड़ा कहलाना है तो भाई इस तरह के खर्च तो करने पड़ेंगे।

आधी रात को लोग इसी तैयारी में रहते हैं कि १२ बजे और अपने लोगों को नयी साल कि बधाई दे दी जाये। लोग इसके लिए सुबह तक इंतज़ार नहीं कर सकते। भाई अब लोगों में इतना धीरज कहाँ। लेकिन मुझे तो कई बार इस आधुनिक शैली के नक़ल के चक्कर में मुझे दांत सुन्नी पड़ी है। १२ बजे मैंने किसी को बधाई देने के लिए फ़ोन लगा दिया। वो परेशान हो कर उठा, फ़ोन उठाते ही बोला क्या हुआ। इतनी रात गए पता नहीं क्या बिपत्ती आ गयी। मैंने कहाँ अरे नए साल कि बहुत-बहुत बधाई। सामने तो नहीं बोला लेकिन लगा मन में गालियाँ दिए जा रहा हो। भंड में गया नया साल और भंड में गयी बधाई। सुबह तक इंतज़ार नहीं कर सकते क्या।