Thursday 3 January 2008

तीसरे मोर्चे की मृगमरीचिका!

भारतीय राजनीति में आजादी के बाद से ही बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था रही है, भले ही ज्यादातर पार्टियों का प्रभाव कम ही देखने को मिला है। क्षेत्रिय राजनीति में तो तमाम पार्टियां लगातार अपना बर्चस्व कायम करती रही हैं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में अब तक की राजनीति पहले कांग्रेस और अब उसके साथ भाजपा के इर्द-गिर्द सिमटी रही है।

वीपी सिंह की सरकार बनने के बाद भारत में कांग्रेस और भाजपा से इत्तर सरकार बनाने का कई बार प्रयास हुआ है। इसके लिए हमेशा एक जुमला गढ़ा गया- "तीसरे मोर्चे " का। लेकिन हमेशा ये नाम अवसरवाद का एक रुप साबित हुआ। कुछ दिन वीपी सिंह की सरकार देश चलाने में सफल रही तो थोडे-थोडे दिनों तक देवेगौडा और गुजराल की सरकार। लेकिन अब तक की राजनीति में तीसरे मोर्चे को कोई खास पहचान नहीं मिल सकी है।
राज्यों में छोटे दलों के बढ़ते प्रभाव के कारण जब राजग और सप्रंग बना तब भी कमान या तो भाजपा के पास रहा या फिर कांग्रेस के पास। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के समय भी कुछ दलों ने तीसरे मोर्चे का राग अलापना शुरू किया था लेकिन फिर पता नहीं वे सारे दल किसी ना किसी खेमे में देखे जाने लगे।

इधर अब जब लोकसभा के चुनाव फिर सामने दिख रहें हैं फिर कुछ दलों ने तीसरे मोर्चे के जुमले का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। इस बार माकपा इसकी अगुआ दिख रही है। लेकिन उसे भी अभी इस जुमले के सच होने में उतना यकीन नहीं है इसलिए अभी इसपर काफी आराम से चर्चा चलाने की कोशिश की जा रही है। वरिष्ठ वाम नेता ज्योति बासु ने कहा है की अभी हाल-फिलहाल इसपर तुरंत किसी परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे इसमें कोई हैरत नहीं होगी अगर कई ऐसे दल जो अलग-अलग राज्यों में अच्छी स्थिति में है एक साथ हो जाएँ। लेकिन वो गठजोड़ कितना मजबूत होगा ये देखने लायक होगा। इसके साथ ही की लोकसभा चुनाव में देश की जनता को उस गठजोड़ पर कितना यकीन होता है। हालांकि अब देश की जनता पहले से ज्यादा जागरूक है और कई राज्यों के चुनाव परिणाम कुछ इसी तरह के संकेत दे रहे हैं।

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