Tuesday 26 May 2009

राजनीति की बहती गंगा और पत्रकार हीथर ब्रुक!

कौन है ये हीथर ब्रुक! एक ब्रिटिश पत्रकार! मैंने आज पहली बार ये नाम सुना। अब आप पूछियेगा कि क्या किया है इस पत्रकार ने जो मैं इसके बारे में इतना ज्यादा बात कर रहा हुं...तो इसका जवाब है कि आज के जमाने में जब राजनीति और पत्रकारिता को लोग एक ही थैली के चट्टे-बट्टे मानने लगे हैं...ऐसे समय में इस पत्रकार ने राजनीति के गलियारों में लाभ की बहती गंगा और उसमें हाथ धोते राजनीतिक लोगों की सच्चाई सामने लाने की हिम्मत की है...और ऐसा करने के लिए उसने कोई चमत्कार नहीं किया है...
इस पत्रकार ने संसद के तमाम दस्तावेजों को खंगाल कर कई सारे खुलासे किये हैं। मसलन वहां के सांसद अपने भत्ते बटोरने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाते हैं। जो तथ्य मिले, वे चौंकाने वाले हैं। अपने भत्ते लेने के लिए किसी ने हेलिपैड मरम्मत का खर्च दिखाया है, तो किसी ने टेनिस कोर्ट या स्विमिंग पूल के रखरखाव का। अनेक सांसदों ने दो-दो मकानों के किराए की रसीद पेश की है, इस तर्क के साथ कि दो मकान रखना उनकी मजबूरी है- एक अपने चुनाव क्षेत्र में और दूसरा राजधानी लंदन में। हीथर ब्रुक के इस रहस्योद्घाटन ने ब्रिटेन के नागरिकों को बेचैन कर दिया है। लोगों ने सवाल उठाना शुरू कर दिया है कि आर्थिक मंदी के इस दौर में जब सामान्य नागरिक अपने परिवार के लिए एक छोटी सी रिहायश का इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं, सांसदों की इस फिजूलखर्ची का क्या मतलब है? आखिर वे पैसे आम नागरिकों द्वारा दिए जाने वाले टैक्स से ही खर्च किए जा रहे हैं। क्या वे सचमुच तंगहाल जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं? कुछ सांसदों ने अपने खर्चों में एलसीडी टीवी या झाड़-फानूस जैसी सजावटी चीजों का भी बिल भरा है, तो कुछ ने पॉर्न फिल्मों की सीडी और घोड़े की लीद उठाने वाले थैलों तक की खरीद की रसीद लगा रखी है। इतने सारे ऐशो-आराम, जाहीर है वहां के जनप्रतिनिधि भी खुद को राजा-महाराजा, आम लोगों से श्रेष्ठ, सुपर सिटिजन समझते हैं।
क्या हमारे यहाँ भी यही माहौल नहीं है। आम नागरिकों को इसकी जानकारी नहीं होती, दुनिया में कहीं भी नहीं. हीथर ब्रुक को भी ये जानकारी प्राप्त करने के लिए ५ साल तक गोपनीयता कानून के खिलाफ लड़ाई लड़नी पड़ी. सांसदों और मंत्रियों के खर्चों के बारे में जनता को जानकारी नहीं दी जाती, वहीँ नहीं कहीं भी नहीं. वहां अब इस मामले पर आवाज उठने लगी है, लोग इन खर्चों पर बहस करने लगे हैं, विभिन्न सामाजिक संगठन अभियान चला रहे हैं। हीथर ब्रुक के प्रयासों ने राजनीतिक लूट के प्रति जनता को जागरूक कर दिया है. हमारे यहाँ भी सरकार ने जनता को सूचना का अधिकार दिया है. जनता आज नहीं तो कल इसका इस्तेमाल करेगी और ये तो बस एक शुरुआत है.
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एक जानकारी जो हमें ख़बरों कि तलाश के दौरान इन्टरनेट पर मिली...{{राजनीति शास्त्र के एक यूरोपियन प्रोफेसर पीयरे लेम्फिक्स कहते हैं कि राजनीतिज्ञों और वेश्याओं के बारे में पुरानी कहावत अब बदल चुकी है, क्योंकि वेश्याएं आज भी वही बेचती हैं, जो उनका है, पर राजनीतिज्ञ उसका सौदा करते हैं, जो उनका नहीं है।}}

Monday 25 May 2009

इन तीस हज़ार लोगों का पेट क्या प्रभाकरण भरेगा!

श्रीलंका में लड़ाई ख़त्म हो गई है। लिट्टे का मुखिया मारा गया. श्रीलंका की सरकार ने राहत की सांस ली. दशकों से जारी खूनी लड़ाई का अंत हो गया. पूरी दुनिया ने श्रीलंका में सैनिकों का फ्लैगमार्च देखा, मौत बरसाती बंदूकों की गड़गडाहट और तोपों से बरसते शोले टीवी पर देखे. इस माहौल में जान बचाने के लिए घर-बार छोड़कर इधर-उधर छुपते शरणार्थी रुपी जीवों को भी पूरी दुनिया सहानुभूति से देखती रही. मैं खुद श्रीलंका की लड़ाई के फुटेज टीवी पर देखते हुए बड़ा हुआ हुं और हर दिन की लड़ाई में मारे गए लोगों(सैनिक, श्रीलंका के सिंहली और तमिल समुदाय के लोग सभी) की संख्या को गिनकर अपने मूड के अनुसार खुश और दुखी होता रहा हुं. लड़ाई शुरू हुई, चलती रही और अब ख़त्म हो गई--मेरे लिए ये बस एक खबर भर है और इसका मेरे सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. लेकिन॥लेकिन अब जब लड़ाई ख़त्म हो गई तो इस दौरान आई एक खबर दुनिया भर में जारी लड़ाई --चाहे वो किसी भी नाम पर हो-- की कलई खोलती है. खबर ये है कि जब लिट्टे का सफाया करने के लिए श्रीलंकाई फौज निर्णायक लड़ाई लड़ रही थी तब बमों की बारिश से बचने के लिए लाखों लोग अपना घर-बार छोड़कर भागे थे. इसमें कई मारे गए और कई अपनी जान बचने में सफल रहे. लेकिन इन दोनों प्रकार के इंसानों के बीच ३० हज़ार लोग ऐसे भी हैं जो जिन्दा तो रह गए लेकिन अपंग हो गए. राहत एजेंसियों के मुताबिक तब क्षेत्र से भागे दो लाख 80 हजार लोगों में हर दस में से एक व्यक्ति अपंग हो गया है। ऐसे लोगों की संख्या 25 से 30 हजार है।


लड़ाई ख़त्म हो गयी है और दुनिया भर की राहत एजेंसियों ने इस इलाके में काम शुरू कर दिया है। शायद कइयो की जिंदगी फिर पटरी पर आ भी जाये लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है. ये ३०,००० लोग हमेशा अपंग रहेंगे और बहुत होगा तो इन्हें प्लास्टिक के हाथ-पैर दे दिए जायेंगे. जिससे ये घसीट-घसीट कर अपनी जिंदगी काट सकें. तमिल समुदाय को आज़ादी दिलाने के नाम लड़ाई लड़ रहा प्रभाकरण मारा गया और लड़ाई ख़त्म होने के बाद फौजी भी अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर वापस लौट जायेंगे लेकिन इन लोगों की जिंदगी में जो तूफ़ान आ चुका है उसकी भरपाई कौन करेगा. कौन इनकी रोजाना की जिंदगी में आने वाली समस्याओं को हल करेगा.


ऐसा नहीं है कि ऐसे अभागे लोग केवल श्रीलंका में ही हैं. इतिहास हमेशा इस तरह के घाव छोड़ता रहता है. राजा-महाराजाओं के काल से लडाइयां होती रही है. राजा-महाराजा अपनी नाक के लिए बड़ी-बड़ी लडाइयां लड़ते रहे हैं. टीवी पर रामायण-महाभारत में हमने गाज़र-मूली की तरह लोगों को कटते-मरते हुए देखा. आधुनिक काल में हथियार बदले और हमने परमाणु बमों की जद में आये जापान के लोगों को चीखते-कराहते सुना.हजारों-लाखों लोग दशकों तक इस घाव को लिए इस दुनिया से चले गए. विएतनाम, युगोस्लाविया, अफगानिस्तान, इराक जैसे देशों के आधुनिक शासकों ने भी बड़ी-बड़ी लडाइयां लड़ी. आज भी अफगानिस्तान, इराक, सोमालिया, कांगो, रवांडा, पाकिस्तान और अन्य देशों के लोग टीवी के परदे पर दिखते रहते हैं. कभी बम और मिसाइलों से उडे हुए चिथरों के रूप में तो कभी उनसे बचने के लिए दौड़ते-भागते शरणार्थियों के रूप में. कई बार शरणार्थी दिवस के दिन अपने शरणार्थी शिविरों में बेठौर जिंदगी जीते हुए भी ये कैमरे से सामने दिख जाते हैं. शासक आये और गए, कबीले कब के ख़त्म हो गए लेकिन मरने का कबीलाई अंदाज अभी भी हमने जिन्दा रखा है. तभी तो हजारों-लाखों लोगों को खोने के बाद भी मानव सभ्यता आपस की लड़ाई का कोई तोड़ नहीं निकाल सकी. सदियों से हम ऐसे ही लड़ते आये हैं और लड़ते रहेंगे. ये एक अनथक कहानी है और यु हीं जारी रहेगी ये लड़ाई...दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालिए...बस देश-दुनिया के नजारे देखते रहिये और गिनते जाइये लाशों को...

Sunday 24 May 2009

चलो अब पार्टी को धो-पोछ कर चमका लें...

चुनाव ख़त्म हो गया। जनता ने दगा दे दिया और किस्मत ने भी साथ नहीं दिया। हमें क्या मालूम था इस तरह से बिसरा देगी जनता हमारे काम को। क्या-क्या नहीं किया इस कृतघ्न जनता के लिए. जिस जनता के हाथों में एक अदद ग्लास तक नहीं थी उसे कमंडल वगैरह बटवाए... मस्जिद-मंदिर की लड़ाई खड़ी की... रथ यात्रायें की...इस दौरान न तो धूप देखा और न बरसात का भय अपने ऊपर हावी होने दिया. बस एक गलती तो की थी. इतनी छोटी सी बात की इतनी बड़ी सजा. अरे जबान है फिसल गई... ये समझना चाहिए था न. हमने तो अपनी इमेज चमकाने के लिए पडोसी देश के कायदे आजम की तारीफ कर दी थी ताकि जब वापस अपने देश लौटूं तो सेकुलर नेता के रूप में स्वागत के लिए लोग तैयार दिखे. लेकिन बेवकूफ जनता ने न जाने क्या समझ लिया. उल्टे पीछे पड़ गए सब. पार्टी अध्यक्ष का पद तक छीन लिया।

फिर बड़ी मेहनत से हमने खुद को झाड़-पोछ कर नए प्रोडक्ट के रूप में बाज़ार में उतारा। इस बार इन सबसे ऊपर उठकर हमने खुद को पीएम-इन-वेटिंग के रूप में लोगों के सामने रखा। इसके लिए कितनी मेहनत करके अपने ऊपर किताब लिखा। देश के विभिन्न शहरों में उसके विमोचन के लिए कार्यक्रम कराये. लोगों तक अपने किताब की खबर पहुँचाने के लिए मीडिया वालों पर न जाने कितने खर्च करने पड़े. अपनी छवि चमकाने के बाद उतरे थे हम चुनाव के मैदान में. कितना खर्च करना पड़ा था इस जनता को लुभाने के लिए. देश भर में न जाने कितनी रैली, कितनी चुनावी सभाओं में बोलते-बोलते गला ख़राब हो गया. वादों और आश्वासनों को गढ़ते-गढ़ते बचपन से याद किये गए सारे शब्द ख़तम हो गए. इतना सारा कुछ कोई करता है क्या किसी गैर के लिए. अरे हमने तो इस देश की जनता को अपना माना था मुझे क्या मालूम इस जनता का दिल मोम का नहीं पत्थर का है. लगा था मेरे इन कामों को देखते हुए देश की जनता जरूर मेरी इज्ज़त का ख्याल रखेगी. जिस जनता के लिए इतना कुछ किया वो मेरे जुमले पीएम-इन-वेटिंग को मेरे लिए गाली थोडी ही बनने देगी. लेकिन इस अवसरवादी जनता ने ऐसा नहीं किया और गच्चा दे दिया. इस हार से हम इतने शर्मिंदा हैं कि अब घर से बाहर निकलने का जी नहीं करता है मेरा. मैंने तो सोच रखा था सब छोड़ कर चला जाऊंगा कैलाश पर्वत पर मंथन करने. लेकिन पार्टी ...पीछा छोडे तब न. मेरे हटने की खबर सुनते ही पार्टी के नेताओं में मेरी खाली जगह भरने के लिए जैसे होड़ मच गई. इस माथा-फुटौवल से पीछा छुडाने के लिए सबने फिर मुझे जाने ही नहीं दिया और हम फिर से वहीँ के वहीँ रह गए. लेकिन कोई बात नहीं हमने एक बैठक की है और आगे के लिए अपना एजेंडा तय किया है।

हमने तय किया है कि हम अब पार्टी को संसद से सड़क तक चाक-चौबंद करेंगे. संसद में हम जहाँ मजबूत विपक्ष के रूप में नजर आने का प्रयास करेंगे वहीँ बाहर संगठन चुनावों के जरिए भावी चुनौतियों के लिए अपने को चाक-चौबंद करेंगे. भाई इस बार चूक गए तो क्या... अगली बार तो नहीं छोडेंगे. यहाँ तक कि हमने तो संगठन को चुस्त दुरुस्त करने की तैयारी भी शुरू कर दी है। हमने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक अगले महीने रखी है और पहले इसमें इस चुनाव में अपनी हार के कारणों की समीक्षा करेंगे फिर आगे की रणनीति पर विचार करेंगे. इसके साथ ही हम चिंतन बैठक भी करेंगे. फिर पार्टी को खूब धो-पोछ कर बाज़ार में नए ब्रांड के कवर में लपेट कर लायेंगे. इसके प्रचार पर भी खूब ध्यान देना होगा. किसी अच्छे से विज्ञापन राइटर से स्क्रिप्ट लिखवाकर जनता के सामने टीवी, रेडियो और अख़बार के जरिये परोसेंगे। उस समय के किसी मशहूर और धासु गाने के अधिकार खरीद कर उसे अपने नारे की चाशनी में लपेटकर जनता के सामने परोस देंगे. फिर देखेंगे कैसे हमारी बातों में नहीं आती है जनता. इतनी ओवर हौलिंग के बार हम एकदम नए दिखेंगे...एक दम चकाचक--- एकदम ब्रांड न्यू...

Monday 18 May 2009

ई का हो गवा रे...नेताजी का सब खेले गड़बड़ा गवा...

हाँ तो हम बात कर रहे थे अपने नेताजी की। रात में अलार्म लगाकर सोये थे कि सुबह चुनाव परिणाम आने वाला है और रामफल पंडित की बात सच निकली तो उनकी किस्मत का दरवाजा आज खुलने वाला है. सुबह हुई, अलार्म बजी और नेताजी जल्दी-जल्दी तैयार हो मतगणना केंद्र की ओर चल पड़े. निकलते वक्त उनकी पत्नी ने टीका लगाया ये सोचकर कि शायद आज पति महोदय की किस्मत साथ दे ही दे. हाँ तो नेताजी समय पर मतगणना केंद्र पहुँच गए. नेताजी काफी कांफिडेंट थे आखिर रामफल पंडित का कहा सच काहे न होगा. नेताजी की नज़र मतगणना कक्ष से बाहर आ रहे हर आदमी पर थी. बाहर बोर्ड पर लिखे जा रहे हर अपडेट को नेताजी अपनी किस्मत की ओर बढ़ता कदम मान कर चल रहे थे. लेकिन वैसा नहीं हो पाया जैसे नेताजी ने सोच रखा था.

धूप चढ़ती गई और चुनाव का परिणाम आ गया। नेताजी दौड़ में बहुत पीछे रह गए थे. सामने से जब विजयी उम्मीदवार का जुलूस चला तो नेताजी भी घर की ओर रुख किये. एक-एक कदम ऐसे भारी लग रहा था जैसे किसी ने सैकड़ों टन वजन पैरों में बाँध दिया हो. घर जाने की हिम्मत नहीं हुई और गाँव के पहले चौराहे से ही नेताजी ने रामलाल के चाय की दुकान की ओर रुख किया. लेकिन वहां जाना भी उनके लिए ठीक साबित नहीं हुआ. इलाके के कई लोग वहां बैठे थे और जमानत जब्त करवाकर लौटे नेताजी की खिल्ली उडाने से कोई चूकना नहीं चाहता था. नेताजी को आज महसूस हो रहा था कि अच्छा होता रामफल पंडित की बातों में नहीं आता. इस तरह इलाके के लोग खिल्ली तो नहीं उडाते. वहा से हटकर नेताजी पास के बगीचे में बने चबूतरे पर बैठ गए. कई सप्ताह बाद नेताजी को अकेले बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. वरना जबतक चुनाव चला लोग उनको घेरे रहते थे. आज सुबह भी माधव, पूरण, चंदर वगैरह उनके साथ ही आये थे मतगणना केंद्र तक. लेकिन हारने के बाद धीरे-धीरे बहाना बनाकर कट लिए. बाद में नेताजी ने उन्हें विजयी उम्मीदवार के जुलूस में झूमते हुए देखा था. लेकिन अब कर भी क्या सकते थे. अब नेताजी को इस सब लोगों पर खर्च किये का अफ़सोस हो रहा था.

नेताजी जैसे अतीत की गहराइयों में डूब गए। कहाँ कल तक देखा करते थे संसद में पहुचने के सपने. आज संसद तो क्या घर में घुसने की भी हिम्मत नहीं हो रही है. नेताजी को मालूम था क्या होने वाला है घर पहुचने पर. पत्नी जो सुबह आरती लेकर बिदाई दे रही थी. घर पहुचते हीं हल्ला मचा देगी. मोहल्ले के लोग सुने तो सुने लेकिन वो कहाँ बख्शने वाली है आज. कल नेताजी ने प्लान बनाया था सरकार को समर्थन देने तक पार्टी उन्हें किसी पहाडी इलाके में छुपा कर रखेगी और वे अपने परिवार के साथ घूमने का मजा ले सकेंगे. अभी ये योजना उन्होंने मन में ही रखी थी आज जीतने के बाद बताने वाले थे. लेकिन उनकी बीवी को इससे क्या. इलाके के वोटरों ने उनके सारे सपने की वाट लगा दी. घर के अलमारी में धुलकर रखवाई सिल्क का कुरता-पजामा और चमकदार जूता जो उन्होंने जीतने के बाद पहनने के लिए बनवाया था उन्हें गाली देते हुए प्रतीत हो रहे थे. हल्का अँधेरा घिरने के बाद वे सर झुकाए घर की ओर निकले. सोचा अब कोई नहीं टोकेगा और मजाक नहीं उडाएगा. एक बार घर पहुँच जाये तो कुछ दिन बाहर नहीं निकलेंगे. जब सब लोग शांत हो जायेंगे तब ही निकलेंगे मोह्हल्ले में.

अभी नेताजी अपनी गली में मुड़े ही थे कि पता नहीं कहाँ से खेदन धोबी की नजर उनपर पड़ गई. . नेताजी ने लाख बचना चाहा लेकिन उस कमबख्त ने टोक ही दिया. अरे नेताजी अपना कुरता और को़ट तो लेते जाइये. ये कहते हुए उसने नेताजी का रेशमी कुरता, गरम को़ट और गमछा पकडा दिया. अब नेताजी उस बेवकूफ को क्या कहते, हाथ में टांगे घर की ओर बढे. नेताजी ने को़ट धुलने को ये सोचकर दे दिया था कि जीतने के बाद अगर पार्टी की ओर से उन्हें किसी बर्फिले इलाके या किसी ठंडे इलाके में स्थित हील स्टेशन में छुपाया जायेगा तो ये कोट काम आएगा. लेकिन आज नेताजी को हाथ में टंगा को़ट उनके सपनो की लाश के समान लग रहा था. घर के सामने आकर नेताजी ने दरवाजे पर निगाह डाली. काफी हिम्मत बटोर कर नेताजी ने दरवाजे की ओर कदम बढाया. लेकिन आज उनके कदम उनका साथ नहीं दे रहे थे और घर किसी अँधेरी गुफा के समान लग रहा था. उन्हें लग रहा था कि आज जो अन्दर गए तो फिर कभी बाहर नहीं निकल सकेंगे...

Saturday 16 May 2009

वोटर युग का अवसान अब बस होने ही वाला है!

भारतीय लोकतंत्र का मैं भी एक वोटर हूँ। अब यानी कि १५ मई की आधी रात को मुझे लगाम अपने हाथ से छूटती हुई दिख रही है. वैसे तो १३ मई से ही हम जैसे वोटर रुपी जीव खुद को असहाय महसूस करने लगे थे. लेकिन अब जाकर लगाम अपने हाथ से पूरी तरह बाहर जाती हुई दिख रही है. वैसे तो लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि ये जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा चलाया जाने वाला शासन है लेकिन सच कहें तो अब अगले 5 सालों तक हम वैसे ही होंगे जैसे चिडियाघर के पिजरे में बंद शेर होता है. हम फुफकारते तो रहेंगे लेकिन कुछ कर नहीं सकेंगे. अब हमारा वक्त ख़त्म हो रहा है और हमारे नेताजी का युग शुरू हो रहा है.

हो भी क्यूँ न इसी दिन के लिए न जाने कब से मन्नत मांगते आ रहे थे हमारे नेताजी। उनकी अम्मा तो उनके सफल होने की बाट जोहते कब की इस दुनिया से रुखसत हो गईं। इतना ही नहीं नेताजी घर से बाहर रहने के कारण हमेशा अपने घर के लोगों की आलोचना के शिकार होते रहे हैं। प्रेमचंद के उपन्यास शतरंज के खिलाडी के पात्र नवाब साहब की तरह उनकी बीवी जब चाहे तब उनपर बरस उठती हैं- "आपको घर से क्या लेना-देना, हमेशा पता नहीं क्या भाषणबाजी चलती रहती है। पता नहीं कब काम के आदमी बनोगे। पूरी उम्र बीत गई इसी फालतूबाजी में." नेताजी ने इस बार देवी मां के यहाँ मन्नत मांग रखी है जीत कर आयेंगे तब जवाब देंगे इनको. तब हम भी दुनिया में सीना तानकर चल सकेंगे. तब हम देश के विशेषाधिकार प्राप्त नागरिक होंगे और जो चाहे कर सकेंगे. तब कोई दिखाए हमारी गाड़ियों के काफिले के रस्ते में आकर. ऐसे रौदेंगे कि पता भी नहीं चलेगा. एक एक चीज के लिए तरसे हैं लेकिन अब आ रहा है हमारा वक्त. देश के विकास में सहभागी बनने का, परियोजनाएं आगे बढ़ाने का, ठेकेदारी पास कराने का, देश पर हुकुम चलाने का...तब लेंगे अपने इलाके के अधिकारीयों की क्लास और लेंगे अपने साथ हुए हर बदतमीजी का बदला.

वैसे इन सब से पहले नेताजी को चुनाव में किये गए अथाह खर्च की वापसी की चिंता भी सता रही है। इसके लिए भी उन्होंने रोड मैप बना रखी है. भाई गठबंधन की राजीनीति के ज़माने में नेताजी को एकला चलने की नीति की ताकत और अपनी अहमियत अच्छी तरह मालूम है. इसलिए नेताजी अभी अपने पत्ते नहीं खोल रहे हैं और संसद में पहुँच कर किसे समर्थन देंगे इसका फैसला सामने वालों की थैली का अंदाजा लगने के बाद ही करेंगे. इस मौके का इस्तेमाल नेताजी परिवार के संग किसी महँगी और सुंदर जगह की मुफ्त यात्रा के लिए भी करने वाले हैं. जिस दल से नेताजी का टाका भिडेगा वो बहुमत साबित होने तक किसी गुप्त जगह पर नेताजी को रखेगी ही. तब नेताजी कोई रमणीय स्थल का चुनाव करेंगे और अपने परिवार के साथ खूब मौज-मस्ती करेंगे.

वैसे नेताजी नए ज़माने के उसूलों से अनजान नहीं हैं। अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में उन्होंने ज़माने को खूब जांचा-परखा है. इसलिए उन्होंने संसद में पहुँचने के बाद---"बी प्रोफेशनल" शब्द को अपना मूलमंत्र बनाने का फैसला किया है-- वो भली-भांति जानते हैं कि उनके जीतने के बाद कैसे उनके रिश्तेदार जो कल तक उनको घास भी नहीं डालते थे अब उनको डोरे डालेंगे. इसलिए नेताजी ने प्रोफेशनल अंदाज अपना कर केवल उन्हीं लोगों का काम करने का फैसला किया है जो उनके आर्थिक विकास में सहायक सिद्ध हो सके और खुद के साथ-साथ नेताजी की आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सके.

आज का दिन नेताजी के ऊपर बहुत भारी गुजरा। दिनभर नेताजी रामफल पंडित के साथ बाहर के कमरे में बैठकर कुंडली में न जाने क्या तलाशते रहे. माफ़ करिएगा मैं नेताजी पर कोई आरोप नहीं लगा सकता, क्या पता नेताजी और पंडित रामफल मिलकर कुंडली और पंचांग में से देश का कुछ भला तलाश कर निकाल रहे हों. वैसे पंडित जी के कहने पर ही नेताजी ने राजनीति में दांव आजमाने का फैसला किया था. जब पंडितजी ने उन्हें कहा था कि आपकी कुंडली में तो राजयोग है और आपकी पांचों अंगुलियाँ मरते दम तक घी में डूबी रहेगी. काफी सोचने-विचारने के बाद नेताजी ने राजनीति में उतरने का फैसला किया था क्योंकि उनके अनुसार यही वो जगह थी जहाँ रहकर वे राज भोग सकते हैं और उनकी पांचों अंगुलियाँ घी में डूब सकती है वरना आज के आम आदमी को घी तो क्या दूध तक नसीब होना मुश्किल हो गया है...रात में सोते वक्त नेताजी ने घड़ी में अलार्म लगा लिया है कल सुबह जल्दी उठना है. पंडित रामफल की माने तो कल ही शुभ मुहूर्त है नेताजी के कुंडली में लिखे राजयोग के पूर्ण होने का...

Friday 15 May 2009

'स्लमडॉग' अजहरुद्दीन और मिलिनेअर फ्रीडा पिंटो!

हाल ही में एक फिल्म आई थी 'स्लमडॉग मिलिनेअर'। एक चाय वाले के करोड़पति बनने की अविश्वश्नीय लेकिन दर्दभरी दास्ताँ। फिल्म में देशी-विदेशी क्रियेटिव महारथियों का जमावाडा था. ब्रिटिश डायरेक्टर, भारतीय संगीत निर्देशक और फ्रेंच डीजे के तडके के बीच गरीबी की ऐसी जबरदस्त मार्केटिंग की गई कि फिल्म ने दुनिया भर में अपना डंका बजा दिया. फिल्म ने ८ ऑस्कर जीते और चमचमाते भारतीय सिनेमा जगत ने इसे अपनी सफलता के रूप में प्रचारित किया. फिल्म ने जबरदस्त कारोबार किया॥एक रिपोर्ट के अनुसार फिल्म अब तक 32 करोड़ डॉलर से ज्यादा की कमाई कर चुकी है।

इस फिल्म से जुडी दो खबरें आज पढने को मिली। दोनों खबरें इस फिल्म से जुड़े कलाकारों से जुडी हैं। पहली खबर फिल्म की हीरोइन फ्रीडा पिंटो से जुड़ी हुई है. इस फिल्म की अपार सफलता ने फ्रीडा को अचानक लाइम लाईट में ला दिया. फ्रीडा आज के वक्त में हॉलीवुड के मंहगे सितारों में शामिल हो चुकी है. फ्रीडा के खाते में आज एक और सफलता जुड़ गई. मशहूर फैशन पत्रिका 'मैक्सिम' की दुनिया के १०० हॉट स्टार्स की लिस्ट आई है और फ्रीडा ने ४९वे स्थान पर जगह बनाई है. इतना ही नहीं मैक्सिम के मार्च के इंडियन संस्करण के कवर पर भी फ्रीडा दिखेंगी. मतलब सफलता आज फ्रीडा के कदम चूम रही है।

इसी फिल्म में एक बाल कलाकार अजहरुद्दीन इस्माइल एम। शेख ने भी काम किया था। झुग्गी का रहने वाला अजहरुद्दीन आज भी वही रहता है उसकी लाइफ स्लम से शुरू हुई थी और आज भी वही पल रही है. स्टारडम ने उसे झुग्गी से नहीं निकाला. फिल्म की अब तक की कमाई अरबो डॉलर भले ही हो लेकिन इससे अजहरुद्दीन की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता. इतना ही नहीं आज हुई एक घटना ने अजहरुद्दीन को झुग्गी से भी निकाल बाहर कर दिया. मुंबई में गुरुवार सुबह वृहन मुंबई नगर निगम (एमसीजीएम)द्वारा करीब 50 झोपड़ियां ढहा दिए गए. इसमें अजहरुद्दीन की झुग्गी भी थी. मीडिया को जैसे ही भनक मिली दौड़ पड़े टूटी हुई झुग्गी की ओर. मीडिया को मसाला मिल गया था. अजहर ने जो मीडिया को बताया वो गौर करने वाली बात है, अजहर ने बताया---"उसके पास रहने को अब कोई ठिकाना नहीं। हम चिलचिलाती धूप में सड़क पर बैठे हैं। हमारा सारा सामान या तो फेंक दिया गया है या फिर नष्ट हो गया है। हम नहीं जानते आज हमारा पेट कैसे भरेगा। नहीं मालूम कि शाम को मैं क्या खाऊँगा और कहाँ सोऊँगा." फिल्म की सफलता के बाद इन बाल कलाकारों को घर देने की घोषणा की गई थी जाहिर है अगर घर मिल गया होता तो ये झुग्गी में क्या करते...

फ़िल्मी स्लमडॉग को मिलिनेअर बनाकर 'स्लमडॉग मिलिनेअर' जरूर बिलिनेयर बन गया लेकिन इससे स्लम की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. हाँ पुलिस ने जरूर स्लम ख़त्म कर गरीबी मिटाओ, नहीं-नहीं सॉरी "गरीबों को मिटाओ" का अपना वादा पूरा किया है...

Thursday 14 May 2009

सर्वे, सुराही और लोकतंत्र का फ्रॉड!

१३ मई २००९। शाम के ५ बजते हैं. देश का आखिरी वोटर अपने मताधिकार का प्रयोग कर ईवीएम से दूर होता है और अचानक समाचार चैनलों के परदे पर हलचल मच उठती है. अचानक हर समाचार चैनल पर एक्जिट पोल और सर्वे का संसार जगमगा उठता है. चुनाव के संभावित परिणामों को लेकर हर चैनल का अपना राग, हर चैनल पर अलग-अलग आंकडे और हर चैनल के लिए आंकडे जुटाने वाले अलग-अलग नाम. हर आंकडे का विश्लेषण करने के लिए हर चैनल पर अलग-अलग चेहरा. ये है लोकतंत्र का बाज़ार और दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र में बाजारवाद की पहुँच.

हर चैनल अपने एक्जिट पोल के नतीजे को अगर-मगर की चाशनी में लपेट कर पेश किये जा रहा था। इसके साथ ही एसएमएस का खेल भी शुरू हो गया. एक मशहूर चैनल ने एक मोबाइल कम्पनी के विज्ञापन के साथ सही-सही सीट का आकलन करने की प्रतियोगिता शुरू कर दी और विजेता के लिए इनाम की घोषणा भी कर दी. हमारे गाँव में इसे बुज्झ्वल कहा जाता है. मुझे बचपन में अपने पड़ोस के एक बुजुर्ग के इस तरह के बुज्झ्वालों का लगातार सामना करना पड़ता था. वैसे इसमें कोई ज्यादा झमेला नहीं है. अगर आपका तुक्का सही बैठा तो आपकी बल्ले-बल्ले और अगर तुक्का फुस्स हो गया तो बात बदल डालिए. एक्जिट पोल को लेकर अपने देश में अब तक ऐसा ही होता रहा है. हर चुनाव के वक्त तुक्का खूब लगाए जाते हैं और चुनाव परिणाम आने के बाद जब सच्चाई सामने आती है तबतक टीवी चैनल वाले अच्छी-खासी कमाई निकाल चुके होते हैं और तब जनता इन्हें कोसते फिरती है. लेकिन तब किया ही क्या जा सकता है. यहाँ दर्शको की स्थिति बिलकुल देश के वोटर की तरह है जो नेताओं को जीताने के बाद अगला ५ साल असहाय की तरह काटती है. वोट की शक्ति इस्तेमाल कर लेने के बाद फिर ५ साल नेताओं को कोसने में बीता देती है.

एक्जिट पोल और सर्वे के इस फ्रॉड की सबसे अच्छी खिंचाई आज एक टीवी चैनल पर आये एक वरिष्ठ पत्रकार ने की। एक मशहूर टीवी चैनल का लाइव प्रोग्राम चल रहा था. न्यूज़ रूम में माइक लेकर घूम रहे एक जाने-माने एंकर ने जब उनसे एक्जिट पोल के बारे में पूछा तो उन्होंने हाथ में एक सुराही लेकर इसका जमकर मजाक उड़ाया. सुराही में जहाँ-तहां पानी डालकर वे और फिर उसे उडेलने का प्रयास कर वे कुछ देर तक उसमें देश की सबसे बड़ी पार्टी तलाशते रहे. उस समय टीवी देखने वाले जरूर सोच रहे होंगे कि कुछ जरूर हो रहा है लेकिन कुछ देर तक सुराही वाला तमशा करने के बाद उन्होंने कहा कि ये कोई तरकीब नहीं बल्कि एक फ्रॉड है और एक्जिट पोल जैसी चीजे इसी तरह का प्रयास है. कुछ भी हो कुछ पल के लिए टीवी के परदे पर चल रहा ये तमाशा मेरी जिज्ञासा का केंद्र-बिंदु बना रहा.

लेकिन फिल्म अभी बाकी है मेरे दोस्त... लोकतंत्र के तमाशे का ये तो सेमीफाइनल है. फाइनल तो १६ मई को होगा जब ईवीएम के द्वार खुलेंगे और देश के वोटरों की करतूत सबके सामने आयेगी. फिर बनेगी देश की लोकप्रिय सरकार. किसी महान आदमी ने कहा था- "किसी भी समाज का नेतृत्व उसकी जनता और उसकी सोच का आइना होती है"...हम भी इस इन्तेजार में है कि १६ तारीख आये और जनता और उसकी सोच ईवीएम से बहार निकल कर सबको दिखाई दे...जय लोकतंत्र...

Wednesday 13 May 2009

पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं है!

"पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं है"-- पता नहीं किस महान आत्मा ने ये बात कही थी, लेकिन कुछ भी हो बात है बड़ी पत्ते की। पैसे की महिमा कौन नहीं जानता. आप सब जानते हैं कि यहाँ बिना पैसे के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता. बिना पैसे के आज के जमाने में किया ही क्या जा सकता है. करने की तो छोडिये अगर आपके पास अथाह धन नहीं है तो फिर ये दुनिया आपको जीने भी नहीं देगी. अगर आप सपनों के देश भारत के नागरिक हैं और आपकी आय रोजाना ६० रूपये से कम है तो फिर ये दुनिया आपको गरीबों की सूचि में डाल देगी. उस महान आदमी द्वारा कही गई महान बात को अपने जीवन में नहीं उतार सकने वाले भारत में करीब एक तिहाई लोग हैं. वर्ल्ड बैंक की ग्लोबल इकनॉमिक प्रॉस्पेक्टस फॉर 2009 शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी के प्रतिशत के लिहाज से भारत की स्थिति केवल अफ्रीका के सब-सहारा देशों से ही बेहतर है। बैंक ने अनुमान जताया है कि 2015 तक भारत की एक तिहाई आबादी बेहद गरीबी (1.25 डॉलर, यानी करीब 60 रुपये प्रति दिन से कम आय) में अपना गुजारा कर रही होगी। हमारे पडोसी देश चीन के लिए यह आंकड़ा 6.1 प्रतिशत और दुनिया के सबसे गरीब सब-सहारा अफ्रीकी क्षेत्र के लिए 37.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है।

((कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए, यहां तो रोशनी नहीं है शहर के लिए))

तेजी से संपन्न हो रहे हमारे देश के ऐसे बदकिस्मत लोगों के लिए पिछले ६ दशकों में चुनावों के वक्त न जाने कितने नारे दिए गए, कितने आश्वासन दिए गए. इतने सालों में देश में विकास के नाम पर करोडों-अरबो रूपये खर्च हुए. हालत ऐसी है कि देश की राजनीति आजकल करोडों में पहुँच गयी है. मसलन अगर आपको चुनाव के मैदान में उतरना है तो करोडों की औकात बनानी पड़ेगी. लेकिन आज भी देश में करीब ४०-४५ करोड़ लोग ऐसे है जो रोजाना ६० रुपया कमा पाने में भी सक्षम नहीं हैं. अभी भी देश में चुनाव चल रहे हैं और लोगों को गरीबी से मुक्ति दिलाने के नाम पर न जाने कितने सपने दिखाए जा रहे हैं लेकिन देश जानता है कि जब इतने सालों में किस्मत यहीं पर बनी हुई है तो आज कौन सा अलादीन का चिराग हाथ लग गया है कि आज देश के बदकिस्मत लोगों की किस्मत चमक जायेगी.

Tuesday 12 May 2009

पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा इन वोटरों से...

अजी निराश मत होइए अब शुभ मुहूर्त आने ही वाला है। जी मैं १3 मई की बात कर रहा हूँ. जब शाम ५ बजे आखिरी वोटर अपनी ताकत दिखा लेगा और फिर हमारे देश की राजनीतिक बिरादरी जनता-जनार्दन के चंगुल से अगले ५ सालों के लिए(?) आजाद होकर अपने मन की कर सकेगी. अभी तो देश की जनता राजनितिक बिरादरी के लोगों की सारी मनोकामनाओं और इच्छाओं पर कुंडली मारे बैठी है और ऐसे नखरे दिखा रही है कि कुछ भी हमारे मन का गलत किया तो अपने वोट की ताकत दिखाकर ऐसे बटन दबायेंगे की कहीं के नहीं रहोगे. अब ज्यादा दिन की बात नहीं है इसलिए राजनीतिक बिरादरी के लोग इन्हें झेले जा रहे हैं. भाई जितना फुफकारना है १३ मई तक फुफकार लो... फिर हर काम के लिए हमारे घर के चक्कर ही लगाओगे न. फिर दिखायेंगे हम भी अपनी जात. फिर बताएँगे हम अपनी ताकत. एक-एक मुलाकात के लिए नाको चने न चबवा दिए तो फिर नेता नाम नहीं.

मौज-मस्ती से लेकर सब कुछ इस जनता-जनार्दन के बच्चे ने रोक रखा है। लेकिन बेटा कब तक रोकोगे...१३ तक ही न. फिर ५ साल करेंगे हम अपनी मौज-मस्ती. तब देखेंगे कहाँ-कहाँ रोकते हो. तब सिस्टम अपनी होगी, पुलिस-प्रशासन अपना होगा और फिर सरकारी खजाना भी अपना होगा. फिर टांग अड़ा कर देखना- तब बताऊंगा.

अब देखिये नेता जी लोगों ने अपने कितने अरमान चुनाव ख़त्म होने तक के लिए रोक रखे हैं। एक किस्सा चुनाव के दौरान सबसे मशहूर हो गया. देश के एक मशहूर प्रान्त के एक मशहूर सेकुलर नेता और वर्तमान मुख्यमंत्री जी जी जो अबतक सिर्फ और सिर्फ सेकुलर कहलाना पसंद करते थे...उन्होंने अपने राज्य में चुनाव ख़त्म होने के अगले दिन सेकुलरवाद के सबसे बड़े विरोधी के साथ मंच संभाल लिया और सेकुलरवाद की हवा निकाल दी.इसी तरह अपने रामपुर के शोले इतने तेज भड़क रहे हैं कि हालात बेकाबू हो रहे हैं. ठाकुर और जय की दादागिरी से आहत होकर अपने वीरू भैया ने १३ मई के बाद सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा कर दी है.इतना ही नहीं लाल बादशाह ने भी अपने पत्ते १६ मई के बाद खोलने की घोषणा कर दी है. ऐसे ही न जाने कितने सपने १३ मई तक के लिए रोक राखी है राजनीतिक लोगों ने जब उन्हें आज़ादी मिलेगी.

सभी दलों के लोग १३ मई को राहत की साँस ले सकेंगे और जनता के चंगुल से बाहर निकल सकेंगे. तब देखना मनाएंगे आज़ादी का जश्न. सड़कों पर ढोल-नगाडे बजेंगे. चहक-कर मजे करेंगे. फिर न तो वोट का डर होगा और न ही चुनाव आयोग जैसे मौसमी समस्याओं का भय. फिर तुम भी आना हमारे जश्न में शामिल होने. भाई भीड़ बढाने के लिए कुछ तो चाहिए ही. हमारी चुनावी सभाओं में भी तुम ही भीड़ बढाने आते थे और अब हमारे जश्न का रंग फीका मत करो और अगर नहीं आये तो याद रखना जब हमसे काम पड़ेगा फिर बताएँगे...

Tuesday 5 May 2009

चुनावी मैदान से सकुशल पीछे हटने की कला...

टीवी पर एक उम्मीदवार के चुनावी मैदान से पीछे हटने की खबर देखकर आज अचानक मुझे अपने एक मित्र की याद आ गयी। उन्हें राजनीतिक व्यक्ति कहना तो नहीं चाहता लेकिन उनकी और कोई पहचान भी नहीं है।वे पिछले २५ सालों से राजनीतिक गलियारों में वैसे ही टहलते रहे हैं जैसे उनका घर हो, उनका बगीचा हो. अपने हर बात में पूरे जोश के साथ वे कहते हैं कि भाई हमने सर के बाल ऐसे ही नहीं सफ़ेद किये हैं इस गलियारे में ढाई दशक बिताये हैं और सबकी रग-रग से वाकिफ हैं. हालाँकि इस दौरान उन्हें किसी ने सीरियसली नहीं लिया. मेरे बार-बार सीरियसली नहीं लेने के बावजूद भी वो अक्सर मेरे करीबी बन बैठते हैं. हर महीने उनके किसी नए प्रस्ताव के लिए मैं तैयार रहता हूँ. हर बार वे किसी नए आईडिया के साथ उपस्थित होते हैं और उस आईडिया के फ़ेल होने तक मुझे उन्हें झेलना होता है. हर बार उनका कहना होता है कि ये फ्लॉप होने वाला आईडिया नहीं है और दुनिया में उन्होंने केवल मुझे ही इस बारे में बताया है. मुझे उनसे कोई दिक्कत नहीं होती क्यूंकि मैं पहले दिन से ही उनके आईडिया के फ्लॉप होने को लेकर आश्वस्त रहता हूँ. और इस भावना के साथ मैं उन्हें हर बार झेल जाता हूँ. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के ६ माह पहले एक दिन अचानक मेरे उन मित्र का फोन आया. चौंका देने वाले अंदाज में उन्होंने मुझे एक बहुत जरूरी बात का वास्ता देकर शाम में मिलने के लिए मना लिया. शाम में मिलने पर उनके चेहरे की चमक बता रही थी कि इस बार भाई साहब फिर किसी धांसू आईडिया के साथ हाज़िर हैं. आते ही उन्होंने हाथ में कुछ कागज निकालकर दिखाया. एक विधानसभा क्षेत्र का पूरा ब्यौरा था. भाई साहब ने अपनी जेब से अपना कार्ड निकाला और अपने पोस्टर भी दिखाए. बिल्कुल नए अंदाज में खिचवाए फोटो में भाई साहब एकदम झकास दिख रहे थे. भाई साहब ने छूटते ही कहा भाई इस बार मैं चुनाव लड़ने जा रहा हूँ. मेरे आर्श्चय का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि मैं उनकी माली हालत जानता था और आज के वक्त के चुनावी खर्चे के फैशन से भी अनजान नहीं था. मैंने पूछ डाला- भाई साहब इस अनजान शहर में और बिना जेब की इजाज़त के अचानक इस तरह का विचार कैसे आया. उन्होंने अपनी बात बहुत साफ़ अंदाज में समझाई. उनकी बातों को मैं उन्हीं के शब्दों में रख रहा हूँ--- "भाई सच्चाई ये है कि हमने अबतक की अपनी जिंदगी में केवल राजनीति की है और अब हम कोई और काम नहीं कर सकते. राजनीति के चक्कर में अपना शहर अपना राज्य छूटा और अब यहाँ आकर क्या कर सकते हैं. सच्चाई ये है कि हमारे लिए हार-जीत कोई मायने नहीं रखती और जबतक हम राजनीतिक हैं तभी तक जिन्दा है और जब हम राजनीति से दूर हो जायेंगे- ख़त्म हो जायेंगे."--- साफगोई से अपनी बात कहते हुए उन्होंने बताया कि उन्होंने एक हिंदूवादी दल के चुनाव चिन्ह पर पर्चा भी दाखिल कर दिया है. उन्होंने चुनाव की पूरी रणनीति भी मुझे समझाई. पूरे आत्मविश्वास से लबालब वे मुझे लेकर अपने इलाके में निकल पड़े. रास्ते में उनके रणनीतिकार कई मित्र लोगों के यहाँ रुकने पर मुझे राजनीति के बारे में कई नए अनुभव हुए. मसलन मोर्चे निकालने के लिए और उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करने के लिए क्या तैयारी करनी पड़ती है, कैसे आपके सभाओं में लोग आते हैं, उनके कई मित्रों ने सभा के लिए लोगों को लाने का ठेका लिया और साथ ही उसपर आने वाला खर्च भी उन्हें बता दिया. सभाओं के दौरान भीड़ जुटाई जाये इसके लिए एक गायक महोदय से भी उनकी बाते हुई. सारी तैयारियों को देखकर मुझे थोडा-थोडा भरोसा होने लगा कि शायद पिछले दिनों में इन्होने अपने इलाके में जान-पहचान बढाकर चुनाव लड़ने लायक स्थिति में खुद को ला दिया है. सब नज़ारे देखने के बाद मुझे भी वक्त देने का वचन देना पड़ा. लेकिन गाँव जाने के लिए मैंने एक हफ्ते तक न आने की मजबूरी बताई और वापसी के बाद उनके इलाके में काम करने का वचन दिया.

एक हफ्ते बाद वापस आकर अपने वचन के अनुसार मैंने उन्हें सूचना देने के लिए फोन किया कि मैं वापस आ गया हूँ और अब आपको समय दे सकता हूँ। उनकी भाषा बदली हुई थी और उन्होंने तुंरत खुशखबरी सुनाई- भाई मैंने इलाके के हित के लिए चुनाव से अपना नाम वापस ले लिया है। मैंने कहा फिर क्या करना है. उनका जवाब था कि भाई मैंने फलाना पार्टी के लिए चुनाव प्रचार शुरू कर दिया है. इसके साथ ही उन भाई साहब ने नयी पार्टी जो कि उनके पहले वाले दल की विचार के स्तर पर पूरी तरह विरोधी थी की जमकर तारीफ शुरू कर दी. इतना ही नहीं जल्द ही उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन भी दिखने लगे। जब मैं उनके घर पहुंचा तो उनके घर में रंग-रोगन का काम लगा हुआ था और भाई साहब का जोश दुगुना-चौगुना दिख रहा था। कल तक एक-एक पैसे के लिए रोने वाले भाई साहब ने अपना आगे का आईडिया सुना डाला. भाई साहब जल्द ही व्यापर शुरू करने वाले थे और इस बार उन्होंने किसी संभावित फाइनेंसर का नाम लिए बिना व्यापार की अपनी योजना सुना डाली. हैरानी में मैं उनके चेहरे को ताक रहा था. आखिर चुनाव में खडा होने और फिर बैठ जाने के दौरान इतनी ताकत कहाँ से आ गयी इनमें. हमें छोड़ने के लिए वे मोहल्ले में निकले और लोगों से अपनी नयी पार्टी के बारे में उसी अंदाज से बात करते जा रहे थे जैसे १० दिन पहले पिछली पार्टी के बारे में करते उन्हें देखा था. उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. मैंने इसका कारण पूछा तो उन्होंने फिर साफगोई के साथ कहा- तुम नहीं समझोगे यही राजनीति है॥
धीरे से कहे हुए उनके ये शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे...मेरे लिए ये भी एक नया राजनीतिक ज्ञान था.

Sunday 3 May 2009

राजनीति में ईमानदारी और खर्चे का झमेला!

हमारे बड़े-बुजुर्ग बड़े आराम से कहते हैं कि भाई राजनीति में अब ईमानदारी का जमाना ही नहीं रहा। कहाँ वो जमाना था जब नेता लोग पैदल चुनाव प्रचार करते थे और कहाँ ये जमाना आ गया जब नेता लोग साधन-संपन्न एसी गाड़ियों में घूम रहे हैं. तब से अब तक देश ने कितना विकास कर लिया ये चुनाव के वक्त ही दिखता है. चुनावी खर्च का भले जो भी ब्यौरा चुनाव आयोग और प्रशासन को दिया जाता हो लेकिन क्षेत्र की जनता को पता रहता है कि हमारे नेताजी ने पिछले ५ साल में कितना विकास कर लिया. सत्ता सुख भोग रहे नेता जी को बेदखल कर मौका अपने हाथ में लेने के लिए सामने वाले में भी उतना ही दम चाहिए. इसलिए अब चुनाव मैदान में वे लोग उतर पाते हैं जिनमे अपने लोगों पर खर्च करने की कुव्वत हो. इलाके के लोग भी अब वैसे लोगों को सीरियसली नहीं लेते जिनके पास जमकर उडाने लायक पैसा नहीं हो.

मुझे याद है जब २ साल पहले मेरे गाँव में ग्राम प्रधान और ब्लाक प्रमुख के चुनाव हुए थे। तब उम्मीदवारों के घर में जैसे मेला लगा रहता था. आम दिनों में घर के आस-पास तक न फटकने वाले इलाके के लोग उनके आगे-पीछे ऐसे दिखने लगे थे जैसे उनसे कई पुश्तों की रिश्तेदारी हो. पडोसी होने के कारण हर गतिविधि पर नज़र हमेशा बनी रहती थी. तब उनके घर से आने वाली मीट और मशाले की खुशबु मुंह में पानी भर दिया करती थी. तब रोज सुबह उठकर दोनों घरो के बीच स्थित गढ्ढे में झांकना मैं नहीं भूलता था. देशी विदेशी शराब के खाली बोतल ऐसे पड़े रहते थे जैसे दीपावली के बाद पटाखों के कागज के टुकडे. शाम में जैसे ही अँधेरा होता लोग गमछे में कुछ छिपाकर ले जाते हुए दिखने लगते. दादाजी से पूछने पर पता चला लोग इन दिनों मुफ्त के मदिरे का जमकर लुत्फ़ उठा रहे हैं. दादाजी ने एक को रोक कर पूछा था भाई रोज खाने के समय से लेकर शाम तक यहीं दिख रहे हो वोट तो इन्हें दोगे न. ये जानकार कि हम ये बात हम किसी को नहीं बताएँगे उस आदमी ने धीरे से कहा---काहेका जब तक जहाँ से जो मिल रहा है ले लो. फिर कौन देखता है किसे वोट दिया. दुसरे उम्मीदवार के पीछे मिठाई के दुकान के बाहर क्या लाइन लगती थी. मिठाई वाले ने पूछने पर बताया था नेता जी ने कहा है चुनाव के दिन तक खाता चलाओ जिन्हें मैं कहूँ उन्हें ही देना और जिनके लिए कहने के बाद ना का इशारा करूँ उन्हें टरका देना. जनता भी कम चालाक नहीं है चुनाव हुआ और चालक जनता ने फिर इन दोनों नेता जी लोगों को टरका दिया. बाहरी उम्मीदवार जीत गया और दोनों की सारी उम्मीदें धरी की धरी रह गयी. निचले स्तर का चुनाव था दोनों ने जमकर पैसे लुटाये थे. इस उम्मीद में कि जीतने पर सारा वसूल लेंगे.