Sunday 27 December 2009

अंधेर नगरी-चौपट राजा!

बात-बात में मीडिया को कोसने वाली जनता आज कहाँ है. जो काम उसे करना चाहिए था वह मीडिया कर रहा है. मीडिया ने साबित किया है कि जो गलत है उसे रोकने में वह एक सशक्त माध्यम बन सकता है, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि इस काम में आखिरकार सबकुछ जनता के ऊपर ही टिकी हुई है. मीडिया के एक स्टिंग ऑपरेशन ने सेक्स स्कैंडल के आरोप में फंसे एक राज्य के गवर्नर को महज ३० घंटो के अन्दर राजभवन से बेदखल करवा दिया और राजनीतिक जमात को यह याद दिला दिया कि राजभवन की गरिमा क्या होती है. मीडिया के लगातार अभियान के कारण एक राज्य के एक रसूखदार पुलिस अधिकारी के ऊपर इन दिनों शामत आई हुई है. इन अधिकारी के ऊपर एक युवा महिला बैडमिन्टन खिलाड़ी के साथ छेड़-छाड़ और उसे आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप है. यह घटना १९ साल पुरानी है, मीडिया ने यहाँ देश के न्याय व्यवस्था पर भी सवाल उठाया है कि आम आदमी के लिए न्याय का पैमाना क्या है और रसूखदार लोग किस तरह से प्रशासन का इस्तेमाल कर न्याय प्रक्रिया को बाधित करते हैं और साथ ही यह सवाल भी कि न्याय व्यवस्था इसे रोकने के लिए क्या कर रही है? मीडिया के अभियान के बाद आज केंद्र से लेकर उस राज्य तक की सरकार इस मामले में जागी है और तमाम महिला संगठन भी न्याय दिलाने के लिए आगे आये हैं.

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सवाल यहाँ और भी कई हैं, जिसमे दोष आखिरकार जनता के ऊपर ही आता है. इसी देश की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में महज २-३ सालों में एक मुख्यमंत्री हजारो करोड़ का गबन कर जाता है, न्याय व्यवस्था उसके साथ क्या करती है ये तो सवाल हमारे सामने मौजूद है हीं, लेकिन जनता ने ऐसे जनप्रतिनिधियों के साथ क्या किया ये भी सोचने वाली बात है. इस घटना के उजागर होने के कुछ महीनों के अन्दर ही जनता उस शख्स की पत्नी को चुनकर विधानसभा में भेज देती है. एक ऐसी जगह जहाँ जाकर उसे जनता के लिए नियम-कानून और नीतियाँ बनाना है. जब जनता खुद ही ऐसे लोगों के हाथों में अपनी तक़दीर सौंप रही है तो फिर किस अधिकार से देश की जनता राजनीतिक जमात पर ये आरोप लगाती है कि देश की आजादी के ६ दशकों बाद भी समुचित विकास नहीं हुआ और आज भी बेरोजगारी, गरीबी और अशिक्षा जैसी समस्याएं देश में मौजूद है. सच कहा जाये तो प्रशासन देश की जनता के विचारों और उसकी दृष्टि का आइना होती है और हम जैसे हैं वैसा ही हमें राजनीतक नेतृत्व मिला है. अगर हम इससे खुश हैं तो फिर कोई और तो आयेगा नहीं हमें बचाने...हम यूहीं पिसते रहेंगे...महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं की चक्की में और राजनीतिक जमात हर साल लोकतंत्र और चुनाव के नाम पर हमारे सामने ही करोडो-अरबो रूपये उड़ाता रहेगा और उसमें से कुछ नोट हमारे सामने भी फेंक दिया करेगा हर बार- एक वोटर होने के नाते...शायद इसी वक्त के लिए कहा गया है--"अंधेर नगरी-चौपट राजा!"

Thursday 17 December 2009

सच भाई... जमाना कितना बदल गया न...

जमाना कितना बदल गया। पहले शादी-ब्याह के मौके पर लड़के-लड़की ऐसे सकुचाये-सकुचाये घूमते थे जैसे जबरदस्ती उनकी शादी हो रही हो और उनके पास बचने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए शरमा-शरमा कर काम चला रहे हों. हर बात शरमा-शरमा कर ऐसे बोलना ताकि कोई ये ना समझ ले कि ये खुद शादी करना चाहता है और काफी खुश है, इसलिए हर बात, हर अदा में शर्म दिखाना जरुरी होता था. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. अब तो मां-बाप अपनी जवान होती संतान को देखकर यही दुआ मांगते हैं कि भगवान इसे प्लीज नए ज़माने की हवा से बचाना. कहीं वो दिन नहीं देखना पड़े कि सुबह उठे तो पता चला- लड़का पड़ोसन की लड़की या फिर स्कूल की किसी सहेली के साथ फरार हो गया. चलो ऐसा कर भी ले तो सही लेकिन पता चला नए ज़माने की हवा में बहकर किसी दोस्त को ही जीवन साथी बनाकर घर मत चला आये. अगर ऐसा हो गया तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जायेंगे. हालाँकि मां-बाप का ये डर कोई यूँही नहीं है...समानता और मानवाधिकार के इस ज़माने ने इतनी तेज एंट्री मारी है कि सब देखते रह गए. आज सुबह अख़बार में एक तस्वीर पर नजर गयी. अख़बार में एक फोटो छपी थी जिसके नीचे लिखा था- विवाह के बाद माता-पिता आशीर्वाद देते हुए. बीच में मां-बाप बड़ी शान से अपने दोनों तरफ खड़े नवविवाहित जोड़े के सर पर हाथ रख आशीष दे रहे थे. मै तस्वीर में दुल्हन ढूंढता रह गया. मां-बाप के दोनों तरफ दो लड़के शेरवानी पहने खड़े शान से नए जीवन में प्रवेश के वक्त मां-बाप का आशीर्वाद ग्रहण कर रहे थे. फिर माजरा समझ में आया, बस मुंह से इतना ही निकल पाया- भाई नए ज़माने के प्यार का झोंका है.
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वैसे पहले की फिल्मों में शादी का नाम लेते हीं लड़कियां सकुचाकर-शरमाकर भाग जाती थी और ज्यादा पूछने पर बस इतना ही कहा करती थी- जैसा पापा चाहें. लेकिन फिर जमाना बदला. लड़कियों ने लडको को चुनना और रिजेक्ट करना शुरू कर दिया. देश के अनेक हिस्सों से ख़बरें आने लगीं कि लड़का पसंद ना होने पर लड़की ने बारात वापस भेजा. जो मां-बाप कल तक बिना पूछे शादियाँ तय कर दिया करते थे वे कुछ भी करने से पहले अपनी संतानों की राय लेना सीख गए. लेकिन जमाना उस दौर से भी आगे निकल रहा है. अब शादियाँ टीवी के परदे पर भी होने लगी हैं. हमेशा बोल्ड और बिंदास और कईयों के शब्दों में कहें तो अपनी भद्दी अदाओं से हमेशा लोकप्रियता बटोरते टीवी सितारे अचानक टीवी के परदे पर अपना जीवन साथी तलाशने निकल पड़े. अपने बदले हुए रूप में टीवी ने किसी की शादी कराना शुरू किया तो कोई टीवी के परदे पर बच्चा पालता नजर आया. दर्शकों ने भी इस नयी दुनिया का दिल खोलकर स्वागत किया और टीवी चैनलों को टीआरपी देने के अलावा एसएमएस भी खूब भेजे. घर-घर में चर्चा होने लगी और कयास लगाये जाने लगे कि कौन सी दावेदार शादी कर पाने में सफल होगी. टीवी के परदे पर ही परफेक्ट ब्राइड चुने जाने लगे. अपने रियल लाइफ में अपना वैवाहिक जीवन असफल साबित कर चुके लोग खुद को चमका-दमका कर फिर से कूद पड़े टीवी के परदे पर अपना जीवनसाथी चुनने के लिए. टीवी पर आकर ऐसी बातें करने लगे जैसे उनसे ज्यादा कोई मासूम नहीं हो. लेकिन टीवी की महिमा है लोगों को बदलने का मौका दे रही है, चलो बदल जाये तो अच्छा ही होगा. दुनिया बदल रही है और टीवी वाले इस बदलाव को तेज बना रहे हैं. सबकुछ यूँ बदल रहा है जैसे स्वप्न नगरी हो.

Tuesday 15 December 2009

मुद्दे हम बनाते हैं...

महंगाई के इस दौर में
जार-जार होकर जनता
बस इतना ही कह पाती है-
हमारी कोई नहीं सुनता
किसी को नहीं हमारी फिकर...
लेकिन क्या हम अपनी बदहाली के
खुद जिम्मेदार नहीं...
आज़ादी के ६ दशकों बाद भी
नहीं है हम
अपनी पेट भरने को आश्वस्त
और ना ही है हमें
रोजगार पाने की गारंटी।

हाँ, मजदूरी के लिए
है हमारे पास गारंटी स्कीम
लेकिन क्या सोचा है हमने कभी
देश का पढ़ा-लिखा वर्ग
कैसे पायेगा रोजगार।
क्या वो भी
सड़क निर्माण में
ईंट-पत्थर ढोकर रोजगार की गारंटी पाए
और कहे खुद को
महाशक्ति बनने को आतुर
२१वी सदी के इंडिया का .नागरिक
जहाँ कुछ सालों में ही
राजनेताओं की तिजोरियों में
आ जाते हैं हजारो-हज़ार करोड़ रूपये
और फिर सालो-साल चलने वाले
मुकदमों की दौड़ में
खो जाती हैं यादे देश को लूटने वाले लोगों की
और फिर हम चल पड़ते हैं अगली
चोट खाने को
लोकतंत्र के हाथों॥

हमारे यहाँ मुद्दे कभी नहीं चुकते
रोटी की बढ़ी हुई कीमते
हमें एकजुट नहीं करती,
नहीं करती हमें तोड़-फोड़ पर उतारू
बेरोजगारी की मार भी,
लेकिन जब राज्य बाटना होता है
तो हम उतर पड़ते हैं सडको पर,
जब करने होते हैं दंगे
हमारी मर्दानगी जाग उठती है
और फिर शान से सर उठाये
हम बन पड़ते हैं अपने समुदाय के पहरुए।
लेकिन अपने लोगों की दुर्दशा
हमें नहीं बिचलाती
क्यूंकि हमारे पेट को
मिल जा रहा है अनाज फ़िलहाल!