Tuesday 23 November 2010

अतिथि देवो भवः और कल्लन काका का इनक्रेडिबल विलेज..!

सब लोग खेतों से लौट कर घर पहुंचे ही थें कि चौपाल की घंटी बज गई। चाय-चबेना लेकर लोगों ने चौपाल की राह पकड़ी। सरपंच कल्लन काका पहले हीं वहां आसन जमाये हुये थे। मोहन उनके दायें तरफ अपनी जगह पर काबिज था तो जगन ने भी उनके बायें तरफ अपनी जगह संभाल रखी थी। मनोहर, सुंदर और श्याम ने आकर अपनी जगह पकड़ी तो हुक्का सुलगाने की कार्रवाई शुरू हो गई। इसके साथ ही छिड़ गया दिनभर की आपबीतियों को सुनाने का सिलसिला, जिसे सुनने के लिए काका दिनभर बेचैन रहा करते थे। दिनभर अखबार पढ़कर थक चुके और खटिया तोड़कर बोर हो चुके कल्लन काका लोगों से दिनभर गांव में हुये रोचक किस्से सुनने के लिए बेताब रहते थे। सुंदर ने गांव के पूरब टोले में सुबह के हंगामे का पूरा विवरण सुनाया कि कैसे झबरू ने ताड़ी चुराते बब्बन को पीट डाला था और फिर इस झगड़े में कैसे दोनों के परिवार वाले भी शामिल हो गये और फिर घंटों टोले में लाठियां पटकाती रही। मनोहर ने बताया कि शहर से आते हुये उसने पास के गांव में शराब के अड्डे पर पुलिस की रेड पड़ती देखी थी। उसकी इस बात को काका ने ऐसे इग्नोर कर दिया जैसे संसद में विपक्ष के हो-हल्ले को अध्यक्ष द्वारा अक्सर कर दिया जाता है। काका जानते थे उनका मैनेजमेंट इतना तगड़ा है कि उनके गांव में पुलिस कभी आएगी ही नहीं। वैसे भी काका के लिए शराब कोई बुरी चीज नहीं थी बल्कि ऐसा जरिया था जो गांव के सभी टोले के युवाओं को एक सूत्र में पिरोये हुये था। काका की नजर में ये वो लिटमस पेपर था जो गांव के दबंग युवाओं को दब्बू युवाओं से अलग करता था। उनके अनुसार असली युवा और गांव का भविष्य वहीं युवा हैं जो रोज शाम को काका के दरबार में आते और प्रसाद ग्रहण करते।
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गांव की कहानियां भले ही काका को खूब रास आती हो लेकिन दिनभर गांव की खाक छानते मोहन को यहां की कहानियों में कोई रूचि नहीं थी। वो हमेशा इंटरनेशनल मुद्दों पर बात करने को बेताब रहता था। हुक्के में तम्बाकू भरते मोहन की बातों को इग्नोर करने की आदत काका को नहीं थी बिल्कुल वैसे जैसे सत्ता पक्ष की स्थिति संसद में होती है। काका की ओर हुक्का बढ़ाते मोहन ने बड़े ही बेलाग अंदाज में कहा- लो काका आज तो हुक्के का मजा दोगुना हो गया, आज तो ओबामा ने भी कह दिया कि अपना देश काफी विकास कर चुका है। अमेरिका से आकर वो हमारे गांव-गांव में टेली-कानफेरेन्सिंग से बाते कर रहे हैं। काका को याद आ गया कुछ साल पहले का वो समय जब अमेरिका के राष्ट्रपति क्लिंटन साहब भारत दौरे पर आए थे और गांव की गोरियों के साथ जमकर नाच-गाना किया था। काका तब मन मसोस कर रह गये थे कि काश उनके गांव ऐसा कोई मेहमान आये और वे भी गोरी मेमो के साथ डांस कर सकें। काका ने एक ट्रायल लिया भी था। अगले साल न्यू ईयर पर उन्होंने पड़ोसी गांव के सरपंच नत्था को न्यौता भिजवाकर बुलवा लिया। लेकिन मेहमान सरपंच जी के साथ आये उनके पियक्कड़ अनुयायियों ने ऐसी धमा-चौकड़ी मचाई कि काका ने उसी वक्त फिर किसी को भी अपने गांव नहीं बुलाने का फैसला कर लिया।
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हां, तो हम फिर लौट आते हैं चौपाल पर! मोहन ने ओबामा की बात छेड़ी तो सबकी निगाहें काका की ओर टिक गई। आखिर गांव में काका ही अकेले अखबार मंगाते हैं और उनसे ज्यादा देश-दुनिया के बारे में जानकारी किसके पास है। सुंदर और मनोहर फुसफुसा रहे थे कि भला इतने बड़े देश का आदमी हमारे यहां क्यूं आया है। अब काका से रहा नहीं गया। चौपाल की इच्छा पर सुओ मोटो लेते हुये काका ने अपनी ज्ञान की पोटली खोली। काका- ऊ, का है न कि उनके यहां मंदी आई हुई है और उनके लोग बेरोजगार होये रहे हैं ना...सो उ इयां नौकरी लेवे के वास्ते आये रहै हैं।
मनोहर से रहा नहीं गया वो बोल पड़ा- यहां की सरकार तो अपने लोगों को रोजगार देने के लिए कुछ करती नहीं, तो उनके लिए का करेगी।
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काका- धत बुरबक, तुम लोग का जानत हो, अतिथि सेवा का होत है? ये ऐसी चीज है जिसके सामने सब फीकी पड़ जाती है। भाई अपने यहां तो संस्कृति रही है कि खुद भले हीं पानी पीकर रह लो लेकिन अतिथि के सत्कार में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। आखिर अतिथि देवता के समान होता है। काका को बरबस याद आ गया...अपनी सरपंची के १० साल पूरे होने पर उन्होंने कैसे आस-पास के गांवों के सभी सरपंचों को न्यौता भेजा था और तब कई दिनों तक गांव में जश्न का माहौल बना रहा था। तब उन्होंने अतिथियों के लिए मुर्गे और दारू की कोई कमी नहीं रहने दी थी और आखिरी दिन विदाई के वक्त उन्होंने सभी अतिथियों को अपने पेड़ से तुड़वाये महूये की ताजी-ताजी शराब की बोतलें गिफ्ट दी थी ताकि अपने गांव वापस लौटकर भी उनपर यहां के आतिथ्य का नशा कुछ दिनों तक बना रहे। गांव के लोग भी जश्न के उन अनमोल दिनों को अबकत नहीं भूल पाये हैं। हफ्ते भर तक गांव में आये देवता रूपी अतिथियों ने अपने धमाल से उनका कितना मनोरंजन किया था। उनके हाथियों और घोड़ों ने कितनों के खेत और बगीचे उजाड़ दिये थे और मनोहर के दो मुर्गे भी तो उन्ही दिनों गायब हुये थे। लेकिन कुछ तो काका के दबदबे और कुछ अतिथि देवो भवः के ऐतिहासिक कहावत ने सबकी जुबान पर ताला लगा दिया था, तभी तो जाते-जाते गांव वालों के आतिथ्य सत्कार की दुहाई देते नहीं थक रहे थे। आज भी तारीफ के उन लफ्जों को सुनकर गांव वालों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है।
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अचानक काका ख्यालों ने निकले- हां तो हम बात कर रहे थे ओबामा के भारत दौरे की। देख भई हमारी सरकार ने उनकी इच्छा को देखते हुये ५०,००० नौकरियों का उपहार उन्हें देने में पूरी तन्मयता दिखाई है। भई अतिथि है कुछ लेकर जाएगा तो नाम ही लेगा। वैसे भी अतिथि देवता के समान होता है। काका के मन में आया कि क्यूं न वे भी इसी तरह का कोई उपहार अपने पड़ोसी गांव के सरपंच को दें। काका के मन के भाव मोहन से छूप न सकें, आखिर वो काका का सबसे ख़ास शागिर्द ऐसे ही नहीं था। मोहन ने तुरंत ही कहा कि क्यों न काका इस साल वेलेंटाइन डे पर मिस्टर औऱ मिस विलेज प्रतियोगिता का आयोजन करवा लिया जाये। इसी में एक पुरस्कार लाइफटाइम अचीवमेंच का रख लेंगे और उसे आस-पास के किसी सरपंच को दे दिया जाएगा। सब खुश रहेंगे। मोहन का ये प्रस्ताव काका को भी खूब यूनिक लगा। इसी बहाने शायद टीवी वाले भी गांव का रूख़ करें और टीवी पर आने का बचपन का उनका सपना शायद इस बार सच हो ही जाये। वैसे इस प्रस्ताव को सुनकर गांव के युवा भी काफी रोमांचित हुये। चौपाल के कोने में बैठा सुरेश तो ख्यालों में ही खो गया। उसे लगने लगा कि भईया की शादी में उनके ससुराल से मिले रेशम के कपड़े को सिलाने का वक्त आ गया है। यह सोचकर वो काफी रोमांचित था कि प्रतियोगिता के दौरान आगे की सीट पर बैठकर मिस विलेज देखने का मजा इस बार मिलेगा। लेकिन उसे याद आया कि आगे बैठने के लिए पास का जुगाड़ कैसे होगा। तभी उसे याद आया कि ताड़ी के दुकान वाले हरिया से उसकी दोस्ती कब काम आएगी, काका का प्रिय मोहन तो रोजाना उसके दुकान पर आता ही हैं।
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चौपाल पूरे शबाब पर थी लेकिन हूक्के की ताव ठंढी होती जा रही थी। काका ने कहा तो भाई आज की चौपाल यहीं अगले दिन तक के लिए एडजर्न की जाती है। कल फिर मिलेंगे, इसी वक्त पर और फिर उठाएंगे गांव और समाज के हित से जुड़े अहम मुद्दों को...जनहित में।

Friday 12 November 2010

भ्रष्टाचार का पेटेंट और कल्लन काका..!

सुबह-सुबह नहा-धोकर जब मोहन घर से निकला तो गाँव के मुखिया और उसके आका कल्लन काका चबूतरे पर बैठे दिखाई दिए। पिछले ४० सालो से गाँव के मुखिया रहे कल्लन काका इस बार विधायकी की कुर्सी पर नज़र गड़ाए हुए हैं. हमेशा भाषण की मुद्रा में दिखने वाले काका को चिंतित मुद्रा में देखकर मोहन से पूछे बिना रहा नहीं गया. काका ने अख़बार में छपी खबर पर नाराजगी जताते हुए कहा कि उन्होंने पूरी जिंदगी गाँव के विकास के लिए आने वाले धन को पचाने में लगा दी और इतने लम्बे अरसे के भ्रष्टाचारी जीवन और भ्रष्टाचार के क्षेत्र में उनकी सक्रिय भूमिका के बावजूद वे कभी पकडे नहीं गए और ये ना जाने आज के कैसे नेता हैं जो रोज पकडे जा रहे हैं? कल्लन काका को याद आने लगा॥न जाने कितनी सड़के, पुलिया, नलकूप, कुएं उन्होंने अपनी खद्दर की जेब में समां लिए, अब तो इसकी गिनती भी उन्हें याद नहीं है और आज तक कोई उनपर उंगली नहीं उठा सका. कल्लन काका को चिंता सताए जा रही थी कि दशकों तक जिस भ्रष्टाचार को उन्होंने अपनी मेहनत से सींचा उसका क्रेडिट कोई दिल्ली का नेता न उठा ले जाये..आज कल रोज-रोज नए नाम अख़बारों में छप रहे हैं. वफादार शागिर्द की तरह मोहन ने उन्हें सलाह दी कि काका क्यूँ न जल्द-से-जल्द भ्रष्टाचार शब्द का पेटेंट करा लिया जाये.
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जैसे भी हो कल्लन काका इतने लम्बे समय के राजनीतिक जीवन में अभी तक अपनी छवि को बेदाग रखने में सफल रहे थे। मजाल है कि गाँव में कोई उनके खिलाफ कुछ बोल सके. गाँव के युवाओं के सामने उनके खिलाफ बोलने का मतलब था अपने लिए मुसीबत मोल लेना. इतने लोकप्रिय थे काका उनके बीच. गाँव का शायद ही कोई युवा हो जो रोज शाम को हरिया की दुकान के पीछे के घेरे में लगने वाले काका के दरबार में न जाता हो. गाँव की नई पीढ़ी के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए काका इन युवाओं को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने देते थे. काका के दरबार में आने वाले लोगों की इक्छाओं को ध्यान में रखते हुए हरिया कभी भी देशी दारु, गांजा, तम्बाकू, ताड़ी आदि का स्टॉक कम नहीं होने देता था. बदले में कल्लन काका की जेब में समाये सड़क, पूल, नलकूप आदि के कई टुकड़े उछलकर हरिया की जेब में पहुँचते रहते थे और उसने भी गाँव के विकास की राशि में से काफी कुछ अपना विकास कर लिया था.
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वैसे युवा पीढ़ी के विकास पर ध्यान देने के अलावा काका गाँव के जातिय समीकरण का भी बखूबी ध्यान रखते थे। अपने टोले के चिंटू को शिक्षा मित्र के रूप में भर्ती कर उन्होंने सबको खुश कर दिया था और कईयों के लिए उम्मीद भी जगा दी थी. तभी तो, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है इस सिद्धांत का सम्मान करते हुए कल्लन काका को अपना खेत लिखते हुए चिंटू के पापा को थोडा सा भी मलाल नहीं हुआ था. हालाँकि चिंटू का पडोसी गब्बन भी इस पद के लिए दावेदार था लेकिन उसकी बीवी राधा को आंगनबारी में सेट कराकर काका ने ये कांटा भी दूर कर लिया. जो कुछ भी पाने में असफल रहे थे उन्होंने भविष्य में कुछ पाने की उम्मीद में चुप्पी का रास्ता अपनाना बेहतर समझा. सामने के महतो टोले के चबूतरे के पास नलकूप लगवाकर काका ने वहां भी सबका दिल जीत लिया था. देश की आजादी के ६० साल पूरे होने पर उन्हें नलकूप मिला था और कुएं से पानी खीचने से मुक्ति मिलने से वे ऐसे ही खुश थे. वैसे ये नलकूप सबसे ज्यादा चबूतरे पर दिन-भर ताश के पत्तो में उलझे टोले के मेहनतकश लोगों के काम आ रहा था. ताश के पत्तो में उलझे हुए जब भी उनका कंठ सूखने लगता, इसी नलकूप के पानी से अपना गला तर कर वे फिर से मैदान में उतरते. वैसे पासवान टोले में भी काका की इज्जत कम नहीं थी. यहाँ के सबसे गबरू नौजवान छेदी के पास हरिया की दुकान में दरबार के लिए ताड़ी भेजने का ठेका था और उसके यहाँ रहते भला कौन काका की शान में गुस्ताखी कर सकता था?
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कुल मिलाकर कहा जा सकता था कि फ़िलहाल काका के राजनीतिक अनुभव का कोई सानी नहीं था और सबको साथ लेकर चलने की अपनी नीति के कारण काका यहाँ के राजनीतिक इतिहास के सबसे बड़े या यूँ कहें की एकमात्र पुरोधा बने हुए थे. सत्ता को एकजूट रखने की अपनी नीति के तहत काका पुलिस-प्रशासन के साथ भी पूरे सामंजस्य से काम कर रहे थे. तभी तो उनके सामने कोई विपक्ष नहीं था. अभी ४ साल पहले की ही तो बात है जब शहर से पढाई पूरी कर लौटे रमेश ने गाँव में विकास के मामले पर उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत की थी. तब अगले ही दिन पुलिस ने उसके घर से अवैध शराब की पेटियां बरामद करते हुए गाँव को एक बड़े खतरे से बचा लिया था और रमेश को अपना जीवन बचाने के लिए वापस शहर भागना पड़ा था. कल्लन काका अपनी इस कर्मभूमि में किसी ऐसे इन्सान को कैसे टिकने दे सकते थे जिससे गाँव की शांति भंग होने का अंदेशा हो. आखिर पूरी जिंदगी भर की मेहनत से उन्होंने यहाँ राम-राज्य स्थापित किया था जहाँ किसी को कोई दुःख नहीं था. जहाँ सब काका के विकासात्मक और कल्याणकारी नीतियों से खुश थे.