Thursday 15 December 2011

इतिहास के किस अजीब मोड़ पे खड़ा है हमारा समाज...

अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाजार के लिए खोलने के बाद के दो दशकों में भारतीय समाज में कई बदलाव आए। ख़ासकर समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में ये बदलाव परिलक्षित हुए। लेकिन सवाल यहां ये उठता है कि जिस देश की तेज प्रगति को देखकर कुछ साल पहले तक सुपर पावर, इंडिया शाइनिंग व 21वी सदी के भारत जैसे जुमलों का इस्तेमाल अक्सर होने लगा था अचानक वही देश आज हर मोर्चे पर उद्वेलित सा क्यों दिख रहा हैं? दरअसल ये उद्वेलन इस देश के असल ढांचे में छुपी हुई है। जिसका आधार इतिहास के लंबे दौर के केंचुल को उतार फेंककर नई दुनिया की ओर बढ़ने और परंपरागत व्यवस्था की सहूलियतों को खो देने के भय के बीच का उहापोह है। दरअसल समाजके इस उहापोह की स्थिति का कारण परंपरागत सामंती व्यवस्था व आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था के बीच का विरोधा-भास है। यह द्वंद समाज में तीन स्तरों पर है- आर्थिक स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर और सांस्कृतिक स्तर पर। ऐसा भी नहीं है कि इस द्वंद से जूझने वाले हम पहले समाज है। दरअसल यूरोप और पश्चिम के समाज इस द्वंद का सामना 1920-30 के दशक में ही कर चुके हैं और काफी हद तक इससे उबरने के बाद उनमें परिपक्वता भी आई है।
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आर्थिक स्तर पर-
आर्थिक स्तर पर हम अभी तक सामंती या फ्यूडल व्यवस्था में रहते आ रहे है जिसपर सबसे बड़ा आघात पिछले 20 सालों में बाजार के उदारीकरण व वैश्विकरण से पहुंचा है। इस दौर में देखते ही देखते भारत जैसा एक कृषि प्रधान देश कैसे एक औद्योगिक देश में बदल गया, यह पूरी दुनिया ने देखा। कैसे कृषि पर आधारित इस देश की अर्थव्यवस्था के जीडीपी में कृषि का हिस्सा सिकुड़ते-सिकुड़ते 15 फीसदी तक पहुंच गया जबकि आबादी के एक बड़े हिस्से की निर्भरता इसपर बनी ही रही। आर्थिक मोर्चे पर इस देश का द्वंद इसी स्तर पर है। अर्थात देश में तेजी से पनपे आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था की नज़र अब व्यापक संसाधन वाले इसी सामंती व्यवस्था वाले कृषि क्षेत्र और उससे जुड़े व्यापारों पर है। लेकिन इस परंपरागत व्यवस्था से जिनको सहूलियतें हैं वे वर्ग इन परिवर्तनों का विरोध कर रहे हैं। खुदरा या किराना कारोबार में एफडीआई को लेकर हाल ही में दिखी राजनीतिक नूरा-कुश्ती का आधार भी यही द्वंद है। इसमें एक तरफ पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था की बात है जिसके साथ राजस्व में बढ़ोत्तरी के मकसद से राजनीतिक तंत्र भी खड़ा दिखाई दे रहा है। इस लड़ाई में दूसरे छोड़ पर खड़ा दिख रहा है वह भारत जो परंपरागत तरीके से इसी क्षेत्र पर निर्भर है और अगर इस व्यवस्था में कोई बदलाव होता है तो उसका सारा मामला गड़बड़ हो सकता है और अनाज के असल उत्पादक किसानों की पैदावार भी उसके हाथ से निकल कर बाजारों और वालमार्ट जैसे संगठिक क्षेत्र के किराना व्यापारियों के हाथ में चला जाएगा, जिसका नीति नियंता अबतक स्थानीय व्यापारी वर्ग हुआ करता था। दरअसल यहां मामला एक तालाब में घुस गये मगरमच्छ को देखकर छोटी मछलियों में पनपे डर जैसा कुछ-कुछ दिख रहा है।
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राजनीतिक स्तर पर-
देश में राजनीतिक तंत्र को लेकर चारो ओर मचे हाय-तौबा के पीछे भी यही द्वंद काम कर रहा है। वास्तव में यह देश आजादी के बाद से अबतक उसी परंपरागत सामंती व्यवस्था से संचालित होता आ रहा था जिसे अंग्रेजों ने और उससे पूर्व के राजाओं ने अपनी सहूलियत के लिए तैयार किया था। एस ऐसी व्यवस्था जिसमें राजनीति के हर स्तर पर परिवारों व दबंग व सुविधा संपन्न लोगों का बर्चस्व दिखाई पड़ता है। अचानक इस व्यवस्था का द्वंद आज उस समाज से हो रहा है जो तेजी से आधुनिक हो रहा है। जो आज तार्किकता के स्तर पर राजनीति को देखने का प्रयास कर रहा है। हालांकि अभी उसके पास ज्यादा विकल्प नहीं है क्योंकि ज्यादात्तर राजनीतिक दल विभिन्न परिवारों या सांस्कृतिक विचारधाराओं की बपौती बने हुए हैं लेकिन ये स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली। क्योंकि पिछले दो दशकों में आई सूचना-तकनीकी क्रांति ने गोपनियता को बरकरार रख सत्ता पर कब्जा जमाए रखने वाली इस पुरातन व्यवस्था पर तेजी से प्रहार किये हैं। इसने सारी व्यवस्था को तिलमिला कर रख दिया है। हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था में जो लोग हैं उन्हे इस गतिशिलता को समझने की जरूरत है कि ताजा-ताजा उभरी देश की आबादी सरकारों को एक कंपनी की तरह देखने लगी है जिसका वह खुद को शेयरधारक समझती है और अगर उसके हितों के अनुरूप काम नहीं होता तो नेतृत्व को बदल देने व वर्तमान शासकों को अप्रासंगिक बना देने में उसे कोई संकोच क्यों कर होगा। अन्ना हजारे के आंदोलन की भारी लोकप्रियता देश में पनपी इसी नई सोच का एक रूप है। राजनीति की सामंती व्यवस्था को लेकर समाज में उद्वेलन कई स्तरों पर है जिसकी नज़र खुद को सामंत समझ रहे राजनीतिक प्रतिनिधियों पर भी है। तमाम घोटालों को अंजाम देने के बाद भी जब हमारे राजनेता पूरी बेशर्मी से विधानसभा और संसद में देश के लिए नीति बनाने जाते हैं तो देश का दिल तड़प उठता है। तभी जब लोग टीवी पर ये खबर देखते हैं कि ट्रेन के एसी-ए कोच में टिकट नही मिलने से दर्जनों सांसद भड़के। तो जनता के मुंह से बस यही निकलता है कि राजनीति के इस युग को भी भाप इंजन की तरह फेज आउट करने का समय आ गया है जिसमें इलाके का जन प्रतिनिधी खुद को खुदा या फिर सर्वेसर्वा समझने लगता है। हालांकि, इस बदलाव में वक्त लगेगा लेकिन धीरे-धीरे ही सही जनता इस बात को समझने लगी है कि राजनीति का काम मेवा खाना नहीं, जनसेवा करना है।
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सांस्कृतिक स्तर पर-
सांस्कृतिक स्तर पर यानि समाज, धर्म, मान्यताओं आदि के स्तर पर भी ये समाज आज कम द्वंद नहीं झेल रहा है।
समाज या परिवार- समाज तेजी से आधुनिक हो रहा है। लोग पढ़ने-लिखने व नौकरियों आदि के लिए तेजी से पलायन कर रहे हैं। ऐसे में परिवार की समाज व परिवार की पारंपरिक व्यवस्था तेजी से बदल रही है। आधुनिक शिक्षा के साथ लोगों में अपने फैसले खुद लेने की प्रवृति भी तेजी से बढ़ी है। ऐसे में जिन मामले पर कल तक समाज व परिवार फैसले लेते थे जैसे पढ़ाई-लिखाई, आजीविका व शादी-व्याह आदि के मामले, इनका फैसला लोग समाज व परिवार से लेकर अपने हाथों में केंद्रीत करते जा रहे हैं।
धर्म- धर्म को लेकर भी लोगों की मान्यताएं तेजी से बदल रही है। परंपरागत धर्म से लोग भले ही दूरी बनाते नहीं दिखें लेकिन उसके इर्द-गीर्द सदियों से पनपे कर्मकांडो व अंधविश्वास को लेकर लोगों में काफी व्याकुलता पनप रही है। व्यक्तिगत आजादी और तार्किकता के स्तर पर इन्हें लगातार चुनौतियां मिल रही है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात से जहां अब तक चल रहे परिवारों की सामंती व्यवस्था की बुनियादी दरकी है वहीं परिवारों में व समाज में महिलाओं की स्थिति में भी ख़ासा बदलाव देखने को मिल रहा है। तेजी से खुद की पहचान बदलने में जुटे इस देश ने दुनिया को इन 20 सालों में बताया है कि वह केवल सपेंड़ो और पूजारियों का देश नहीं है बल्कि सॉफ्ट
वेयर और अंतरिक्ष विज्ञान जैसे नए क्षेत्रों में भी अपनी धाक दिखा सकता है।
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कुल मिलकार भारत देश इतिहास के एक अजीब से मोड़ पे खड़ा है। हालांकि, अभी इसमें काफी कुछ अंधेरा सा जरूर दिख रहा है लेकिन कहते हैं कि बिना उद्वेलन और आंतरिक द्वंद के कोई समाज परिपक्व नहीं होता तो हमे अभी कुछ इंतजार करना होगा। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि परिवर्तन की इस बेला में हम अन्य समाजों को केवल कॉपी न करके अपने लिए खुद अपना अलग रास्ता तैयार करें तभी हमारा भविष्य चिरस्थायी हो सकता है।

Tuesday 29 November 2011

रिटेल में एफडीआई यानि उधार खाता इकानॉमी का बंटाधार..!


इधर जब से सरकार ने बहुब्रांड खुदरा कारोबार में 51 फीसदी और सिंगल ब्रांड खुदरा कारोबार में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने का फैसला किया है तब से देश के बुद्धिजीवी तबके के बीच इसपर चर्चा काफी जोरो पर है। हालांकि, अभी इस फैसले की ज़द में केवल 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले देश के केवल 53 शहर आने वाले हैंये एक अलग मसला होगा कि कौन-कौन सी राज्य सरकारें इसके लिए अपनी सहमति देंगी। लेकिन फिर भी ये तो बस शुरूआत भर है, देर-सबेर सरकार अपनी इस नीति पर आगे बढ़ेगी और तब विदेशी पूंजीपति कंपनियों का दायरा आज नहीं तो कल देश के 8000 से ज्यादा शहरों, कस्बों और 6 लाख से अधिक गांवों तक पहुंचेगा ही। तब सोचिये गांव की वर्तमान व्यवस्था पर इसका क्या असर होगा, जहां आज भी उधार खाते वाली इकॉनॉमी एक वास्तविकता है। अर्थात ऐसी व्यवस्था जिसमें किराने का सामान जरूरत के हिसाब से रोजाना लिया जाता है और महीने भर बाद उसका हिसाब-किताब कर पैसे का भुगतान किया जाता है। हो सकता है कि कई परिवार इस व्यवस्था को रोज-रोज के हिसाब-किताब के झंझट से बचने के एक उपाय के तौर पर अपनाते हों। लेकिन सबके लिए स्थिति समान नहीं होती।
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मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग की बहुसंख्यक आबादी वाले भारत देश में यह एक वास्तविकता है कि बड़ी संख्या में परिवार इस व्यवस्था को इसलिए भी अपनाते हैं क्योंकि सैलरी महीने में एक बार आती है और जबतक नहीं आती तबतक उधार खाते में हिसाब लिखवाना ही एक मात्र उपाय होता है। क्योंकि बड़े पामाने पर लोगों की आय इतनी भी नहीं है कि पिछले माह की आय में से अगले माह के लिए बचत कर रख सके। खाता वाली ये व्यवस्था दुकान वालों के लिए ग्राहक सुरक्षा का एक तरीका भी है। अर्थात, अगर कोई उधार खाते में लिखवाकर सामान ले रहा है तो ज्यादा संभावना है कि वह और किसी दुकान से सामान नहीं खरीदेगा और अपने यहां उसकी ग्राहकी का खाता पक्का रहेगा। लेकिन वालमार्ट और टेस्को जैसी कपनियों का हिसाब खाते से नहीं कंप्य़ूटरों के जरिये चलेगा। वहां उधार खाते के लिए कोई जगह नहीं होगी। आपने सामान लिया और कंप्यूटर से निकले बिल का पैसा अगर नहीं चुकाया तो आपको दुकान के दरवाजे पर खड़ा गार्ड बाहर नहीं निकलने देगा। ऊपर से क्लोज सर्किट कैमरे की यांत्रिक आंखे आप पर अलग से नज़र रखेंगी।
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अगर किराना दुकानदारी की इस पुरानी व्यवस्था में कोई बदलाव होता है तो ख़ासकर इसका असर बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे प्रांतो में होगा जहां काम-काज की तलाश में अस्थायी रूप से पलायन और प्रवास का लंबा इतिहास है। जहां परिवारों का खर्च परंपरागत रूप से मनिऑर्डर इकानॉमी के जरिये चलता आय़ा है अर्थात बाहर जाकर कमाकर मनिऑर्डर के जरिये भेजे गये पैसे के जरिये। ऐसी व्यवस्था में तब परिवारों के पास स्थानीय किराने की दुकान एक बड़ा सहारा हुआ करती है। अर्थात जबतक बाहर से पैसे न आए तबतक उधार खाता चलता रहे। महीना पूरा होने के बाद भी अगर दो-चार दिन की देरी हो जाये तो दुकानदार अपने बकाये को लेकर चिंतित नहीं होता। क्योंकि इसमें पैसे डूबने का डर नहीं होता। ख़ासकर ग्रामीण इलाकों में जहां दुकानदार और ग्राहक एक ही स्थान पर वर्षों से रहते आ रहे होते हैं। लेकिन अगर कोई कंपनी सात समंदर पार से यहां व्यापार करने आ रही है तो उसका बिल कंप्यूटर के जरिये बनेगा और तब ग्राहक के पास ये सुविधा नहीं होगी कि वह बाहर से मनिऑर्डर आने के बाद हिसाब-किताब कर सके। इसलिए भईया एफडीआई धीरे-धीरे गांवों की ओर कदम-कदम बढ़ा रही है और अगर ऐसा होता है तो उधार-खाता वाली ग्रामीण इकानॉमी के दिन लद जाएंगे। ग्रामीण इलाके से जुड़े एक पत्रकार मित्र से जब मैने इसका हल पूछा कि भई इसका विकल्प क्या होगा? तो उनका जवाब था कि जो लोग पहले पे करके सामान ले सकेंगे उनका तो ठीक.. लेकिन जो लोग मनिऑर्डर से पैसा आने का इंतजार करते हैं उनके लिए सूद-ब्याज पर पैसे लेकर खरीददारी का विकल्प होगा, क्योंकि बैंक यहां लोगों को क्रेडिट कार्ड तो देने से रहे। इसी बहाने गांवों में साहूकारी के सेंसेक्स में उछाल आने की भी पूरी संभावनाएं होंगी, मतलब एफडीआई से जिन क्षेत्रों को फायदा पहुंचेगा उनमें साहूकारी का क्षेत्र भी एक होगा।

ये तो रही ग्रामीण आबादी में उधार-खाता वाली इकानॉमी का मसला.. लेकिन जहां तक सरकार के इस फैसले से छोटे दुकानदारों और व्यापारियों के रोजगार पर पड़ने वाले असर का सवाल है तो इसपर लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है।
दिल्ली में अपने पड़ोसी राधारमन जी से जब मैने इस बारे में पूछा तो उनकी राय कुछ अलग दिखी। उनका कहना था कि सर जी आखिर देश इन छोटे व्यापारियों और दुकानदारों के बारे में क्यों सोचे? उन्होंने मिलावट, कालाबाजारी, मुनाफाखोरी के सिवा अपने ग्राहकों को अब तक दिया ही क्या है? कम से कम इन विदेशी कंपनियों से ग्राहक साफ-सुथड़े सामान की उम्मीद तो पाल सकेगा। मैने इस बारे में जब अपने किराना दुकानदार से पूछा तो वह इस हो-हल्ले से बेपरवाह दिखते हुए बोला- सर जी, पिछले 20 सालों से मैं दिल्ली के इस स्थान पर अपनी किराने की दुकान चला रहा हूं और इस दौरान आप देख रहे हैं यहां से करीब 200 मीटर की दूरी पर ही रिलायंस फ्रेश की दुकान भी खुल गई। लेकिन सर इससे हमारी सेहत पर कोई प्रतिकूल प्रभाव तो पड़ा नहीं, उल्टे इलाके में रोज नये-नये दुकान खुलते जा रहे हैं। ये भारत नहीं-नहीं इंडिया है सर जी.. यहां एक साथ फार्मूला-वन और कब्बडी का खेल आयोजित हो तो भी दोनो जगह आपको दर्शकों की रेलमपेल ही देखने को मिलेगी।
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Sunday 27 November 2011

स्टूपिड कॉमन मैन का गुस्सा और कल्लन काका की चिंता..! (....वयंग्य...)

रोज बढ़ती महंगाई और देश के सार्वजनिक धन की लूट और घोटालों की खबरों से आजिज आकर एक आम आदमी द्वारा राजधानी दिल्ली में देश के कृषि मंत्री साहब को चांटा जड़ने की खबर जब से आई है हमारे गांव के सरपंच कल्लन काका ख़ासे चिंतित दिख रहे हैं। काका का दाहिना हाथ मोहन उनकी इस चिंता को समझ रहा है और सूख-सूख कर कांटा होता जा रहा है। आखिर काका गांव के सार्वजनिक जीवन के एकलौते चिराग हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेताओं की तरह उन्हें भी तो गांव के विभिन्न मोहल्लों में रोजाना आयोजित होने वाले बहस-मुबाहिसों और सार्वजनिक कार्यक्रमों में गरीबों और गरीबी पर चर्चा के लिए जाना पड़ता है। और अगर लोगों में इस कदर रोष बढ़ता गया तो काका के लिए चिंता की बात तो है हीं।
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वैसे भी जब से देश में ग्लोब्लाइजेशन आया है कल्लन काका दुनिया भर में होने वाली गतिविधियों पर बड़ी पैनी नज़र रखते हैं। काका सोचने लगे- एक उनका जमाना था जब दुनिया में होने वाली किसी-किसी घटना की जानकारी गांव के लोगों तक पहुंच पाती थी और अगर पहुंचती भी थी तो हफ्ते-दो हफ्ते बाद। तब हालात आज के ट्विटर युग की तरह नहीं था कि इधर घटना घटी और उधर नेता जी ने ट्विट कर उसपर प्रतिक्रिया दे दिया। तब जनता के पास भी फेसबुक, ट्विटर और ऑर्कुट जैसे आधुनिक संचार अस्त्र नहीं हुआ करते थे। तब इतना क्विक रिएक्शन नहीं होता था। नेता लोगों की भी तब कितनी इज्जत होती थी। अगर कोई नेता गांव में पहुंच जाये तो लोग कभी उसके बराबर नहीं बैठते थे। आम लोग हाथ जोड़े सामने नीचे बैठते थे और मांई-बाप जैसी फीलिंग देते थे। आज पता नहीं ये कौन सा जमाना आ गया। आज नेता लोगों की कोई सुनता तो है नहीं, उल्टे पीठ पीछे पता नहीं कितनी गालियां रोज सुननी पड़ती है। किसी को नौकरी नहीं मिली तो गाली, किसी को अस्पताल में जगह नहीं मिली तो गाली, कोई सड़क पर पैदा हो गया तो गाली, गांव-कस्बे की सड़क में पानी जमा हो गया तो गाली,  किसी को स्कूल में एडमिशन नहीं मिली तो गाली, कोई भूखा है तो गाली, कोई अमीर हो रहा है तो गाली। अब भला क्या-क्या जिम्मेदारी निभाये बेचारे अकेले नेताजी। अच्छा कुछ हो तो कोई याद नहीं करता लेकिन कोई भी समस्या हो तो आरोप लगाने के लिए नेता जी मिलते हैं बेचारे सबसे दीन-हीन। कितना भी इस आम जनता के लिए पसीना बहाओं लेकिन पीठ पीछे ये लोग कहते हैं कि नेता लोग कुछ करते ही नहीं। काका के मुंह से अचानक निकल पड़ा- उफ्, क्या जमाना आ गया।
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इधर कुछ दिनों से काका महसूस कर रहे हैं कि जब भी वे चौपाल पर जाते हैं कुछ लोग आपस में फुस-फुसा कर बात कर रहे होते हैं। कल काका से रहा नहीं गया तो उन्होंने रमेश से पूछ ही डाला की भई बात क्या है जो आप लोग आपस में फुस-फुसा रहे हैं। रमेश ने कहा कि काका गांव की नीतियां आम लोगों के हित में नहीं हैं और लोगों को इस व्यवस्था से कोई फायदा नहीं हो रहा। काका की टीम के लोगों ने रमेश को तो चुप्प करा दिया लेकिन उसके पीछे कई और लोग भी बोल रहे थे। काका को काफी गुस्सा आया। पता नहीं आज अचानक इस कॉमन मैन को अपनी चिंता कहां से होने लगी। आखिर हम नेता लोग पिछले 64 साल से किसकी चिंता कर रहे हैं? इसी आम आदमी की ना। काका ने मंच पर खड़ा होकर लोगों को आश्वासन दिया कि पंचायत ने आम लोगों के भले के लिए बहुत सारे कदम उठाये हैं, बहुत सारी योजनाएं बनाई है और और भी कई कदम उठाये जा रहे हैं। इसलिए आप लोग निश्चित होकर लोकतंत्र का सुख भोगिये हम आपको कोई तकलीफ नहीं होने देंगे। गांव में आपकी भलाई के लिए सारी व्यवस्थायें की गई हैं। आपके बच्चों की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल खोले गये हैं, आपके इलाज के लिए सरकारी स्वास्थ्य केंद्र, पशुओं के इलाज के लिए पशु स्वास्थ्य केंद्र, आपके चलने के लिए ईंट की सड़के, आपके पानी पीने के लिए गांव में दो नलकूप लगवाये गये हैं, सिंचाई के लिए तालाब आदि सभी व्यवस्थाएं हैं। एक दम रामराज्य हैं गांव में।
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ये अलग बात है कि गांव के स्कूल में टीचर नहीं है और जो हैं वे दोपहर के खाने की तैयारी में इतने व्यस्त रहते हैं कि पढ़ाई-लिखाई पर कंस्ट्रेट नहीं कर पाते, लेकिन काका को पता है कि पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा जरूरी खाना है इसलिए मास्टर जी को काका का सख्त निर्देश है कि दोपहर के खाने में कोई देरी नहीं होनी चाहिए। गांव में स्वास्थ्य केंद्र तो है लेकिन डॉक्टर नहीं है। वहां काका ने अपनी बहु को नर्स के रूप में भर्ती तो करा दिया था लेकिन भला उनकी बहुरिया स्वास्थ्य केंद्र में जाकर कैसे बैठ सकती है। वैसे शहर से कोई दवा वगैरह भी नहीं मिल पाता है। ये अलग बात है कि आज तक कोई भी गांव वाला काका के घर तक आकर इलाज की मांग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। गांव में पशुओं के इलाज का अस्पताल भी काका के बथान में ही चलता है और काका के नौकर बब्बन का नाम पशु चिकित्सक के नाम पर दर्ज है। वैसे मवेशियों के करीब रहते-रहते बब्बन जी अब पशुओं की कई बीमारियों का इलाज भी ठीक-ठाक करने लगे हैं। गांव में सड़कों की बात मत पूछिये। पिछले साल ही चुनाव से पहले काका ने 20 हजार ईंटे गिरवाकर गांव के मुख्य मार्ग का पुननिर्माण कराया था लेकिन ससुरी बरसात की कौन कहे। बारिश की बूंदे गिरती नहीं है कि साली सड़क कीचड़ से भर जाती है और ये गांव के गंवार लोग पता नहीं कैसे चलते हैं कि सड़क की दुर्दशा कर डालते हैं। अब गांव के लोगों को सड़क पर चलना तो काका सिखा नहीं सकते लेकिन काका ने तय कर लिया है कि अगले चुनाव आने से ठीक पहले ही अब मरम्मत करवाएंगे। ये अलग बात है कि शहर के प्रखंड कार्यालय में उन्हें हर साल गांव के सड़क की मरम्मत के खर्च का बजट पेश करना पड़ता है और काका ने दो माह पहले ही मरम्मत का खर्च दिखाकर चार लाख की रकम हासिल की थी। अब इसी से काका की इकॉनामी भी तो चलती है। काका ने सोचा आखिर वे गांव के थाती ही तो हैं उनका विकास भी तो गांव के विकास बराबर ही है।
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काका समझ नहीं पा रहे थे कि जो आम आदमी नेता बिरादरी के लिए चुनावों के मौसम में सबसे बड़ी थाती हुआ करता था वही आज उसके खिलाफ क्यों होता जा रहा है। काका को याद आया कि पिछले माह पास के मुहल्ले के दौरे के दौरान कैसे कुछ असामाजिक तत्वों ने उन्हें काला झंडा दिखाते हुए पोस्टरों के जरिये कैसे उन्हें आम आदमी के विरोधी के रूप में प्रचारित किया था। हालांकि तब काका की युवा सेना ने उन बिगड़ैल युवाओं के हाथ-पांव सही-सलामत नहीं छोड़े थे। अगले दिन थानेदार साहब को बुलाकर काका ने कार्रवाई की रिपोर्ट ली थी और जब थानेदार साहब ने उन्हें बताया कि काला झंडा दिखाने वालों पर देश-द्रोही होने और असमाजिक तत्व होने जैसे तमाम चार्ज लगा दिये गये हैं तब जाकर काका को गांव में लोकतंत्र के सुरक्षित हाथों में होने का सुकून मिला। आखिर इतने सालों तक प्रशासन के साथ काका की नजदीकी गांव की सुरक्षा में काम तो आनी ही थी।
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काका की चिंता बढ़ती जा रही थी और ऐसे में उनकी सलाहकार टीम ने मोर्चा संभाला। आनन-फानन में काका ने अपनी कोर टीम की बैठक बुलाई और गांव के आम आदमी की चिंताओं के समाधान के लिए चार सदस्यीय एक कमिटी की गठन कर दिया। कमिटी के अध्यक्ष बनाये गये काका के दायें हाथ कहे जाने वाले मोहन जी। कमिटी के अन्य सदस्य थे काका के पुराने सिपहसलार और पिछले 40 सालों से गांजा का कश लेने में उनके सहयोगी रहे गोवर्द्धन भाई, काका के कार्यक्रमों के आयोजनों के प्रमुख फाइनेंसर और गांव के प्रसिद्ध लिक्वुअर व्यापारी खेदन जी और काका की युवा मुस्टंडों की टीम के प्रमुख कालीचरण जी। कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में गांव के समक्ष प्रमुख चुनौतियों की सूची प्रस्तुत की- यूरोजोन क्षेत्र में आर्थिक मंदी से गांव को कैसे सुरक्षित रखा जाये? गांव में प्रशासन को सुविधाजनक बनाने के लिए गांव को कैसे चार भागों में बांटा जाये, और उसकी रूपरेखा क्या हो? कैसे आम आदमी की समस्याएं दूर करने के लिए नई योजनाएं लाने की काका सोच रहे हैं? आदि..आदि। काका से समूचे गांव की मीटिंग बुलाकर घोषणा कर दी कि पंचायत गांव की बेहतरी के लिए और लोगों की समस्याओं को खत्म करने के लिए कमिटी की इस रिपोर्ट पर जल्द ही अमल करेगी। काका ने घोषणा कर दी कि पंचायत की सरकार लोगों के लिए हित के लिए काम कर रही है और आम लोगों का भविष्य उनके हाथों में एकदम सुरक्षित है।
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काका गांव के बदलते माहौल से चिंतित थे कि जिस आम आदमी की तरक्की और कल्याण की बात कर पिछले 40 सालों से वे औऱ उनके जैसे नेता बिरादरी के लोग देश में पिछले 64 सालों से देश में लोकतंत्र का पोषण कर रहे हैं अचानक आज वो आम आदमी इतना हिंसक क्यों होता जा रहा है। आखिर क्या नहीं किया इस आम आदमी के लिए हमारी बिरादरी ने। चावल-गेंहू से गोदाम और चक-मक इलेक्ट्रॉनिक आइटमो और फैशनेबल कपड़ों जैसे विदेशी आइटमों से बाजार भर दिये। अंतरराष्ट्रीय संधियों के जरिये हमारी बिरादरी ने एक से बढ़कर एक अत्याधुनिक लैपटॉप, मोबाइल फोन, आइफोन, ब्लैकबेरी और न जाने कौन-कौन से आधुनिक यंत्र इस देश के लोगों के लिए मंगाये लेकिन ये आम आदमी उसे बाजार से खरीद भी नहीं सकता। अब क्या सारी चीजे राजनीतिक बिरादरी उन्हें मुफ्त में उनके घर तक पहुंचाये। कहां हम लोग चांद-सूरज की बातें सोचते हैं और ये आम लोग आज भी हमें रोटी-कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सवालों में ही उलझाये हुयें हैं।
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काका को आम लोगों के बीच बढ़ती उग्रता काफी चिंतित किये जा रही थी। आखिर अहिंसावादी गांधी के इस देश के लोगों को क्या हो गया है? काका ने तुरंत गांव में अहिंसा को प्रचारित करने के लिए एक दिन के उपवास, चरखा काटने और गांव भर में शांति यात्रा की घोषणा कर दी।

Saturday 5 November 2011

लाचार है तो ये सरकार क्यों है?


टीवी पर समाचार चल रहा था। स्क्रीन पर लिखित में खबरें चल रही थी-
{ 12 माह में 11वी बार पेट्रोल कीमतों में इजाफा़. महंगाई पर होगा इसका सीधा असर.
वित्त मंत्री ने कहा- कीमतें नियंत्रणमुक्त और इसमें कुछ भी कर पाने में सरकार है लाचार। }

अचानक पीछे से आई पत्नी की टिप्पणी से तंद्रा टूटी-
"लाचार है तो ये सरकार क्यों हैं?
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इस टिप्पणी ने सोचने को मजबूर कर दिया कि हम किस लोकतंत्र में रह रहे हैं। जिस राजनीतिक बिरादरी को चुनकर इसलिए दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठानों पर देश की जनता ने काबिज कराया है कि वे उनकी समस्याएं कम करेंगे, उनकी बेहतरी के लिए योजनाएं बनाएंगे और इसके एवज में जनता द्वारा दिये जा रहे कर में से बड़ी राशि इस जमात पर खर्च किया जाता है तो फिर उसी जनता का काम करने में ये जमात खुद को लाचार क्यों महसूस कर रहा है। पिछले तीन-चार सालों में महंगाई लगातार बढ़ रही है, सरकार कहती है ये प्रगति की निशानी है। वैसे भी अगर कागजी आंकड़ों को देखे तो हमारे राजनीतिक नेतृत्व, योजनाकारों और प्रशासनिक तंत्र ने आजादी के इन 64 सालों में देश की प्रगति के लिए बहुत कुछ किया है। लेकिन जमीनी हकीकत इससे कुछ अलग नज़र आती है।

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आज सफलता के तमाम आंकड़ों के बावजूद हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां के 26 करोड़ लोगों(लगभग अमरीका की आबादी के बराबर) को एक समय भूखे सोना पड़ता है, जहां के 42 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं, जहां की आबादी में से 79 फीसदी लोग 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम की आय पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। खेती बर्बाद हो रही है, किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। रख-रखाव भंडारण की पर्याप्त सुविधा होने से हरेक साल 50,000 करोड़ से ज्यादा का खाद्यान्न बर्बाद हो रहा है। दूसरी तरफ आलम ये है कि देश में कोई भी परियोजना भ्रष्टाचार की भेंट चढे बिना अगर पूरी हो जाये तो गनिमत ही है। बड़े-बड़े पदों पर जिन लोगों को बैठाया गया वे हजारो-लाखों करोड़ के घोटालों के साथ जेल जा रहे हैं ये अलग बात है कि जेल में रहकर भी वे महामहिम ही होते हैं। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जिस संसद को सर्वोच्च माना जाता है उसी संसद में 162 सांसद आपराधिक मामलों से सुसज्जित हैं इसे लेकर देश की सर्वोच्च न्यायपालिका चिंता भी जता चुकी है। फिर भी हमे अपने लोकतंत्र पर गर्व है। 
64 सालों से तिरंगा ढोते भारत की इस बदरंग होती तस्वीर को देखकर फैज की ये पंक्ति याद आती है-
वो 
इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर  तो नहीं।"
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देश को भोजन देने वाले खेती की हालत ऐसी है कि खेती की परंपरागत व्यवस्थाएं खत्म होने के कगार पर हैं, और आधुनिक तकनीक की पहुंच इतनी महंगी है कि भारत का किसान उसके साथ चलकर अपना खर्चा भी नहीं निकाल सकता। ग्रामीण इलाकों से लोगों का पलायन रूकने का नाम नहीं ले रहा। सिंचाई के परंपरागत साधन सूख रहे हैं, पशुपालन खत्म होने के कगार पर है। वैसे परंपरागत व्यवस्था त्यागने की कीमत हमारे अन्नदाता किसान लगातार आत्महत्याओं के रूप में चुका रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 1997 से लेकर पिछले साल के अंत तक के 13 सालों में दो लाख सोलह हजार पांच सौ किसानों ने आत्महत्या की। इस दौरान शहरी भारत में तरक्की के प्रतीक माने जाने वाला सेंसेक्स सफलता की नई ऊंचाईयां भरता रहा। ये अलग बात है कि इस सेंसेक्स की कुंलाचों का मतलब और उसका अर्थ देश के अधिकांश लोगों के लिए आज भी एक रहस्य ही हैं।
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फिर भी तरक्की के तमाम आंकड़ों को गिनाती ये सरकारें और योजनाकार हर बहस-मुबाहिसें में कहते हैं कि हम आम आदमी के लिए चिंतित हैं औऱ उन्हीं के लिए काम कर रहे हैं। शायद इसी मौके के लिए शायर दुष्यंत कुमार ने लिखा था-
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
,आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा।"
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अगर हम ये सोचे कि समस्याएं केवल ग्रामीण भारत में ही हैं तो ये सही नहीं होगा। शहरों में भी जीवन कम मुश्किल नहीं होता जा रहा है।  आबादी बढ़ रही है, शहर फैल रहे हैं। लोग गांवों से काम के लिए शहर की ओर भागते रहे हैं। पानी खत्म हो रहा है, जगह कम पड़ती जा रही है। नौकरियां खत्म हो रही हैं। वगैरह.वगैरह।
समस्या केवल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की ही नहीं है सबसे पुराने और सबसे मजबूत लोकतंत्र की भी हालत कुछ अलग नहीं है। आर्थिक समृद्धि और पूंजीवादी कॉरपोरेट कल्चर का प्रतीक माने जाने वाले न्यूयॉर्क के वॉल स्ट्रीट से शुरू हुआ पूंजीवाद विरोधी प्रतिरोध आज ब्रिटेन और यूरोप के देशों समेत 82 देशों के 951 शहरों तक फैल चुका है। सत्ता के खिलाफ उपजे असंतोष में इस बीच अरब के कई देशों की सरकारें उखड़ चुकी हैं। इन सबका संदेश एक ही है कि अगर सरकारें लोगों की खुशहाली नहीं ला सकती, लोगों की समस्याएं दूर नहीं कर सकती, उनकी बेहतरी के लिए योजनाएं नहीं बना सकती और उसे जमीन पर लागू नहीं कर सकती तो फिर उनके होने का औचित्य क्या है? जिस आम आदमी के नाम पर आज तक लोकतांत्रिक देशों के सत्तानशीन राज करते रहे हैं उनकी जनता के मन में आज एक ही सवाल कौंध रहा है कि अगर वे अपने लोगों के लिए काम नहीं कर सकते तो फिर उन्हें जनता के पैसे पर क्यों होना चाहिए?
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आर्थिक मंदी के नाम पर अमेरिका समेत तमाम देशों में कई तरह की खर्च कटौतियों की बातें सरकारों की ओर से की जा रही है लेकिन कोई इन हुक्मरानों से ये पूछे कि कटौती केवल आम जनता की नौकरियों, उनकी जरूरी सुविधाओं, उनके कल्याण के कामों पर हो रहे खर्चों में ही क्यों होती हैं? राजनेताओं को दिये गये आलीशान बंगलों, गाड़ियों के काफिलों, जहाजी यात्राओं, उनको मिल रही भारी-भरकम सुविधाओं आदि में क्यों नहीं कटौती की जाती? आखिर वे देश के लिए बनाये गये हैं और अगर कटौती होनी चाहिए तो पहले ऊपर से होनी चाहिए।
कभी विश्वविजय का सपना देखने वाले सिकंदर के देश यूनान यानि ग्रीस के लोग आज इसी बात के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें इसी बात की शिकायत है कि कोई एजेंला मार्केल और सारकोजी क्यों इस बात का फैसला करें कि उसके देश में कितनी नौकरियां कम होनी चाहिए, पेंशन में कितनी कटौती होनी चाहिए और नौकरीपेश लोगों के वेतन में कितने की कमी की जानी चाहिए। इसके बदले वहां की जनता ये  चाहती है कि इस सारे घाटे औऱ देश के आर्थिक दिवालियेपन के जिम्मेदार लोगों को सजा दी जा रही। अपनी इन मांगों को लोकतांत्रिक तरीके से रखने वाले लोगों के तरीके को ये तथाकथित सरकारें अंग्रेजी में -uprising- कहती हैं। पूंजीवाद के सामने खुद को असुरक्षित महसूस कर रही हर देश की जनता आज अगर अपनी आवाज उठा रही है तो सरकारें वाकई अब तक के इतिहास के सबसे असुविधाजनक स्थिति में है।
शायद इसी हालात के लिए जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त ने लिखा था-
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अखबार का हॉकर सड़क पर चिल्ला रहा था

कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है

अब कड़े परिश्रम, अनुशासन आदि दूरदर्शिता के अलावा

और कोई रास्ता नहीं बचा है

एक रास्ता और है कि

सरकार इस जनता को भंग कर दे

और अपने लिए नई जनता चुन ले।"