Wednesday 29 April 2009

मोबाइल हो गयी अपनी राजनीति!

पूरी दुनिया भले ही आर्थिक मंदी का शिकार होने का विलाप कर रही हो लेकिन देश में हो रहे आम चुनाव ने मेरे मोबाइल से मंदी का असर ख़त्म कर दिया है। एक अनुभवी वोटर ने पूछने पर बताया कि मेरे मोबाइल की ये खुशहाली चुनाव ख़त्म होने तक ऐसे ही चलने वाली है। पिछले कुछ दिनों से मेरे मोबाइल पर लगातार एसएमएस आ रहे हैं और मेरे मोबाइल का मेसेज बॉक्स भरता जा रहा है. राजनीतिक दलों के घोषणाओं से जुड़े सन्देश बार-बार मेरे मोबाइल पर फ्लैश हो रहे हैं. मसलन सत्ता में आने पर क्या करेंगे. क्या-क्या अजेंडा रहेगा जीतने के बाद. रोज ही नए-नए घोषणाओं की बारिश से मेरा मोबाइल इन दिनों सुशोभित होता रहता है. ये पता नहीं चल पाया है कि इन दलों तक मेरा मोबाइल नंबर कैसे पहुंचा. खैर जो भी हो घोषणाओं की इस बारिश से मैं खुश बहुत हूँ. आखिर मोबाइल के रास्ते मेरे घर में सपने जो आ रहे हैं. मैं एक आम मतदाता हूँ और अगर राजनीतिक दलों तक सीधी पहुँच हो गई तो मेरे कई काम आसान हो सकते हैं...ऐसा मैं सोचता हूँ. अगर मेरे नंबर पर मेसेज आ रहे हैं तो उनके पास मेरा नंबर होगा ही. अब आप ही सोचिये आज के जमाने में अगर आपकी पहुँच राजनीतिक दलों तक है तो आप कितने आसानी से अपना काम करवाने में सफल हो सकते हैं. जैसे अगर आपको रेल में सफ़र करना है और आपकी टिकट वेटिंग में मिली है तो उसे कन्फ़र्म कराने के लिए आपको वहीँ जाना होगा. अगर आपको रसोई गैस का नया कनेक्शन लेना है तो आपको सांसद के कोटा का इस्तेमाल करना होगा. केन्द्रीय विद्यालय में बच्चे का नाम लिखवाना है तो सांसद की सिफारिश जरूरी है. अस्पताल, फोन के कनेक्शन आदि कई काम है आज के ज़माने में जिन्हें बिना जुगाड़ के करवा पाने में आपको नानी याद आ जायेगी। राजनीतिक लोगों तक पहुच बना पाना भी इतना आसान नहीं है. अगर आप उनके काम के नहीं हैं तो फिर कौन पूछता है आपको. आप ही सोचिये इतने दुर्लभ राजनीतिक बिरादरी के लोग अगर आपके पास मेसेज करें तो किसे ख़ुशी नहीं होगी. घर बैठे-बैठे मेरे पास एक मौका आया है अपनी पहुँच इन तक बनाने का...है न गोल्डन चांस!

राजनीतिक चीयरलीडर्स...
राजनीतिक प्रचार के तरीके लगातार बदल रहे हैं. जब से चुनाव और आईपीएल साथ-साथ शुरू हुए हैं सब जगह चीयरलीडर्स दिखाई दे रहे हैं. वैसे आईपीएल में इसका कांसेप्ट नया-नया है लेकिन अपने यहाँ राजनीति में इसका क्रेज बहुत पुराना है. पहले भी चुनावों के वक्त भीड़ खिंचने के लिए फ़िल्मी सितारों और खिलाड़ियों को मंच पर लाया जाता रहा है. कई बार चुनावों में टिकट लेकर ये सितारे संसद और विधानसभाओं तक पहुँचते रहे. हालांकि पिछले कुछ सालों में जिन क्षेत्रों के लोगों ने अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की चमक-दमक में आकर इन्हें चुनकर संसद भेजा उन्हें पछताना पड़ा. इनमें से केवल कुछ ही राजनीति में खुद को पूरी तरह से शामिल कर सकें हैं.बाकी कईयों को तो दुबारा चुनने की जहमत उठाने को लोग तैयार नहीं हैं...

Sunday 26 April 2009

बूझो तो जाने: किसने तोड़ा बाबरी मस्जिद!

कई दिनों से मीडिया में लगातार ये सवाल गूंज रहा है कि बाबरी मस्जिद किसने तोड़ा। देश के सारे राजनेता अपनी-अपनी जानकारी के हिसाब से इस पहेली को सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं सब के सब गेंद एक-दूसरे के पाले में उछाल रहे हैं. लेकिन आम आदमी इतने सारे जवाब को सुनकर बड़े कन्फ्यूजन में है. भाई किसे इसका श्रेय दिया जाए ये तय नहीं कर पा रहा है आम आदमी. इस उछल-कूद की शुरुआत की मशहूर समाजवादी नेता और गरीबों के मसीहा(?) लालू जी ने. गठबंधन में सहमती नहीं बन सकी और कांग्रेस ने नुकसान पहुचाने लायक उम्मीदवार विरोध में उतार दिए तब लालू जी ने कह डाला कि बाबरी विध्वंश के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है. कांग्रेस ने इसका जवाब दिया और भाजपा के पीएम इन वेटिंग आडवाणी जी पर निशाना साध लिया और कहा कि वही इसके लिए जिम्मेदार हैं. बस क्या था भाजपा के बचाव में संघ के पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन जी उतर गए और उन्होंने नरसिंह राव की सरकार को इसके लिए जिम्मेदार बता आडवाणी जी के बचाव का प्रयास किया. गेंद फेंका-फेंकी के इस खेल से अपने को अब तक बचाते आये कांग्रेस के युवा कर्णधार राहुलजी भी अपने को रोक नहीं सके और कह डाला कि भाजपा ही इसके लिए दोषी है.

आम आदमी के सामने इतने सारे जवाब और जवाब देनेवाला हर इंसान देश का जाना-माना चेहरा. किसपर भरोसा करें और किसे झूठा माने. इतने सारे कन्फ्यूजन के बीच घिरा भारत का आम आदमी करीब २ दशकों से जवाब तलाश रहा है. इतने में पूरी एक पीढ़ी बदलने को आ गई. पुरानी पीढ़ी इसका जवाब नहीं पा सकी नई पीढ़ी को यही सवाल बार-बार सुनाया जा रहा है ताकि भूल न सके. जिसे भी जिम्मेदार समझो लेकिन याद रखो जरूर. इस पाले में रहोगे या उस पाले में काम तो आओगे न...

Friday 24 April 2009

वोटर न हुआ जैसे कोई बड़ा अपराध कर डाला!

जब से चुनाव का कार्यक्रम शुरू हुआ है वोटर रुपी मानव के लिए मानो संकट का समय शुरू हो गया है। पिछले सालों में नेताओं द्वारा काम नहीं करने की आदत को देखकर थक-हार चुकी जनता ने इस बार वोट देने न जाने का मन बना लिया था. सोचा था कि इस बार घर बैठ कर टीवी पर ही देख लेंगे लोकतंत्र के इस सबसे बड़े महापर्व को. जैसे किस शहर में कितने कम लोग मतदान के लिए जाते हैं, कहाँ-कहाँ लोग इस महापर्व के दिन नक्सली हमलों के शिकार बन इस महापर्व के दिन शहीद होने का गौरव प्राप्त करते हैं. कहाँ-कहाँ के वोटर बाहुबली भगवान् लोगों के आशीर्वाद से फलीभूत होते हैं. इसके आलावा किन जगहों पर वोटरों की किस्मत में धनबलियों के आशीर्वाद को पाने में सफल होना लिखा है. लेकिन इस दिन को सुकून से मनाने का मेरा ख्वाब टीवी वालों ने पूरा नहीं होने दिया.

सुबह जैसे ही टीवी खोला उस पर एक ऐड चल रहा था "जो वोट देने नहीं जायेगा वो पप्पू कहलायेगा"। मेरे भतीजे ने पूछा चाचा आप वोट देने जा रहे हो कि नहीं. मेरे नहीं कहते ही वो बोल पड़ा आज से हम आपको पप्पू कहेंगे. उसकी खुश होती मुद्रा से डर-कर मैंने फैसला किया कि चाहे जितनी भी मुसीबतों का सामना करना पड़े वोट डालने जरूर जाऊंगा. रोज-रोज पप्पू के नाम पर जलील होने से तो अच्छा है एक दिन मेहनत कर ही ली जाये. लेकिन वोट डालने जाने से पहले सोचा कि टीवी समाचारों में जरा बाहर के माहौल का पता तो कर लिया जाये. चैनल बदलते ही देखा समाचारवाचक चीख रहा था और बता रहा था कि फलाना राज्य में नक्सलियों ने सुरक्षाकर्मियों पर हमले किये और कइयो को मार डाला. मतलब जिन सुरक्षाकर्मियों को वोटरों कि सुरक्षा के लिए बुलाया गया था वही सुरक्षाकर्मी नक्सली हिंसा के शिकार हुए. किसी महान आदमी ने कहा था कि एक वोटर ही वोटर का दर्द समझ सकता है. तुंरत मेरे दिमाग में उस इलाके के वोटर का दर्द उभर आया. क्या इतनी बड़ी खबर के बाद उस इलाके का वोटर मतदान केंद्र तक जाने कि हिम्मत करेगा. पिछले कुछ समय से नक्सलियों द्वारा जारी चेतावनी को तो वो सुरक्षाकर्मियों का चेहरा देखकर टाल गया था लेकिन अब जब उनका विकराल रूप सामने दिख गया है तो कौन मां अपने बेटे को, कौन पत्नी अपने पति को और कौन सी बहन अपने भाई को लोकतंत्र के इस महापर्व में आहुति देने के लिए भेजेगी.

ऐसे ही अचानक जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य के लोगों का चेहरा भी दिमाग में घूम गया। अब समझ में आया कि वहां के लोग किस मानसिकता में जी रहे होंगे. अगर वे वोट देने न जाये तो सुरक्षाकर्मी उन्हें अलगाववादी समझ बैठते होंगे और अगर देने जाए तो आतंकी उन्हें अपना दुश्मन मां बैठते हैं. अब बताइए बेचारा वोटर न घर का रहा न घाट का. इतना ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी कहानी ऐसी ही है. अगर आपने मतदान में हिस्सा लिया और बाहुबली भाई लोग को खबर लग गयी कि फलाना गाँव के लोग मेरे विरोध में मतदान किये थे. बस क्या चुनचुन कर निशाना बनते हैं बेचारे वोटर.

ये सारे नज़ारे दिमाग में घूमते ही फिर मन में एक डर बैठ गया, वोट करने जाऊँ या नहीं। एक तरफ लोकतंत्र के सबसे बड़े पहरुए लोगों का डर मन में समाया हुआ था तो दूसरी तरफ पप्पू के नाम से विख्यात होने का भय. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ. अब खुद के १८ साल का होने पर अफ़सोस होने था कि अच्छा था हम वोटर लिस्ट में शामिल ही नहीं थे. कम से कम कह तो सकते थे कि अभी १८ साल के हुए ही नहीं हैं. घर से बाहर निकलते ही पडोसी ने पूछा अरे भाई साहब किसे वोट दे रहे हो इस बार. मन में अचानक एक डर समां गया पता नहीं किस पार्टी से जुडा है. कहीं विरोधी पार्टी का नाम ले लिया और इसने जाकर बता दिया तो पता नहीं क्या होगा. मैंने मामले को संभालते हुए झट से कह दिया अरे नहीं तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही थी दावा लेने जा रहा हूँ...और तेज कदम वापस घर की ओर हो लिए...मन में ख़ुशी थी चलो जान बची...

Monday 13 April 2009

लेटेस्ट मोर्चा और देश का फ्यूचर!

आज़ादी के बाद पनपा अपना देश ६ दशकों का हो गया है। ऐसा कहा जाता रहा है कि इस दौरान देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था लगातार परिपक्व होती रही है. अभी हाल ही में लोकसभा चुनावों के लिए दो नए राजनीतिक मोर्चे बने हैं. इनमें सबसे लेटेस्ट है चौथा मोर्चा. जाहीर है सबसे लेटेस्ट मोर्चे का घोषणापत्र भी लेटेस्ट ही होगा. इसमें देश के फ्यूचर का आइना होगा. अब आइये डालते हैं इस लेटेस्ट मोर्चे में शामिल दलों की आइडियोलॉजी और भविष्य के लिए उनकी सोच और अजेंडा पर एक नज़र.

दल नंबर एक-
चुनाव चिन्ह लालटेन। नारा समाजवाद का. सबको साथ लेकर चलने का. हालाँकि पहले के नारों में स्वर्ण जाति के लोग निशाना बनते रहे हैं. जाति-वाद और सांप्रदायिक रणनीति के हिसाब-किताब पर इस दल ने एक राज्य में करीब १५ साल तक राज्य किया. जब विकास के सभी आंकडों पर राज्य सबसे नीचे दिखने लगा तो उसके लिए भी इसी दल को जिम्मेदार ठहराया गया. चुनाव चिन्ह लालटेन के साथ १५ साल के शासन में राज्य अँधेरे में ही डूबा रहा और जगमगाती बिजली का सपना संजोये राज्य की जनता ने इसे राज्य की सत्ता से बेदखल कर दिया. बाद में दल के सुप्रीमो ने केन्द्रीय मंत्री के नाते अपनी छवि सुधारी और फिर इसी बदली हुई इमेज के बल पर इस चुनावी समर में उतरे हैं. गठबंधन के ज़माने में एकला चलो का कोई मतलब नहीं देख फ़िलहाल इस लेटेस्ट गठबंधन की नाव पर सवारी शुरू की है.

दल नंबर दो-
चुनाव चिन्ह झोपडी। जातीय समीकरण के बल पर कुछ सीटें लगातार जीतते रहे और केंद्र में बनी हर सरकार में मंत्रीपद का जुगाड़ होता रहा. जीतने वाले अधिकांश सांसद या तो दलप्रमुख के खानदान के रहे या फिर बाहुबली. विधानसभा चुनाव के दौरान मुस्लिम मुख्यमंत्री देने का वादा कर कई सीट जीतने में कामयाब रहे. लेकिन अपना आकलन करने में भ्रमित हो ये कहते घूमते रहे कि सरकार बनाने की चाभी मेरे पास है और मेरे बिना कुछ हो ही नहीं सकता. इसी जिद में राज्य को एक साल के अन्दर दूसरे चुनाव का दर्शन कराया. अगले चुनाव में जनता ने पूछा ही नहीं और भावः कम हो गया. लेकिन आत्मविश्वास डिगने का नाम नहीं ले रहा और इस चुनाव में झोपडी के साए में फिर मैदान में हैं. सफ़र में मन लगे इसलिए लेटेस्ट गठबंधन का दामन थामा है.

दल नंबर तीन-
तकनीकी क्रांति के दौर में बने इस लेटेस्ट गठबंधन में शामिल इस दल का चुनाव चिन्ह साइकिल है। जमीनी राजनीति, जातीय समीकरण और सांप्रदायिक झुकाव के दम पर देश के सबसे बड़े राज्य में हमेशा राजनीतिक दबंगता बनी रही. जमीनी राजनीति के बाद इस दल को उद्योगपतियों के साथ जुगलबंदी के कारण आलोचना का सामना करते रहना पड़ा. हाल ही में इस दल ने अपना मेनिफेस्टो जारी किया. भविष्य के लिए इस दल का अजेंडा जरा सुनिए. चुनाव चिन्ह साइकिल है ही. सत्ता में आने पर ये दल अंग्रेजी भाषा और कम्प्यूटर पर बंदिश लगा देगी. इतना ही नहीं सत्ता में आने पर वायदा कारोबार, शेयर कारोबार और मॉल कल्चर पर भी अंकुश लगाया जाएगा।

लोकतंत्र की परिपक्वता और २१वी सदी में जीने की दुहाई देते अपने देश का भविष्य क्या होगा- लालटेन...झोपड़ी और साइकिल. साथ में देश से अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा भी हटा दीजिये और कंप्यूटर को तो भूल ही जाईये. साथ में शेयर कारोबार और मॉल जैसी चीजों को भी भुला दीजिये. लो अब बन गया न आपके सपनो का भारत...जाइए एन्जॉय कीजिये.

Saturday 11 April 2009

ऐसी चुनावी नौटंकीबाजी के लायक ही हैं हम...

एक राष्ट्रीय दल की रैली का नज़ारा। पार्टी के सभी बड़े नेता मंच पर मौजूद. एक-दो वरिष्ट नेताओं के बोलने के बाद माईक थमाई जाती है एक जाने माने चेहरे को. मंच के सामने मौजूद भीड़ में अचानक उबाल आ जाता है. अचानक जोश में आई भीड़ नारे लगाने लगती है. जैसे इसी लम्हे के लिए सबने अपनी साँसे थाम रखी थी. कौन है यह शख्स जिसे देख कर हजारों की भीड़ अचानक उत्साह से भर उठती है. इस शख्स को पूरा देश जानता है. इसने हाल ही में फिल्मों की दुनिया से राजनीति में कदम रखा है. उसे पहले इस दल का उम्मीदवार बनाने का फैसला किया गया था लेकिन देश की सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहकर इसे चुनाव लड़ने से रोक दिया कि २ साल से ज्यादा की सजा पाया कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता. यह शख्स एक भूतपूर्व सांसद और फिल्म अभिनेता का बेटा है. फिल्मों में भी इसने खूब नाम कमाया है. लेकिन इस शख्स पर १९९३ में मुंबई में हुए धमाकों में शामिल लोगों से संपर्क रखने का आरोप लगा और सालों तक इसे अदालती कार्यवाही का सामना करना पड़ा. अदालत ने इसे उन्हीं आरोपियों में से किसी एक से एके-४७ राइफल लेकर रखने का दोषी करार दिया और ६ साल की सजा सुनाई. यह शख्स अभी जमानत पर है और चुनाव लड़ना चाहता था. अदालत ने लड़ने नहीं दिया. पार्टी स्टार प्रचारक नहीं खो सकती थी सो उसने पार्टी में बड़ा पद दे दिया. अब यह शख्स पार्टी के हर मंच पर गाँधी टोपी लगाये दीखता है. यहाँ गाँधी टोपी की भी अपनी कहानी है. कुछ साल पहले एक फिल्म आई थी. जिसमें इस शख्स ने ऐसे व्यक्ति का किरदार निभाया था जो पहले अपराधी होता है और फिर गांधीजी के सिधान्तों से प्रभावित होकर अहिंसा का मार्ग अपना लेता है और लोगों को मार-पीट के बदले जादू की झप्पी देता फिरता है. फिल्म हिट रही और दर्शकों की जुबान पर गांधीगिरी शब्द चिपका गयी. इस शख्स ने रियल लाइफ में भी गांधीगिरी को अपने साथ चिपका लिया. व्यवहार में अपनाया कि नहीं कह नहीं सकते लेकिन अब हर मंच पर यह शख्स गाँधी टोपी के साये में गांधीगिरी शब्द का इस्तेमाल जरूर करता है.

हाँ तो हम फिर उस नज़ारे पर आते हैं जब इसे मंच पर माइक पकड़ा दिया जाता है। शख्स माइक लेता है और लोगों की सहानुभूति लेने के अंदाज में शुरू होता है. कहता है- मैंने टाडा कानून का दर्द झेला है. मुझपर जो आरोप लगाये गए हैं गलत हैं. मुझसे जबरन आरोप कबूलवाया गया, मारपीट कर. टाडा और पोटा जैसे कानून हटा देने चाहिए. सामने खड़ी जनता हो-हो करती है. नारे लगाती है. भीड़ चिल्लाती हैं--मुन्ना भाई जादू की झप्पी दे दो. मंच से आवाज आती है पहले हमें चुनाव में जिताओ और दिल्ली पहुचाओ फिर जादू की झप्पी मिलेगी. भीड़ फिर चिल्लाती है मुन्नाभाई जिंदाबाद...पार्टी जिंदाबाद...वगैरह...वगैरह.

राजनीति को फ़िल्मी नौटंकी बनाती इस भीड़ में कौन शामिल है. हम-आप और कौन. ऐसी भीड़ देश में रोज हो रही सैकडों रैलियों में शामिल है. पार्टियों के बैनर-पोस्टर से सजी यह भीड़ लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहरुआ मानी जा रही है. गाड़ियों में भर-भरकर यह भीड़ एक शहर से दूसरे शहर में, एक राज्य से दूसरे राज्य में लाई जा रही है. महीने भर के इस महापर्व में जाने भीड़ में शामिल कितने लोगों का गला बैठ जायेगा. चुनाव ख़त्म होगी, नयी सरकार बनेगी फिर यह भीड़ भी चैन की सांस ले सकेगी. लेकिन अपने नेताओं की शान में कशीदे पढने और नारा लगाने की आदत लगा चुकी यह भीड़ कब तक चुप रहेगी. फिर जीतने के बाद जब यह नेता लोग अपने इलाके में पहुचेंगे तो उनके स्वागत कार्यक्रम में नारा लगाने के लिए यह भीड़ फिर से एक-जूट हो जायेगी. अपने बैठे हुए गले को तर करके फिर से भीड़ जीवंत हो सकेगी और लोकतंत्र की रक्षा के नारे लगा सकेगी...

Thursday 9 April 2009

जूता क्या... नए ज़माने का हथियार कहिये इसे...

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढने जाने को हुआ तो उससे जुडी कई कहानियां दादाजी ने सुनाई। उनमें से एक था हैदराबाद के निजाम के जूते की महिमा की दास्तान. कहानी कुछ यूँ थी कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को बनाने के लिए चंदे का जुगाड़ करने के क्रम में मालवीय जी हैदराबाद के निजाम के दरबार तक पहुंचे. लेकिन जब निजाम को पता चला कि ये आदमी हिन्दुओं के लिए विश्वविद्यालय बना रहा है और उसके लिए चंदा मांगने मेरे पास आया है तो निजाम गुस्से से भड़क उठा और अपना जूता मालवीय जी की ओर दे मारा. शांतचित मालवीयजी जूते को उठाकर आये और अगले दिन नीलामी पर रख दिया. बदनामी के डर से फिर निजाम ने मुहमांगा दाम देकर अपना जूता वापस मंगाया. वो पैसा विश्वविद्यालय के निर्माण में लगा. निजाम के जूते की ये कहानी करीब १०० साल पुरानी है. अब तो जूते के इस्तेमाल की ये कहानी पुराने ज़माने की बात हो गयी. तब हथियार भी बड़े परंपरागत हुआ करते थे. अब जमाना बदल गया है. परमाणु बम बन गए हैं और कई देशों के पास हैं. एक-दो परमाणु बम तो फूट भी चुके हैं.

जैसा कि हम अक्सर सुनते हैं कि पुरानी शैली के कपडे कुछ समय बाद फिर फैशन में आते हैं उसी तरह से जूते का फैशन भी फिर से लौट आया है। इसका श्रेय जाता है इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी को. बम-गोलों-मिसाइलों की मार झेलकर टूट-फूट चुके इराक के नागरिक जैदी(नागरिक के आलावा पत्रकार भी लेकिन वो बाद में) ने जूते को अपना हथियार बनाकर अमेरिका पर प्रहार किया और भरी सभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के मुंह पर जूता दे मारा. जैदी के साथ जो हुआ वो हुआ लेकिन पूरी दुनिया ने अमेरिका को जूता खाते देखा. अधिकांश लोगों के लिए ये मौका काफी खास रहा. चीनी राष्ट्रपति बेन जियाबवो के ऊपर (कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में) जूता भी जल्दी चल गया. लेकिन सहनशील भारत में जूता इतनी जल्दी चलेगा इसकी उम्मीद किसी ने नहीं की थी.

१९८४ में हुए दंगों की टीस को यहाँ की सिख बिरादरी अभी तक नहीं भूली है और न्याय की आस अब भी उसके मन में जिन्दा है इसका संकेत दिया एक सिख पत्रकार जरनैल सिंह ने. जरनैल सिंह ने साबित किया कि वो पत्रकार हैं लेकिन उसके पहले एक इन्सान है जो अच्छे-बुरे को महसूस करता है और शरीर पर लगे जख्म उसके दिल में भी दर्द पहुचाते हैं. पत्रकार वार्ता के दौरान जरनैल ने गृह मंत्री के ऊपर जूता उछाल दिया. जरनैल का कहना था कि सत्ताधारी दल ने १९८४ दंगों में शामिल अपने नेताओं को बचाने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया है और पीडितों को न्याय मिलना चाहिए. जरनैल का जूता ऐसा तगड़ा लगा कि देश भर में सिख बिरादरी न्याय के लिए सड़कों पर आ गयी और वोट बैंक की चिंता में पार्टी को अपने इन दोनों नेताओं को लोकसभा चुनाव से हटानी पड़ी...कहते हैं न कि आम आदमी बोलता नहीं है और जब बोलता है तो जमकर बोलता है...जैदी और जरनैल के रूप में आम आदमी बोला और बोला तो ऐसा बोला कि अब तक बोलते रहने वालों की बोलती बंद हो गयी.