Thursday 23 July 2009

कौन सोचेगा देश के आम आदमी के बारे में?

आज दोपहर में टीवी न्यूज़ चैनलों पर हमारे सांसद छाये हुए थे। टीवी पर चल रहे एक कार्यक्रम सच का सामना को लेकर वे अपना विरोध जता रहे थे। उनके अनुसार इस कार्यक्रम में निहायत ही निजी सवाल पूछे जाते हैं और यह देश के सांस्कृतिक माहौल के लिए ठीक नहीं है। इतना ही नहीं इस मामले पर संसद के सभी सदस्य एकमत थे॥भले ही वे किसी भी दल के क्यूँ न हों॥जाहीर है हमारे सांसदों को देश की बड़ी फ़िक्र है...इसके कुछ ही दिन पहले देश में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमते बढ़ाई गयी. ये मसला कोई आम मसला नहीं था. इसका सीधा असर देश के हर परिवार पर होने वाला था. एक बार नहीं बल्कि रोजाना दिन भर में कई-कई बार लोगों से ये बढ़ी कीमते वसूली जानी थी. जो गाड़ियों पर चलता है उसे डीजल-पेट्रोल की बढ़ी कीमते चुकानी थी॥जो नहीं चलता उसे साग-सब्जी की ढुलाई के नाम पे ये बढ़ी हुई कीमत चुकानी थी. और भी न जाने कहाँ-कहाँ इस कीमत बढोतरी का असर हुआ ये तय कर पाना मुश्किल है...लेकिन उस मसले पर देश में विरोध का स्वर कहीं सुनाई नहीं दिया.
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इस बढोतरी ने लोगों की थालियों को दाल से महरूम कर दिया॥चावल के साथ खाया जाने वाला दाल ९० रूपये किलो बिकने लगा। इसी बीच देश का बजट आया और पता नहीं किन-किन विभागों के नाम पर करोडों-करोड़ बाँट दिया गया..लेकिन जो लोग सब्जियां लाने बाजार जाते थे उनके लिए बजट संभालना मुश्किल हो गया. लौकी, टमाटर ३० रूपये किलो बिकने लगे...कोई भी सब्जी खरीदो १० रूपये में पाव भर से ज्यादा मिलना बंद हो गया. इसके बाद भी कोई विरोध के लिए सड़क पर नहीं उतरा...अभी चंद महिनो पहले हुए चुनाव के दौरान जनता का हितैषी बनने को बेचैन दिखने वाले हजारो चेहरे इस विपरीत समय में जनता की नज़र से ओझल थे. जनता उन्हें ढूंढ भी नहीं रही थी..अपने देश की जनता हर ५ साल पर अपने हितैषियों को देखने की आदि हो चुकी है. पेट्रोल-डीजल के दाम बढे तो देश की रीढ़ माने जाने वाले किसानों की भी शामत आ गयी. इन्द्र भगवान के भरोसे हर साल अपनी नैया पार लगाने वाले किसानों से इस बार इन्द्र भगवान ने बेवफाई क्या की...उनके तो जैसे होश फाख्ता हो गए...लेकिन राजनेता यहाँ भी चुप्प नहीं बैठे. राज्यों की सत्ता पर काबिज दलों के नेता राज्य की जनता की सहानुभूति पाने के लिए केंद्र सरकार पर बरस पड़े और केंद्र ने पल्ला झारते हुए गेंद फिर राज्यों के ऊपर फेंक दिया. बीच में असहाय जनता क्या करती...टक-टक देखते रहना ही उसके बूते की बात थी सो उसने अपना कर्तव्य पूरी शिद्दत से निभाया।
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देश के हित में सोचने के लिए बने संसद के सदस्य रोजाना बहसों में उलझे रहे. देश-विदेश से और इन्टरनेट से जुटाए गए आंकडे रोजाना संसद में देश के आम लोगों की बदहाली का रोना रोते रहे...देशी-विदेशी मीडिया बदहाल भारत के गाँव और पानी और बिजली के लिए जूझते महानगरों की कहानी को रंगीन परदे पर दिखाती रही. संसद में कभी किसी नेता के किसी और के बारे में दिए गए विवादस्पद बयान के बारे में हंगामा हुआ तो कभी टीवी पर आ रहे कार्यक्रम के बारे में. तो कभी नेता अपनी सुरक्षा घटाने पर बवाल काटते रहे...आम जनता को भी फुर्सत कहा थी...जो शहरों में था वो अपनी नौकरी बचाने और रोज सडकों पर गुत्थम-गुत्था कर कार्यालय पहुचने की लड़ाई में लगा रहा और जो गाँव में था वो किसी भी तरह अपने खेतो में अनाज बोने के लिए धुप-बरसात में मरता-खपत रहा...

Saturday 11 July 2009

कल्लन काका, उनकी बकरी और गाँव में उनकी मूर्तियाँ!

गाँव में चौपाल सजी थी। बीच में सरपंच कल्लन काका पलथी मारे बैठे थे। अगल-बगल में मंगरू चाचा, खेदन, मंगल, श्याम समेत गाँव के सभी बड़े-बुजुर्ग और महिलाएं और बच्चे अपनी-अपनी जगह पकड़े हुए थे। कल्लन काका ने जब से सुना था कि राज्य की मुख्यमंत्री साहिबा पूरे प्रदेश भर में धडाधड अपनी और अपने प्यारे हाथी की मूर्तियाँ लगवा रही हैं तब से कल्लन काका को चैन से नींद भी नहीं आ रही थी। कल ही सपने में कल्लन काका ने देखा था ख़ुद को मंच पर बैठे हुए। फ़िर उनके नाम का अन्नाउंस होता है और कल्लन काका धीरे-धीरे मूर्ती की ओर बढ़ते हैं और फ़िर अपने ही हाथों अपनी मूर्ती का उदघाटन करते हैं। अपनी ही मूर्ती को सामने लगा देखकर और पूरे गाँव को उसे निहारते हुए देखकर कल्लन काका की आँखे भर आई. पता नहीं कब खो गए काका सपनो में और जब नींद खुली तो काकी उन्हें झकझोड़ कर उठा रही थीं। खेत में मवेशी घुस गए थे और काकी चाहती थी कि काका जाकर मवेशी भगाएं. काका क्या कहते-- कहाँ गाँव में अपनी मूर्तियाँ लगवाने की सोच रहे हैं और इधर काकी को खेतो की चिंता हुई जा रही है. काका को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन काका ने भी सोच लिया था कि अब तो पूरे गाँव में उनकी और उनकी प्यारी बकरी की मूर्ती लगकर ही रहेगी। लेकिन इसके लिए पैसा कहाँ से आयेगा? काका इससे तनिक भी बिचलित नहीं हुए और काका ने तय कर लिया गाँव के विकास के नाम पर जो फंड आता है मूर्तियाँ उसी से लगेगी। रही बात गाँव वालों को मनाने की तो उसी के लिए काका ने आज की मीटिंग बुलाई थी।
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कल्लन काका ने पूरी गंभीरता के साथ गांववालों को संबोधित करना शुरू किया--- देखिये भाइयो और बहनों। आप लोग जानते हैं दुनिया कहाँ से कहाँ बढ़ गयी, लोग कितने माडर्न हो गए लेकिन हम वहीँ के वहीँ हैं। लेकिन अब ये ज्यादा दिनों तक बरक़रार नहीं रहेगा और अब जल्द ही हमें गाँव की तस्वीर बदलनी होगी. इसके लिए हमने रोड मैप तैयार किया है॥हाँ॥रोडमैप! भाइयो हमने फैसला किया है कि गाँव को टूरिज्म हब बनायेंगे. गाँव भर में मूर्तियाँ लगाई जाएँगी और उसे देखने के लिए लोग यहाँ आएंगे. बाहर वाले यहाँ आयेंगे और यहाँ आकर तरह-तरह की चीजों की खरीददारी करेंगे और इससे हमारी आमदनी बढेगी. अगर विदेशी लोग घुमने आने लगें तो रूपये की बात छोडो डॉलर में पैसे आने लगेंगे और हमारा गाँव मालामाल हो जायेगा।
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काका के सामने बैठा बबलू खुद को नहीं रोक पाया और झट से सवाल कर दी-- लेकिन काका पहले से ही हमारे गाँव में इतनी मूर्तियाँ हैं अब किनकी मूर्तियाँ लगवाई जाएँगी? काका ने पूरे धैर्य का परिचय देते हुए उसका सवाल पूरा होने तक इंतजार किया और फिर बोल उठे- देख बेटा भगवान लोगों की मूर्तियाँ तो हर जगह हैं और अब राजनेताओं ने भी शहरों में अपनी मूर्तियाँ लगवानी शुरू कर दी है। लेकिन अभी गाँव के सरपंचो और मुखियाओं ने ये काम शुरू नहीं किया है। इससे पहले कि उनके दिमाग में ये आईडिया आये हमें इसकी शुरुआत अपने गाँव में कर देनी चाहिए और सबसे आगे रहते हुए अपने गाँव को टूरिज्म हब बना लेना चाहिए. गाँव के बाकी लोगों को काका की ये अंग्रेजी बात समझ में आ नहीं रही थी इसलिए सब केवल सर हिलाकर हाँ में हाँ मिलाये जा रहे थे. काका ने कहा- इसलिए मैंने फैसला किया है कि गाँव की भलाई के लिए मैं अपने ऊपर ये जिम्मेदारी लेता हूँ. मैं तैयार होता हूँ अपनी मूर्तियाँ लगवाने के लिए और तुम तैयार हो जाओ मालामाल होने के लिए. कल्लन काका का विरोधी जगतार बोलने को खडा हुआ लेकिन किसी ने उसे बोलने ही नहीं दिया. सब पर कल्लन काका के आईडिया का जादू चल चूका था।
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अगले दिन से काम शुरू हो गया। कल्लन काका ने सुबह नाई को बुलवा भेजा। नाई भी गाँव के विकास में योगदान देने से पीछे नहीं रहना चाहता था. दोपहर तक कल्लन काका को एकदम चमकाकर विजयी भाव में घर की ओर लौटा. कल्लन काका ने उसे भी समझा दिया था कि जब गाँव में विदेशी आने लगेंगे तो उसकी कमाई भी डॉलर में होने लगेगी। वैसे सपना केवल नाई ही नहीं देख रहा था कल की मीटिंग से लौटने के बाद खेदन भी अपने किराने की दूकान के विस्तार के बारे में अपनी बीवी राधा से गहन विचार-विमर्श में जुटा था. वो सोच रहा था जब विदेशी गाँव में आने लगेंगे तब वह चावल-आटा बेचना छोड़कर पिज्जा वगैरह की दुकान खोल लेगा. बबलू भी अब काका से खूब प्रभावित लग रहा था और सोच रहा था कि जब उनका गाँव विदेशियों के घुमने लायक बन जायेगा तब वो पेप्सी की दुकान खोल लेगा और साथ में सिम कार्ड और मोबाइल रिचार्ज का काम भी शुरू कर देगा. इन सब चीजों के बिना भला यहाँ आने वाले सैलानी कैसे रह पाएंगे. बबलू ने तो दुकान का नाम भी सोच रखा था अपनी गर्लफ्रेंड के नाम पर-- "चंपा टेलिकॉम एंड ठंडा सेंटर"... साहूकार चम्पकलाल की बांछे भी खिली हुई थी. इन सब लोगों को अपना व्यापार शुरू करना होगा तो पैसा कहाँ से आयेगा. तब अंगूठा लगवाने के लिए चम्पक साहूकार के दर पर हीं सबको आना होगा न. तब बढा देंगे ब्याज का दर. खुद सब कमाएंगे डॉलर में और मुझे कुछ भी नहीं मिलेगा ऐसा कैसे हो सकता है भाई॥
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खुद नहा-धोकर कल्लन काका ने अपनी बकरी को भी नहला दिया. आखिर काका के साथ गाँव भर में उसकी भी तो मूर्ती लगनी थी. नहा-धोकर जब काका गाँव में निकले तब उन्हें आभास हुआ कि टूरिज्म हब वाला उनका आईडिया वाकई हिट हो चूका है. काका जिधर से निकलते उधर ही लोग सलाम ठोकना शुरू कर देते. यहाँ तक कि उनके दुश्मन भी आज काका को इग्नोर नहीं कर पा रहे थे. अचानक काका के मन में एक प्रश्न उभर आया कि जब मूर्तियाँ लगने के बाद सैलानी नहीं आयेंगे तब ये गांववाले उन्हें जीने देंगे क्या. लेकिन काका इस सवाल से भी बिचलित नहीं हुए. उन्होंने तय कर लिया कि जब वक्त आयेगा तब देखा जायेगा. कह देंगे कि भाई आईडिया है फ़ैल हो गया, अब आईडिया के अन्दर घुसे थोड़े ही थे. जब बड़े नेता लोग अपनी और अपने हाथियों की मूर्तियाँ लगवाने के लिए करोडों खर्च कर सकते हैं तो काका अपनी और अपनी बकरी की मूर्तियाँ लगवाने के लिए लाखों रुपया भी खर्च नहीं कर सकते क्या...जय श्री राम की... देखा जायेगा..जो होगा. पहले मूर्तियाँ लगवाने का जुगाड़ तो किया जाये...

Wednesday 8 July 2009

प्यासा देश और पानी में डूबते उसके लोगों की कहानी..!

हमारा देश कितना बड़ा है और आबादी तो इतनी बड़ी कि मत पूछिए। एक अरब से ज्यादा तो हम सरकारी आंकडे के अनुसार ही हैं। अनाज भी हम अपने खाने के लायक उगा ही लेते हैं. रह गयी बात पानी की तो वो भी हमारे देश में कम नहीं है. अब देखिये न मुंबई नगरिया को... पूरा शहर पानी में तैर रहा है. मानसून ने दस्तक दे दी है और पूरा शहर पैंट को निचे से मोड़े और हाथ में छतरी थामे अपनी रफ्तार में दौरे जा रहा है. लेकिन इस कहानी का दूसरा पहलू भी है. मुंबई के पास डूबने के लिए पानी जरूर है लेकिन पीने के पानी की जुगाड़ करने में मुंबई वालों को नानी याद आ रही है. गली-गली और घर-घर में पानी भरी पड़ी है लेकिन पीने के लिए सरकार जो पानी देती थी उसमें ३० फीसदी की कटौती कर दी गई है। ऐसा इसलिए हुआ है क्यूंकि मुंबई को जिस झील से पानी दिया जाता था उसका जलस्तर घट चुका है. अधिकारियों का कहना है कि उनके पास सिर्फ़ अगले दो महीनों के लिए पानी बचा हुआ है और अगर मानसून अपने पूरे ज़ोर से समय पर नहीं आता तो मुंबई के लोगों के लिए पानी ही नहीं होगा. क़रीब दो करोड़ लोगों को अपनी प्यास में से ३० फीसदी कटौती करने को कहा गया है बल्कि कहा नहीं गया है कटौती कर दिया गया है. और जो सरकार करती है वही सच है क्यूंकि भारतीय शहरों के लोगों ने पहले इतना ज्यादा पानी बहा दिया है कि अब वे बूँद-बूँद के लिए सरकार पर निर्भर हैं. सरकार कहीं से भी लाये लेकिन अगर पानी लाकर पिलाती नहीं है तो फिर लोगों के पास कोई और उपाय नहीं है. मिनरल वाटर के बोतल खरीदकर पीना लोगों के लिए एक विकल्प जरूर है लेकिन उसकी भी अपनी कीमत है और सब उस पानी की कीमत नहीं अदा कर सकते.

इससे कुछ अलग कहानी है देश की राजधानी दिल्ली की. देश की राजधानी होने के नाते देशभर से यहाँ लोग आते रहे और अब इसकी आबादी भी अच्छी-खासी हो चुकी है. रहने के लिए घर का तो जुगाड़ जैसे-तैसे हो जाता है खाने का जुगाड़ भी पैसे के बल पर हो ही जाता है लेकिन पानी का क्या हो. जबतक जमीन के नीचे पानी था लोगों ने छककर इसका मजा लिया. गर्मी के मौसम में गला तर करने के साथ-साथ लोगों ने जमकर स्नान भी किया. बड़ी-बड़ी इमारतों के आगे बने फव्वारों से खूब पानी भी बहाया गया. लेकिन अब हालात बदल चुके हैं. अब इस शहर के अधिकांश इलाकों का पानी सूख चुका है या फिर है भी तो नमकीन पानी है जो पीने की बात तो छोडिये नहाने और कपडे धोने के काम भी नहीं आ सकता. शहर में कई इलाकों में पानी की आपूर्ति पाईप के जरिये होती है. जिन इलाकों में ऐसा नहीं होता वहां सप्ताह में १ या २ दिन पानी के टैंकर जाते हैं. ये दिन इन कालोनियों के लोगों के लिए किसी युद्ध के दिन से कम नहीं होता. टैंकर के आते ही डब्बे लेकर लोग घरों से ऐसे दौर लगा लेते हैं जैसे पहले किसी दुश्मन के आने की खबर सुनकर कबीले वाले लगाते थे. जिसने जितना ज्यादा पानी झटका उसका सीना उतना ज्यादा चौडा. यहाँ भी जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत काम करती है. अगर आप घर-परिवार से मजबूत हैं तो फिर आपको ज्यादा पानी लेने से कोई नहीं रोक सकता और अगर रोक ले तो फिर उसका सर फूटना पक्का.

इसी देश में बिहार जैसे राज्य भी हैं। जहाँ की अधिकांश आबादी ग्रामीण है. यहाँ पानी की कोई कमी नहीं है. हर साल राज्य के अधिकांश जिले बरसात के मौसम में बाढ़ में डूब जाते हैं. पडोसी देश नेपाल से आने वाली नदिया पानी का समंदर अपने साथ लाती है और बिहार की किस्मत पर हाथ साफ़ कर जाती है. लेकिन बिहार की इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी है. कई इलाकों में लोग बड़ी मुश्किल से पीने का पानी जुगाड़ कर पाते हैं. सिचाई के लिए पानी का जुगाड़ करना भी यहाँ के किसानों के लिए आसान काम नहीं है. राज्य के आधे जिले अपने यहाँ आने वाले पानी को रोकने के लिए लड़ते हैं तो आधे जिलों की प्यास बुझाने का कोई जरिया नहीं है और सब कुछ इन्द्र भगवान के भरोसे चलता है. अगर उन्होंने आँखे फेर ली तो फिर इन किसानों का कोई माई-बाप नहीं होता.

पानी की बहुलता के बावजूद देश के अधिकांश शहरों में पीने के पानी की हालत ऐसी ही है। लेकिन सब कुछ भगवान भरोसे ही चल रहा है. इतने तकनिकी विकास के बाद भी हमने इस बुनियादी समस्या के हल के लिए कुछ ठोस नहीं किया है. अगर हमने अपने देश की नदियों को ही आपस में जोड़ लिया होता तो देश के किसी भी इलाके में हमें पानी की कमी का सामना नहीं करना पड़ता और जिन इलाकों में पानी ज्यादा होता वहां से पानी निकाल पाने में भी हम सफल होते. तभी तो सब कुछ होते हुए भी पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्य के किसान मानसूनी बारिश का इंतज़ार कर रहे है. हम अपने लिए जब कोई नीति ही नहीं बना सकते तो फिर हमारी प्यास बुझाने विश्व बैंक और अईएमेफ़ तो नहीं आयेंगे. प्रकृति की ओर से मिली इस अनमोल धरोहर को अगर हम सहेज कर इस्तेमाल नहीं कर सकते तो फिर हमारी प्यास ऐसे ही बनी रहेगी और हम ऐसे ही आसमान में पानी की बूंदों के लिए टकटकी लगाये दिखाई देंगे.

Tuesday 7 July 2009

बजट पर हम क्या बोलें, आप ने देख ही लिया!

देश में बजट पहली बार नहीं आया है पिछले ६ दशकों से हम हर साल बजट का इन्तेज़ार करते हैं. हर बार हमारे विकास के नाम पर करोडों-करोड़ की राशि की घोषणा और उसका खर्चा दिखा दिया जाता है और हमारी बदहाली दूर करने का कोई लक्ष्य तय कर दिया जाता है. हम टीवी पर और अख़बारों में बजट पर अपनी प्रतिक्रिया देकर खुश हो लेते हैं और उसकी कटिंग काटकर अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को दिखाकर खुश होते रहते हैं. इस बार भी बजट हमारी अपेक्षाओं से अलग कहाँ रही. लेकिन हमारे देश की जनता भी..मत पूछो.. पता नहीं कब पेट भरेगा इसका. इतना कुछ कर दिया फिर भी असंतोष. करोडो-अरबो रुपया आपके विकास के लिए खर्च होंगे और अब तो गरीबी ५० फीसदी मिटाने का लक्ष्य भी तय कर दिया गया है. चलो अब तो खुश हो ले मेरे लाल. हमेशा मुहँ फुला लेते हो. हो गया न इस बार का फिर अगले साल इसी बजट फिल्म की रीमेक के साथ आएंगे हमारा दादा आपके सामने. एकदम नए कवर में लपेटकर फिर आपके सामने होगा आपका बजट..यानि की आपके विकास की योजना. तब तक के लिए अलविदा....चलो चलते-चलते एक गाना गाते हैं---कुछ न कहो...कुछ न सुनो...

Sunday 5 July 2009

बेकार की बात... बजट से काहे का एक्सपेक्टेशन भाई!

जब से बजट का समय नजदीक आया है इन मीडिया वालों ने नाक में दम कर रखा है। हर अख़बार में, हर समाचार चैनल पर एक ही राग अलापे हुए हैं॥बजट से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं एसएमएस कर बताएं। अरे अब क्या-क्या बताएं और अगर बता ही दिया तो का हो जाएगा। वैसे भी मर रहे हैं और ऐसे भी मरेंगे। दिन भर कमर-तोड़ मेहनत करके का मिलने वाला है। किसी भी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जा रहा है। दिन भर खेतों में पसीना बहाते रहता हूँ और सोचता हूँ कि इस बार फसल अच्छी हो जाए तो कुछ बात बने , लेकिन कहाँ कुछ हो पा रहा है। देश में किसानों के दिन फिरेंगे, लेकिन कब फिरेंगे। इसी इंतज़ार में उमर ख़त्म होने को आई। बापू के ज़माने से ही सुनते आ रहे हैं कि देश के विकास का रास्ता गाँव से होकर ही आता है। लेकिन अब तक विकास की ये रौशनी हमारे यहाँ से होकर नहीं गुजरी।


टीवी पर जगमग शहर की दुनिया देखकर कभी-कभी मन करता है कि मैं भी भागकर शहर चला जाऊँ। वहीँ जाकर जीवन के आखिरी पल सुकून से बिताऊ। लेकिन इधर कई दिनों से शहर से आ रही ख़बर देखकर सहमा हुआ हूँ। टीवी पर कल ही देखा था बिजली-पानी की कमी ने शहर वालों की नींद हराम कर रखी है। पानी के लिए लोग आपस में लट्ठ चला रहे हैं और बिजली बिना लोग रात-रात भर सडकों पर नाईट वाक् कर रहे हैं। अरे अब आप नाईट वाक् भी नहीं समझते- अरे भाई ऐसा लोग शहरों में करते हैं, आप तो बस यूँ समझो टहल रहे हैं। हाँ तो लोग रात-रात भर घर के नीचे गलियों में टहल रहे हैं ताकि गली से गुजरती हुई कोई हवा उन्हें नसीब हो जाये और पसीने से तर-बतर उनका शरीर थोड़ा आनंद प्राप्त कर सके.


वैसे तो कई दिनों से सुन रहा हूँ कि इन्फ्लेशन माइनस में चला गया है यानी कि महंगाई दर शून्य से भी नीचे चली गई है। लेकिन बाज़ार में ऐसा कुछ नज़र तो नहीं आता। अब कल ही देश की राजधानी दिल्ली में रह रहे एक अपने रिश्तेदार से बात हो रही थी. उनकी ऐशों-आराम से चल रही जिंदगी की तारीफ करते ही वे बरस उठे. कहने लगे अमा यार कहाँ है ऐश. तुम तो गाँव के अपने घर के इर्द-गिर्द साग-शब्जी उगा कर अपना काम चला लेते हो लेकिन हमें तो बाज़ार जाना पड़ता है. पहले से ही सब्जियों के दाम आसमान छू रहे थे लेकिन इधर जब से सरकार ने पेट्रोल-डीजल के दाम बढा दिए हैं सब्जियों की ओर देखने का मन भी नहीं करता है. मन करता है कि साधू-संतों की तरह दूध-रोटी खाकर मगन रहना सीख लूँ.


पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने का जिक्र सुनकर मन तो किया कि अपना दुःख भी उनसे कह डालूं लेकिन क्या करता, उनके मन में मेरे ऐशो-आराम वाले ग्रामीण जीवन को लेकर जो गलतफहमियां थी उसे ख़त्म कर खुद को हल्का कर लेने की हिम्मत नहीं हुई। अब उनसे क्या कहता कि भाई धान की रोपाई का समय सर पर आ गया है और गाँव में नहर के पानी के आने का कोई संकेत नहीं दिख रहा है. अगर मानसून ने धोखा दे दिया तो कहाँ से लाऊंगा इतना डीजल और कैसे पटेगा मेरा खेत. पहले हीं डीजल की कीमत अपने बस से बाहर जा रही थी अब तो सरकार ने और भी महंगा कर दिया है इसे. फसल तो मुर्झायेगी हीं और इसके साथ हीं मेरी उम्मीदे भी मुरझा जायेगी.


कल ही खेत से लौटते वक्त पता नहीं कौन से मीडिया वाले थे. रोककर पूछने लगे. इस साल के बजट से आपकी क्या उम्मीदे हैं? अब क्या बताते? क्या कहते कि हमारी खेतो की सिचाई की व्यवस्था की जाये. अरे भैया हमारे पूर्वज कहते-कहते निकल लिए. क्या हो गया. अगर मैं ये कहूँ कि महंगाई पर लगाम लगायी जाये तो कहाँ होने वाला है. हाँ मंहगे होते हैं तो बीज, खाद, खेती के लिए काम आने वाले उपकरण और मजदूर. लेकिन जब इतनी मुश्किलों से तैयार कर हम फसल बाज़ार में भेजते हैं तब महंगाई काबू में आ जाती है और फिर हम वहीँ के वहीँ रह जाते हैं. खेती के हर मौसम में कुछ न कुछ कर्ज लेते हम इसी उम्मीद में जी रहे हैं कि कभी तो वह सुबह आएगी जब बापू का कहा सच हो जायेगा और विकास की कुछ रौशनी हमारे गाँव में भी बिखरेगी. तब हम भी बजट से अपनी एक्सपेक्टेशन आपको बता पाएंगे. अभी कुछ कहके अपना मजाक क्यों बनाये.