Sunday 26 October 2008

बिहार को ख़ुद के लिए खड़ा होना होगा...

शुक्रवार को दिनभर बिहार ख़बरों में छाया रहा। मुंबई में परीक्षा देने गए छात्रों के साथ मार-पीट के विरोध में कुछ छात्र संगठनों ने बिहार बंद का अहवाह्न किया था और दिनभर वहां तोड़-फोड़ और मार-पीट चलती रही. दलीय राजनीति चाहे जो भी हो लेकिन एक बात अच्छी लगी कि वहां छात्र आंदोलित हुए और अपनी आवाज बुलंद की. जाहिर है सड़क पर उतरे युवा भारतीय लोकतंत्र में अपनी अहमियत और अपने नागरिक अधिकारों की वापसी के लिए सड़क पर उतरे थे. अपनी आवाज बुलंद करना भूल चुके बिहार का ये मुखर होता हुआ चेहरा एक नई उम्मीद की किरण पैदा करता है. बिहार को फ़िर बोलना होगा...अपने लिए बोलना होगा...ये आज उसके लिए एक जरुरत बन गई है...शायद खाने, पीने और जीने के जैसा...

बिहार में एक और मुखरता आनी चाहिए अपने विकास को लेकर... कई ऐसे राज्य हैं जो केन्द्र से बड़ी मात्रा में पैसा ले रहे हैं. विकास के नाम पर. बिहार को भी देश के विकास में अपनी हिस्सेदारी के लिए मुखर होना होगा. इसके लिए बिहार के लोगों खासकर युवा वर्ग को आगे आना होगा और अपने देश को बताना होगा कि उसे आगे बढ़ने के लिए उसका हिस्सा चाहिए. देश के आगे ये मांग होनी चाहिए कि बिहार आगे बढ़ना चाहता है और अब बिहार ख़ुद को सबके बराबर लाना चाहता है. उसे इस नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए कि वो सबकुछ के लिए दूसरो पर निर्भर है और उसके बच्चों को नौकरी पाने के लिए किसी राज ठाकरे और किसी रवि नाईक जैसे लोगों की धौंस सहनी पड़ेगी.. कि देश के संसाधनों पर उसका भी हक़ है और वो इसे लेकर रहेगा. उसे अपने ऊपर से लगा कमजोरी का धब्बा हटाना पड़ेगा और ये तभी होगा जब बिहार के युवा खड़े होकर दूसरे लोगों से नज़र मिलाकर बात करेंगे और उनके सवालों का जवाब मुखर होकर देंगे. इसके लिए पहले काम करना होगा और अपने राज्य के नेत्रित्व को भी मजबूर करना होगा कि वो इनके लिए काम भी करे और इनके हक़ के लिए अपनी आवाज देश के सामने ज्यादा मुखर अंदाज में कहें...आज छात्र सडकों पर उतरे हैं तो इसका स्वागत होना चाहिए और ये पार्टी और विचारधारा के लाइन से उठकर होना चाहिए. वहां कि सरकार को भी चाहिए कि वो लोगों को अपनी बात कहने से रोकने नहीं और इनकी आवाज को सही दिशा दे. नेत्रित्व का काम यही होता है और अगर ये न हो सका तो कल को युवा इस तरह के नेत्रित्व को स्वीकार करने से इनकार कर देगा...

Tuesday 21 October 2008

राज ठाकरे को हीरो मत बनाओ...

राज ठाकरे कौन है...शायद महाराष्ट्र के एक छोटे से राजनीतिक दल का एक छोटा सा नेता. जिसका वजूद बस इतना भर है कि वो शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे का भतीजा है और अब शिवसेना का बागी है.और अपनी एक पार्टी बनाकर अपना वजूद तलाशने का प्रयास कर रहा है. उसकी और भी कई खासियतें हैं..इतने कम वजूद के बाद भी आज उसका नाम सुनकर शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे के माथे पर पसीना आ जाता है...उसका नाम सुनकर महाराष्ट्र कांग्रेस के नेताओं के चेहरे एकबारगी खिल उठते हैं..शायद शिवसेना को मात देने में वो उनके लिए हितकारी साबित हो जाए...... उसका नाम सुनकर मुंबई में रह रहे बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग एकबार अपनी सुरक्षा और आत्मसम्मान के बारे में सोचने को मजबूर हो जाते हैं... लालू यादव के शब्दों में कहें तो वो एक मानसिक बीमार आदमी है और देशद्रोह से भी बड़ा अपराध करने वाला आपराधी भी...

आज सुबह या फ़िर कहें कि कल रात से ही राज ठाकरे सभी न्यूज़ चैनलों की सबसे बड़ी हेडलाइंस बना हुआ है। वो गिरफ्तार कर लिया गया है॥उसपर मुंबई में रेलवे की परीक्षा देने आए बाहरी परीक्षार्थियों पर हमले करवाने का आरोप है..उसके पार्टी के कार्यकर्ताओं और दूसरे दलों के शब्दों में कहें तो उसके गुंडों ने बहरी परीक्षार्थियों की जमकर धुनाई की. सभी टीवी चैनलों ने एमेनेस के कार्यकर्ताओं द्वारा बहरी लोगों को मारते हुए दिखाया...इससे पहले भी राज ठाकरे और इसके गुंडे इस तरह के उल्प्प्ल-जुलूल काम करते आए हैं. इसे वो मराठी मानूस के हक़ की लड़ाई बताता है. कल वो गिरफ्तार कर लिया गया...आज उसे कोर्ट में पेश किया जाएगा..शायद कुछ दिनों तक उसे जेल में रखा भी जाएगा..और उसके बाद क्या...फ़िर उसे छोड़ दिया जाएगा...लेकिन इस दौरान वो टीवी में, पेपर में और अन्य मीडिया चैनलों में छाया रहेगा...एक ऐसा नेता जिसका अपने प्रदेश में कोई वजूद नहीं है वो अपने कुछ गुंडों की बदौलत पूरे देश में चर्चित होता जा रहा है...यही है राज ठाकरे और उसकी सफल होती राजनीति....

सवाल है कि उसका नाम सुनकर क्यूँ शिवसेना नेताओं के माथे पर बल पड़ जाते हैं. इसका कारण है कि जिस रास्ते पर चलकर बाल ठाकरे ने ४ दशक पहले अपनी राजनीति चमकाई थी उसी रास्ते पर चलकर राज ठाकरे अपनी राजनीति चमका रहा है. जो वोट बैंक शिव सेना का है या था उसी पर राज ठाकरे की नज़र है...और यही कारण है कि उसका नाम सुनते ही शिवसैनिकों का चेहरा गंभीर हो जाता है और कांग्रेस नेताओं के चेहरे खिल उठते हैं.

सवाल उठता है कि क्यूँ बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग जो मुंबई में रह रहे हैं या फ़िर मुंबई से सरोकार रखते हैं वो राज ठाकरे से डर रहे हैं। इसका कारण है कि जो लोग मुंबई को अपने देश का हिस्सा मानकर वहाँ रोजगार कर रहे हैं, वहां अपने परिवार को रखे हुए हैं या फ़िर कई ऐसे भी हैं जिन्होंने अब मुंबई को ही अपना घर-बार बना लिया है उनके लिए राज ठाकरे खतरा बन गया है. राजनीतिक बिरादरी इस मामले को अपने फायदे और नुक्सान के हिसाब से देख रही है. महारष्ट्र कि सत्ताधारी दल कांग्रेस पर शिवसेना को कमजोर करने के लिए राज ठाकरे को ढील देने का आरोप लग रहा है वही भाजपा राज्य के भीतर और उसके बाहर के अपने नफे-नुकसान को देखते हुए चुप्पी लगाए हुए है. शिवसेना न चाहते हुए भी मराठी मानूस के साथ है...और ऐसे में जनता अपने को असहाय महसूस कर रही है॥वरना अगर सरकार मुस्तैद होती तो क्या मजाल कुछ गुंडों की कि वो इस तरह की बदतमीजी करने की हिम्मत जुटा पाते.

इस कहानी की सबसे कमजोर कड़ी साबित हो रही है मीडिया...राज ठाकरे को इस तरह से पेश किया जा रहा है जैसे वो कोई महान उद्देश्य के लिए लड़ता हुआ कोई सिपाही हो...उस टुच्चे से छुटभैये नेता को मीडिया इतनी हाईप दे रही है जितनी शायद ही किसी अच्छे काम करने वाले को मिलता होगा...और बिहार और उत्तर प्रदेश की सरकार भी कम दोषी नहीं हैं. अगर उनके लोग मुंबई में पिटे जा रहे हैं तो उन्हें केन्द्र से साफ़ कहना चाहिए की उनके लोगों की रक्षा होनी चाहिए और उनपर हमला करने वाले छुटभैये लोगों को तगडी मार लगाई जानी चाहिए...उनसे आतंवादियों से भी कदा सुलूक किया जाना चाहिए. जब उन राज्यों की सरकार केन्द्र पर दबाव नहीं बनाएगी तबतक कैसे वहां के लोगों को न्याय मिलेगा....

Thursday 16 October 2008

इंडिया शाइनिंग और चमक-दमक की निकली हवा!

पिछले २ दशको से देश को चमक-दमक का जो सपना दिखाया जा रहा था उसे आर्थिक मंदी ने धो डाला है। पहले तो इस मंदी ने अमेरिका और अन्य दमकते चेहरे वाले आर्थव्यवस्थाओं की चमक पोंछी उसके बाद अब तीसरी दुनिया के देश निशाने पर हैं। आखिरी समय तक हमारे देश के नीति-निर्माता बार-बार यही दुहराते रहे की भारत में कोई आर्थिक मंदी नहीं है और हम इसके प्रभाव से अछूते रहेंगे. लेकिन अब सच्चाई सबके सामने है. सीआरआर कम होकर ९ फीसदी से ६.५० फीसदी तक आ गया है, बैंकिंग सेक्टर के लिए सरकार ने 25,००० करोड़ की बेलआउट पैकेज की घोषणा की है. कल तक सफलता की कुलान्छे भरने वाली कंपनियों ने छंटनी शुरू कर दी है. जेट एयरवेज ने २,००० कर्मचारियों को निकालने का फरमान जारी कर दिया, टीसीएस, क्वार्क, रिलायंस रिटेल जैसी चमकती-दमकती कंपनियां भी पीछे नहीं हैं. यहाँ तक कि एयर इंडिया ने भी छंटनी की जगह १५,000 कर्मचारियों के लिए बिना वेतन की छुट्टी जैसी योजना लॉन्च कर दी है...वगैरह...वगैरह...

हमारी राजनितिक बिरादरी के लिए ये चिंता की बात नहीं है उनके लिए सबसे ज्यादा चिंता की बात है इस मंदी की मार चुनावी मौसम आने से पहले आ गई. कुछ इससे खुश हो रहे हैं की चलो बैठे-बिठाए एक मुद्दा हाथ लग गया. मंदी की मार से भारत भी प्रभावित होगा इस बात को सरकार ने आखिरी समय तक दबाये रखा। लेकिन ये कब तक सम्भव था. घाटा बढ़ता देख कंपनियों ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया. जेट ने मुनाफे के लिए किंगफिशर से हाथ मिला लिया और अपने २,००० कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। यानी कल तक जो लोग जेट जैसी कंपनी में काम कर रहे थे आज वो बिना किसी गलती के सड़क पर खड़े कर दिए गए. उनसे किसी को सहानुभूति भी नहीं है. सरकार ने कह दिया कि ये कंपनी का अंदरूनी फैसला है और सरकार इसमें हस्तछेप नहीं कर सकती. हज, कैलाश मानसरोवर जैसी धार्मिक यात्राओं के लिए सरकार करोड़ों-अरबो रुपया बाँट सकती है, लेकिन बात-बात पर मुआवजा बांटने वाली यही सरकार तब कोई बेलआउट पैकेज मंजूर नहीं कर सकती जब देश के पढ़े-लिखे लोग अपनी नौकरियां खो रहे हों।

ये देश की बड़ी कंपनियों के फैसले की बात है जहाँ हजारों युवा काम करते हैं. ये बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों की उपज हैं और काफ़ी पैसा और मेहनत के बाद अपना कैरीअर बनाया है. इन सबके बावजूद ये आज सड़क पर हैं. ये हैं हमारी चमक-दमक वाली आर्थव्यवस्था की सच्चाई. और इसपर सरकार का जवाब है कि ये कंपनियों का अंदरूनी मसला है. जनता में इस फैसले पर कोई उबाल नहीं दिख रहा है. इतने बड़े फैसले पर कोई बड़ा विरोध न हो पाना इस बात का संकेत है कि देश का युवा वर्ग संगठित नहीं है और उसमें आन्दोलन करने की मानसिकता मजबूत नही है। यही कारण है की पूंजीवादी तबका बिना किसी झिझक के इतना बड़ा फ़ैसला ले लेता है और उसका कोई प्रबल विरोध तक खड़ा नहीं होता. राजनीती में युवा वर्ग और उसके मसले, उसकी समस्यायें उतनी प्रभावशाली नहीं रही, इसलिए कोई राजनीतिक दल उसके लिए खड़ा नहीं हो रहा है. और अपनी पढ़ाई-लिखी पूरी कर नौकरी कर रहा युवा अपनी लड़ाई में अकेले है. पिछले २ दशको में राजनीति के अन्दर आई हास का ये प्रत्यक्ष प्रमाण है।

शायद यहीं से वर्ग संघर्ष की लडाई शुरू होती है. जो फैसले ले रहा है वो है पूंजीवादी तबका और जो सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया जा रहा है वो है कामगार तबका. अबतक येही कामगार तबका देश में पूँजीवाद का सबसे प्रबल समर्थक रहा है. और ख़ुद को देश के अन्य तबको से अलग मानता रहा है. इस तबके को हमेशा से ये भरोसा रहा है की पूंजीवादी तबके का दामन थामकर वो आगे बढ़ता रहेगा और बाकी के देश से उसको कोई मतलब नहीं है. यही कारण है की आज जब इस तबके पर संकट आया है तो समाज में इसे लेकर कोई हलचल नहीं है. जबकि ये भी एक सच्चाई है की ये तबका भी इसी समाज से निकला है और अब ख़ुद को इससे अलग मानने लगा था. जबतक इस समाज में एकता नहीं आएगी तब-तक न तो राजनीतिक बिरादरी इसकी समस्याओं को लेकर संजीदा हो पायेगी और न ही कार्पोरेट जगत इसे लेकर दबाव में आ सकेगा. रूस, चीन और अन्य देशों में २०वि शताब्दी में हुई साम्यवादी क्रांति इसी अति की प्रतिक्रिया थी. और आज जब पूँजी वाद फ़िर शिखर पर आकर अपने रंग दिखा रहे तब इसी तरह के बुलबुले की जरुरत दिख रही है.

Saturday 4 October 2008

मैडम कभी लाइन में नहीं लगती...

सुबह बैंक खुलने से पहले ही पहुंचना था सो जल्दी-जल्दी तैयार होकर निकले। सोचा था ११ बजे के पहले कहाँ काम होता है लेकिन जब पहुंचा तो देर हो चुकी थी. लम्बी लाइन लगी हुई थी और काफ़ी सारे लोग आगे लाइन में पहले से लग चुके थे... काम जरुरी था इसलिए मैं भी पीछे लग गया...लाइन बहुत धीरे-धीरे चल रही थी और कई सारे लोग ऑफिस से आए थे इसलिए उनको जल्दी थी. बीच-बीच में लोगों के फ़ोन बजते और लोग कह उठते सर/मैडम बस ५ मिनट में पहुँच रहा हूँ, बस बहन की फीस भरने की आखिरी तारीख थी इसलिए बैंक आ गया...पहुँच रहा हूँ॥ जब भी कोई लाइन में साइड से लगने का प्रयास करता अचानक पीछे लाइन में लगे लोग चिल्ला पड़ते. तभी एक महिला का आगमन हुआ. उन्होंने एक्सक्यूज मी के लजीज शब्द से हॉल में एंट्री मारी.. भीड़ और लम्बी लाइन की परवाह किए बिना उनके कदम हौले-हौले लाइन में आगे की तरफ़ बढ़ते चले गए. अपना कागज़ निकाला और ये देखे बिना कि लोग उसी लाइन में अपना काम कराने के लिए काफ़ी देर से खड़े हैं उन्होंने अपना कागज़ काउंटर मैन को बढ़ा दिया. पीछे लाइन में खड़े आदमी ने आगे वाले को कुहनी मारी... लेकिन आगे वाले को कुछ नहीं बोलते देख वो खौल उठा और बोल पड़ा मैडम लाइन से आइये न. मैडम ने अपनी गर्दन उसकी ओर घुमाई और उसे ऐसे देखा जैसे उसने कोई असंसदीय भाषा का इस्तेमाल कर दिया है. और पूरे विश्वास के साथ कहा कि-- मैडम कभी लाइन में नहीं लगती...

अबला नारियों के देश कहे जाने वाले भारत की राजधानी दिल्ली जैसे शहर में अबला नारियों के सशक्त बनते जाने के ऐसे ही कई प्रमाण रोज देखने को मिलते हैं। सिनेमा हॉल हो, बैंक हो, फ़ोन बिल- पानी बिल- या किसी भी प्रकार का बिल जमा करना हो सभी जगह ये नज़ारा देखने को मिल जाता है/ दिल्ली के ब्लू लाइन बसों की तो बात ही कुछ अलग होती है. एक तरफ़ की पूरी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित लिखी रहती बसों में ये कम भी होती है और कई में एक तरफ़ की पूरी..यानी कि बस वाले अपनी सहूलियत से आरक्षण की सीमा तय करते रहते हैं. खाली देखकर अगर कोई पुरूष या लड़का किसी महिला सीट पर विराजमान हो जाए और अगले बस स्टैंड पर कोई महिला या लड़की बस में चढ़ जाए तो देखिये नज़ारा. अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए या तो लड़का पहले ही सीट छोड़ दे या फ़िर अपमानित होने के लिए तैयार रहे. जैसे ही महिला सीट पर कोई पुरूष दिखा लड़किया आकर उसे इशारा करती है...ऊपर कि ओर जहाँ महिला लिखा रहता है. लड़के भी आखिरी वक्त तक अपनी लड़ाई लड़ते हैं. लड़की ने ऊपर इशारा किया..लड़का उसके सामने जबतक फ़िर से उसे पढ़कर सही होने की पुष्टि नहीं कर लेता सीट छोड़ना उसे ठीक नहीं लगता. लेकिन महिला लिखित सीटों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने वाली लड़कियों को मैंने कभी नहीं देखा है कि उन्होंने कभी किसी बुजुर्ग के लिए सीट छोड़ी हो. इस काम की अपेक्षा भी हमेशा लड़को से ही की जाती है. मैंने आज तक कभी किसी बस में इस तरह का नजारा नहीं देखा है. चाहे सीट पर बैठी लड़की २० साल की नवयुवती ही क्यूँ न हो लेकिन वो किसी बुजुर्ग के लिए सीट नहीं छोड़ सकती है.

ब्लू लाइन बसों में रोजाना सफर करने वाली लड़किया सीट पाने के लिए कुछ विशेष तरीके भी आजमाती हैं। अगर ब्लू लाइन बस के ड्राईवर कंडक्टर से उनकी जान पहचान बन गई तो रोजाना उनकी सीट पक्की. आगे की बालकनी की सीट ऐसी लड़कियों के लिए पक्की रहती इस इलाके को -नो मैन्स लैंड- कह सकते हैं. इस इलाके में अगर गलती से कोई लड़का घुस गया तो उससे कंडक्टर ऐसे सलूक करता है जैसे वो भारत की सीमा में घुसा कोई अवैध बंगलादेशी नागरिक हो. चमक-दमक और रंगी-पुती लड़कियों से भरे उस इलाके को बस के बाकी हिस्सों में बैठे लड़के ऐसे देखते हैं जैसे बॉम्बे के पास के इलाको में बैठे लोग बॉम्बे शहर की रंगीनियत को देखते हैं...