Saturday 25 June 2011

नेता काजू खा गये, जनता खाये घास..!

फ्रांसीसी क्रांति के दौरान जब भूख से तड़पती जनता सड़कों पर उतर कर अपने गुस्से का इजहार कर रही थी तो वहां की रानी के कहे वाक्य कि- "रोटी नहीं है तो लोग केक क्यूं नहीं खाते" आज भी तमाम दुनिया के लिए प्रशासनिक असंवेदनशीलता का उदाहरण बना हुआ है। भारत में भी आजादी के ६४ सालों बाद आज गरीबी, भूखमरी, महंगाई, लूटखसोट व घोटालों का सिलसिला और उसके प्रति हमारे सियासतदां लोगों की असंवेदनशीलता फ्रांसीसी क्रांति के दौर की याद दिलाती है जिसमें सत्ता में बैठे लोगों को आम जनता की समस्याएं ना तो दिखाई देती है और ना ही उसे समझने की किसी को फिक्र होती है। एक तरफ बड़े लोगों की सांठ-गांठ से जहां करोड़ों-अरबो रुपये लूटे जा रहे हैं तो दूसरी ओर सरकारी और राजनीतिक तंत्र के लोग महंगाई को दिन-दुनी रात चौगुनी बढ़ाकर आम जनता का जीना मुहाल बना रहे हैं। एक तरफ जहां करोड़ों करोड़ के घोटाले, अरबो-खरबों की संपत्तियों के पहाड़ कुछेक लोगों के पास खड़ी होती जा रही है वहीं दूसरी ओर देश की ४० फीसदी से ज्यादा की आबादी दो जून की रोटी के लिए भी मुहाल है। निश्चित तौर पर देश के राजनीतिक तंत्र को समझना चाहिए कि लोकतंत्र इसलिए है क्योंकि असंख्य जनता ने उसमें भरोसा बरकरार रखा है और किसी भी सूरत में ऐसी स्थिति नहीं बनाई जानी चाहिए जिससे लोगों का लोकतंत्र से भरोसा ही उठ जाये...।

Tuesday 21 June 2011

लो अन्ना... मुकर गई सरकार..अब क्या कर लोगे?

देश में सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में चारो ओर फैले भ्रष्टाचार और सार्वजनिक धन की लूट-खसोट को खत्म करने के लिए कड़े लोकपाल कानून बनाने की  कवायद फिर एकबार थम सी गई लगती है। आज की बैठक के बाद सरकार एक बार फिर अपने पुराने ढर्रे पर लौटती दिख रही है। संविधान का नाम लेकर और उसकी रक्षा के नाम पर देश में सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता लाने की इस ऐतिहासिक  मुहिम को फिर वहीं लाकर छोड़ दिया गया जहां अपने अनशन के जरिये दो माह पहले  अन्ना हजारे और उनकी टीम और देश के तमाम लोगों ने लाकर पहुंचाया था।  लगता है "दिन भर चले अढ़ाई कोस" के मुहावरे को सच साबित करता हुआ जंतर मंतर से शुरू हुआ अन्ना और तमाम आशावादी भारतीयों का आंदोलन  एकबार वहीं वापस पहुंचा दिया गया है। अब समझे अन्ना..यही है हमारा सरकारी सिस्टम..! अब है कोई काट...अगर है तो फिर आगे बढ़ो नहीं तो ऐसे और भी कई तीर है हमारी राजनीतिक बिरादरी के तरकश में।


लोकपाल ड्राफ्टिंग कमेटी की आज की बैठक में असहमति पर सहमति बनने के फैसले की घोषणा करते हुए एक वरिष्ठ मंत्री महोदय ने जनता के समक्ष यह सवाल उछाल दिया कि अब देश की जनता के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या संवैधानिक ढ़ाचे के समानांतर लोकपाल नाम की एक और व्यवस्था को मंजूर किया जा सकता है?


मंत्री महोदय देश की जनता के पास भी अपने हूक्मरानों के लिए तमाम सवाल हैं जिसे वो रोज सोते-जागते उछालती है लेकिन उसकी गूंज अब तक हूक्मरानों तक नहीं पहुंची। मसलन चारो ओर लूट-पाट की इस परीपाटी पर रोक कैसे लगेगी? सार्वजनिक पदों पर बैठे लोग कैसे देश का और जनता का हजारो और लाखों करोड़ लूट ले रहे हैं और कोई मशीनरी उनपर काबू नहीं पा सकी?  देश के  अंदर से अरबो-खरबो रुप्या कैसे विदेशी बैंकों में पहुंच गया और अबतक उसे वापस क्यू नहीं लाया जा सका? मसलन करोड़ो-करोड़ लूट लेने वालों को कड़ी सजा क्यू नहीं दी जा सकती? गरीबो का भोजन और उनके विकास का पैसा डकार जाने वाले लोगों को डर क्यू नहीं लगता? अपराध, हत्या, अपहरण, घोटाले और देश के धन का लूट-पाट करने वाले लोग हमारे राजनीतिक सिस्टम का हिस्सा कैसे बने हुये हैं? ऐसे न जाने कितने सवाल हैं जिनपर सियासतदां मौन हैं? लेकिन याद रखिए जनता की आवाज की ज्यादा दिनों तक उपेक्षा नहीं की जा सकती और आज नहीं तो कल लोगों की बात माननी होगी और हमारे सियासतदां जनता की समस्याओं को लेकर या तो गंभीर होंगे या फिर उनकी सच्चाई और असंवेदनशील सोच सबके सामने आ जाएगी।

Sunday 19 June 2011

देश को कतई नहीं चूकना चाहिए ये मौका...!

आजकल एक ही मुद्दा देश में चर्चा का विषय बना हुआ है भ्रष्टाचार और लोकपाल जैसे एक कड़े कानून बनाने का। इसपर सिविल सोसाइटी की ओर से किये जा रहे तमाम प्रयासों और राजनीतिक और सरकारी पक्ष की ढुलमुल चाल के बीच इसकी नियति अनिश्चित सी बनी हुई है। अपने एक मित्र द्वारा बार-बार उद्दाहरण देने के बाद मैने इसी मामले पर कल एक अखबार में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा का एक लेख पढ़ा। उनके अनुसार राजधानी दिल्ली में चल रही इन तमाम कवायदों से देश की अधिकांश जनता अनजान और बेखबर है और उन्हें ऐसी बातों से कोई मतलब नहीं और ये सारे प्रयास बेकार औऱ लाइमलाइट में आने जैसी कवायदों का हिस्सा भर हैं। एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता के हवाले से गुहा जी ने कर्णाटक में हो रही सरकारी लूट के सामने नादिर शाह के लूटपाट को पाकेटमारी जैसा करार दिया है. अब वो महान मानवाधिकार कार्यकर्त्ता कौन हैं ये नहीं मालूम लेकिन उन्हें जरा क्रेडिट देने के अपने दायरे को बड़ा करके देश भर में मचे लूट-पाट का भी मूल्यांकन  करना चाहिए.


मेरे विचार में देश के हर आदमी को अपने और समाज की बेहतरी के लिए आगे आने और आवाज उठाने का अधिकार है और गुहा जी जैसे प्रसिद्ध लोगों को किसी भी तरह किसी एकपक्षीय अभियान का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। चलो मान लेते हैं कि उन्हें भी अपने हिसाब से सोचने का हक है तो जरूरी नहीं कि उनकी हर बात को देश का हर आदमी एक-दम ज्यों का त्यों मान ही ले। रही बात भ्रष्टाचार और समाज में पनपी बेईमानी की संस्कृति को खत्म करने के लिए कड़े कानून बनाने की मांग की बात तो इसे किसी भी आधार पर गलत नहीं ठहराया जा सकता। देश के लोगों को एक बात समझनी चाहिए कि आज जो मौका देश के सामने आया है उसे कतई नहीं चूकना चाहिए. अन्ना के रूप में आये इस मौके का अगर आज देश के लोगों ने समर्थन नहीं किया तो इसी भ्रष्ट व्यवस्था को आने वाली कई और पीढ़ियों को झेलना होगा और फिर न जाने कब इस देश में कोई व्यवस्था के सामने उठ खड़े होने का साहस करेगा.