Thursday 15 December 2011

इतिहास के किस अजीब मोड़ पे खड़ा है हमारा समाज...

अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाजार के लिए खोलने के बाद के दो दशकों में भारतीय समाज में कई बदलाव आए। ख़ासकर समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में ये बदलाव परिलक्षित हुए। लेकिन सवाल यहां ये उठता है कि जिस देश की तेज प्रगति को देखकर कुछ साल पहले तक सुपर पावर, इंडिया शाइनिंग व 21वी सदी के भारत जैसे जुमलों का इस्तेमाल अक्सर होने लगा था अचानक वही देश आज हर मोर्चे पर उद्वेलित सा क्यों दिख रहा हैं? दरअसल ये उद्वेलन इस देश के असल ढांचे में छुपी हुई है। जिसका आधार इतिहास के लंबे दौर के केंचुल को उतार फेंककर नई दुनिया की ओर बढ़ने और परंपरागत व्यवस्था की सहूलियतों को खो देने के भय के बीच का उहापोह है। दरअसल समाजके इस उहापोह की स्थिति का कारण परंपरागत सामंती व्यवस्था व आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था के बीच का विरोधा-भास है। यह द्वंद समाज में तीन स्तरों पर है- आर्थिक स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर और सांस्कृतिक स्तर पर। ऐसा भी नहीं है कि इस द्वंद से जूझने वाले हम पहले समाज है। दरअसल यूरोप और पश्चिम के समाज इस द्वंद का सामना 1920-30 के दशक में ही कर चुके हैं और काफी हद तक इससे उबरने के बाद उनमें परिपक्वता भी आई है।
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आर्थिक स्तर पर-
आर्थिक स्तर पर हम अभी तक सामंती या फ्यूडल व्यवस्था में रहते आ रहे है जिसपर सबसे बड़ा आघात पिछले 20 सालों में बाजार के उदारीकरण व वैश्विकरण से पहुंचा है। इस दौर में देखते ही देखते भारत जैसा एक कृषि प्रधान देश कैसे एक औद्योगिक देश में बदल गया, यह पूरी दुनिया ने देखा। कैसे कृषि पर आधारित इस देश की अर्थव्यवस्था के जीडीपी में कृषि का हिस्सा सिकुड़ते-सिकुड़ते 15 फीसदी तक पहुंच गया जबकि आबादी के एक बड़े हिस्से की निर्भरता इसपर बनी ही रही। आर्थिक मोर्चे पर इस देश का द्वंद इसी स्तर पर है। अर्थात देश में तेजी से पनपे आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था की नज़र अब व्यापक संसाधन वाले इसी सामंती व्यवस्था वाले कृषि क्षेत्र और उससे जुड़े व्यापारों पर है। लेकिन इस परंपरागत व्यवस्था से जिनको सहूलियतें हैं वे वर्ग इन परिवर्तनों का विरोध कर रहे हैं। खुदरा या किराना कारोबार में एफडीआई को लेकर हाल ही में दिखी राजनीतिक नूरा-कुश्ती का आधार भी यही द्वंद है। इसमें एक तरफ पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था की बात है जिसके साथ राजस्व में बढ़ोत्तरी के मकसद से राजनीतिक तंत्र भी खड़ा दिखाई दे रहा है। इस लड़ाई में दूसरे छोड़ पर खड़ा दिख रहा है वह भारत जो परंपरागत तरीके से इसी क्षेत्र पर निर्भर है और अगर इस व्यवस्था में कोई बदलाव होता है तो उसका सारा मामला गड़बड़ हो सकता है और अनाज के असल उत्पादक किसानों की पैदावार भी उसके हाथ से निकल कर बाजारों और वालमार्ट जैसे संगठिक क्षेत्र के किराना व्यापारियों के हाथ में चला जाएगा, जिसका नीति नियंता अबतक स्थानीय व्यापारी वर्ग हुआ करता था। दरअसल यहां मामला एक तालाब में घुस गये मगरमच्छ को देखकर छोटी मछलियों में पनपे डर जैसा कुछ-कुछ दिख रहा है।
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राजनीतिक स्तर पर-
देश में राजनीतिक तंत्र को लेकर चारो ओर मचे हाय-तौबा के पीछे भी यही द्वंद काम कर रहा है। वास्तव में यह देश आजादी के बाद से अबतक उसी परंपरागत सामंती व्यवस्था से संचालित होता आ रहा था जिसे अंग्रेजों ने और उससे पूर्व के राजाओं ने अपनी सहूलियत के लिए तैयार किया था। एस ऐसी व्यवस्था जिसमें राजनीति के हर स्तर पर परिवारों व दबंग व सुविधा संपन्न लोगों का बर्चस्व दिखाई पड़ता है। अचानक इस व्यवस्था का द्वंद आज उस समाज से हो रहा है जो तेजी से आधुनिक हो रहा है। जो आज तार्किकता के स्तर पर राजनीति को देखने का प्रयास कर रहा है। हालांकि अभी उसके पास ज्यादा विकल्प नहीं है क्योंकि ज्यादात्तर राजनीतिक दल विभिन्न परिवारों या सांस्कृतिक विचारधाराओं की बपौती बने हुए हैं लेकिन ये स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली। क्योंकि पिछले दो दशकों में आई सूचना-तकनीकी क्रांति ने गोपनियता को बरकरार रख सत्ता पर कब्जा जमाए रखने वाली इस पुरातन व्यवस्था पर तेजी से प्रहार किये हैं। इसने सारी व्यवस्था को तिलमिला कर रख दिया है। हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था में जो लोग हैं उन्हे इस गतिशिलता को समझने की जरूरत है कि ताजा-ताजा उभरी देश की आबादी सरकारों को एक कंपनी की तरह देखने लगी है जिसका वह खुद को शेयरधारक समझती है और अगर उसके हितों के अनुरूप काम नहीं होता तो नेतृत्व को बदल देने व वर्तमान शासकों को अप्रासंगिक बना देने में उसे कोई संकोच क्यों कर होगा। अन्ना हजारे के आंदोलन की भारी लोकप्रियता देश में पनपी इसी नई सोच का एक रूप है। राजनीति की सामंती व्यवस्था को लेकर समाज में उद्वेलन कई स्तरों पर है जिसकी नज़र खुद को सामंत समझ रहे राजनीतिक प्रतिनिधियों पर भी है। तमाम घोटालों को अंजाम देने के बाद भी जब हमारे राजनेता पूरी बेशर्मी से विधानसभा और संसद में देश के लिए नीति बनाने जाते हैं तो देश का दिल तड़प उठता है। तभी जब लोग टीवी पर ये खबर देखते हैं कि ट्रेन के एसी-ए कोच में टिकट नही मिलने से दर्जनों सांसद भड़के। तो जनता के मुंह से बस यही निकलता है कि राजनीति के इस युग को भी भाप इंजन की तरह फेज आउट करने का समय आ गया है जिसमें इलाके का जन प्रतिनिधी खुद को खुदा या फिर सर्वेसर्वा समझने लगता है। हालांकि, इस बदलाव में वक्त लगेगा लेकिन धीरे-धीरे ही सही जनता इस बात को समझने लगी है कि राजनीति का काम मेवा खाना नहीं, जनसेवा करना है।
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सांस्कृतिक स्तर पर-
सांस्कृतिक स्तर पर यानि समाज, धर्म, मान्यताओं आदि के स्तर पर भी ये समाज आज कम द्वंद नहीं झेल रहा है।
समाज या परिवार- समाज तेजी से आधुनिक हो रहा है। लोग पढ़ने-लिखने व नौकरियों आदि के लिए तेजी से पलायन कर रहे हैं। ऐसे में परिवार की समाज व परिवार की पारंपरिक व्यवस्था तेजी से बदल रही है। आधुनिक शिक्षा के साथ लोगों में अपने फैसले खुद लेने की प्रवृति भी तेजी से बढ़ी है। ऐसे में जिन मामले पर कल तक समाज व परिवार फैसले लेते थे जैसे पढ़ाई-लिखाई, आजीविका व शादी-व्याह आदि के मामले, इनका फैसला लोग समाज व परिवार से लेकर अपने हाथों में केंद्रीत करते जा रहे हैं।
धर्म- धर्म को लेकर भी लोगों की मान्यताएं तेजी से बदल रही है। परंपरागत धर्म से लोग भले ही दूरी बनाते नहीं दिखें लेकिन उसके इर्द-गीर्द सदियों से पनपे कर्मकांडो व अंधविश्वास को लेकर लोगों में काफी व्याकुलता पनप रही है। व्यक्तिगत आजादी और तार्किकता के स्तर पर इन्हें लगातार चुनौतियां मिल रही है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात से जहां अब तक चल रहे परिवारों की सामंती व्यवस्था की बुनियादी दरकी है वहीं परिवारों में व समाज में महिलाओं की स्थिति में भी ख़ासा बदलाव देखने को मिल रहा है। तेजी से खुद की पहचान बदलने में जुटे इस देश ने दुनिया को इन 20 सालों में बताया है कि वह केवल सपेंड़ो और पूजारियों का देश नहीं है बल्कि सॉफ्ट
वेयर और अंतरिक्ष विज्ञान जैसे नए क्षेत्रों में भी अपनी धाक दिखा सकता है।
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कुल मिलकार भारत देश इतिहास के एक अजीब से मोड़ पे खड़ा है। हालांकि, अभी इसमें काफी कुछ अंधेरा सा जरूर दिख रहा है लेकिन कहते हैं कि बिना उद्वेलन और आंतरिक द्वंद के कोई समाज परिपक्व नहीं होता तो हमे अभी कुछ इंतजार करना होगा। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि परिवर्तन की इस बेला में हम अन्य समाजों को केवल कॉपी न करके अपने लिए खुद अपना अलग रास्ता तैयार करें तभी हमारा भविष्य चिरस्थायी हो सकता है।