Wednesday 21 September 2011

इन योजनाओं पर तरस आता है..32 रूपये में एक दिन जीकर दिखाएं ये नीति नियंता...

आज सुबह जब देश के लोग जगे तो मीडिया ने भारत देश के इस आम आदमी के सरकार का एक और ही रूप देश के सामने रखा। खबर थी कि सुप्रीम कोर्ट में एक एफिडेविट में देश के विकास की योजना बनाने के लिए जिम्मेदार योजना आयोग ने कहा है कि शहरी इलाके में जिंदगी जीने के लिए एक आदमी को रोजाना 32 रुपये और ग्रामीण इलाके में 26 रुपये की जरूरत है औऱ जो भी इतना खर्च करने की कुव्वत रखता है वह गरीब नहीं माना जाना चाहिए। अब आज महंगाई के हालात को देखते हुए ज्यादा आंकड़े देने की जरूरत नहीं है कि कैसे आज के हालात में एक आदमी दिल्ली और मुंबई जैसे शहर में 32 रुपये में खाना भी खा लेगा, रह भी लेगा, इलाज भी करा लेगा, ईएमआई भी भर लेगा, पढ़ाई भी कर लेगा, इलाज भी करा लेगा, आदि-आदि।

खैर इसमें दोष किसी का नहीं है। इस देश की जनता को सोचना होगा कि उनके विकास के लिए योजना कौन बनाए। ऐसे लोग जो विदेशों में पढ़-लिखकर और नौकरी कर आते हैं और सीधे ऊपर से योजना बनाने वाली एजेंसियों में बैठा दिए जाते हैं। उन्हें देश की जमीनी हकीकत का ना तो कोई अंदाजा है और ना ही वे समझने के लिए गांव की धूल कभी फाकेंगे। तो भई क्या कहा जाए ऐसे देश में जहां रईसी का जीवन जीने वाले लोग देश के आम आदमी को गरीबी रेखा से ऊपर उठने के लिए 32 रुपये वाला सर्टीफिकेट जारी करते हों। इस देश को सोचना होगा कि उन्हे अगर लोकतांत्रिक देश का हिस्सा बनकर रहना है तो इस व्यवस्था में उनका क्या स्थान होना चाहिए। किसानों के उत्पादों को मुफ्त में चाहने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के लिए मुंहमांगी कीमत देने की मंशा पालकर पली-बढ़ी हमारी शहरी आबादी कभी भी देश के गांवों में बसे आम आदमी की असल स्थिति को नहीं समझ सकती। किसी को अगर फिर भी मुगालता हो तो एक दिन जरा इस सरकारी आंकड़े वाले 32 रुपये में शहर में और 26 रुपये में किसी गांव में बिताकर देख ले।

Monday 12 September 2011

दुनिया की भीड़ में!

हम सब दुनिया की भीड़ में शामिल हैं जो सुबह से लेकर शाम तक कोई-न-कोई काम लेकर यहाँ से वहाँ दौड़ती रहती है। सड़क, गाडियाँ, रेड लाईट ये सब इस भीड़ की जिंदगी की रोजमर्रा में शामिल है। लेकिन क्या कभी आपने इस भीड़ से ख़ुद को अलग कर कहीं दूर बैठकर इस भीड़ को देखा है। लोगों को शायद ये अटपटा लगे लेकिन मुझे इस तरह के अनुभव लेने की आदत है। इस अनुभव पर मैं अपनी एक कविता के कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ।

कभी देखिये
भीड़ से अलग होकर
दुनिया की भीड़ को
सड़क पर बेतहाशा
दौड़ती-भागती भीड़ को
सुबह से शाम तक
बस भागती हुई भीड़ को!

लेकिन ये भीड़ कभी रूकती नहीं है। दुनिया के हजारों-लाखों शहर और ग्रामीण इलाकों के सडकों और चौराहों पर पर यह भीड़ उतनी ही शिद्दत से दौड़ रही है। फर्क इतना है कि आज हम इस भीड़ का हिस्सा हैं, कल कोई और था और आने वाले कल में इस भीड़ में कोई और शामिल होगा...

आगे.........

कभी नहीं रूकती ये
बस थमती है
आधी रात को
केवल एक पहर के लिए
और फ़िर चल पड़ती है
सुबह होते ही।।