आज सुबह जब देश के लोग जगे तो मीडिया ने भारत देश के इस आम आदमी के सरकार का एक और ही रूप देश के सामने रखा। खबर थी कि सुप्रीम कोर्ट में एक एफिडेविट में देश के विकास की योजना बनाने के लिए जिम्मेदार योजना आयोग ने कहा है कि शहरी इलाके में जिंदगी जीने के लिए एक आदमी को रोजाना 32 रुपये और ग्रामीण इलाके में 26 रुपये की जरूरत है औऱ जो भी इतना खर्च करने की कुव्वत रखता है वह गरीब नहीं माना जाना चाहिए। अब आज महंगाई के हालात को देखते हुए ज्यादा आंकड़े देने की जरूरत नहीं है कि कैसे आज के हालात में एक आदमी दिल्ली और मुंबई जैसे शहर में 32 रुपये में खाना भी खा लेगा, रह भी लेगा, इलाज भी करा लेगा, ईएमआई भी भर लेगा, पढ़ाई भी कर लेगा, इलाज भी करा लेगा, आदि-आदि।
खैर इसमें दोष किसी का नहीं है। इस देश की जनता को सोचना होगा कि उनके विकास के लिए योजना कौन बनाए। ऐसे लोग जो विदेशों में पढ़-लिखकर और नौकरी कर आते हैं और सीधे ऊपर से योजना बनाने वाली एजेंसियों में बैठा दिए जाते हैं। उन्हें देश की जमीनी हकीकत का ना तो कोई अंदाजा है और ना ही वे समझने के लिए गांव की धूल कभी फाकेंगे। तो भई क्या कहा जाए ऐसे देश में जहां रईसी का जीवन जीने वाले लोग देश के आम आदमी को गरीबी रेखा से ऊपर उठने के लिए 32 रुपये वाला सर्टीफिकेट जारी करते हों। इस देश को सोचना होगा कि उन्हे अगर लोकतांत्रिक देश का हिस्सा बनकर रहना है तो इस व्यवस्था में उनका क्या स्थान होना चाहिए। किसानों के उत्पादों को मुफ्त में चाहने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के लिए मुंहमांगी कीमत देने की मंशा पालकर पली-बढ़ी हमारी शहरी आबादी कभी भी देश के गांवों में बसे आम आदमी की असल स्थिति को नहीं समझ सकती। किसी को अगर फिर भी मुगालता हो तो एक दिन जरा इस सरकारी आंकड़े वाले 32 रुपये में शहर में और 26 रुपये में किसी गांव में बिताकर देख ले।