Thursday 28 February 2008

लोकतंत्र में कॉमन मैन का क्या काम!

दुनिया में लोकतंत्र के दो बड़े स्तंभों भारत और अमेरिका में चुनाव का माहौल बनने लगा है। अमेरिका में चुनाव इसी साल है तोइंडिया में अगले साल। दोनों जगह की सरकारें अब लोगों को लुभाने में लग गई हैं। अमेरिका में कोई लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं देने का सपना दिखा रहा है तो कोई विदेश निति का झांसा दे रहा है। याद करिये भारत में भी कुछ ऐसा चल रहा है। दोनों जगह का मामला अमूमन एक जैसा ही है। भारत के लोग धार्मिक मामलों पर थोडा भावुक है इस कारण यहाँ धार्मिक मसले भी छाये हुए हैं। अमेरिका में कुछ अलग मसला है। वहाँ मामला बहुदेशिये है इसलिए अफ्रिका, एशिया और तमाम नश्लों के लोगों का मसला उठ रहा है।

दोनों जगह राजनीति का सबसे बड़ा मोहरा कॉमन मैन बना हुआ है। अमेरिका में उम्मीदवार वहाँ के कॉमन मैन को बेरोजगारी और स्वास्थ्य सुविधा और विश्व दरोगा अमेरिका बने रहने का सपना दिखा रहे हैं। लेकिन एक बात ध्यान रहे की दुनिया में सबसे ज्यादा अमेरिकी लोग हैं जो दुसरे देशों की लड़ाई लड़ रहे हैं। लगभग हर देश में अमेरिका अपने बड़े लोगों की सम्पति और कारोबार बचाने के लिए शान्ति का लबादा ओढ़कर लड़ाई लड़ रहा है। और उसके लाखों सैनिक जवान दुसरे-दुसरे देशों में लड़-मर रहे हैं। ये जवान वहाँ के कॉमन मैन हैं। जो अमेरिका के आर्थिक सुपर पॉवर बनने से फायदा नहीं उठा पाये हैं। और आज भी कम पैसे में ख़ुद की जान जोखिम में डालने को तैयार हैं। कमोवेश यही हालत भारत के कॉमन मैन का भी है।

शायद आपको याद हो, हामरे देश में जिस पार्टी का राज है उसका नारा भी- हमारी पार्टी का हाथ, आम आदमी(कॉमन मैन) के साथ' । आजादी के ६० सालों बाद भी आज लगभग हर चुनाव में सभी पार्टियां कॉमन मैन के लिए अपने आश्वासनों का पिटारा खोल देती है। सभी के दावे एक से बढ़कर एक। लेकिन अगले ५ साल में फ़िर से वही वादे-वही आश्वासन। और कॉमन की हालत तो ऐसी है की इतनी सरकार आई और काम करती रही। प्रगति के तमाम रिपोर्ट भी पेश होते रहे लेकिन कॉमन मैन का पेट है की भरने का नाम ही नहीं ले रहा है। भारत के आम लोग ऐसे हैं की इतने सालों तक सरकार के और हमारे नेताओं के अथक परिश्रम को बेकार कर देते। भारत का स्थान विकास सूचकांक में १०० के करीब पहुँच गया लेकिन यहाँ के लोग हैं की ख़ुद को संपन्न बना ही नहीं पा रहे हैं। लेकिन ये एक सच्चाई है की यहाँ का कॉमन मैन है और कॉमन ही रहेगा। और आने वाले चुनाव भी इसी कॉमन मैन के बूते पार्टियां लड़ती रहेंगी..... कॉमन मैन तेरी यही कहानी..हाथों में झंडा और मुंह में नारा लेकिन अनवरत रहेगा आँखों में है पानी.

Sunday 24 February 2008

कबूतरबाजो, गुर्दागर्दो का नया हब है भारत!

भारत में आजकल रोज विकास के नए-नए मापदंड बन रहे हैं। हमारा प्यारा देश भारत पहले सोने की चिडिया था--ऐसा ही मैंने बचपन में किताबों में पढा था। लेकिन अब जबसे अखबार पढने की आदत लगी है कुछ शब्द लगभग रोज कई-कई बार(और बड़े-बड़े शब्दों में भी--जिनपर आँखे टिकाना मजबूरी बन जाए) पढने पड़ते हैं। इनमें कबूतरबाजी और आजकल 'गुर्दागर्दी' शब्द खूब छाये हुए हैं। इसके साथ ही व्यापारियों की दो नई कॉम भी सामने आई है-- कबूतरबाज़ और गुर्दागर्द।

ये दोनों व्यापार इतना मालामाल लगने लगें हैं की कई लड़के तोअब इस कारोबार को अपनाने पर गंभीरता से सोचने लगे हैं। हों भी क्यों ना जो लोग भी इस कारोबार से जुड़े पकड़े जाते हैं टीवी चैनलों पर कई दिनों तक छाये रहते हैं। इतना ही नहीं फरारी के दौर में जब ये पकड़े जाते हैं तो करोडो रूपये के साथ। अब अपने किडनी कुमार जी को देख लीजिये जब ये नेपाल में पकड़े गए तो इनके पास से लगभग डेढ़ करोड़(?) रुपया का देशी-विदेशी नोट पकडा गया। उनके बारे में कई दिनों तक अखबारों और टीवी चैनलवों पर ख़बर चलता रहा की इस देश में इनकी इतने करोड़ की sampati है तो falanaa देश में इनके इतने बैंक बैलेंस हैं। इतना ही नहीं अब कबूतरबाजी के धंधे में ही फायदा देखिये कितना ज्यादा है की बड़े-बड़े लोग इस काम में शामिल होने लगे हैं। भी जब इतना फायदा है तो नई पीढ़ी के लोग इस धंधे की ओर आयेंगे ही।

आने वाले २० सालों के बाद जब हमारे देश के इतिहासकार देश का इतिहास लिखने के लिए अखबारों के कतरन से कुछ उठाएंगे तो भारत के आर्थिक विकास के आयामों में इन हस्तियों का नाम बड़े गर्व से लिखेंगे। इतना ही नहीं उस दौर की कवितायें भी कुछ इस तरह की होंगी--- मेरे देश की धरती कबूतरबाज़ उगले, उगले गुर्दागर्द॥ मेरे देश की धरती........फ़िर ये गाने उस वक्त के सभी राष्ट्रिय त्योहारों मसलन वैलेंटाइन डे, माता दिवस, पिटा दिवस, पत्नी दिवस जैसे महान अवसरों पर गाए जायेंगे।..................

क़ानून असफल होगा तो सफल होगा ही भीड़तंत्र!

एक ही दिन यानी की २३ फरवरी को दो खबरें आई। दिल्ली में 'जुडिसिअल रीफोर्म' (न्यायिक सुधार) पर एक सम्मेलन में राष्ट्रपति ने कहा की देश में लंबित पड़े मामलों की सुनवाई के लिए जरुरी है की न्यायिक सुधार हों। ठीक इसी दिन बिहार के हाजीपुर में भीड़ ने हत्या के आरोप में पुलिस हिरासत में बंद आरोपी को खीचकर मार डाला। इस तरह के कई मामले समय-समय पर सामने आते रहते हैं जब लोग न्याय मिलने में देरी को पचा नहीं पाते और ख़ुद न्याय करने पर उतारू हो जाते हैं।

कुछ सालों पहले इसी तरह के एक मामले पर बनी फ़िल्म गंगाजल काफ़ी मशहूर हुई थी। जो बिहार के भागलपुर में दो दशक पहले हुए भीड़तंत्र के न्याय पर बनी थी, इसके बाद इस मामले पर देश में काफ़ी बहस हुई थी। तमाम लोगों ने इसपर अपनी राय दी। जहाँ तक मुझे याद है तो महाराष्ट्र के अकोला में एक गुंडे के आतंक से परेशान होकर महिलावों ने ख़ुद ही क़ानून अपने हाथ में लिया। क़ानून और न्यायपालिका के लिए इस तरह के सवालों का जवाब देना उतना आसान नहीं है की क्यों लोगों को समय पर न्याय नहीं मिल पा रहा है। हर मामले में कुछ न कुछ अपने-अपने कारण होते हैं। लेकिन लोगों को न्याय चाहिए और समय पर चाहिए। और उसके लिए लोग अपने बचाव के लिए भीड़ का सहारा लेते हैं। और न्याय के नाम पर भीड़ को भड़काना वैसे भी मुश्किल काम नहीं है। इस कारण लोगों का ये प्रयास अक्सर सफल होता है। भारत की जनता वैसे भी काफ़ी भावुक मानी जाती है।

देश में हालांकि इस समस्या के निदान के लिए तरह-तरह के कदम उठाये जा रहे हैं। जैसे गुजरात ने शाम में न्यायलय का काम शुरू कर लंबित पड़े मामलों को निपटाने के लिए नई पहल की है। वैसे ही कई अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या बधाई जा रही है ताकि लोगों को समय पर न्याय मिले और लोग भीड़ का हिस्सा बन ख़ुद न्याय करने पर मजबूर ना हों। कई बार भीड़ तंत्र का इस्तेमाल लोग अपना निजी हित साधने के लिए करते हैं। एक बार फ़िर मैं हाल में आई फ़िल्म हल्ला बोल का उदाहरण देकर समझाने का प्रयास करूंगा। फ़िल्म में अपनी बात कहने के लिए कई बार भीड़ तंत्र का सहारा लेते हुए दिखाया गया है। उसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के मकसद साधने का काम करते हुए दिखाया गया है।..........

Saturday 23 February 2008

अगर राजनीति में भी कोई आईपीएल बन जाए!

अभी हाल ही में क्रिकेट में आईपीएल नाम का एक बड़ा संघ सामने आया है। सब कुछ अगर सोचे हुए रस्ते पर चला तो जल्द ही यह क्रिकेट का महाकुम्भ बन जायेगा। मुम्बई में इस संघ कि मंडी सजाई गई और क्या पोंटिंग क्या सचिन सबकी औकात की बोली लगी। औकात के मामले में भारतीय कप्तान धोनी सबसे अव्वल रहे। पोंटिंग सहित कई खिलाडी अपनी औकाद की कम कीमत से नाराज भले ही होते रहे लेकिन मंडी में इन सबका कोई असर नहीं होने जा रहा है। भले ही इसके बाद कई खिलाडी अब अपनी टीम में भी इसी नए कीमत से आंके जायेंगे। सच कहें तो अब तक प्रचार से धन कमा कर ये खिलाडी टीवी पर लोगों को उनकी औकात बताते फ़िर रहे थे। लेकिन इस मंडी में उनकी ख़ुद की औकाद नप गई।

कल अचानक बातचीत में मेरे एक मित्र ने एक प्रस्ताव रख दिया। और कहा की क्यो ना देश की राजनितिक स्थिति में सुधर के लिए आईपीएल की तर्ज पर कोई लीग बनाया जाए। इससे जैसे आईपीएल क्रिकेट में छेत्रवाद को ख़त्म कर रहा है वैसे ही राजनीति में भी छेत्रवाद ख़त्म हो सकेगा। वहाँ बैठे सभी लोगो को ये आईडिया पसंद आया। लेकिन जब बात कीमत लगाने की आई तो फ़िर मामला फिल्मी स्टारस पर आकर ठहर गया। लोगों ने कहा की भाई कुछ भी कहो इस लीग में तो सबसे ज्यादा कीमत फ़िल्म से राजनीति में आई हस्तियों की ही लगेगी। या फ़िर ये भी हो सकता है किज्यादा कीमत लगती देख मलिक्का सहरावत जैसे ज्यादा डीमांड वाली लड़किया फिल्में छोड़कर राजनीति में ही शामिल होने लगें और मजबूर होकर राजनीति वाले उसी तरह का आन्दोलन करने लगें जैसे राज ठाकरे के समर्थक मुम्बई में उत्तर भारतीयों को आने से रोकने के लिए कर रहे हैं।

फ़िर आगे बात बढ़ी तो नेता लोगों की कीमत पर आई। अब सवाल उठा की नेता में से कौन किस टीम में लिया जायेगा। और टीम बनने केक्या होगा। किसी ने कहा की अगर राज ठाकरे को बिहार वाले खरीद ले जाए तब। मेरे एक मित्र महोदय तुरंत बोल उठे। भाई इसकी संभावना सबसे ज्यादा है। जैसे सैमोंड्स की कीमत धोनी के बाद सबसे ज्यादा लगी उसी तरह राज ठाकरे को तो बिहार वाले किसी भी कीमत पर अपने टीम के लिए खरीद कर ले जायेंगे। फ़िर सवाल उठा की मोदी जी के क्या होगा। सामने बैठे मेरे एक मित्र का कहना था की भाई वो तो अहमदाबाद टीम के अईकन प्लेयर रहेंगे। फ़िर हुआ की लालू जी का क्या होगा, जवाब था की भाई वो तो उसी टीम में जायेंगे जिस टीम में उनकी धाक बनी रहेगी चाहे इसके लिए कोई भी कीमत क्यों ना लगवानी पड़े।

बात ख़त्म ना होते देख मैन्स कहा भी ये कीमत तो लगती रहेगी। फिलहाल अभी इस लीग के आईडिया तो कोई सुझाए। फिलहाल तो आईपीएल के खेल ही देखिये और मजे लीजिये। इस लीग की एक ख़ास बात ये भी रहेगी की कोई भी टीम हारे किसी कि जान जाने लायक बात नहीं रहेगी। क्योंकि जितने वाली टीम में भी कोई ना कोई पसंदीदा खिलाडी तो रहेगा ही। उसी के बारे में सोचकर खुश हो लेंगे लोग। .....

Sunday 17 February 2008

यहाँ परीक्षा में नक़ल एक सत्य बन चुका है!

एक बड़ी सी इमारत की चहारदीवारी के चारों ओर पुलिस का घेरा है। गेट पर कई सुरक्षा कर्मी खड़े हैं। इतना ही नहीं छत पर भी सुरक्षाकर्मी खड़े होकर चारों ओर नजर दौड़ा रहे हैं। उस इमारत के चारों तरफ़ सैकड़ों लोगों का हुजूम जमा है। ये किसी पोलिंग बूथ का नजारा नहीं है बल्कि इंटर की परीक्षा के लिए बने सेंटर वाले स्कूल का नजारा है। गेट पर आने वाले हर परीक्षार्थी की सघन तलाशी ली जा रही है। यहाँ तक कि कई छात्रों के जूते तक खुलवा कर तलाशी ली जा रही है। धीरे-धीरे समय बीतता है और परीक्षा शुरू होती है। आप सोच रहे होंगे कि अब क्या होने वाला है। नक़ल के सारे सामान तो बाहर गेट पर ही निकलवा लिए गए थे।

अभी करीब एक घंटा बीता होगा। सामने से एक गाड़ी आती हुई दिखायी दे रही है। सुरक्षा कर्मी चुस्त-दुरुस्त होते हैं। स्कूल कि खिद्कीयों से लटके लोग अचानक खदेड़ दिए जाते है और स्कूल के गेट के बाहर जमा लोग भी दूर खेतों कि ओर दौर लगाने लगते हैं। गाड़ी में से कोई अफसर नुमा आदमी बाहर आता है और कई क्लास रूम में तलाशी लेने लगता है। करीब १० मिनट बाद वो बाहर आता है और उसके साथ चल रहे सुरक्षाकर्मियों के साथ कई परीक्षार्थी भी आते हैं। उनमें से कई तो उनके साथ नाजाने से बचने के लिए उनके पैरों तक में गिर रहे होते हैं। ये सारे बच्चे नक़ल करते हुए पकड़े गए हैं। आप सोच रहे होंगे की जब गेट पर ही सारे कागज़ पकड़ लिए गए थे तो ये अन्दर किन कागज़ के साथ पकड़े गए। ये समझना आपके बस की बात नहीं है। ये तो बस मेरे यहाँ का मशहूर जुगाड़ टेक्नोलॉजी है।

अफसर के पीछे चल रही गाड़ी में वे सारे बच्चे बैठा दिए जाते हैं। उनकी उम्र १४-१८ वर्ष के बीच की है। जैसे ही गाड़ी आगे बदती है बाहर खड़ी भीड़ गाड़ी पर पत्थरबाजी करने लगती है। पुलिस वाले गाड़ी से उतरकर पत्थर चलाने वालों को खादेरने में लग जाते हैं। इसी बीच पकड़े गए लड़कों में से दो हाथ छुडा भागने में सफल हो जाते हैं। थोडी दूर तक पुलिस उनका पीछा करते है और फ़िर वापस आकर गाड़ी में बैठ जाते। लगभग हर परीक्षा के दौरान इस प्रकार का दृश्य बनता है। लेकिन भैया घबराने की कोई बात नहीं ये अब एक सच्चाई बन गई है। और पड़ने वाला लड़का भी इसे आजमाने को मजबूर होता है वरना वो औरों से पिछड़ जायेगा।

Saturday 16 February 2008

कल के मानव को मशीनों के साथ जीना पडेगा?

वैलेंटाइन डे के सुरूर के बीच मेरी निगाह दो ऐसी खबरों पर गई जो वाकई काफी चौकाने वाली थी। एक ख़बर इंडिया टीवी पर चल रही थी। जिसका मजमून था की वर्ष २०५० तक मानव रोबोट के साथ शादी कर सकेगा और गृहस्थ जीवन बीता सकेगा। इस ख़बर को नीदरलैंड के एक लेखक डेविड लेवी की एक किताब मी लिखे तथ्यों से लिया गया था जिसमें जापान में रोबोट पर हो रहे काम को आधार बनाकर २०५० के मानव को दिखाया गया है। इस किताब का नाम है 'मैरेज एंड सेक्स विथ रोबोट' । जो दृश्य टीवी पर दिखाए जा रहे थे उसमे शायद किसी फ़िल्म से लिए गए दृश्य थे लेकिन वे दृश्य निश्चय ही हमारी पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी को चौकाने वाले थे। ख़बर में ये भी बताया गया की ये रोबोट आदमी या औरत के काफ़ी पसंदीदा जीवनसाथी बन सकेंगे। क्योंकि आप इनसे मनचाहा काम करवा सकेंगे। जाहीर है इसके लिए प्रोग्रामिंग की जरुरत पड़ेगी। और इसके माध्यम से लोग अपने पसंद का रोबोट जीवनसाथी बनवा सकेंगे। आज की दुनिया में जिस तरह से लोगों का एक-दुसरे से विश्वास उठता जा रहा है वैसे में अगर कल का मानव इंसान से ज्यादा विश्वास अगर मशीनी जीवनसाथी पर करने लगे तो कोई हैरत नहीं होगी।

दूसरी ख़बर आईआईटी कानपुर से आई थी। इंग्लैंड से आए एक वैज्ञानिक ने कहा है की इसी शताब्दी में अपने शरीर में चिप लगवा कर मानव सुपरमैन बन सकता है। उनका दावा है कि इस पद्धति से मनाव जहाँ कई बीमारियों पर लगाम पा सकेगा वहीं कई मानवीय भूलों पर भी काबू पाना सम्भव हो सकेगा। उन्होंने baताया कि उन्होंने वर्ष १९९८ में फिल्म जुरासिक पार्क और टर्मिनेटर से प्रेरणा लेकर शोध करना शुरू किया था। उन्होंने बताया कि स्वयं उन्होंने ऑपरेशन कराकर अपने हाथ में ट्रेकिंग डिवाइस चिप लगवा रखी है और इससे शरीर के नर्वस सिस्टम से जोड़ दिया गया है और दिमाग के सिग्नल कंप्यूटर में जाने लगे हैं। इससे दिमाग कंप्यूटर की तरह काम करने लगता है और उसकी सोचने-समझने और काम करने की क्षमता बढ़ जाती है। और apne aur अपने सारे काम वो कम्पूटर के निर्देशों के आधार पर करेगा। आगे उनका कहना था कि इसी तरह मानव सुपरमैन kii तरह बन सकेगा।

Saturday 9 February 2008

राज भी औरों की तरह राजनीति कर रहे है तो गलत क्या है!

राज ठाकरे के बयान पर पूरे देश में हो-हल्ला मचाया जा रहा है। उत्तर भारतीय लोगो के मुम्बई में रहने पर राज ने आपति जताते हुए कहा था कि इन लोगों का लगाव मुम्बई से न होकर अपने राज्यों से होता है। थिक ऐसा ही बयान दिल्ली के उपराज्यपाल का भी आया. उनका कहना था की उत्तर भारत के लोग दिल्ली में ट्राफिक नियमों को तोड़ने में अपनी शान समझते हैं। हालांकि अब दोनों के बयानों में कुछ नरमी आई है। इसी वक्त में राज ने देश के विभिन्न राजनितिक दलों द्वारा इसी तरह की राजनीति पर मीडिया से खुलकर बात की। उन्होने सभी राजनितिक दलों को धो डाला और कहा की जो लोग उनके बयान का विरोध कर रहे हैं वी सभी के सभी अपने-अपने इलाको में इसी तरह की राजनीति कर रहे हैं और अगर उन्होने अपने लोगों के हित की बात की है तो इसमें गलत क्या है।

राज ने कहा है कि अगर मैं और मेरी पार्टी महाराष्ट्र व मराठी अस्मिता की बात करते हैं तो हमें गुंडा ठहराया जाता है। तो क्या भिंडरावाला को शहीद कहने वाला अकाली दल, एलटीटीई का समर्थन करने वाली तमिलनाडु की पार्टियां और सौरभ गांगुली को भारतीय क्रिकेट टीम से बाहर करने के बाद दंगा करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां संकुचित प्रांतवाद की राजनीति नहीं करतीं ?' राज ने आगे कहा की जब फ्रांसीसी राष्ट्रपति भारत की यात्रा पर आए तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वहां सिखों की पगड़ी पर लगी रोक हटाने को लेकर बात की थी। यही नहीं , अकाली दल सिखों के पवित्र स्थल दमदमी टक्साल में जरनैल सिंह भिंडरवाला का फोटो शहीद का दर्जा देते हुए लगवाता है। उन्होंने आगे लिखा है कि यह साफ है कि एलटीटीई ने राजीव गांधी की हत्या करवाई थी लेकिन तमिलनाडु की सभी राजनीतिक पार्टियां इस उग्रवादी संगठन से किसी न किसी तरह जुड़ी हुई हैं। जब सौरभ गांगुली को भारतीय टीम से निकाल दिया जाता है तो कम्युनिस्ट पार्टियां बंगाल और बंगालियों के हितों की पैरोकार बनकर सामने आ जाती हैं। एक बार फिर अमिताभ को निशाना बनाते हुए राज ने लिखा है कि वह खुद को ' छोरा गंगा किनारे वाला ' कहने में गर्व महसूस करते हैं। राज पूछते हैं कि क्या ये सब संकुचित या क्षेत्रवाद नहीं है। और अगर नहीं है तो मेरा महाराष्ट्र और मराठियों की अस्मिता के बारे में बात करना कैसे संकुचित हो गया है?

हालांकि देश के किसी भी हिस्से में किसी के रहने और काम करने के अधिकार पर किसी भी प्रकार के कुठाराघात की निंदा होनी चाहिए। लेकिन ऐसा करने वाली सभी पार्टियों को भी अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। अब शिव सेना प्रमुख बला साहब ठाकरे अमिताभ के बचाव में सामने आये हैं लेकिन अब तक उनकी राजनीति इन्ही उत्तर भारतीयों के खिलाफ थी। आज अचानक जब राज ठाकरे ने मराथावाद का टोटका आजमा कर जब शिव सेना के साम्राज्य के लिए ख़तरा पैदा कर दिया तो अब सब की आंखों में खटकने लगे।

Wednesday 6 February 2008

देश की राजधानी दिल्ली में ७५,००० भिखारी?

देश की राजधानी दिल्ली में २०१० में राष्ट्रमंडल खेल होने हैं। इसके लिए राज्य सरकार ने अभी से तैयारियां शुरू कर दी है। दिल्ली को लक-दक बनाने के लिए रोज नए-नए प्लान सामने आ रहे हैं। इसके अलावे भी दिल्ली में रोज नयी-नयी समस्याएं पैदा होती रहती है। जैसे बंदरों को पुनर्वासित कर इनके आतंक से लोगों को सुरक्षित करना, या दिल्ली की सड़कों और चौक-चौराहों को भिखारियों से मुक्त कराना। भिखारियों के मामले पर सरकारी अधिकारियों की कई बैठकें हो चुकी है। और जो परिणाम बैठकों के बाद निकला है उसपर ४ फरवरी को हिन्दुस्तान टाइम्स में एक खबर छपी थी। जिसके अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में ७५००० भिखारी रहते हैं। और उनके लिए राजधानी में ११ पुनर्वास केन्द्र हैं।


अगर देखा जाये तो भीख मांगना कोई सामजिक समस्या नहीं है। इसका किसी जाति या धर्म से कोई नाता नहीं है। कानूनी रुप से भीख मांगना अपराध भले ही हो लेकिन भारत जैसे देश में भीख देना धार्मिक काम माना जाता है। और यही कारण है कि यहाँ के शहरों से लेकर गाँव तक में इस पेशे ने अब संगठित रुप अख्तियार कर लिया है। लेकिन राजधानी दिल्ली में भिखारियों की इतनी बड़ी संख्या हैरान करने वाली लग रही है। क्योंकि देश में सडकों पर रह रहे लोगों खासकर बच्चों के कल्याण के नाम पर सैकड़ों ग़ैर सरकारी संगठन काम कर रही हैं और जाहिर है उनमें से सबसे अधिक संगठनों का ध्यान राजधानी पर ज्यादा होगा। फिर भी इतनी बड़ी संख्या कैसे अब भी इस पेशे से जुडी हुई है।


राजधानी में आज ये एक बड़ी समस्या बन गयी है। आप कहीं भी बाहर निकलते हैं और छोटे-छोटे बच्चे आपको किसी भी सार्वजनिक स्थान पर घेर सकते हैं और आपसे पैसा मांगते हुए आपको अच्छा-खासा जलिल कर सकते हैं। मैंने इन लड़कों को अपने शिकार तक पहुँचने के पहले योजना बनाते हुए देखा है। मांगने वाले लोग पूरे समूह में होते हैं और ज्यादा पैसा देने वाले शिकार की पहचान करने के बाद उसमे से एक अपने काम पर लगता है। और वो सरेआम तबतक उस आदमी के आगे हाथ फैलाना जारी रखता है जबतक की वो आदमी शर्म से बचने के लिए उसे पैसे दे न दे।

देश की राजधानी दिल्ली में रेलवे स्टेशनों के बाहर कई लोग देश के झंडे की छोटी-छोटी तस्वीरें लेकर खड़े रहते है और जैसे ही कोई बाहरी आदमी मिलता हैं उसकी ओर लपक लेते हैं। इससे पहले की वो आदमी कुछ समझे। तीरंगा उसके पॉकेट पर लहराने लगता है। अब होता है उससे किसी स्कूल या किसी आश्रम के कल्याण के नाम पर पैसे मांगने का काम शुरू। और २०-२५ रूपये तक देकर लोग इस जनकल्याणकारी टीम से पीछा छुराने में सफल होकर जल्द से विजयी मुस्कान लिए वहा से आगे बढ़ते हैं। मुझे नहीं समझ में आता की ये कैसी जन कल्याण है।

इस पेशे को ख़त्म करते वक्त एक चीज का ध्यान जरूर रखना चाहिए। जैसे कुछ लोग अगर विकलांगता और अधिक उम्र के कारण इस काम को अपना रहे हैं तो उन्हें इसकी अनुमति देनी चाहिए। लेकिन वो भी खुलेआम सडकों पर नहीं। इसके लिए केवल धार्मिक स्थानों पर ही अनुमति मिलनी चाहिए।

Monday 4 February 2008

लंदन में दिवाली मनाना तो अच्छा लगता है...

एक हैं राज ठाकरे। महाराष्ट्र की राजनीति में जगह बनाने के लिए ये इन दिनों काफी उछ्ल-कूद मचाये हुए है। कारण हैं इन्हें खुद को बाला साहब ठाकरे के समान कद बनाना है। लेकिन इन्हें इस काम के लिए अब तक सही मौका नहीं मिल पाया है। लेकिन अब उन्होने ये मौका खोज लिया है। अपनी रणनीति के तहत पहले दिन उन्होने मुम्बई में उत्तर प्रदेश दिवस मनाने पर ऐतराज़ जताया और अगले दिन लगे हाथों अमिताभ बच्चन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। और तीसरे दिन का इनका कारनामा ये रहा की भोजपुरी कार्यक्रम का प्रदर्शन कर रहे एक थियेटर पर हमला करने के लिए अपनी senaa की tukdii लेकर पहुंच गए।

हम पहले इनके पहले दिन के बयान की बात करेंगे। राज ठाकरे ने कहा कि मुम्बई में आकर उत्तर प्रदेश दिवस मनाना गलत है। राज जी आपने कभी लंदन में दिवाली मनाने का विरोध तो नहीं किया और ना ही किसी अमेरिकी सदन में वेद मंत्रों के उच्चारण पर हाय-तौबा machaaii। हालांकि वहाँ कई सरफिरे हैं जो वहाँ रह रहे हिन्दुओं को दिवाली मनाने का अधिकार देने का विरोध करते हैं। राज जी आपको भारत के संविधान में यहाँ के नागरिकों को मिले अधिकार को एक बार याद दिलाना चाहूंगा। भारतीय संघ का संविधान यहाँ रहने वाले हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाकर रहने और अपने इक्छानुसार धर्म का पालन करने और roji-रोटी के लिए काम-dhandhe का अधिकार देता है। आपके हाय-तौबा मचाने से इसमें कोई बदलाव नहीं आने जा रहा है।

अब आऊँगा अमिताभ बच्चन के मसले पर। तो उनका नाम लेकर राज अपना कद बढाना चाह रहे हैं। अमिताभ सुपर स्टार हैं और उन्हें जितना मुम्बई के लोग मानते हैं उतना ही उत्तर प्रदेश के लोग भी और उतना ही बिहार के लोग भी। रही बात उत्तर प्रदेश से उनके लगाव की तो मैं याद दिलाना चाहूँगा की हमारा देश उन लोगों का भी स्वागत करता है जिनके पूर्वज सदियों पहले सूरीनाम, फिजी, मारीशस जैसे देशों में जाकर बस गए थे। आप तो एक देश के लोगों के बीच भेद पैदा करना चाहते हैं वो भी ऐसे शहर में जहाँ के ३० फीसदी लोग उत्तर भारतीय इलाकों से आये हुए हैं। और वहाँ की व्यवस्था में अच्छी-खासी पैठ रखते हैं। अमिताभ जी का janm उत्तर प्रदेश के alahaabaad में हुआ था और अगर उन्हें मुम्बई के alavaa उत्तर प्रदेश से भी लगाव है तो इसे aitraaj करने लायक maslaa कहना hasyaspad prayas माना जाएगा।............................जय भारत.

Friday 1 February 2008

बीस हजार की बाईक और एक लाख की कार!

२००८ का साल भारतीय खरीददारों के लिए बहुत ही शुभ दिख रहा है। कम से कम पहले महीने का हाल तो कुछ ऐसा ही दिख रहा है। अब देखिए साल के शुरू में टाटा ने अपना लखटकिया कार दिखा कर लोगों को काफी ललचाया और अभी जनवरी का महीना ख़त्म भी नहीं हुआ था कि ग्लोबल ऑटोमोबाइल्स ने १०० सीसी की बाईक मात्र बीस हजार में उतार कर आम भारतीय खरीदारों के सामने एक और चारा हाजिर कर दिया। विशेषकर भारत के माध्यम आय वाले लोगों के लिए ये दोनो उत्पाद काफी मायने रखते हैं। जैसे बजाज ने दो पहिया वहाँ उतर कर उदार होने का प्रयास कर बाज़ार को कई लाख नए खरीदार दे दिए थे उसी तरह ये दोनो उत्पाद लाख नहीं बल्कि करोडों में बाज़ार को खरीदार दे सकते हैं। हालांकि जितने नए खरीदार बनेंगे उसने कई गुना ज्यादा भारतीयों के लिए ये एक लाख की कार और २०,००० की बाईक अब भी एक स्वप्न के समान रहेगा।

इन दोनों उत्पादों की एक खासियत ये होगी कि शहर के साथ-साथ गाँव भी इन उत्पादों पर टूट पड़ेंगे। जहाँ तक मैंने गांवों को देखा है तो मुझे लगता है की गाँव की एक बड़ी आबादी इन दोनों उत्पादों को खरीदने में सक्षम है। मेरे कहने का ये कतई मतलब नहीं लगाया जाये की भारत के गांवों में रहने वाला हर इंसान अब बाईक या कार पर चलने लायक हो गया है लेकिन हां एक बड़ी आबादी ऐसी है जो २०,००० की बाईक और एक लाख की कार खरीद भी सकती है और उसपर चल भी सकती है। इसका कारण है भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद बढ़ी आर्थिक प्रतिस्पर्धा। जिसने भारत के किसान से लेकर बड़े से बड़े व्यवसायी तक को अपने उत्पाद पर ज्यादा से ज्यादा फायदा कमाने का मौका दिया। आप कल्पना नहीं कर सकते की आज के वक्त में बिहार जैसे परम्परागत खेती के मशहूर राज्य का एक किसान अब नकदी फसल की ओर ज्यादा जोर देने लगा है। क्योंकि वो जानता है की धान और गेंहू जैसे फसल बोकर वो बमुश्किल अपना खर्च निकाल पाएगा फायदे की बात तो दूर रही। मेरा मानना है की देश में आई सूचना क्रांति को इसका श्री देना चाहिए। बिहार और उडीसा जैसे पिछडे प्रांतों के लोगों तक ये सूचना अब आसानी से पहुंच रही है की कैसे गुजरात और पंजाब के किसान नकदी फसल बेचकर अमीर होते जा रहे हैं।