Saturday 27 June 2009

आपका टीवी केवल बुद्धू बक्सा भर नहीं है!

अगर आप ये सोचते है कि आपके घर के ड्राइंग रूम में लगा टीवी सेट बस मन बहलाने का एक जरिया भर है और ये कोई ऐसा मैटर नहीं है जिसपर हम गंभीरता से सोचे और बहस करें तो फिर आप गलत सोचते हैं। वो जमाना गया जब टीवी को बुद्धू बक्सा समझ हम इसकी गंभीरता से पल्ला झाड़ लेते थे और टीवी को खाने-पीने के बाद के एक डोज और छुट्टी के दिन का टाइमपास मान कर चलते थे. बल्कि अब टीवी एक ऐसी चीज है जिसे आपके बच्चे सबसे ज्यादा देखते हैं, जिसके साथ आपके परिवार की महिलाएं अपना पूरा दिन बिताती हैं और जिसके मार्फ़त आपको देश-दुनिया की तमाम खबरें और गतिविधियों की जानकारी मिलती है. एक ऐसा माध्यम जो आपके बच्चो को आज की दुनिया से जोड़ता है और जिनपर आपके बच्चों के लिए कई शैक्षिक कार्यक्रम भी आते हैं. जो आपके बच्चों के लिए रोल मॉडल तैयार करता है और जो आपके घर में आने वाले सामान की पसंद और नापसंद निर्धारित करता है. यानि कि टीवी आपके घर में मौजूद वह जरिया है जिससे आपके घर का भविष्य और वर्तमान जुड़ा हुआ है. इसलिए आपको बिलकुल इस बात से मतलब होना चाहिए कि आपका टीवी क्या दिखाता है वह आपके बच्चों के लिए कैसा रोल मॉडल पेश कर रहा है और उसका समाज पर क्या असर होगा. यह देखना आपके लिए उतना ही जरुरी है जितना कि यह देखना कि आपके घर में आने वाला अनाज-दूध कितना शुद्ध है, आपके बच्चे के स्कूल में कैसी पढाई होती है, आपके बच्चे का फ्रेंड-सर्किल कैसा है॥वगैरह..वगैरह.
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टेलीविजन चैनलों से प्रसारित सामग्रियों से संबंधित संहिता यानि कि कंटेंट कोड का मुद्दा फिर नई सरकार के आने के बाद आगे बढ़ता दिख रहा है। सरकार इसे लेकर काफी गंभीर भी है लेकिन इसे आगे चलाकर लागू करा पाना काफी मुश्किल काम है. टीवी इंडस्ट्री की ओर से इसे रोकने के लिए पूरा दबाव बनाया जायेगा. उनके लिए ये मसला केवल व्यावसायिक है लेकिन सरकार के लिए ये मसला जनहीत से जुड़ा है और इसका असर काफी व्यापक हो सकता है.
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काफी सारे अच्छे कार्यक्रमों और ख़बरों के बीच टीवी पर बहुत कुछ ऐसा भी दिखाया जा रहा है जिसे रोकना बहुत जरुरी है। समाचार चैनलों पर धार्मिक स्टोरीज के नाम पर दिखायी जा रही खबरें क्या होती हैं कुछ के शीर्षक इस प्रकार के होते हैं--फिर पड़ रहे हैं विष्णु के कदम समंदर के बाहर. युधिस्ठिर से बदला लेने को उतारू है समंदर, युधिस्ठिर के पीछे अब भी चल रहा है उनका कुत्ता, अब भी कहीं घूम रहा है अस्वस्थामा, इन्द्र से अपमान का बदला लेने वाला है समंदर॥वगैरह.वगैरह. ऐसी खबरें रोज किसी न किसी समाचार चैनल पर चलती हुई दिख जाती हैं. उनके लिए जिन फूटेज का प्रयोग किया जाता है वे टीवी पर चलने वाले किसी धार्मिक सीरियल का हिस्सा होते हैं. पारिवारिक धारावाहिकों के नाम पर न जाने टीवी पर क्या-क्या परोसा जा रहा है. घर के अन्दर चलने वाली राजनीति, परिवार के अन्दर चली जा रही कुटिल चालों और कमजोर होते आपसी विश्वास को इस कदर भयंकर रूप में सजा कर दिखाया जा रहा है कि जिन्हें परिवार नामक व्यवस्था में थोडा-बहुत विश्वास रह भी गया है वे भी इसे देखकर दांतों तले उँगलियाँ दबा लें.
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कल ही देख रहा था भूत वाला एक सीरियल। उसमें भूत बना एक छोटा सा लड़का... जिसकी उम्र करीब ४-५ साल दिखाई जा रही है वह कहता है कि उसे प्यास लगी है वह खून पिएगा. अब बताओ ५ साल के एक बच्चे से ये डायलाग बोलवाने का क्या मतलब है. क्या मकसद है इन कार्यक्रमों को चलाने का. यही न कि टीवी वाले लोगों के अन्दर व्याप्त डर को बेच रहे हैं. जासूसी सीरियल्स के नाम पर अपराध करने और उससे बचने के नए-नए तरीके रोज सिखाये जा रहे हैं. व्यावसायिकता के अंध-अनुकरण में फंसे टीवी चैनल वाले पश्चिमी देशों में बनी सी-ग्रेड की फिल्मों का हिंदी अनुवाद कर उन्हें दिखाने लगे हैं. उनके अनुवाद की भाषा और उन फिल्मों में दिखाए गए दृश्य हमारे समाज में किस हद तक दिखाए जाने चाहिए इसकी फ़िक्र किसी को नहीं है. भाषा और दृश्यों में फूहड़ता लिए इन फिल्मों को किस हद तक काट-छाँट कर यहाँ प्रस्तुत किया जाना चाहिए इसे भी देखने की जरुरत है.
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हम माने या न माने लेकिन टीवी एक ऐसा मसला है जिसपर हमें, आपको और हम सब को सोचना पड़ेगा और पूरी गंभीरता के साथ. क्यूंकि ये अकेला ऐसा जरिया है जो देश-दुनिया की अच्छी-बुरी बातों को आपके घर के अन्दर तक ले आता है. आपके घर के लोगों को सूचनाओं, रहन-सहन और जीने के तौर-तरीके सिखाने में भी टीवी का स्थान अव्वल है. फिर क्यूँ नहीं हमें इसपर गंभीरता के साथ सोचना चाहिए? फिर समाज को क्यूँ नहीं इस बात पर नज़र रखनी चाहिए कि टीवी पर क्या दिखाया जा रहा है.

Thursday 25 June 2009

ऐसे तो नहीं मिटेगी गरीबी...हाँ जब तक बिके बेच लो!

ये कोई नयी बात थोड़े ही है, गरीबी तो हमेशा ही बिकती है। राजनीति और फिल्म वाले इसे सबसे सही तरीके से बेचते हैं। एक जमाने में इंदिरा जी ने जमकर गरीबी बेची थी। उन्होंने बस इतना ही कहा था -गरीबी हटाओ और लोगों ने तुरंत विपक्ष को हटा दिया और इंदिरा जी को जीता दिया। चलो वो तो पुरानी बात है। इधर गरीबी की कद्र समझी फिल्मकारों ने. एक ब्रितानी फिल्मकार ने झुग्गी-झोपडी की गरीबी को सजा-धजा कर बाज़ार में उतर दिया और इसके कद्रदानों ने डॉलर में इसकी कमाई कराइ और कमाई को बिलियन में पंहुचा दिया. वैसे अपने यहाँ राजनीती में इस आइटम की खूब डिमांड है. चुनाव लड़ने वाला बंदा भले ही कितना अमीर हो, पर वह यह कभी नहीं कहता कि मैं अमीरों के लिए यह करूंगा और वह करूंगा। वह कहता है कि मैं तो सब कुछ गरीबों के लिए ही करूंगा जी। क्योंकि चुनाव में अमीरी नहीं गरीबी बिकती है। सरकारें देशी-विदेशी हर तरह के सेठों के लिए पता नहीं क्या-क्या करती हैं। पर वह कहती यही है कि हमने तो सब कुछ गरीबों के लिए ही किया। यह योजना भी गरीबों के लिए है और वह योजना भी गरीबों के लिए है।
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पार्टियों के घोषणापत्रों में अमीरी का जिक्र तक नहीं होता। यहाँ भी गरीबी को ही बेचा जाता है। गरीबों के लिए शिक्षा होगी, रोजगार होगा, गरीबों के लिए मकान होंगे, प्लॉट होंगे। लेकिन क्या देश के गरीब को ये सब मिला है। अजी नहीं॥क्यूंकि ये सिर्फ बिकाऊ आइटम है और बिकने वाली चीज सिर्फ बाज़ार में ही अच्छी लगती है.
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कवि दीपक भारतदीप की एक कविता के कुछ अंश आपके लिए रख रहा हूँ---
"शायद बनाने वाले ने गरीब
बनाये इसलिए कि
अमीरों के काम आ सकें
और उनकी गरीबी पर
दिखाई हमदर्दी पर
बुद्धिमान अपना बाजार सजा सकें
इसलिए गरीबी हटाओ के नारे से
गूंजता है धरती और आकाश
गरीब होता दर-ब-दर
पर वह अपना वजूद नहीं खोती!"
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ये कविता हमारे आज की एक सच्चाई है। एक आंकड़े के अनुसार आज भी हमारे देश की करीब ७० फीसदी जनता रोजाना ५० रूपये से भी कम कमाती है. हालाँकि जिन लोगों ने भारत के गाँव और वहां के लोगों की असल जिंदगी को देखा है उन्हें इस आंकड़े पर कभी भरोसा नहीं होगा. क्यूंकि गरीबों को घर देने के तमाम योजनाओं और दावों के बाद भी मेरे गाँव की गरीब बस्ती के अधिकांश घर अब भी घास-फूस के ही हैं. रोजगार देने के तमाम दावो के बीच आज भी ग्रामीण इलाकों से आने वाली रेल गाडियाँ वैसे ही भर-भर कर शहरों की ओर आ रही हैं. शहर से चलकर रोजगार गारंटी योजना गाँव में तो पहुँच गयी लेकिन लोगों को गाँव से शहर आने से रोकने में कामयाब नहीं हो सकी. इस योजना के तहत जो काम बांटे गए वे या तो सड़क निर्माण में मजदूरी करनी थी या फिर इसी तरह का कोई काम. गाँव के पढ़े-लिखे लोगों के लिए शिक्षा मित्र जैसी योजनाये शुरू की गई लेकिन इसे बाटने के काम में लगे लोगों ने इसकी बोली लगानी शुरू कर दी. जिन्हें नौकरी मिली भी उन्हें सरकारी चपरासी से भी कम वेतन पर रखा गया. अगर शिक्षा का अलख जगाने वाले लोग खुद को चपरासी से भी गया-गुजरा समझेंगे तो किस मनोबल से वे अगली पीढी को साक्षर बनाने के लिए काम कर सकेंगे इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं.
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हमारे यहाँ एक राज्य है उत्तर प्रदेश। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक देश में जो भी सरकार बनी है उसमें इस प्रदेश का हमेशा दबदबा रहा है. कई प्रधानमंत्री और असंख्य मंत्री दिए इस प्रदेश ने देश को. लेकिन अब भी इस प्रदेश के एक इलाके बुंदेलखंड से गरीबी और भूख से हुई मौतों की करुण कहानी सामने आती रहती है. हमारे देश की मीडिया ने गरीबी के लिए कालाहांडी को एक प्रतिक के रूप में सामने रखा. करीब १० साल पहले की बात है जब कालाहांडी में भूख हुई मौत ने पूरी दुनिया की मीडिया में अपनी जगह बनाई. लेकिन क्या इन दस सालों में इस व्यवस्था ने कालाहांडी की तस्वीर बदलने के लिए कुछ किया. उल्टे इस देश में रोज नए-नए कालाहांडी पैदा हो रहे हैं.
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हम बात कर रहे थे उत्तर प्रदेश की। वहां की स्थानीय सरकार से जुड़ी एक खबर आज एक अख़बार में छपी हुई थी. गरीबो और पिछडों के कल्याण के नाम पर सत्ता में आई यहाँ की सरकार और इसकी सुप्रीमो ने राज्य की राजधानी में जमकर मूर्तियाँ लगवाया. पार्टी के संस्थापक, वर्तमान अध्यक्ष या पार्टी सुप्रीमो कहें और पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तियाँ लगाने के नाम पर इस राज्य में करोडों रुपया खर्च किया गया. पहले वर्णित दो महानुभावों की मूर्तियाँ लगवाने में करीब 6.68 करोड़ रुपये का खर्च आया. तीसरे महानुभाव यानि की पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी जी की संगमरमर की ६० मूर्तियों पर भी करीब ५२ करोड़ रुपया खर्च किया गया. विकास के प्रति संवेदनशीलता के साथ लगे हुए इस प्रदेश ने पूरी म्हणत से काम किया है. प्रदेश के सांस्कृतिक विभाग का साल 2009-10 का बजट बताता है कि 2008-09 में विभाग ने 'महान नेताओं' की प्रतिमाओं को बनवाने के लिए 194 करोड़ रुपये से भी ज्यादा आवंटित किए हैं। और ये सब पैसा खर्च किया जा चुका है।
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वैसे ये पैसा गरीबी ख़तम करने पर भी खर्च हो सकता था. क्यूंकि शासन सत्ता का पहला काम ही होना चाहिए कि अपने हर नागरिक को बेसिक सुविधाएँ दे. लेकिन ये कहाँ हो पाया है. मूर्तियाँ नहीं लगेंगी तो गरीब पूजा किसकी करेगा और अगर गरीब ही ख़तम हो गए तो बिकेगा क्या.

Wednesday 24 June 2009

लो भई, फिर आ गया स्वयंवर का जमाना!

किसी महान आदमी ने कहा था कि इतिहास खुद को दोहराता है। हिंदुस्तान की सरजमीं पर इतिहास एक बार फिर पूरा एक चक्कर लगाकर वहीँ पहुँचने वाला है जहाँ से उसने प्राचीन काल में अपनी यात्रा शुरू की थी. हम बात कर रहे हैं स्वयंवर प्रथा की जिसे आर्यों ने शुरू किया था और जिसके बल पर महिलावादी लोग आर्य संस्कृति को महिला अधिकारों के मामले में स्वर्णकाल ठहराते नहीं थकते. चलिए इससे पहले कि हम मुद्दे से भटके... आ जाते हैं अपने मूल मुद्दे "स्वयंवर" पर.
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जहाँ तक मुझे याद है तो हमने कभी स्वयंवर नाम की किसी वस्तु को नहीं देखा। वो तो बचपन में रामायण और महाभारत सीरियल में देखकर जानकारी मिली थी कि स्वयंवर एक प्रकार की विवाह की विधि है जिसमें लड़की अपने लिए दुल्हे का चयन लाइन में खड़े असंख्य लड़कों (लड़के भी कोई ऐरे-गैरे नहीं बल्कि सर्वगुन्संपन्न हुआ करते थे) में से करती है. प्राचीन काल में ऐसा करने का मौका केवल बड़े राजा-महाराजाओं की बेटियों को ही मिलता था. फिर जैसा कि टीवी सीरियल्स के माध्यम से जान सका हूँ- कि मध्ययुग में राजकुमारी संयोगिता के लिए भी स्वयंवर रचा गया. आगे चलकर विवाह के लिए तमाम तरह के नए तरीके प्रचलन में आ गए और फिर स्वयंवर नामक सिस्टम आउट ऑफ़ फैशन हो गया.

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फिर आजाद भारत में विवाह नामक पध्द्ध्ती ने नया रूप लिया। उस दौर की फिल्मों से पता चलता है कि शादियों के लिए लड़के के घर वाले लड़की देखने जाते थे और लड़की की तो बात ही छोड़िये लड़का तक अपनी शादी की बात पर शरमा जाता था. तब के मां-बाप बड़े शान से कहा करते थे अजी लड़के-लड़की से क्या पूछना जब हमने हाँ कर दी तो वे ना थोड़े ही कहेंगे. लेकिन आगे के दशकों में मां-बाप की यही स्थिति नहीं रही. लड़के बोल्ड हुए और उन्होंने शादी के लिए लड़की देखने का बोझ मां-बाप के कंधो से उतारकर खुद अपने ऊपर ले लिया. कुछ समय तक मां-बाप निर्णय लेने की अपनी शक्ति छीन जाने की बात ये कहकर छुपाते रहे की भई पढ़ा-लिखा लड़का है लड़की के मामले में एक बार उसकी भी राय ले ली जाये. लड़कों के बाद बोल्ड होने की बारी थी लड़कियों की. शहरी लड़कियों ने इस मामले में अग्रदूत की भूमिका निभाई और आत्मनिर्भरता के साथ ही लड़कियों ने शादी के मामले में अपनी राय को दबाना छोड़ दिया. इसका असर टीवी के माध्यम से आम घरों में भी पहुंचा. वहां भी अब लड़कियों से उनके होने वाले रिश्तों के बारे में राय ली जाने लगी. २१वी सदी शुरू होते-होते समाज के एलिट वर्ग ने शादी-व्याह के मामले में काफी हद तक पश्चिमी समाज के तौर-तरीको को आत्मसात कर लिया था. इस समाज के लिए शादी-व्याह और तलाक़ तक एक ही सिक्के के दो पहलू बन चुके थे. लेकिन जैसा की प्राचीन काल में स्वयंवर जैसी बोल्ड प्रथा केवल उच्च यानि की एलिट वर्ग तक ही सिमित थी उसी तरह अब भी मध्य वर्ग शादी-व्याह को लेकर काफी प्राचीन मान्यताओं को जारी रखे हुए था. शादी-व्याह उसके लिए अब भी एक धार्मिक रीति-रिवाज से जुडी हुई एक प्रथा थी और उसे जीवन भर निबाहना उसकी जिम्मेदारी थी.

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वक्त अपना कदम आगे बढ़ता है और इतिहास एक करवट लेता है. एक बड़े स्वयंवर की तैयारी शुरू होती है. हमेशा ख़बरों में रहने वाली एक टीवी अदाकारा इसकी जिम्मेदारी लेकर आगे आती है. स्वयंवर में उसके हाथों अपना वरन करवाने को उत्सुक लोग सामने आने लगते हैं. लेकिन अब का समय प्राचीन काल जैसा नहीं है और बदले हुए समय के अनुसार लोग इसे व्यावसायिक नज़रिए से देखते हैं. वैसे ये गलत भी नहीं है. ऐसे समय में जब एलिट समाज के कुछ लोग बच्चे के जन्म से लेकर मौत तक को ऑनकैमरा करना पसंद करने लगे हैं तो स्वयंवर जैसी अद्भूत चीज को लेकर ऐसा प्रयोग क्यूँ नहीं किया जाये. जल्द ही ये स्वयंवर टीवी के परदे के माध्यम से लोगों के ड्राइंगरूम तक पहुँचने वाला है और लोग उत्सुकता में इसे देखेंगे जरूर. लेकिन ये भी सच है कि लोग अभी भी इस असमंजस में हैं कि क्या ये सच्ची में होने वाला है. अब कल क्या होने वाला है ये तो कोई नहीं बता सकता लेकिन इतिहास की इस करवट को देखने के लिए कुछ इंतजार करना होगा...दिल थाम के रहिये और देखिये-- नयी बोतल में प्रस्तुत पुरानी शराब को...

Tuesday 23 June 2009

लो देख लो नटवरलालजी की अगली पीढी को!

अब आप ये मत पूछिये कि ये नटवरलालजी कौन थे। नटवरलालजी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. नटवरलालजी की गिनती हमारे देश के प्रमुख ठगों में होती है। बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गाँव में जन्में नटवरलालजी ने अपने करिश्माई दिमाग की बदौलत से वर्षों तक बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली की सरकारों को परेशान रखा। अब इनके किस्से सुनाने लगूंगा तो बहुत समय लग जायेगा. इनके बारे में बस इतना जान लीजिये कि इन्होने कभी हथियार नहीं उठाया और अहिंसा के रस्ते पर चलते हुए इन्होने ठगी के बड़े-बड़े रिकॉर्ड बनाये. छोटे-छोटे सौदों से लेकर इन्होने कइयो को ताजमहल तक बेचा. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वे देश के एक ऐसे रतन थे जिनकी काबिलियत को कभी देश ने पहचाना नहीं वरना आज उनका नाम देश के महान लोगों में शुमार होता. नटवरलालजी ने भी कभी मोह-माया को गले नहीं लगाया नहीं तो आज उनका नाम देश के चमकते हुए राजनीतिक सितारों में जरूर शामिल होता. अब नटवरलालजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि उनकी सोच मर गई है. नई पीढी ने अपना काम संभाल लिया है और उनके पदचिन्हों पर चलकर देश और समाज में अपना नाम कर रही है.
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अजी अब भी नहीं समझे। यही तो कमी है अपने देश में. महान लोगों को समझने में देर करते हैं हम अक्सर. हालाँकि देश में ऐसे लोगों की कमी भी नहीं है जिन्होंने इन महानुभावों की कदर पहले ही समझ ली थी लेकिन ये अलग बात है कि उन्होंने सबको इनके बारे में बताया नहीं था. अब देखो न हमें अब जाकर पता चल रहा है कि अपने देश में अशोक जडेजा जी, सुभाष अगरवाल जी, रणवीर सिंह खर्ब जी, बालकिशन मलिक जी, गुरमीत सिंह जी और नवीन शर्मा जी जैसे लोग भी रहते हैं. जिन्होंने देश को विकसित बनाने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इन्होने नटवरलालजी के नक्शेकदम पर चलते हुए अहिंसा का दामन कभी नहीं छोडा और पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब के कहे अनुसार लोगों के सपने की उड़ान को पंख देने के लिए अपना भेजा खपाया. अब आप ही बताओ अपने देश में है कोई सिस्टम जो लोगों को उनकी राशि चंद महीनों में दुगुना और तिगुना करने की जहमत उठता. लेकिन इन लोगों ने अपना फर्ज पूरा किया और ऐसे-ऐसे स्कीम बनाये जिनमे लोगों ने जमकर पैसे लगाये और वो भी ऐसे कि पड़ोसी तक को कानो-कान खबर न हो. देश में बेरोजगारी की समस्या को ख़त्म करने के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इन महान लोगों ने अपने एजेंट भर्ती किये ताकि देश के लोगों को रोजगार मिल सके. इन एजेंटों ने भी इन्हें निराश नहीं किया. एक-एक महाठग भाई लोगों ने कुछ ही महीनो के अन्दर ३००-४०० करोड़ तक के स्कीम बेच डाले.
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लेकिन इसे कहते हैं देश की ख़राब किस्मत. अब इनपर भरोसा करने वाले लोग थोडी जल्दबाजी कर गए वरना इन लोगों ने देश के लिए काफी कुछ सोच रखा था. जिस रफ्तार से ये देश का पैसा दो-गुना--चौगुना कर रहे थे उस हिसाब से २०२० तो बहुत देर था अगले कुछ सालों में ही देश महाशक्ति बन जाता और ये जो आमिर बने घूमते हैं न पश्चिमी देश वहां के आर्थिक विशेषग्य भारत भ्रमण पर आने लगते यहाँ के ठग बिरादरी की आर्थिक नीतियों के अध्ययन के लिए. हम थोडी सी हड़बड़ी के कारण विकसित बनने के इस मौके से चूक गए...

Tuesday 16 June 2009

मिशन काहिरा और ओबामा का नज़रिया...!

लीजिये इस्राइल ने अमेरिका के अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा द्वारा फलिस्तीन-इस्राइल विवाद के हल के लिए तैयार किये गए रोड मैप का जवाब दे दिया। इस्राइल ने दुनिया के सामने एकतरफा ऐलान कर दिया कि फलिस्तीन राष्ट्र का गठन स्वीकार किया जा सकता है बशर्ते कि उसके साथ सेना न हो, उसका अपने वायुक्षेत्र पर नियंत्रण न हो, किसी तरह की हथियारों की तस्करी संभव न हो. यरुसलम हर हाल में इस्राइल की राजधानी होगी और बस्तियों में कोई बदलाव नहीं होगा तथा शरणार्थियों के मुद्दे पर कोई बात नहीं होगी.
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उधर एक हफ्ते पहले काहिरा में मुसलमानों और अमेरिका के बीच दशकों से परवान चढ़ चुकी नफरत की दिवार गिराने की कोशिश में मानवता, कुरान, सभ्यता और न जाने किन-किन चीजों की दुहाई देने वाले अश्वेत राष्ट्रपति को इस्राइल के इस बयान में इतनी सच्ची नजर आई कि उन्होंने इस्राइल के इस रुख को आगे बढ़ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बता डाला। उन्होंने कहा कि ये समाधान इस्राइल की सुरक्षा और फलिस्तीन की एक राष्ट्र की जायज आकांक्षा को सुनिश्चित करता है. इस बयान के बाद अश्वेत बहादुर का असली चेहरा भी सामने आ गया और अंकारा से शुरू की गई उनकी ये मुहीम काहिरा में अपना रंग दिखा दी. उन्होंने यहूदियों को ये साफ़ सन्देश दिया कि वो मुसलमानों को लाख पुचकारते रहे लेकिन वो खाटी सोच वाले ही हैं जिससे अमेरिका और यहूदियों को अलग नहीं किया जा सकता. चाहे अमेरिकी यहूदी एक बार नहीं सौ सौ बार अमेरिका को आर्थिक मंदी के दलदल में धकेल दें.
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बदलाव कि सीढ़ी पर चढ़कर सत्ता के सिंहासन पर पहुँचने वाले ओबामा ने आते ही संकेत दे दिया कि वह परिवर्तन सिर्फ देसी मामलों में ही नहीं विदेशी नीति में भी चाहते हैं। उन्होंने मुस्लिम दुनिया में बदलाव लाने को प्राथमिकता देते हुए इसलामपरस्त और धर्मनिरपेक्षवाद का अखाडा बने तुर्की की संसद को संबोधित किया. उन्होंने तुर्की के राष्ट्रपति, जनता, तुर्की की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की भूरी-भूरी प्रशंसा की और साथ हीं दुनिया से जुड़े कई अहम् मुद्दे पर बेबाकी से अपने विचार रखे. जाहीर है कि यहाँ तुर्की की सीमा से लगे दुनिया के सबसे पुराने और गंभीर फलिस्तीन-इस्राइल विवाद को कैसे भूल सकते हैं. उन्होंने इस मसले के हल के लिए बुश द्वारा तैयार किये गए रोडमैप अनापोलिस को पुरजोर तरीके से लागू करने कि वकालत की.
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बदलाव के इस झंडे को दूसरी बार उन्होंने काहिरा विश्वविद्यालय में गाड़ना बेहतर समझा। क्यूंकि फलिस्तीन-इस्राइल विवादित मुद्दे की सीमा काहिरा को भी छूती हैं. जहाँ दुनिया को सन्देश देने के साथ साथ इस्राइल को धमाकेदार आवाज़ में अपने रोड मैप की जानकारी दी जा सकती थी. अपने इस ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने ६ बिन्दुओं पर प्रकाश डाला जो अमेरिका और मुसलमानों के बीच खाई का कारण बने हुए हैं. उन्होंने इस मसले को हल करने के लिए एक-दूसरे को समझने तथा अपनी गलतियों को अहसास करने पर बल दिया. उन्होंने दोद्नो समुदायों से पुरानी बातें भूल कर नया अध्याय लिखने का आह्वान किया. हालांकि नया अध्याय लिखने और बदलाव जानकारी बात करने वाले ओबामा ने दुनिया के सबसे गंभीर मुद्दे को पौराणिक परिवेश को सामने रखकर संबोधित किया. उन्होंने कहा कि इस जमीन पर यहूदी राष्ट्र की स्थापना जानकारी बुनियाद इतिहास में छुपी है इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. लेकिन ओबामा बहादुर को फलिस्तीनी अरब(जो मुस्लमान नहीं हैं) के इतिहास के बारे में या तो पता नहीं है या तो यहूदी दोस्ती में सच्चाई कहने से भाग रहे हैं. उन्होंने फलिस्तीनी शरणार्थियों की रोजमर्रा की परेशानियों के लिए इस्राइल को जिम्मेदार तो ठहराया लेकिन इसका हल क्या है इसपर कुछ भी कहने से परहेज किया. उन्होंने हमास जिसको वहां जानकारी जनता का पूरा समर्थन हासिल है लेकिन अमेरिका उसे आतंकवादी संगठन के आलावा कुछ मानने को तैयार नहीं है. उसे भी ये सन्देश देना नहीं भूले कि हमास जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझे?ओबामा ने इस्राइल और फलिस्तीन के लिए अलग-अलग राष्ट्र की स्थापना की जोरदार ढंग से वकालत की लेकिन यह कैसे संभव है कि इसपे चुप्पी साधे रहे. अंकारा में अनापोलिस की दुहाई देने वाले ओबामा ने काहिरा में इसका जिक्र भी करना उचित भी समझा.
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ओबामा ने अपने ऐतिहासिक भाषण में इरान के परमाणु कार्यक्रम पर चिंता जताई और कहा कि अगर इसे रोका नहीं गया तो क्षेत्र में परमाणु हथियार बनाने की होड़ लग जायेगी। कुछ हफ्ते पहले इस्राइल के पास २०० परमाणु बम है का खुलासा करके पूरी दुनिया को चौंका देने वाले ओबामा प्रशासन ने यहाँ इस्राइल को नसीहत देना तो दूर की बात उसपर मुंह खोलना भी मुनासिब नहीं समझा.
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इन बातों से साबित होता है कि मुसलं दुनिया और अमेरिका के बीच दोस्ती बढ़ने के इस अभियान की आड़ में ओबामा महाराज यहूदी राज्य स्थापित करने की मुहीम छेड़ राखी है वर्ना कोई भी इमानदार आदमी नेतान्याहू के एकतरफा बयान को इतने जोरदार ढंग से स्वागत नहीं करता। परिवर्तन का नारा देने वाले इस नेता भी मानवाधिकार के इस मुद्दे को धार्मिक चश्मे से ही देखने की कोशिश की. पूरी दुनिया को मानवधिकार का सबक सिखाने वाला अमेरिका जिस तरह से अबतक इस मुद्दे को धार्मिक दृष्टिकोण से देखता रहा है ठीक उसी अंदाज से ओबामा भी देख रहे हैं. लिहाजा उनकी ईमानदारी पर सवालिया निशान उठाना स्वाभाविक है और ये सही है कि मुस्लिम देशों में आज भारत, अमेरिका जैसी धार्मिक आज़ादी है और न ही विचार व्यक्त करने कि अनुमति. इसपर ओबामा द्वारा सुझाई गई बातों पर मुसलीम शासकों को संजीदगी से गौर करना होगा. आखिर दूसरों से अधिकार मांगने वाले मुस्लिम देश अपने देश के दूसरे मजहब के लोगों के साथ वो व्यवहार क्यूँ नहीं करते हैं जैसा इसलाम में बताया गया है.-----यहाँ ओबामा साहब आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आपने कहा था कि ताली एक हाथ से नहीं बजती लेकिन आपने नेतान्याहू के बयान को बेसमझे समर्थन देकर जिस पहल की शुरुआत की थी शायद उसका गला ही घोंट दिया.
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लेखक: अजवर सिद्दीकी
(लेखक युवा पत्रकार हैं और मुस्लिम जगत में हो रहे परिवर्तन पर पैनी निगाह रखते हैं)
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Monday 15 June 2009

मीडिया और चाँद-फिजा के तराने..!

मीडिया की बांछे खिल गई है खासकर टीवी चैनल वालों की... पता है क्यूँ... चाँद मोहम्मद फिर सामने आ गए हैं। फिर उन्हें फिजा से किये गए प्यार के वादे याद आ गए हैं और आँखों में आंसू और होंठों पे प्यार का तराना लेकर फिर से वे फिजा के दरबार में हाजिरी लगाने पहुँच चुके हैं. कहानी कुछ ऐसी है कि एक हुआ करते थे चंद्रमोहन. वे कभी हरियाणा जैसे संपन्न राज्य के उपमुख्यमंत्री हुआ करते थे. राज्य के एक बड़े रसूख वाले परिवार के जिम्मेदार मेंबर भी. बीवी-बच्चों वाले एक जिम्मेदार इन्सान भी. फिर उन्हें प्यार हो गया. अचानक वे गायब हो गए और फिर जब प्रकट हुए तो वे चन्द्रमोहन से चाँद मोहम्मद हो चुके थे. धर्म तो उन्होंने बदल ही लिया उपमुख्यमंत्री की कुर्सी भी उन्हें गंवानी पड़ी.
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मीडिया ने उन्हें खूब बेचा। जब चन्द्रमोहन से चाँद मोहम्मद बनकर सामने प्रकट हुए थे तब उन्होंने देश की राजधानी दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस भी बुलवाया था. तब चाँद मोहम्मद और उनके प्यार में अनुराधा बाली से फिजा बनने वाली उनकी प्रेमिका दोनों ने देश के सामने प्यार पर एक अच्छा-खासा लेक्चर भी दिया था. अख़बारों में उनके खूब फोटो छपे और टीवी चैनल वालों ने तो पूरे सप्ताह भर उन्हें बेचा. उन्हें एकदम फ्रेश लव गुरु जो मिल गया था.
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फिर चाँद मोह्हमद की आंखे खुल गयी और उन्होंने अपने परिवार में लौट कर फिजा को मोबाइल पर तलाक दे दिया। मीडिया ने फिर उन्हें बेचा. टीवी पर चल-चल कर उनके तराने लोगों को ड्राइंग रूम में गुदगुदाते रहे, लोगों ने खूब इनपर चर्चा की. मामला ख़त्म हो गया. चाँद मोहम्मद ने फिर परिवार में वापसी कर ली और फिजा ने भी जिंदगी को फिर से नई शुरुआत देने की कोशिशे शुरू कर दी. लेकिन ये कहानी यही ख़त्म नहीं होनी थी.
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लेकिन इस दौरान बहुत कुछ बदल चुका था. जिस फिजा को कल तक कोई नहीं जानता था वो फिजा एक अंतर्राष्ट्रीय रियलिटी शो में भाग लेने की तैयारिओं में लगी थी. सावन आने में अभी वक्त था लेकिन बरसात के पानी ने इसी दौरान अपना रंग दिखाया. चाँद मोह्हमद के दिल में फिर से प्यार के तराने बजने लगे. अचानक एक दिन सुबह-सुबह उठकर चाँद मोह्हमद पहुँच गए फिजा के घर. बार-बार माफ़ी मांगने के बाद भी फिजा का दिल नहीं पसीझा. चाँद मोह्हमद को मीडिया वालों को खबर करनी पड़ी. मीडिया के सामने उन्हें कहना पड़ा कि भाई माफ़ कर दो अब नहीं होगी ऐसी गलती. लेकिन प्यार में धोखा खाई फिजा ने नहीं माना. दिखा दिया अंगूठा और कहा कि सोचकर बताउंगी...मीडिया को मसाला मिल गया था. फिर दोनों छा गए ख़बरों में...अभी ये कहानी आगे जारी रहेगी...ख़बरों का ये सिलसिला अभी थमने वाला नहीं है...मीडिया को अभी ना जाने कितने मटुकनाथ और चाँद मोहम्मद मिलते रहेंगे और दुकानदारी चलती रहेगी...भारत विविधताओं का देश है यहाँ ऐसे सपूत हमेशा जन्म लेते रहेंगे...यहाँ कि मीडिया के लिए ख़बरों का अकाल कभी नहीं हो सकता...अगर हुआ भी तो ये बेमौसम बिकने वाले खबरिया आइटम हैं...मीडिया के वीडियो लाइब्रेरी में इन्हें खूब संजो के रखा गया है...जब ख़बरों जा अकाल होगा तब इन्हें निकाल कर मिर्च-मसाले के साथ बेच लिया जायेगा.

Sunday 14 June 2009

सिस्टम की चील-पों और चाय वाला छोटू...

पूरी दुनिया ने शुक्रवार को बाल मजदूर निषेध दिवस मनाया। मीडिया में दिन-भर नूरा-कुश्ती चलती रही. देश भर से बाल-दिवस मनाने के लिए सज-धज कर घर से निकले समाजसेवी लोग और इस मौके पर जगह-जगह आयोजित समारोहों में भाषण देने वाले नेताजी लोग खूब दिखे. इनके फूटेज और बाईट स्पेशल इफेक्ट और म्यूजिक के साथ-साथ सजाकर दिन भर टीवी के परदे पर दीखते रहे. इस दिन की तैयारी में सबको अपना हिस्सा देना था इसलिए एनजीओ वालों ने अपना कर्तव्य निभाते हुए कई जगहों पर काम करने वाले बाल मजदूरों की खबर पुलिस को दे दी और पुलिस वालों ने भी इस दिन अपना कर्तव्य निभाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. कई जगह छापा मारा गया और बाल मजदूर निषेध के नाम पर कई बच्चो को मुक्त करा लिया गया. मीडिया ने इस दिन के लिए कई विशेष स्टोरी बनाके रखी थी. बेबसी-दर्द-मजबूरी-दास्ताँ जैसे कई भारी-भरकम शब्दों और बेबस चेहरों के साथ टीवी चैनलों ने भी इस दिन को खूब सलीके से मनाया. अखबार वालों ने काम करने वाले बच्चों की तस्वीर एक दिन पहले ही खींचकर रख दिया था ताकि इस दिन उनके अख़बार के पहले पन्ने किसी अच्छे से कैप्शन के साथ ब्लैक एंड व्हाइट स्टाइल में ये तस्वीर छप सके. सब मुस्तैद थे और सबने बाल मजदूर दिवस मनाने के लिए अपना-अपना कोटा ठीक तरीके से पूरा किया।
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बच्चों को काम करने से रोकने की इस मुहीम में पूरा सिस्टम एकजूट था। इसका असर मेरे पड़ोस की चाय की दुकान पर भी दिखा. एक दिन पहले जब शाम को मैं चाय की दुकान पर गया तो वहां छोटू को न देखकर मैंने उसके बारे में पूछ डाला. दुकान मालिक ने धीरे से कहा सर जी जहाँ-तहां छापे पड़ें हैं और कई बच्चों को ले गए वे लोग. मैंने बेचारे को २ दिनों की छुट्टी दे रखी है. बेचारा गरीब परिवार से है और इसी काम के सहारे अपना व अपनी माँ का पेट पालता है अब कौन उसे भी और खुद को समस्या में डाले इसलिए मैंने उसे २ दिन के लिए छुट्टी ही दे दी. करीब १०-११ साल के छोटू का चेहरा मेरे जेहन में अचानक उभर आया. रोज आते-जाते न जाने कई बार दिख जाता था. टीवी और अख़बारों में बाल मजदूरी रोकने के विज्ञापन देख कर कई बार मेरे मन में भी आया कि इसकी शिकायत कर दूँ और इसे काम करने से रोकने की वाहवाही ले लूँ. लेकिन आज छोटू की सच्चाई जानकर मुझे अपने फैसले पर ख़ुशी हुई कि अच्छा किया मैंने किसी को नहीं बताया. मुझे नहीं मालूम था कि इतनी नन्ही उम्र में छोटू इतना ज्यादा जिम्मेदार हो चुका है वो. उसे पकड़वाकर मैं अपनी वाहवाही तो करवा लेता लेकिन क्या उसके परिवार का पेट मैं पालता या फिर सरकार उसकी जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले लेती?
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हाँ तो उस दिन टीवी पर दिन भर इस मामले पर बहस-मुबाहिसा चलता रहा. इन मामलों के कई विशेषग्य दिन-भर इस मामले पर बोलते रहे और इस दौरान चेहरे पर विजयी मुस्कान लिए देश के कई हिस्सों से बाल मजदूरों को पकड़वाने वाले समाजसेवियों के चेहरे भी टीवी पर दीखते रहे. नन्हीं उम्र में बच्चों को काम करने से रोकने के प्रबल समर्थक तो हम भी हैं लेकिन इन सब के बीच किसी ने भी ये नहीं बताया कि अगर इन्हें काम से रोक दिया गया तो ये बच्चे कहाँ जायेंगे और इनकी जिम्मेदारियां कौन पूरा करेगा. अगर ये खुद इतने सक्षम होते तो इन्हें काम ही क्यूँ करना पड़ता. क्या देश ने सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई तंत्र विकसित किया है जिसकी दुहाई दे कर हम इन बच्चो को कह सकें कि भई तुम इतनी नन्ही उम्र में काम क्यूँ करते हो. तुम पहले अपनी पढाई पूरी करो और फिर काम में लगना...जिस दिन हम ऐसा कह सकने की स्थिति में होंगे तब हम बाल मजदूर दिवस मनाने के सही हक़दार होंगे और फिर उस दिन छोटू को चाय की दुकान से निकलने की इस मुहीम में हम भी पूरे मन से शामिल हो सकेंगे.

Wednesday 10 June 2009

नक्सलबाड़ी से आगे...ब्रांड नक्सलवाद!

नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ नक्सलवादी आन्दोलन अब बंगाल तक ही सीमित न होकर एक देशव्यापी समस्या बन चुका है। नक्सलवाद को एक वाद के तौर पर और किसानों और गरीबों की लड़ाई के तौर पर पेश करने वालों के लिए इस सप्ताह में इस विषय से जुडी चंद ख़बरों के शीर्षक यहाँ पेश कर रहा हूँ-
१) उडीसा में नक्सलियों ने २ थानों और एक पुलिस चौकी उडाई।
२) झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में नक्सली हमले में दस पुलिसकर्मी शहीद।
३) छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों के हमले में सीआरपीएफ के असिस्टंट कमांडंट शहीद तथा पांच अन्य जवान घायल।
४) महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पुलिस मुठभेड़ में दो नक्सली ढेर।
ऐसे ही न जाने कितनी ख़बरों के साथ आये दिन नक्सली ख़बरों में छाये रहते हैं। नक्सलवाद शब्द और उसके वर्तमान स्वरुप को लेकर तमाम तर्क रखे जा सकते हैं. उन्हें देखने का लोगों को नजरिया भी अलग-अलग हो सकता है. लेकिन देश का वो हिस्सा जो इससे पूरी तरह अनजान है वो नक्सलवाद को एक बड़े खतरे के रूप में देखता है. कल ही किसी समाचार पत्र में खबर छपी थी कि नक्सलवाद अब एक आन्दोलन नहीं बल्कि संगठित रंगदारी व्यवसाय बन चुका है और देशभर में इसका बाज़ार १५०० करोड़ का हो चुका है. देश के अधिकांश राज्य में अपराधी इस खोल को ओढ़कर अपना व्यवसाय चला रहे हैं.
१९६० के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन किसानों के हक़ की लडाई का पर्याय बन कर उभडा था तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक दिन ये आन्दोलन एक व्यापार का रूप ले लेगा। चारू मजुमदार और कानू सान्याल ने इस आन्दोलन को इसलिए शुरू किया था ताकि किसानों का संगठन तैयार हो सके और उन्हें जमींदारो और साहूकारों के खिलाफ एक मंच मिल सके, उनकी आवाज सुनी जा सके. वो न हो सका. एक दशक तक सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन फिर ये आन्दोलन अपने रास्ते से भटक गया. स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि इसे पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने ही ७० के दशक में दबा दिया. विभिन्न प्रदेशों के जो युवा वहां सक्रीय थे सरकारी दमन के कारण एनी राज्यों की ओरे चल पड़े और नक्सलवाद का बीज कई राज्यों में फ़ैल गया. हर जगह इस आन्दोलन के फैलने के कई कारण थे. कहीं क्षेत्रीय असमानता तो कहीं गरीबी की चाशनी में लपेट कर इसे पेश किया गया. पुरानी पीढी जबतक रही ये आन्दोलन कमोबेश अपने रास्ते पर चलता रहा. लेकिन कहते हैं न कि जब भी ताकत सिस्टम पर हावी होने लगता है तो फिर निरंकुशता अपना रास्ता बनाने लगती है. यही इस आन्दोलन के साथ भी हुआ.
शुरुआत में आन्दोलन को जिन्दा रखने के नाम पर और जमींदारों और साहूकारों से रक्षा के नाम पर किसानों से वसूली होनी शुरू हुई और फिर धीरे-धीरे ये प्रोटेक्शन मनी का रूप लेता गया। नक्सलबारी से निकल कर इस वाद ने पहले उन क्षेत्रों में अपनी जड़े जमानी शुरू कि जहाँ शासनतंत्र की पहुँच कम थी. बंगाल से निकलकर जब ये आन्दोलन बिहार पहुंचा तब इसके खिलाफ भी कई संगठन तैयार हुए. बिहार में आकर इस लड़ाई ने पहले तो जातीय रूप धरा और फिर इसे कई विरोधी संगठनों के विरोध का सामना भी करना पड़ा. इस लड़ाई की आग में बिहार करीब दो दशकों तक जलता रहा. उडीसा, आंध्र और महारष्ट्र में इसे फलने-फूलने का खूब मौका मिला. कहीं कोई संगठन नहीं, कहीं कोई विचारधारा नहीं. एक वाद का मुखौटा पहने नक्सलवाद अपराध को जायज ठहराने का एक जरिया बन गया.
(( देश के एक लोकप्रिय समाचार पत्र में नक्सलवाद पर एक स्टोरी छपी थी जिसके अनुसार ब्रांड नक्सलवाद रंगदारी और वसूली जैसे संगठित अपराध को छुपाने का एक जरिया बन चुका है। आप भी इस खबर को पढ़ सकते हैं...

रंगदारी व्यवसाय बना नक्सलवाद, 1500 करोड़ का साम्राज्य

जन आंदोलन से शुरू हुआ नक्सलवाद अब लेवी के रूप में 1500 करोड़ का संगठित रंगदारी व्यवसाय बन गया है। पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा अधिकारियों ने कहा कि भाकपा (माओवादी) खासकर इससे जुड़े समूह रंगदारी से जो रकम हासिल करते हैं उसका इस्तेमाल वे आंदोलन चलाने के लिए नहीं, बल्कि अपने नेताओं की ऐशो-आराम वाली जीवनशैली को बरकरार रखने के लिए करते हैं।
विभिन्न अभियानों के दौरान केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों और राज्य पुलिस द्वारा जब्त किए गए नक्सल साहित्य और दस्तावेज से नक्सली समूहों द्वारा वसूली जाने वाली लेवी के बारे में विस्तृत खुलासा हुआ है जिसका हर साल का आंकड़ा करोड़ों रुपये का है। भाकपा (माओवादी) हालांकि झारखंड में अब भी प्रमुख नक्सली समूह है लेकिन अन्य भी बहुत से छिटपुट समूह हैं जिन्होंने अपहरण, लूटपाट और मादक पदाथरें की तस्करी के अलावा लेवी लगाने का काम शुरू कर दिया है। इसके तहत राज्य से सालाना लगभग तीन अरब रुपये की वसूली होती है। यदि नक्सलवाद से सर्वाधिक प्रभावित सात राज्यों तथा लाल गलियारे के रूप में जाना जाने वाले झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र से लेवी के जरिये हासिल होने वाली रकम के बारे में सुरक्षा एजेंसियों के आंकड़ों पर भरोसा किया जाए तो सालाना लगभग 1500 करोड़ रुपये की आमदनी बैठती है।
सुरक्षा बलों द्वारा बरामद किए गए दस्तावेज से नक्सलियों की आय के बारे में खुलासा हुआ है जिनमें ठेकेदारों, पेट्रोल पंप मालिकों तथा भूस्वामियों से वसूली जाने वाली लेवी राशि के सही आंकड़े स्पष्ट दिखाई देते हैं। सड़कें बनाने की परियोजना में जहां आम तौर पर 10 फीसदी लेवी वसूली जाती है वहीं छोटे पुलों और अन्य परियोजनाओं के मामले में पांच प्रतिशत लेवी वसूल की जाती है। तय लेवी के अलावा वाम विचारधारा वाले चरमपंथी समूह क्षेत्र में काम करने वाले उद्योगपतियों से भी धन की मांग करते हैं। इतना ही नहीं, वे वसूले गए धन के लिए रसीद भी जारी करते हैं। सीआरपीएफ के उप महानिरीक्षक (झारखंड) आलोक राज ने बताया कि राज्य में वाम विचारधारा से जुड़े छह चरमपंथी समूह काम कर रहे हैं जिनमें से पीपुल्स लिबरेशन फंट्र ऑफ इंडिया ज्यादातर अपराधियों से बना है। इस समूह को पहले झारखंड लिबरेशन टाइगर्स कहा जाता था। उन्होंने कहा कि ये समूह लंबे समय तक विचारधारा के लिए नहीं बल्कि रंगदारी के लिए काम करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि धन के लिए सिर्फ नक्सली ही ठेकेदारों से संपर्क नहीं करते बल्कि कुछ मामलों में ठेकदार खुद धन के साथ नक्सलियों से संपर्क साधते हैं।
झारखंड के पुलिस महानिदेशक वीडी राम ने कहा कि कुछ मामलों में देखने में आया है कि ठेकेदारों ने अपने द्वारा बनाई गई सड़कों को विस्फोट से उड़वाने के लिए नक्सलियों से खुद संपर्क किया क्योंकि उन्होंने सड़क बनाने में घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया था। ऐसे ठेकेदारों का मानना होता है कि यदि उनके द्वारा बनाई गई सड़कों को नक्सली उड़ा देंगे तो उनमें लगाई गई सामग्री की गुणवत्ता की कोई जांच नहीं हो पाएगी। अधिकारियों ने कहा कि माओवादी नेता सभी तरह की आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं। हालांकि वे अपने संगठन में दूसरों के बच्चों की जबरन भर्ती करते हैं लेकिन उनमें खुद के बच्चे अच्छे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। माओवादी पूवरेत्तर राज्यों के विद्रोहियों की तरह ग्रामीणों को अफीम की खेती करने के लिए भी उकसाते हैं।))

Monday 8 June 2009

वाकई बहुत संजीदा हो गए हैं हम!

हमारे यहाँ कोई न कोई दिवस मनाने का चलन बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। अभी-अभी दुनिया ने विश्व पर्यावरण दिवस मनाया है. इस दिन अपने एक मित्र की पर्यावरण के प्रति चिंता देखकर लगा कि दुनिया वाकई बहुत ही संजीदा हो गयी है. सुबह ऑफिस में अपने एक मित्र को लाइट और कंप्यूटर ऑफ करते देखा तो मुझे कुछ अजीब सा लगा. मेरे पूछने पर उनका जवाब था कि भाई कम से कम आज तो बिजली बचा लिया जाये. मेरे लिए ये थोडी नई बात थी. इससे पहले कभी नहीं देखा था मैंने उन्हें इस तरह संजीदा होते हुए. रोज मजे में रौशनी और कंप्यूटर की रंगीनियत का फायदा उठाने वाले मेरे मित्र को अचानक क्या हो गया यही सोचते हुए मैंने ऑफिस से बाहर नज़र डाली तो एक दूसरे मित्र पर नज़र गयी. हमेशा बाइक से ऑफिस पधारने वाले मेरे एक ये मित्र को पैदल चले आ रहे थे. मैंने पूछ डाला- क्या हुआ भाई बाइक ख़राब हो गयी क्या. उन्होंने कहा भाई आज विश्व पर्यावरण दिवस है और इसलिए मैं बस से आया हूँ.

ये बस एक दिन के लिए था और अगले दिन से फिर मेरे दोनों मित्र अपने पुराने अंदाज में आ गए. मैं फिर इंतजार में हूँ कब अगले साल ये दिन आये और इन्हें फिर से पर्यावरण की चिंता हो...

Friday 5 June 2009

अब माउस-माउस में विधमान है ईश्वर...

(इन्टरनेट पर खबरों की ख़ाक छानते एक खबर हाथ लगी- सैकडों किलोमीटर दूर स्थित भगवान के दर्शन अब इन्टरनेट पर सुलभ। इसके लिए बस पैसा पे करिए और हो जायेगी आपके नाम की पूजा. मतलब दाम चुकाईये और भगवान की कृपा के हक़दार बनिए. इसके लिए अब तीर्थयात्रा के तमाम कष्ट भी नहीं उठाने होंगे... इस खबर पर कुछ पंक्तियाँ लिखने से खुद को नहीं रोक सका।)
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कण-कण में हैं विधमान इश्वर
ऐसा सुना था हमने
अपने पुरखो से...
लेकिन आज इन्टरनेट की खाक छानते
कुछ एक्सक्लूसिव जानकारियां हाथ लगी
कि अब
अतिआधुनिक युग आ गया है
और भगवान ने भी
मिला लिया है समय से कदम
भक्तो तक पहुँच बनाने के लिए
मंदिर से निकल पड़े हैं भगवान
और
आ गए हैं कंप्यूटर में
बस एक माउस दबाने की जरूरत है
और हो जायेगी उनकी पूजा
इसके लिए अब नहीं करनी होगी
हजारो किलोमीटर की यात्रायें और
अब सच होने वाली है
ये कहावत कि
कण-कण में है भगवान
(वैसे आप ऐसे कह सकते हैं-माउस-माउस में हैं भगवान)!
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धनकुबेरों और वीआइपीज के पीछे
मंदिरों की लाइनों में लगकर
थक चुका भक्त भी
अब जागरूक हो चुका है
उसने भी थाम लिया है
इन्टरनेट का दामन
सीधे पहुँच बना ली है उसने
अपने भगवान तक
और घर बैठे अब उसके पास
पहुँचने लगे हैं प्रसाद
अब तीर्थयात्राओं के लिए
उसे नहीं जोड़ने पड़ते एक-एक पाई
अब भगवान आपके हैं और
आप भगवान के!