Sunday 12 December 2010

इस बार बिहार ने भ्रष्टाचार पर एक रास्ता दिखाया है...

ऐसे वक्त में जब देश हर स्तर पर पैठ बना चुके भ्रष्टाचारी रुपी महारथियों से पार पाने के लिए त्राहिमाम कर रहा है और राजनीतिक नेतृत्व इस पर कुछ भी ठोस कर पाने में खुद को असहाय महसूस कर रहा है ऐसे वक्त में एक बार फिर बिहार एक नए जोश के साथ हमारी व्यवस्था में पैठ बना चुकी इस बीमारी के निदान के लिए आगे आया है. आज वहां की सरकार द्वारा उठाये गए दो कदमों का जिक्र करना जरुरी है.

पहली घटना--
बिहार में भ्रष्टाचार में लिप्त पूर्व मोटरयान निरीक्षक (एमवीआई) की सम्पत्ति जब्त करने के न्यायालय के आदेश के बाद सरकार ने अब उस भवन में विद्यालय खोलने की तैयारी प्रारंभ कर दी है। समस्तीपुर जिले में स्थित एमवीआई रघुवंश कुंवर के पैतृक गांव चैरा में बने मकान में विद्यालय खोलने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। परिवहन विभाग के अधिकारी कुंवर के पास समस्तीपुर के अलावा पटना में आलीशान मकान और जमीन है। उनके मकानों और जमीन के अधिग्रहण के लिए संबंधित जिलाधिकारियों को एक माह के अंदर तमाम प्रक्रियायें पूरी कर लेने को कहा गया है। उल्लेखनीय है कि भ्रष्टाचारियों की अवैध सम्पत्ति जब्त करने संबंधी कानून के तहत कुंवर और उनकी पत्नी ललिता देवी के पास मिली लगभग 45 लाख रुपये की अवैध सम्पत्ति जब्त होगी। सतर्कता विभाग के विशेष लोक अभियोजक राजेश कुमार के अनुसार रघुवंश के पास मौजूद आय से अधिक 44,99,318 रुपये की चल और अचल सम्पत्ति को जब्त करने के लिए विभाग की विशेष अदालत में इस वर्ष 12

अगस्त को एक मामला दायर किया गया था। गौरतलब है कि शिकायत मिलने के बाद 24 सितंबर 2008 को सतर्कता विभाग के अधिकारियों ने कुंवर को 50 हजार रुपये रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़ा था। जांच के बाद विभाग ने उनके खिलाफ मई 2009 में आय से अधिक सम्पत्ति का मामला दर्ज कराया था।

दूसरी घटना--
दूसरी महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तहत बिहार में स्थानीय क्षेत्र विकास निधि पर लगे भ्रष्टाचार के दाग धोने के प्रयास के तहत राज्य सरकार ने इस कोष को समाप्त करने का ऐतिहासिक निर्णय किया है. बिहार में विधानसभा और विधान परिषद के सदस्यों को स्थानीय क्षेत्र विकास कोष से हर वर्ष एक एक करोड़ रुपये दिए जाते हैं। स्थानीय क्षेत्र विकास विधायक और विधानपार्षद निधि की बिहार में शुरुआत वर्ष 1984 में की गई थी। इस निधि के तहत शुरुआत में हर सदस्य को प्रतिवर्ष विकास कार्यो के लिए एक लाख रुपये दिए जाते थे। बिहार में विधायक और विधान पार्षद स्थानीय क्षेत्र के विकास निधि के 26साल पुराने इतिहास में एक लाख रुपये प्रतिवर्ष से शुरू होकर यह सफर एक करोड़ रुपये तक पहुंचा। वर्ष 1986 में इस राशि को बढ़ाकर प्रतिवर्ष पांच लाख रुपये कर दिया गया, जबकि इसके चार साल बाद यानि 1990 में यह राशि बढ़ाकर 10 लाख रुपये कर दी गई। वर्ष 1996 में स्थानीय क्षेत्र विकास निधि में एक बार फिर बढ़ोत्तरी की गई जो बढ़कर 50 लाख रुपये हो गई। 2003 में 50 लाख रुपये की राशि को बढ़ाकर एक करोड़ रुपये कर दिया।

अब आगे चलकर केंद्र सरकार को भी प्रतिवर्ष सांसदों को मिलने वाले दो करोड़ रुपए के सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास निधि [एमपीलैड] को समाप्त करने के लिए तत्परता दिखानी चाहिए.

बिहार की नयी सरकार द्वारा उठाया गया ये कदम आज देश भर में व्यवस्था में पैठ बना चुके घोटालेबाजों के लिए एक सबक बन सकता है बशर्ते कि हमारी राजनीतिक बिरादरी ऐसा करने की हिम्मत जुटाए और ऐसा कदम उठाये कि अपना काम करते वक्त घुस मांगते हुए किसी भी सरकारी कर्मचारी के सामने भविष्य की बर्बादी का मंजर घूम जाये. इतना ही नहीं जैसा कि हमारे सिविल सोसाइटी के लोग लगातार मांग करते आ रहे हैं कि एक ऐसी राष्ट्रीय एजेंसी बने जो करोडो-अरबो डकार जाने वाले राजनीतिज्ञों-कारोबारियों और नौकरशाहों के नेक्सस को बिना किसी दबाव के दण्डित कर सके.
बिहार में उठाया गया ये स्वागतयोग्य कदम भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में ऐतिहासिक शुरूआत होगी।

Tuesday 23 November 2010

अतिथि देवो भवः और कल्लन काका का इनक्रेडिबल विलेज..!

सब लोग खेतों से लौट कर घर पहुंचे ही थें कि चौपाल की घंटी बज गई। चाय-चबेना लेकर लोगों ने चौपाल की राह पकड़ी। सरपंच कल्लन काका पहले हीं वहां आसन जमाये हुये थे। मोहन उनके दायें तरफ अपनी जगह पर काबिज था तो जगन ने भी उनके बायें तरफ अपनी जगह संभाल रखी थी। मनोहर, सुंदर और श्याम ने आकर अपनी जगह पकड़ी तो हुक्का सुलगाने की कार्रवाई शुरू हो गई। इसके साथ ही छिड़ गया दिनभर की आपबीतियों को सुनाने का सिलसिला, जिसे सुनने के लिए काका दिनभर बेचैन रहा करते थे। दिनभर अखबार पढ़कर थक चुके और खटिया तोड़कर बोर हो चुके कल्लन काका लोगों से दिनभर गांव में हुये रोचक किस्से सुनने के लिए बेताब रहते थे। सुंदर ने गांव के पूरब टोले में सुबह के हंगामे का पूरा विवरण सुनाया कि कैसे झबरू ने ताड़ी चुराते बब्बन को पीट डाला था और फिर इस झगड़े में कैसे दोनों के परिवार वाले भी शामिल हो गये और फिर घंटों टोले में लाठियां पटकाती रही। मनोहर ने बताया कि शहर से आते हुये उसने पास के गांव में शराब के अड्डे पर पुलिस की रेड पड़ती देखी थी। उसकी इस बात को काका ने ऐसे इग्नोर कर दिया जैसे संसद में विपक्ष के हो-हल्ले को अध्यक्ष द्वारा अक्सर कर दिया जाता है। काका जानते थे उनका मैनेजमेंट इतना तगड़ा है कि उनके गांव में पुलिस कभी आएगी ही नहीं। वैसे भी काका के लिए शराब कोई बुरी चीज नहीं थी बल्कि ऐसा जरिया था जो गांव के सभी टोले के युवाओं को एक सूत्र में पिरोये हुये था। काका की नजर में ये वो लिटमस पेपर था जो गांव के दबंग युवाओं को दब्बू युवाओं से अलग करता था। उनके अनुसार असली युवा और गांव का भविष्य वहीं युवा हैं जो रोज शाम को काका के दरबार में आते और प्रसाद ग्रहण करते।
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गांव की कहानियां भले ही काका को खूब रास आती हो लेकिन दिनभर गांव की खाक छानते मोहन को यहां की कहानियों में कोई रूचि नहीं थी। वो हमेशा इंटरनेशनल मुद्दों पर बात करने को बेताब रहता था। हुक्के में तम्बाकू भरते मोहन की बातों को इग्नोर करने की आदत काका को नहीं थी बिल्कुल वैसे जैसे सत्ता पक्ष की स्थिति संसद में होती है। काका की ओर हुक्का बढ़ाते मोहन ने बड़े ही बेलाग अंदाज में कहा- लो काका आज तो हुक्के का मजा दोगुना हो गया, आज तो ओबामा ने भी कह दिया कि अपना देश काफी विकास कर चुका है। अमेरिका से आकर वो हमारे गांव-गांव में टेली-कानफेरेन्सिंग से बाते कर रहे हैं। काका को याद आ गया कुछ साल पहले का वो समय जब अमेरिका के राष्ट्रपति क्लिंटन साहब भारत दौरे पर आए थे और गांव की गोरियों के साथ जमकर नाच-गाना किया था। काका तब मन मसोस कर रह गये थे कि काश उनके गांव ऐसा कोई मेहमान आये और वे भी गोरी मेमो के साथ डांस कर सकें। काका ने एक ट्रायल लिया भी था। अगले साल न्यू ईयर पर उन्होंने पड़ोसी गांव के सरपंच नत्था को न्यौता भिजवाकर बुलवा लिया। लेकिन मेहमान सरपंच जी के साथ आये उनके पियक्कड़ अनुयायियों ने ऐसी धमा-चौकड़ी मचाई कि काका ने उसी वक्त फिर किसी को भी अपने गांव नहीं बुलाने का फैसला कर लिया।
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हां, तो हम फिर लौट आते हैं चौपाल पर! मोहन ने ओबामा की बात छेड़ी तो सबकी निगाहें काका की ओर टिक गई। आखिर गांव में काका ही अकेले अखबार मंगाते हैं और उनसे ज्यादा देश-दुनिया के बारे में जानकारी किसके पास है। सुंदर और मनोहर फुसफुसा रहे थे कि भला इतने बड़े देश का आदमी हमारे यहां क्यूं आया है। अब काका से रहा नहीं गया। चौपाल की इच्छा पर सुओ मोटो लेते हुये काका ने अपनी ज्ञान की पोटली खोली। काका- ऊ, का है न कि उनके यहां मंदी आई हुई है और उनके लोग बेरोजगार होये रहे हैं ना...सो उ इयां नौकरी लेवे के वास्ते आये रहै हैं।
मनोहर से रहा नहीं गया वो बोल पड़ा- यहां की सरकार तो अपने लोगों को रोजगार देने के लिए कुछ करती नहीं, तो उनके लिए का करेगी।
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काका- धत बुरबक, तुम लोग का जानत हो, अतिथि सेवा का होत है? ये ऐसी चीज है जिसके सामने सब फीकी पड़ जाती है। भाई अपने यहां तो संस्कृति रही है कि खुद भले हीं पानी पीकर रह लो लेकिन अतिथि के सत्कार में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। आखिर अतिथि देवता के समान होता है। काका को बरबस याद आ गया...अपनी सरपंची के १० साल पूरे होने पर उन्होंने कैसे आस-पास के गांवों के सभी सरपंचों को न्यौता भेजा था और तब कई दिनों तक गांव में जश्न का माहौल बना रहा था। तब उन्होंने अतिथियों के लिए मुर्गे और दारू की कोई कमी नहीं रहने दी थी और आखिरी दिन विदाई के वक्त उन्होंने सभी अतिथियों को अपने पेड़ से तुड़वाये महूये की ताजी-ताजी शराब की बोतलें गिफ्ट दी थी ताकि अपने गांव वापस लौटकर भी उनपर यहां के आतिथ्य का नशा कुछ दिनों तक बना रहे। गांव के लोग भी जश्न के उन अनमोल दिनों को अबकत नहीं भूल पाये हैं। हफ्ते भर तक गांव में आये देवता रूपी अतिथियों ने अपने धमाल से उनका कितना मनोरंजन किया था। उनके हाथियों और घोड़ों ने कितनों के खेत और बगीचे उजाड़ दिये थे और मनोहर के दो मुर्गे भी तो उन्ही दिनों गायब हुये थे। लेकिन कुछ तो काका के दबदबे और कुछ अतिथि देवो भवः के ऐतिहासिक कहावत ने सबकी जुबान पर ताला लगा दिया था, तभी तो जाते-जाते गांव वालों के आतिथ्य सत्कार की दुहाई देते नहीं थक रहे थे। आज भी तारीफ के उन लफ्जों को सुनकर गांव वालों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है।
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अचानक काका ख्यालों ने निकले- हां तो हम बात कर रहे थे ओबामा के भारत दौरे की। देख भई हमारी सरकार ने उनकी इच्छा को देखते हुये ५०,००० नौकरियों का उपहार उन्हें देने में पूरी तन्मयता दिखाई है। भई अतिथि है कुछ लेकर जाएगा तो नाम ही लेगा। वैसे भी अतिथि देवता के समान होता है। काका के मन में आया कि क्यूं न वे भी इसी तरह का कोई उपहार अपने पड़ोसी गांव के सरपंच को दें। काका के मन के भाव मोहन से छूप न सकें, आखिर वो काका का सबसे ख़ास शागिर्द ऐसे ही नहीं था। मोहन ने तुरंत ही कहा कि क्यों न काका इस साल वेलेंटाइन डे पर मिस्टर औऱ मिस विलेज प्रतियोगिता का आयोजन करवा लिया जाये। इसी में एक पुरस्कार लाइफटाइम अचीवमेंच का रख लेंगे और उसे आस-पास के किसी सरपंच को दे दिया जाएगा। सब खुश रहेंगे। मोहन का ये प्रस्ताव काका को भी खूब यूनिक लगा। इसी बहाने शायद टीवी वाले भी गांव का रूख़ करें और टीवी पर आने का बचपन का उनका सपना शायद इस बार सच हो ही जाये। वैसे इस प्रस्ताव को सुनकर गांव के युवा भी काफी रोमांचित हुये। चौपाल के कोने में बैठा सुरेश तो ख्यालों में ही खो गया। उसे लगने लगा कि भईया की शादी में उनके ससुराल से मिले रेशम के कपड़े को सिलाने का वक्त आ गया है। यह सोचकर वो काफी रोमांचित था कि प्रतियोगिता के दौरान आगे की सीट पर बैठकर मिस विलेज देखने का मजा इस बार मिलेगा। लेकिन उसे याद आया कि आगे बैठने के लिए पास का जुगाड़ कैसे होगा। तभी उसे याद आया कि ताड़ी के दुकान वाले हरिया से उसकी दोस्ती कब काम आएगी, काका का प्रिय मोहन तो रोजाना उसके दुकान पर आता ही हैं।
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चौपाल पूरे शबाब पर थी लेकिन हूक्के की ताव ठंढी होती जा रही थी। काका ने कहा तो भाई आज की चौपाल यहीं अगले दिन तक के लिए एडजर्न की जाती है। कल फिर मिलेंगे, इसी वक्त पर और फिर उठाएंगे गांव और समाज के हित से जुड़े अहम मुद्दों को...जनहित में।

Friday 12 November 2010

भ्रष्टाचार का पेटेंट और कल्लन काका..!

सुबह-सुबह नहा-धोकर जब मोहन घर से निकला तो गाँव के मुखिया और उसके आका कल्लन काका चबूतरे पर बैठे दिखाई दिए। पिछले ४० सालो से गाँव के मुखिया रहे कल्लन काका इस बार विधायकी की कुर्सी पर नज़र गड़ाए हुए हैं. हमेशा भाषण की मुद्रा में दिखने वाले काका को चिंतित मुद्रा में देखकर मोहन से पूछे बिना रहा नहीं गया. काका ने अख़बार में छपी खबर पर नाराजगी जताते हुए कहा कि उन्होंने पूरी जिंदगी गाँव के विकास के लिए आने वाले धन को पचाने में लगा दी और इतने लम्बे अरसे के भ्रष्टाचारी जीवन और भ्रष्टाचार के क्षेत्र में उनकी सक्रिय भूमिका के बावजूद वे कभी पकडे नहीं गए और ये ना जाने आज के कैसे नेता हैं जो रोज पकडे जा रहे हैं? कल्लन काका को याद आने लगा॥न जाने कितनी सड़के, पुलिया, नलकूप, कुएं उन्होंने अपनी खद्दर की जेब में समां लिए, अब तो इसकी गिनती भी उन्हें याद नहीं है और आज तक कोई उनपर उंगली नहीं उठा सका. कल्लन काका को चिंता सताए जा रही थी कि दशकों तक जिस भ्रष्टाचार को उन्होंने अपनी मेहनत से सींचा उसका क्रेडिट कोई दिल्ली का नेता न उठा ले जाये..आज कल रोज-रोज नए नाम अख़बारों में छप रहे हैं. वफादार शागिर्द की तरह मोहन ने उन्हें सलाह दी कि काका क्यूँ न जल्द-से-जल्द भ्रष्टाचार शब्द का पेटेंट करा लिया जाये.
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जैसे भी हो कल्लन काका इतने लम्बे समय के राजनीतिक जीवन में अभी तक अपनी छवि को बेदाग रखने में सफल रहे थे। मजाल है कि गाँव में कोई उनके खिलाफ कुछ बोल सके. गाँव के युवाओं के सामने उनके खिलाफ बोलने का मतलब था अपने लिए मुसीबत मोल लेना. इतने लोकप्रिय थे काका उनके बीच. गाँव का शायद ही कोई युवा हो जो रोज शाम को हरिया की दुकान के पीछे के घेरे में लगने वाले काका के दरबार में न जाता हो. गाँव की नई पीढ़ी के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए काका इन युवाओं को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने देते थे. काका के दरबार में आने वाले लोगों की इक्छाओं को ध्यान में रखते हुए हरिया कभी भी देशी दारु, गांजा, तम्बाकू, ताड़ी आदि का स्टॉक कम नहीं होने देता था. बदले में कल्लन काका की जेब में समाये सड़क, पूल, नलकूप आदि के कई टुकड़े उछलकर हरिया की जेब में पहुँचते रहते थे और उसने भी गाँव के विकास की राशि में से काफी कुछ अपना विकास कर लिया था.
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वैसे युवा पीढ़ी के विकास पर ध्यान देने के अलावा काका गाँव के जातिय समीकरण का भी बखूबी ध्यान रखते थे। अपने टोले के चिंटू को शिक्षा मित्र के रूप में भर्ती कर उन्होंने सबको खुश कर दिया था और कईयों के लिए उम्मीद भी जगा दी थी. तभी तो, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है इस सिद्धांत का सम्मान करते हुए कल्लन काका को अपना खेत लिखते हुए चिंटू के पापा को थोडा सा भी मलाल नहीं हुआ था. हालाँकि चिंटू का पडोसी गब्बन भी इस पद के लिए दावेदार था लेकिन उसकी बीवी राधा को आंगनबारी में सेट कराकर काका ने ये कांटा भी दूर कर लिया. जो कुछ भी पाने में असफल रहे थे उन्होंने भविष्य में कुछ पाने की उम्मीद में चुप्पी का रास्ता अपनाना बेहतर समझा. सामने के महतो टोले के चबूतरे के पास नलकूप लगवाकर काका ने वहां भी सबका दिल जीत लिया था. देश की आजादी के ६० साल पूरे होने पर उन्हें नलकूप मिला था और कुएं से पानी खीचने से मुक्ति मिलने से वे ऐसे ही खुश थे. वैसे ये नलकूप सबसे ज्यादा चबूतरे पर दिन-भर ताश के पत्तो में उलझे टोले के मेहनतकश लोगों के काम आ रहा था. ताश के पत्तो में उलझे हुए जब भी उनका कंठ सूखने लगता, इसी नलकूप के पानी से अपना गला तर कर वे फिर से मैदान में उतरते. वैसे पासवान टोले में भी काका की इज्जत कम नहीं थी. यहाँ के सबसे गबरू नौजवान छेदी के पास हरिया की दुकान में दरबार के लिए ताड़ी भेजने का ठेका था और उसके यहाँ रहते भला कौन काका की शान में गुस्ताखी कर सकता था?
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कुल मिलाकर कहा जा सकता था कि फ़िलहाल काका के राजनीतिक अनुभव का कोई सानी नहीं था और सबको साथ लेकर चलने की अपनी नीति के कारण काका यहाँ के राजनीतिक इतिहास के सबसे बड़े या यूँ कहें की एकमात्र पुरोधा बने हुए थे. सत्ता को एकजूट रखने की अपनी नीति के तहत काका पुलिस-प्रशासन के साथ भी पूरे सामंजस्य से काम कर रहे थे. तभी तो उनके सामने कोई विपक्ष नहीं था. अभी ४ साल पहले की ही तो बात है जब शहर से पढाई पूरी कर लौटे रमेश ने गाँव में विकास के मामले पर उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत की थी. तब अगले ही दिन पुलिस ने उसके घर से अवैध शराब की पेटियां बरामद करते हुए गाँव को एक बड़े खतरे से बचा लिया था और रमेश को अपना जीवन बचाने के लिए वापस शहर भागना पड़ा था. कल्लन काका अपनी इस कर्मभूमि में किसी ऐसे इन्सान को कैसे टिकने दे सकते थे जिससे गाँव की शांति भंग होने का अंदेशा हो. आखिर पूरी जिंदगी भर की मेहनत से उन्होंने यहाँ राम-राज्य स्थापित किया था जहाँ किसी को कोई दुःख नहीं था. जहाँ सब काका के विकासात्मक और कल्याणकारी नीतियों से खुश थे.

Wednesday 6 October 2010

मुगालतों का देश और सुपर पॉवर होने का सपना..!

कॉमनवेल्थ खेलों की रंगारंग ओपनिंग सेरेमनी के बाद देश का दम और दुनिया में भारत की दबंगई का ढोल पीटने वाले लोग इधर काफी मुगालते में जीने लगे हैं. अचानक से देश-दुनिया के तथाकथित सेलेब्रिटी लोगों के बयान अख़बारों में नज़र आने लगे हैं जिनमे कॉमनवेल्थ खेलों की चमक-दमक को भारत की चमक-दमक से जोड़कर राष्ट्रीय गर्व का एहसास कराया जा रहा है. अगर इनपे भरोसा किया जाये तो जो भारत पिछले हफ्ते तक बदइन्तेजामी, भ्रष्टाचार और व्यवस्थागत कमियों के लिए दुनिया भर में आलोचना का शिकार हो रहा था अचानक से सुपर पॉवर जैसा दिखने लगा है. इतना त्वरित चमत्कार कैसे हो गया समझ में नहीं आ रहा?

हजारों करोड़ की लागत से राजधानी में बने आलिशान खेल गाँव और चंद स्टेडियम तथा कुछ वीआईपी इलाकों में चमकती सडकों और सड़क किनारे बनी आकर्षक आकृतियों से आगे बढ़कर अब चलते है शेष भारत के पास जिसको सुपर पॉवर का ये तमगा एक शूल की भांति चुभ रहा है. अजी पूरे देश की बात तो छोडिये जरा खेल गाँव और दक्षिण-मध्य दिल्ली से बहार निकलिए और दिल्ली के पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी इलाकों का नज़ारा कर लीजिये. टूटी-फूटी सड़कें, और कहीं गड्ढों में सड़क तो कहीं सड़क में गड्ढों पर सवारी करती वहां की जनता आपको सुपर पॉवर होने के एहसास की सच्चाई से जरूर रूबरू करा देगी.

देश की व्यवस्था की संवेदनहीनता की तो बात ही मत कीजिये. अभी करीब दो-तीन महीने ही हुए होंगे जब राजधानी दिल्ली के एक केन्द्रीय स्थान पर भीड़-भाड वाले एक सड़क के किनारे एक महिला ने एक बच्चे को जन्म दे दिया था और वही उसने दम तोड़ दिया था. व्यवस्था की संवेदनहीनता और सामाजिक सुरक्षा की कमी पर तब न्यायलय ने कड़ी नाराजगी जताई थी. ये कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती...सुपर पॉवर बनने का दम भरने वाला ये भारत अपने यहाँ के बच्चों के पोषण कुपोषण की क्या बात करे ये भारत अपने देश के भविष्य अपने नौनिहालों को स्कूलों तक लाने के लिए दोपहर के भोजन का लालच देता है. ये देश अपने लोगों को काम की गारंटी साल में १०० दिन की मजदूरी के काम को मुहैया कराकर देता है. मजदूरी की इस मामूली रकम में गबन और फर्जीवाड़े पर देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् की चेयरमैन तक चिंता जता चुकी हैं. खेल पर हजारों करोड़ रुपया लुटाने वाला ये देश वृधावस्था पेंशन के रूप में अपने बुजुर्गों को महीने भर के खर्च के लिए महज दो-ढाई सौ रूपये की रकम देता है. इस देश के पढ़े-लिखे लोगों को न तो रोजगार की गारंटी है और न ही अपनी वृहत आबादी के लिए इसके पास कोई सामाजिक सुरक्षा का व्यवस्थित ढांचा ही है. पारदर्शिता की तो बात ही मत कीजिये..आजादी के ६०-६५ सालो बाद अभी यही चर्चा चल रही है कि देश का सबकुछ जिस राजनीती के हाथों में है उस राजनीति में दागी-भ्रष्ट-घोटालेबाज और अपराधियों को आने से और धनबल और बाहुबल के प्रयोग को कैसे रोका जाये?

जो लोग भी अचानक से देश को सुपर पॉवर समझने लगे हैं उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार से लड़ने का जो मौका अभी देश ने गवां दिया उसकी भरपाई अगले कई दशकों तक उसे करनी पड़ेगी. ये एक ऐतिहासिक मौका था जब देश भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट होकर व्यवस्था में हर स्तर पर शामिल ऐसे लोगों को सुधरने पर मजबूर कर सकता था...जो हमने गवां दिया और बदले में पाया--'सुपर पॉवर होने का मुगालता'..!

Monday 4 October 2010

इंडिया सर ये चीज धुरंधर...

हाल ही में आई फिल्मी पीपली लाइव के गाने की एक लाइन है--
"इंडिया सर ये चीज धुरंधर.."
अब देखिये देश की ये दो तस्वीरें--

पहली तस्वीर-
देश का करोडो-अरबो रुपया फूंककर कामनवेल्थ खेलों का रंगारंग शुभारम्भ कर लिया गया। समाचार चैनलों के हिसाब से देखें तो भारत ने दुनिया को अपना दम दिखा दिया और भी पता नहीं क्या-क्या दिखा दिया है इंडिया ने रंगारंग शुरुआत करके. ।


लेकिन इससे पहले की आप किसी मुगालते में पड़ जाएँ एकबार जरा नीचे की तस्वीर पर भी गौर कर लें।




आसमान की ओर टकटकी लगाये इस किसान की ये कहानी किसी एक किसान की नहीं है बल्कि देश के हजारों-लाखों किसानों की यही कहानी है.
अब खबरों से प्राप्त दो आकड़ों को गौर से पढ़े--
१) दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम के पुनरुद्धार के ऊपर ९६० करोड़ का खर्चा..
२) भारी बारिश-भूस्खलन और बाढ़ से तबाह हो गए उत्तराखंड राज्य को केंद्र की ओर से ५०० करोड़ की मदद..

खबरों से प्राप्त इन दो आकंड़ों पर गौर करें और किसानों का देश कहे जाने भारत और दिल्ली की चकाचौध से अपनी छवि बदलने को छटपटा रहे इंडिया की व्याकुलता के बीच भारत का किसान अपनी स्थिति का अंदाजा खुद लगा ले..

Tuesday 16 February 2010

क्या पूरे भारत को मिल गया रोटी, कपड़ा और मकान?

हमारे यहाँ जनता और उसकी समस्याओं को देखने का चश्मा काफी अलग-अलग नंबर का होता है, इतना ही नहीं इसे देखने वाले भी अलग-अलग वेराईटी के होते हैं तभी हमारा देश विविधता में एकता के लिए दुनिया भर में मशहूर है. आज समाचार पत्र में देश की तकनीकी क्रांति के एक बड़े ही काबिल शख्शियत नंदन निलेकनी जी का एक बयान छपा था...उनकी काबिलियत से प्रसन्न होकर इधर भारत सरकार ने उन्हें देश में रह रहे सभी लोगों को एक एकीकृत पहचान नंबर दिए जाने के अपने अभियान का मुखिया बना दिया है इसलिए उनके बयान पर गौर करना बहुत जरूरी हो जाता है..उन्होंने कहा कि देश के लिए रोटी, कपड़ा और मकान का नारा ६० और ७० के दशक का है और अब पुराना पड़ गया है, इतना ही नहीं देश उसके बाद के दौर यानी कि बिजली, सड़क और पानी के नारे के दौर से भी आगे निकल रहा है और अब देश के लिए नया नारा है- यूआईडी नंबर, बैंक अकाउंट और मोबाइल फोन...जो इससे कदमताल मिलाकर चलेगा अवसर उसी के होंगे...!
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यहाँ ये समझना बहुत जरूरी है कि भारत केवल दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर और अहमदाबाद जैसे शहरों से नहीं पूरा होता बल्कि देश की करीब ७० फीसदी जनता आज भी ६०,००० गांवों में रहती है। इन गांवों का कितना विकास हुआ है ये भी किसी से छुपी नहीं है। देश के विकास के बारे में यहाँ ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है आकड़े बनाने वाले उसकी सच्चाई से भी अच्छी तरह से परीचित हैं। भ्रष्टाचार रुक नहीं सका है, देश को पूरा साक्षर बनाने के लिए हम आज भी जूझ रहे हैं, बच्चों को खाना का लालच दिखा कर भी स्कूल जाने के लिए तैयार नहीं किया जा सका है, गाँव में सडकों की क्या स्थिति है सब जानते हैं, बिजली कभी-कभार ही वहां दर्शन देती है...स्वास्थ्य सुविधाए देने के नाम पर अप्रशिक्षित लोग गाँव के स्वास्थ्य केन्द्रों में तैनात हैं और कुर्सियां तोड़ रहे हैं, लोग अपनी जान जाने के डर से नीमहकीम के यहाँ से दवा लेना पसंद करते हैं लेकिन सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों तक जाना उन्हें गवारा नहीं है. राजनीतिक लोकप्रियता को ध्यान में रखकर राज्य सरकारों ने शिक्षा के स्तर का सत्यानाश कर रखा है...बच्चों को पढ़ाने के लिए ऐसे लोगों को तैनात कर दिया जा रहा है जिन्हें शुद्ध रूप से शैक्षिक तकनीक का कोई पता भी नहीं है इसके बाद जो स्तर बचा भी था वो मिड डे मील के नाम पर बर्बाद कर दिया गया. बच्चों की तो छोडिये शिक्षकों तक का ध्यान स्कूल में बन रहे खाने पर ही लगा रहता हैं ऐसे में लोग पढेंगे और पढ़ाएंगे क्या ख़ाक. इसपर आप सोचते हैं कि बहुत बड़ा बदलाव ला रहे हैं।
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रोटी, कपड़ा और मकान जिन्हें निलेकनी जी ६०-७० के दशक का नारा बता रहे हैं वो आज भी देश की अधिकांश आबादी के लिए सबसे बड़ी चिंता है. रोजगार के लिए और सामाजिक सुरक्षा के लिए आपके पास कोई ढांचा नहीं है...अधिकांश आबादी को पता नहीं की अगले हफ्ते वो क्या खायेंगे. इसके बाद के नारे सड़क, बिजली और पानी की तो अभी बात ही छोड़ दीजिये. गाँव की क्या कहें देश की राजधानी दिल्ली में भी कई ऐसे इलाके हैं जहाँ लोग आधी रात को उठकर पीने के पानी के आने का इन्तेजार करते हैं और गर्मियों का मौसम आते हीं बिजली कटौती से लड़ने के लिए लोग रातभर सडकों पर नाईटवाक् करते हैं. ऐसे में सबको मकान कि तो बात ही छोड़ दीजिये...
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अब रही बात लोगों को यूआईडी नंबर, बैंक अकाउंट और मोबाइल फोन देने की तो शायद ये लाखों और करोड़ों लोगों के लिए अवसरों के द्वार खोलें लेकिन उससे भी ज्यादा लोग ऐसे हैं जिनके लिए अभी पुराने नारे बेमानी नहीं हुए हैं और उनके लिए आज भी इन नए नारों से पुराने नारे ज्यादा जरूरी हैं। देश की सबसे बड़ी बिडम्बना यही है कि देश को देखने और उसके विकास का काम शहरी और एलिट वर्ग के हाथों में है और गाँव का जो प्रतिनिधि राजधानी तक पहुँचता है वह या तो जनता की समस्याओं को उठा नहीं रहा है या वो भी इसी लूट-पाट में शामिल हो जा रहा है और सरकारी खाते और कागजों में हमारा देश, उसकी ग्रामीण आबादी और भूखे-नंगे लोग भी तेजी से तरक्की करते जा रहे हैं और देश को महाशक्ति बनाने के सपने( कई लोग इसे मुगालता भी मानते हैं) में जी रहे हैं.

Monday 8 February 2010

लो पाकिस्तान ने दिखा दी अपनी जात, कर लो अब "अमन की आशा"

इधर अख़बार और टीवी में लगातार एक विज्ञापन दिखाई दे रहा है...अमन की आशा... जो भारत और पाकिस्तान के बीच अमन की आशा जगाने के लिए कुछ अति-उत्साही मीडिया संगठनों के द्वारा चलाया जा रहा है. हमारे देश की संस्कृति में एक खास सीख हमेशा दी जाती है कि सामने वाला चाहे कितना भी बुरा क्यूँ न हो आप उससे हमेशा अच्छे से पेश आओ. इसी रास्ते पर चलते हुए हमने बार-बार मार खाकर भी पाकिस्तान के आगे दोस्ती के हाथ बढ़ाये. संसद पर हमला हुआ तो कई माह तक सेना सरहद पर तैनात कर हम पाकिस्तान से उम्मीद करते रहे कि अब सुधरेगा तब सुधरेगा...फिर मुंबई में जब आतंकियों ने दिन-दहारे कत्लेआम किया तब भी कई माह तक हम पाकिस्तान पर दबाव बनाने की जुग्गत भीडाते रहे और फिर आख़िरकार थक-हारकर बातचीत का प्रस्ताव कर दिया। हमले के बाद के इस एक साल में पाकिस्तान आतंकियों पर अपनी ओर से लगाम लगाने के लिए कुछ करना तो दूर हमारे बातचीत के प्रस्ताव का मजाक ही उड़ाने लगा. आम लोग ऐसा करें तो कुछ बात भी हो लेकिन वहां का विदेश मंत्री तक इस तरह की गैरजिम्मेदारी दिखा रहा है. तो कैसे होगा अमन...क्या हमेशा मार खाकर हम शांति की उम्मीद करते रहेंगे और यूँही हमारी पीठ में छुरा घोंपा जाता रहेगा.

पूरी दुनिया ने देखा कैसे पाकिस्तान से आये आतंकवादियों ने मुंबई में उत्पात मचाया फिर भी आज तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। ९-११ के बाद जिस अमेरिका ने अपनी मन-मर्जी के अनुसार चुन-चुनकर दुनिया के कई देशों और वहां शरण पाए आतंकियों को निशाना बनाया वही अमेरिका लगातार बयानबाजी कर पाकिस्तान के लिए ढाल बने रहा. जो कुछ उससे बचा वह भारत के परंपरागत दुश्मन चीन लगातार पाकिस्तान की पीठ थपथपाकर पूरा करता रहा. हम अमन की उम्मीद लगाये बैठे रहें और उम्मीद करते रहें कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश जरूर कुछ करेंगे. अब भाई कोई और क्यूँ हमारे लिए कुछ करेगा अगर हम अपनी सुरक्षा में हथियार नहीं उठा सकते तो कोई और थोडे ही हमारे लिए लड़ने आयेगा? इतना ही नहीं जब पाकिस्तान के साथ सरकारी तौर पर हमने सारे ताल्लुकात रोक दिए और देश में होने वाले क्रिकेट सीरीज में पाकिस्तानी खिलाडी नहीं चुने गए तब भी अमन पसंद जमात ने हो-हल्ला मचाया और कहते रहे कि सरहद पार सभी लोग आतंकवादी नहीं है. अब जब पाकिस्तान की हुकूमत हमारे वार्ता के प्रस्ताव का मजाक उड़ा रही है तो बताएं हमारे अमन की आशा के सिपाही कि अब क्या करना चाहिए. क्या अमन के लिए सभी भारतीय पाकिस्तान के आगे सर झुका कर खड़े हो जाएँ कि भाई लो जितनो को मार कर शांति मिलती हो मार लो लेकिन अमन की हमारी आरजू जरूर पूरी कर दो...

Friday 15 January 2010

लो नहा लिया गंगा में, कर आये उसे मैला...

लगा ली आज लाखों-करोड़ों ने
गंगा में डुबकी,
धो लिया सबने अपना पाप
और भुला दिया
कल तक की सारी दुशवारियों को भी!
बनारस से लेकर हरिद्वार तक
और इलाहाबाद से लेकर गंगासागर तक
कई दिनों से लोग
कर रहे थे इसी नहान के लिए मश्श्क्कत!
लो हम सफल हुए
अपने इस होली डीप(पवित्र स्नान) में...
लेकिन कई-कई टन फूल-माला भी छोड़ आये हम
अपने पीछे इस गंगा में
जिसकी सफाई के नाम पर अबतक
सरकारें बहा चुकी हैं कई-कई करोड़ रूपये
और जो आज भी बाट जोह रही है
अपनी सफाई की...
वैसे सुना है कि अब सरकारे
फिर सजग होने लगी हैं इसके प्रति
अब होने लगी हैं कैबिनेट की बैठकें
गंगा की धारा पर
तो शायद अब तक हमारी गन्दगी धोती
इस गंगा के
दिन भी अब बदल जाएँ...!

Monday 4 January 2010

क्या दोषी नेताओं का भी पद नहीं छिनना चाहिए...?

हरियाणा के पूर्व पुलिस कप्तान इन दिनों मीडिया की सुर्ख़ियों में हैं. छेड़छाड़ के आरोप में उन्हें महज ६ माह की सजा मिलने के बाद अचानक देश की जनता जाग पड़ी है...मीडिया जाग पड़ा है और इन सबके बाद अचानक सरकार भी जाग गई है. सब कड़ी से कड़ी सजा की मांग कर रहे हैं...अचानक सब न्याय व्यवस्था की सुस्ती पर सवाल उठाने लगे हैं. केंद्र सरकार जाग पड़ी है, राज्य सरकार जाग पड़ी है. सब ने मिलकर उस पुलिस अधिकारी को दिए गए मेडल छीनने की मुहीम शुरू कर दी है. देश के गृह सचिव ने कहा है कि सरकार ऐसी व्यवस्था बना रही है जिसमे दोषी साबित हुए अधिकारियों से उन्हें मिले मेडल आटोमेटिक तरीके से वापस ले लिए जाएँ...क्या यहाँ एक सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि जब दोषी पुलिस अधिकारी से उसका मेडल वापस लिया जा सकता है तो फिर दोषी राजनेता से उसका पद क्यूँ नहीं छीन लिया जाना चाहिए. चलिए मान भी लें कि दोषी और सजायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने पर पाबन्दी है लेकिन क्या उन लोगों को चुनाव लड़ने से रोक नहीं देना चाहिए जो लम्बे समय से जेल की रोटी तोड़ रहे हैं या फिर जिनपर हत्या जैसे गंभीर अपराध के लिए मुकदमा चल रहा हो. या फिर जिनपर दर्जनों मुक़दमे चल रहे हों. या फिर जो चुनाव जैसे लोकतान्त्रिक कार्य के दौरान धन-बल की मदद लेते पाए गए हों..या फिर क्यूँ नहीं ऐसे राजनीतिक लोगों को समाज और देश के जिम्मेदार पद से अलग कर दिया जाये जिनपर भ्रस्टाचार जैसे मामले चल रहे हों.. ऐसे आदमी को कैसे किसी जिम्मेदार पद पर रहने दिया जा सकता है जो अपने अधिकार का गलत उपयोग करते हैं. क्या अधिकारियों को सुधारने के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था में सुधार की भी पहल नहीं होनी चाहिए?

Friday 1 January 2010

स्वागतम २०१०...!


नयी उम्मीदों और नए अरमानों के साथ नए साल का स्वागत है...


नया साल आप सब की जिंदगी में खुशियों का रंग भरता रहे...यही हमारी कामना है