Wednesday 30 January 2008

भाषण की पुरानी शैली अब बोर करने लगी है!

मुझे आज लगता है कि जैसे चिट्ठी लिखने की शैली अब बोरियत वाला काम लगने लगा है वैसे ही नेताओं की भाषण देने की पुरानी शैली भी अब बोर करने लगी है। बहुत साल नहीं हुए, यही कोई १०-१२ साल हुए होंगे जब मैं गाँव में रहता था। उस समय मुझे याद है की मेरे गाँव में उस समय टेलीफोन नहीं हुआ करते थे और अगर था भी तो पीसीओ वाले के पास। उस समय घर से बाहर रहने वाले लोगों के पास चिट्ठी भेजना पड़ता था। एक दिन चिट्ठी लिखिए फिर उसे जाकर ३ किलोमीटर दूर के डाकखाने में डालना होता था। ८-१० दिनों में चिट्ठी पहुंचती थी और फिर अगले ८-१० दिनों बाद उसका जवाब आता था। आगे जब फोन की सुविधा बढ़ी तब ये काम बहुत बोरियत वाला लगने लगा। हालांकि गाँव छोड़ने के बाद भी २-३ सालों तक मैंने चिट्ठी लिखने के काम को अपने परिवार की परम्परा मानकर धोया। लेकिन समय के साथ ये काम बड़ी बोरियत वाला लगने लगा और अब तो चिट्ठी की जगह फोन ने ले ली है . बस मोबाइल उठाया और फ़ोन घुमा दिया। और कर ली बात। और हां चिट्ठी में जो भूमिका होती थी बड़ी मजेदार लगती थी। मैंने अपने बचपन में अपने दादा जी की चिट्ठी से जो भूमिका चुराई थी उसे कुछ sansodhanon के साथ आख़िर तक चेपता रहा।

ठीक इसी तरह भाषण का भी हाल अब बोर करने लगा है। बचपन में १५ अगस्त और २६ जनवरी को मास्टर साहब लोगों और इलाक़े के सज्जन लोगों के भाषण सुनने पड़ते थे। लेकिन लड्डू के चक्कर में वो अखरता नहीं था। आगे जाकर कॉलेज में छात्र नेता लोग कभी-कभी बोर करते थे। वो भी चला। वैसे भाषण से कोई परहेज तो नहीं रहा है मुझे लेकिन जो भाषण का पहला हिस्सा होता है वो श्रीमान, श्रीमती, सज्जनो और भाईयो-बहनो वाला भाग हमेशा से बोरियत वाला लगता रहा है। लेकिन अब जाकर ये भाग काफी झेलाऊ लगने लगा है। मैंने कभी किसी नेता का भाषण सुनने के लिए कोई मुसीबत अब तक नहीं उठाई है। सच कहें तो कभी कोई भाषण सुनने के लिए मैं कहीं गया ही नहीं। लेकिन अब एक पत्रकार के तौर पर कभी-कभी सुनना पड़ता है। हालांकि अपने काम भर ध्यान देता हूँ और बाक़ी सर के ऊपर से जाने देना अच्छा लगता है। लेकिन आज ३० जनवरी को करीब आधे घंटे तक लोगों को लोगों को गांधी जी के बारे में सुनना पडा और वो भी एक आम श्रोता की तरह। वो भी ये जानते हुए की बोलने वालों में से किसी का भी गांधीजी से कोई वैचारिक लगाव नहीं है। आप सोच सकते हैं की कितना झेलाऊ आधा घंटा काटा है मैंने आज। आज एक आम श्रोता की तरह भाषण सुनने के बाद दिन भर में मेरे मन में कई बार ये विचार आया की अब नेता लोगों को भी भाषण का अपना पुराना तरीका बदल देना चाहिए। जब मैं आधे घंटे में इतना बोर हो सकता हूँ तो लोग तो अपने नेता को सुनने के लिए कई-कई घंटे तक इंतज़ार करते हैं और उसके बाद भाषण को सुनते भी हैं। पता नहीं लोगों में इतनी सहनशीलता कहाँ से आती है।

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

सन्दीप, तुम लिखते बहुत ही अच्छा हॊ मेने आज तुम्हारी सारी पोस्ट पढी,बच्चे ऎसे ही लिखते रहो ऎसा लगता हे जेसे तुम से बात कर रहे हो.
धन्यवाद