Wednesday 12 December 2007

नंदीग्राम में वामपंथ का पंथ गायब!

१९६० के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सल बारी में हुए वामपंथी आन्दोलन ने वाम पंथ के लिए एक आईने का काम किया था। उसने समाज को ये दिखाया था कि भारत का वामपंथ अपने पंथ से हट रहा है। उस दौर में बंगाल में मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों ने मध्य वर्ग को विस्वास में लेकर, विशेषकर ग्रामीण आबादी को भरोसे में लेकर पश्चिम बंगाल में सरकार बनाई थी. लेकिन आज नंदीग्राम में चल रही लड़ाई भारत के वामपंथी विचारधारा से ताल्लुक रखने हर आदमी के लिए अहम् है। आज वहाँ चल रही लड़ाई में किसान और आम आदमी जमीन अधिग्रहण के खिलाफ खड़ा है और जो वामपंथी सरकार और वामपंथी पार्टी (सत्ताधारी) है वो उसके खिलाफ लड़ाई के मैदान में है। इस लड़ाई में माकपा को छोड़कर अन्य जो पार्टियां हैं, चाहे वे सरकार में साझेदार ही क्यों न हो माकपा के खिलाफ हैं। लेकिन उन्हें अपनी आवाज इस दर से दबानी पद रही है कि कह इस लड़ाई(sattasangharsh) कि आड़ लेकर माकपा उनकी वाम विचारधारा और वोट बैंक को हाईजैक ना कर ले।

नंदीग्राम में संघर्ष शुरू हुए एक साल होने जा रहा है। वहाँ लड़ाई किसान की अपनी जमीन बचाने को लेकर है। अब नंदीग्राम की लड़ाई एक प्रतीकात्मक लड़ाई बन गई है। ये लड़ाई अब देश के हर उस किसान की है जो औधोगिक इकाई लगाने के लिए किसी भी कीमत पर अपनी जमीन नहीं देना चाहता। मेरे विचार में इस मामले पर एक कानून बनना चाहिऐ। आखिर एक किसान को अपने पुरखों कि जमीन को जबरदस्ती बेचने को मजबूर कैसे किया जा सकता है। अपनी जड़ों को छोड़कर वो कहाँ जायेगा। उसे इस बात का अधिकार होना चाहिऐ कि वो अपने पुरखों कि जमीन को बेचने से इनकार कर सके। इस लड़ाई में दूसरा पक्ष सरकारी मशीनरी है जिनका ये काम है कि वो किसी भी कीमत पर विकास का काम आगे बढाये। अब ये अलग मसला है की सरकारी मशीनरी किस पार्टी के हाथ में है।

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