Monday 12 November 2007

नंदीग्राम के अखाड़े से!

इधर kaii दिनों से नंदीग्राम से लगातार खबरें आ रही हैं। खुद को आम आदमी का शुभचिंतक कहने वाले माकपा के लोग किसानों के खिलाफ लड़ रहे हैं। बड़ी-बड़ी हस्तियाँ उनकी में कूद पड़ी हैं। ममता बनर्जी, मेधा पाटकर, अपर्णा सेन, रितुपर्णो सेन, दबे जबान में कांग्रेस के लोग, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल और ना जाने कौन-कौन। अब लेफ्ट के बाक़ी सहयोगी भी माकपा के खिलाफ बोलने लगे हैं। प्रधानमंत्री तक को कहना पडा है कि स्थिति चिंताजनक है।

राजनीति कि भाषा जो भी कहे , नंदीग्राम के किसानों के लिए ये अस्तित्व कि लड़ाई है। उसके लिए पिछले कुछ महीनों में उन्होने न जाने कितनी जाने गवाईं हैं। जाने अब भी जा रही है। कोर्ट तक को कहना पड़ा कि पानी सर के ऊपर जा रहा है। बंगाल में उन्ही वामदलों कि सरकार है, जिन्होनें गुजरात दंगों के खिलाफ जमकर बवाल काटा था। मोदी को हिटलर और ना जाने क्या-क्या कहा था। आज वामपंथी धरे के वो सारे बुध्धि भी चुप हैं जो गुजरात दंगों पर खुद आगे आकार बवाल कट रहे थे। कोर्ट और ना जाने कहाँ-कहाँ तक गए थे। आज उनको कोई मौत विचलित नहीं करती। क्युकी नंदीग्राम में बह रहे खून से उनकी राजनीति नहीं चमकती। यहाँ लड़ाई का न तो कोई जातिया आधार है, और ना ही सांप्रदायिक। यहाँ कि लड़ाई किसानों कि है। जो अपने अस्तित्व कि लडाई लड़ रहे हैं।

2 comments:

अनुनाद सिंह said...

बौत सटीक कहा है। अब इनके लोकतंत्र की असलियत सामने आ रही है। इनके पाले हुए बुद्धिजीवी मौन हैं। इनका दोगलापन सामने आ चुका है।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सही लिखा है...एक कहावत है "हाथी के दाँत खानें के और दिखानें के और"जो इन पर लागू होती है।