Thursday 25 June 2009

ऐसे तो नहीं मिटेगी गरीबी...हाँ जब तक बिके बेच लो!

ये कोई नयी बात थोड़े ही है, गरीबी तो हमेशा ही बिकती है। राजनीति और फिल्म वाले इसे सबसे सही तरीके से बेचते हैं। एक जमाने में इंदिरा जी ने जमकर गरीबी बेची थी। उन्होंने बस इतना ही कहा था -गरीबी हटाओ और लोगों ने तुरंत विपक्ष को हटा दिया और इंदिरा जी को जीता दिया। चलो वो तो पुरानी बात है। इधर गरीबी की कद्र समझी फिल्मकारों ने. एक ब्रितानी फिल्मकार ने झुग्गी-झोपडी की गरीबी को सजा-धजा कर बाज़ार में उतर दिया और इसके कद्रदानों ने डॉलर में इसकी कमाई कराइ और कमाई को बिलियन में पंहुचा दिया. वैसे अपने यहाँ राजनीती में इस आइटम की खूब डिमांड है. चुनाव लड़ने वाला बंदा भले ही कितना अमीर हो, पर वह यह कभी नहीं कहता कि मैं अमीरों के लिए यह करूंगा और वह करूंगा। वह कहता है कि मैं तो सब कुछ गरीबों के लिए ही करूंगा जी। क्योंकि चुनाव में अमीरी नहीं गरीबी बिकती है। सरकारें देशी-विदेशी हर तरह के सेठों के लिए पता नहीं क्या-क्या करती हैं। पर वह कहती यही है कि हमने तो सब कुछ गरीबों के लिए ही किया। यह योजना भी गरीबों के लिए है और वह योजना भी गरीबों के लिए है।
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पार्टियों के घोषणापत्रों में अमीरी का जिक्र तक नहीं होता। यहाँ भी गरीबी को ही बेचा जाता है। गरीबों के लिए शिक्षा होगी, रोजगार होगा, गरीबों के लिए मकान होंगे, प्लॉट होंगे। लेकिन क्या देश के गरीब को ये सब मिला है। अजी नहीं॥क्यूंकि ये सिर्फ बिकाऊ आइटम है और बिकने वाली चीज सिर्फ बाज़ार में ही अच्छी लगती है.
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कवि दीपक भारतदीप की एक कविता के कुछ अंश आपके लिए रख रहा हूँ---
"शायद बनाने वाले ने गरीब
बनाये इसलिए कि
अमीरों के काम आ सकें
और उनकी गरीबी पर
दिखाई हमदर्दी पर
बुद्धिमान अपना बाजार सजा सकें
इसलिए गरीबी हटाओ के नारे से
गूंजता है धरती और आकाश
गरीब होता दर-ब-दर
पर वह अपना वजूद नहीं खोती!"
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ये कविता हमारे आज की एक सच्चाई है। एक आंकड़े के अनुसार आज भी हमारे देश की करीब ७० फीसदी जनता रोजाना ५० रूपये से भी कम कमाती है. हालाँकि जिन लोगों ने भारत के गाँव और वहां के लोगों की असल जिंदगी को देखा है उन्हें इस आंकड़े पर कभी भरोसा नहीं होगा. क्यूंकि गरीबों को घर देने के तमाम योजनाओं और दावों के बाद भी मेरे गाँव की गरीब बस्ती के अधिकांश घर अब भी घास-फूस के ही हैं. रोजगार देने के तमाम दावो के बीच आज भी ग्रामीण इलाकों से आने वाली रेल गाडियाँ वैसे ही भर-भर कर शहरों की ओर आ रही हैं. शहर से चलकर रोजगार गारंटी योजना गाँव में तो पहुँच गयी लेकिन लोगों को गाँव से शहर आने से रोकने में कामयाब नहीं हो सकी. इस योजना के तहत जो काम बांटे गए वे या तो सड़क निर्माण में मजदूरी करनी थी या फिर इसी तरह का कोई काम. गाँव के पढ़े-लिखे लोगों के लिए शिक्षा मित्र जैसी योजनाये शुरू की गई लेकिन इसे बाटने के काम में लगे लोगों ने इसकी बोली लगानी शुरू कर दी. जिन्हें नौकरी मिली भी उन्हें सरकारी चपरासी से भी कम वेतन पर रखा गया. अगर शिक्षा का अलख जगाने वाले लोग खुद को चपरासी से भी गया-गुजरा समझेंगे तो किस मनोबल से वे अगली पीढी को साक्षर बनाने के लिए काम कर सकेंगे इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं.
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हमारे यहाँ एक राज्य है उत्तर प्रदेश। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक देश में जो भी सरकार बनी है उसमें इस प्रदेश का हमेशा दबदबा रहा है. कई प्रधानमंत्री और असंख्य मंत्री दिए इस प्रदेश ने देश को. लेकिन अब भी इस प्रदेश के एक इलाके बुंदेलखंड से गरीबी और भूख से हुई मौतों की करुण कहानी सामने आती रहती है. हमारे देश की मीडिया ने गरीबी के लिए कालाहांडी को एक प्रतिक के रूप में सामने रखा. करीब १० साल पहले की बात है जब कालाहांडी में भूख हुई मौत ने पूरी दुनिया की मीडिया में अपनी जगह बनाई. लेकिन क्या इन दस सालों में इस व्यवस्था ने कालाहांडी की तस्वीर बदलने के लिए कुछ किया. उल्टे इस देश में रोज नए-नए कालाहांडी पैदा हो रहे हैं.
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हम बात कर रहे थे उत्तर प्रदेश की। वहां की स्थानीय सरकार से जुड़ी एक खबर आज एक अख़बार में छपी हुई थी. गरीबो और पिछडों के कल्याण के नाम पर सत्ता में आई यहाँ की सरकार और इसकी सुप्रीमो ने राज्य की राजधानी में जमकर मूर्तियाँ लगवाया. पार्टी के संस्थापक, वर्तमान अध्यक्ष या पार्टी सुप्रीमो कहें और पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तियाँ लगाने के नाम पर इस राज्य में करोडों रुपया खर्च किया गया. पहले वर्णित दो महानुभावों की मूर्तियाँ लगवाने में करीब 6.68 करोड़ रुपये का खर्च आया. तीसरे महानुभाव यानि की पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी जी की संगमरमर की ६० मूर्तियों पर भी करीब ५२ करोड़ रुपया खर्च किया गया. विकास के प्रति संवेदनशीलता के साथ लगे हुए इस प्रदेश ने पूरी म्हणत से काम किया है. प्रदेश के सांस्कृतिक विभाग का साल 2009-10 का बजट बताता है कि 2008-09 में विभाग ने 'महान नेताओं' की प्रतिमाओं को बनवाने के लिए 194 करोड़ रुपये से भी ज्यादा आवंटित किए हैं। और ये सब पैसा खर्च किया जा चुका है।
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वैसे ये पैसा गरीबी ख़तम करने पर भी खर्च हो सकता था. क्यूंकि शासन सत्ता का पहला काम ही होना चाहिए कि अपने हर नागरिक को बेसिक सुविधाएँ दे. लेकिन ये कहाँ हो पाया है. मूर्तियाँ नहीं लगेंगी तो गरीब पूजा किसकी करेगा और अगर गरीब ही ख़तम हो गए तो बिकेगा क्या.

3 comments:

Raman Sethi said...

गरीबी एक ऐसा आइटम है जिसपर राजनीति और बिजनेस का खेल हमेशा से चलता रहा है. तभी तो टीवी के एक ऐड में डॉक्टर की पोशाक पहनी महिला पूरे विश्वास से कह पाती है कि अपने बच्चे को साफ़ पानी देना हर मां की जिम्मेदारी है. यानि कि जो मां अपने बच्चे को मिनरल वाटर नहीं दे सके वो अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से नहीं निभा रही.

Udan Tashtari said...

सही कहा आपने!

दिनेशराय द्विवेदी said...

गरीबी पैसा फैंकने से नहीं मिट सकती। वह रोजगार उपलब्ध कराने से मिटेगी। वह व्यवस्था कहाँ है जो बेरोजगारी का प्रतिशत पाँच तक ले आए?