पूरी दुनिया ने शुक्रवार को बाल मजदूर निषेध दिवस मनाया। मीडिया में दिन-भर नूरा-कुश्ती चलती रही. देश भर से बाल-दिवस मनाने के लिए सज-धज कर घर से निकले समाजसेवी लोग और इस मौके पर जगह-जगह आयोजित समारोहों में भाषण देने वाले नेताजी लोग खूब दिखे. इनके फूटेज और बाईट स्पेशल इफेक्ट और म्यूजिक के साथ-साथ सजाकर दिन भर टीवी के परदे पर दीखते रहे. इस दिन की तैयारी में सबको अपना हिस्सा देना था इसलिए एनजीओ वालों ने अपना कर्तव्य निभाते हुए कई जगहों पर काम करने वाले बाल मजदूरों की खबर पुलिस को दे दी और पुलिस वालों ने भी इस दिन अपना कर्तव्य निभाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. कई जगह छापा मारा गया और बाल मजदूर निषेध के नाम पर कई बच्चो को मुक्त करा लिया गया. मीडिया ने इस दिन के लिए कई विशेष स्टोरी बनाके रखी थी. बेबसी-दर्द-मजबूरी-दास्ताँ जैसे कई भारी-भरकम शब्दों और बेबस चेहरों के साथ टीवी चैनलों ने भी इस दिन को खूब सलीके से मनाया. अखबार वालों ने काम करने वाले बच्चों की तस्वीर एक दिन पहले ही खींचकर रख दिया था ताकि इस दिन उनके अख़बार के पहले पन्ने किसी अच्छे से कैप्शन के साथ ब्लैक एंड व्हाइट स्टाइल में ये तस्वीर छप सके. सब मुस्तैद थे और सबने बाल मजदूर दिवस मनाने के लिए अपना-अपना कोटा ठीक तरीके से पूरा किया।
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बच्चों को काम करने से रोकने की इस मुहीम में पूरा सिस्टम एकजूट था। इसका असर मेरे पड़ोस की चाय की दुकान पर भी दिखा. एक दिन पहले जब शाम को मैं चाय की दुकान पर गया तो वहां छोटू को न देखकर मैंने उसके बारे में पूछ डाला. दुकान मालिक ने धीरे से कहा सर जी जहाँ-तहां छापे पड़ें हैं और कई बच्चों को ले गए वे लोग. मैंने बेचारे को २ दिनों की छुट्टी दे रखी है. बेचारा गरीब परिवार से है और इसी काम के सहारे अपना व अपनी माँ का पेट पालता है अब कौन उसे भी और खुद को समस्या में डाले इसलिए मैंने उसे २ दिन के लिए छुट्टी ही दे दी. करीब १०-११ साल के छोटू का चेहरा मेरे जेहन में अचानक उभर आया. रोज आते-जाते न जाने कई बार दिख जाता था. टीवी और अख़बारों में बाल मजदूरी रोकने के विज्ञापन देख कर कई बार मेरे मन में भी आया कि इसकी शिकायत कर दूँ और इसे काम करने से रोकने की वाहवाही ले लूँ. लेकिन आज छोटू की सच्चाई जानकर मुझे अपने फैसले पर ख़ुशी हुई कि अच्छा किया मैंने किसी को नहीं बताया. मुझे नहीं मालूम था कि इतनी नन्ही उम्र में छोटू इतना ज्यादा जिम्मेदार हो चुका है वो. उसे पकड़वाकर मैं अपनी वाहवाही तो करवा लेता लेकिन क्या उसके परिवार का पेट मैं पालता या फिर सरकार उसकी जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले लेती?
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हाँ तो उस दिन टीवी पर दिन भर इस मामले पर बहस-मुबाहिसा चलता रहा. इन मामलों के कई विशेषग्य दिन-भर इस मामले पर बोलते रहे और इस दौरान चेहरे पर विजयी मुस्कान लिए देश के कई हिस्सों से बाल मजदूरों को पकड़वाने वाले समाजसेवियों के चेहरे भी टीवी पर दीखते रहे. नन्हीं उम्र में बच्चों को काम करने से रोकने के प्रबल समर्थक तो हम भी हैं लेकिन इन सब के बीच किसी ने भी ये नहीं बताया कि अगर इन्हें काम से रोक दिया गया तो ये बच्चे कहाँ जायेंगे और इनकी जिम्मेदारियां कौन पूरा करेगा. अगर ये खुद इतने सक्षम होते तो इन्हें काम ही क्यूँ करना पड़ता. क्या देश ने सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई तंत्र विकसित किया है जिसकी दुहाई दे कर हम इन बच्चो को कह सकें कि भई तुम इतनी नन्ही उम्र में काम क्यूँ करते हो. तुम पहले अपनी पढाई पूरी करो और फिर काम में लगना...जिस दिन हम ऐसा कह सकने की स्थिति में होंगे तब हम बाल मजदूर दिवस मनाने के सही हक़दार होंगे और फिर उस दिन छोटू को चाय की दुकान से निकलने की इस मुहीम में हम भी पूरे मन से शामिल हो सकेंगे.
5 comments:
अपने यहाँ की यही सबसे बड़ी कमजोरी है. पश्चिमी देशों की देखादेखी हमने बाल-मजदूरी निषेध दिवस तो मानना शुरू कर दिया लेकिन उससे पहले की जरूरी तैयारियां पूरी करने पर हमारा ध्यान नहीं गया. इन बच्चों को अगर काम करने से रोका गया तो उनका भविष्य क्या होगा किसी टीवी चैनल ने नहीं बताया. उन्हें रेमंड होम और बाल सुधार गृह में रख दिया जायेगा जहाँ से उनके कदम अपराध की तरफ बढ़ जायेंगे और समाज सुधार की जगर समाज को हम गर्त में ले जायेंगे.
ऐसी समस्याएं हम खुद के लिए पैदा करते रहते हैं. जहाँ तक इस समस्या को ख़तम करने का सवाल है तो बिना सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित किये ये कभी पूरा नहीं हो सकता.
हमारे यहाँ दिवस मनाने का प्रचलन बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. हम किसी खास दिन को मनाते हैं और फिर भूल जाते हैं लोगों को उनकी किस्मत पर. हमें ये खबर पढने में मजा आता है कि इतने बच्चे छुडा लिए गए लेकिन हमें इससे मतलब नहीं रहता कि इसके बाद वे बच्चे कहाँ गए.
एक सारगर्भित, विचारोत्तेजक लेख
सामयिक विषय पर एक एक अच्छा लेख..जारी रखिये
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