Tuesday 16 June 2009

मिशन काहिरा और ओबामा का नज़रिया...!

लीजिये इस्राइल ने अमेरिका के अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा द्वारा फलिस्तीन-इस्राइल विवाद के हल के लिए तैयार किये गए रोड मैप का जवाब दे दिया। इस्राइल ने दुनिया के सामने एकतरफा ऐलान कर दिया कि फलिस्तीन राष्ट्र का गठन स्वीकार किया जा सकता है बशर्ते कि उसके साथ सेना न हो, उसका अपने वायुक्षेत्र पर नियंत्रण न हो, किसी तरह की हथियारों की तस्करी संभव न हो. यरुसलम हर हाल में इस्राइल की राजधानी होगी और बस्तियों में कोई बदलाव नहीं होगा तथा शरणार्थियों के मुद्दे पर कोई बात नहीं होगी.
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उधर एक हफ्ते पहले काहिरा में मुसलमानों और अमेरिका के बीच दशकों से परवान चढ़ चुकी नफरत की दिवार गिराने की कोशिश में मानवता, कुरान, सभ्यता और न जाने किन-किन चीजों की दुहाई देने वाले अश्वेत राष्ट्रपति को इस्राइल के इस बयान में इतनी सच्ची नजर आई कि उन्होंने इस्राइल के इस रुख को आगे बढ़ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बता डाला। उन्होंने कहा कि ये समाधान इस्राइल की सुरक्षा और फलिस्तीन की एक राष्ट्र की जायज आकांक्षा को सुनिश्चित करता है. इस बयान के बाद अश्वेत बहादुर का असली चेहरा भी सामने आ गया और अंकारा से शुरू की गई उनकी ये मुहीम काहिरा में अपना रंग दिखा दी. उन्होंने यहूदियों को ये साफ़ सन्देश दिया कि वो मुसलमानों को लाख पुचकारते रहे लेकिन वो खाटी सोच वाले ही हैं जिससे अमेरिका और यहूदियों को अलग नहीं किया जा सकता. चाहे अमेरिकी यहूदी एक बार नहीं सौ सौ बार अमेरिका को आर्थिक मंदी के दलदल में धकेल दें.
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बदलाव कि सीढ़ी पर चढ़कर सत्ता के सिंहासन पर पहुँचने वाले ओबामा ने आते ही संकेत दे दिया कि वह परिवर्तन सिर्फ देसी मामलों में ही नहीं विदेशी नीति में भी चाहते हैं। उन्होंने मुस्लिम दुनिया में बदलाव लाने को प्राथमिकता देते हुए इसलामपरस्त और धर्मनिरपेक्षवाद का अखाडा बने तुर्की की संसद को संबोधित किया. उन्होंने तुर्की के राष्ट्रपति, जनता, तुर्की की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की भूरी-भूरी प्रशंसा की और साथ हीं दुनिया से जुड़े कई अहम् मुद्दे पर बेबाकी से अपने विचार रखे. जाहीर है कि यहाँ तुर्की की सीमा से लगे दुनिया के सबसे पुराने और गंभीर फलिस्तीन-इस्राइल विवाद को कैसे भूल सकते हैं. उन्होंने इस मसले के हल के लिए बुश द्वारा तैयार किये गए रोडमैप अनापोलिस को पुरजोर तरीके से लागू करने कि वकालत की.
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बदलाव के इस झंडे को दूसरी बार उन्होंने काहिरा विश्वविद्यालय में गाड़ना बेहतर समझा। क्यूंकि फलिस्तीन-इस्राइल विवादित मुद्दे की सीमा काहिरा को भी छूती हैं. जहाँ दुनिया को सन्देश देने के साथ साथ इस्राइल को धमाकेदार आवाज़ में अपने रोड मैप की जानकारी दी जा सकती थी. अपने इस ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने ६ बिन्दुओं पर प्रकाश डाला जो अमेरिका और मुसलमानों के बीच खाई का कारण बने हुए हैं. उन्होंने इस मसले को हल करने के लिए एक-दूसरे को समझने तथा अपनी गलतियों को अहसास करने पर बल दिया. उन्होंने दोद्नो समुदायों से पुरानी बातें भूल कर नया अध्याय लिखने का आह्वान किया. हालांकि नया अध्याय लिखने और बदलाव जानकारी बात करने वाले ओबामा ने दुनिया के सबसे गंभीर मुद्दे को पौराणिक परिवेश को सामने रखकर संबोधित किया. उन्होंने कहा कि इस जमीन पर यहूदी राष्ट्र की स्थापना जानकारी बुनियाद इतिहास में छुपी है इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. लेकिन ओबामा बहादुर को फलिस्तीनी अरब(जो मुस्लमान नहीं हैं) के इतिहास के बारे में या तो पता नहीं है या तो यहूदी दोस्ती में सच्चाई कहने से भाग रहे हैं. उन्होंने फलिस्तीनी शरणार्थियों की रोजमर्रा की परेशानियों के लिए इस्राइल को जिम्मेदार तो ठहराया लेकिन इसका हल क्या है इसपर कुछ भी कहने से परहेज किया. उन्होंने हमास जिसको वहां जानकारी जनता का पूरा समर्थन हासिल है लेकिन अमेरिका उसे आतंकवादी संगठन के आलावा कुछ मानने को तैयार नहीं है. उसे भी ये सन्देश देना नहीं भूले कि हमास जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझे?ओबामा ने इस्राइल और फलिस्तीन के लिए अलग-अलग राष्ट्र की स्थापना की जोरदार ढंग से वकालत की लेकिन यह कैसे संभव है कि इसपे चुप्पी साधे रहे. अंकारा में अनापोलिस की दुहाई देने वाले ओबामा ने काहिरा में इसका जिक्र भी करना उचित भी समझा.
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ओबामा ने अपने ऐतिहासिक भाषण में इरान के परमाणु कार्यक्रम पर चिंता जताई और कहा कि अगर इसे रोका नहीं गया तो क्षेत्र में परमाणु हथियार बनाने की होड़ लग जायेगी। कुछ हफ्ते पहले इस्राइल के पास २०० परमाणु बम है का खुलासा करके पूरी दुनिया को चौंका देने वाले ओबामा प्रशासन ने यहाँ इस्राइल को नसीहत देना तो दूर की बात उसपर मुंह खोलना भी मुनासिब नहीं समझा.
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इन बातों से साबित होता है कि मुसलं दुनिया और अमेरिका के बीच दोस्ती बढ़ने के इस अभियान की आड़ में ओबामा महाराज यहूदी राज्य स्थापित करने की मुहीम छेड़ राखी है वर्ना कोई भी इमानदार आदमी नेतान्याहू के एकतरफा बयान को इतने जोरदार ढंग से स्वागत नहीं करता। परिवर्तन का नारा देने वाले इस नेता भी मानवाधिकार के इस मुद्दे को धार्मिक चश्मे से ही देखने की कोशिश की. पूरी दुनिया को मानवधिकार का सबक सिखाने वाला अमेरिका जिस तरह से अबतक इस मुद्दे को धार्मिक दृष्टिकोण से देखता रहा है ठीक उसी अंदाज से ओबामा भी देख रहे हैं. लिहाजा उनकी ईमानदारी पर सवालिया निशान उठाना स्वाभाविक है और ये सही है कि मुस्लिम देशों में आज भारत, अमेरिका जैसी धार्मिक आज़ादी है और न ही विचार व्यक्त करने कि अनुमति. इसपर ओबामा द्वारा सुझाई गई बातों पर मुसलीम शासकों को संजीदगी से गौर करना होगा. आखिर दूसरों से अधिकार मांगने वाले मुस्लिम देश अपने देश के दूसरे मजहब के लोगों के साथ वो व्यवहार क्यूँ नहीं करते हैं जैसा इसलाम में बताया गया है.-----यहाँ ओबामा साहब आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आपने कहा था कि ताली एक हाथ से नहीं बजती लेकिन आपने नेतान्याहू के बयान को बेसमझे समर्थन देकर जिस पहल की शुरुआत की थी शायद उसका गला ही घोंट दिया.
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लेखक: अजवर सिद्दीकी
(लेखक युवा पत्रकार हैं और मुस्लिम जगत में हो रहे परिवर्तन पर पैनी निगाह रखते हैं)
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