Wednesday 10 June 2009

नक्सलबाड़ी से आगे...ब्रांड नक्सलवाद!

नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ नक्सलवादी आन्दोलन अब बंगाल तक ही सीमित न होकर एक देशव्यापी समस्या बन चुका है। नक्सलवाद को एक वाद के तौर पर और किसानों और गरीबों की लड़ाई के तौर पर पेश करने वालों के लिए इस सप्ताह में इस विषय से जुडी चंद ख़बरों के शीर्षक यहाँ पेश कर रहा हूँ-
१) उडीसा में नक्सलियों ने २ थानों और एक पुलिस चौकी उडाई।
२) झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में नक्सली हमले में दस पुलिसकर्मी शहीद।
३) छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों के हमले में सीआरपीएफ के असिस्टंट कमांडंट शहीद तथा पांच अन्य जवान घायल।
४) महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पुलिस मुठभेड़ में दो नक्सली ढेर।
ऐसे ही न जाने कितनी ख़बरों के साथ आये दिन नक्सली ख़बरों में छाये रहते हैं। नक्सलवाद शब्द और उसके वर्तमान स्वरुप को लेकर तमाम तर्क रखे जा सकते हैं. उन्हें देखने का लोगों को नजरिया भी अलग-अलग हो सकता है. लेकिन देश का वो हिस्सा जो इससे पूरी तरह अनजान है वो नक्सलवाद को एक बड़े खतरे के रूप में देखता है. कल ही किसी समाचार पत्र में खबर छपी थी कि नक्सलवाद अब एक आन्दोलन नहीं बल्कि संगठित रंगदारी व्यवसाय बन चुका है और देशभर में इसका बाज़ार १५०० करोड़ का हो चुका है. देश के अधिकांश राज्य में अपराधी इस खोल को ओढ़कर अपना व्यवसाय चला रहे हैं.
१९६० के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन किसानों के हक़ की लडाई का पर्याय बन कर उभडा था तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक दिन ये आन्दोलन एक व्यापार का रूप ले लेगा। चारू मजुमदार और कानू सान्याल ने इस आन्दोलन को इसलिए शुरू किया था ताकि किसानों का संगठन तैयार हो सके और उन्हें जमींदारो और साहूकारों के खिलाफ एक मंच मिल सके, उनकी आवाज सुनी जा सके. वो न हो सका. एक दशक तक सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन फिर ये आन्दोलन अपने रास्ते से भटक गया. स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि इसे पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने ही ७० के दशक में दबा दिया. विभिन्न प्रदेशों के जो युवा वहां सक्रीय थे सरकारी दमन के कारण एनी राज्यों की ओरे चल पड़े और नक्सलवाद का बीज कई राज्यों में फ़ैल गया. हर जगह इस आन्दोलन के फैलने के कई कारण थे. कहीं क्षेत्रीय असमानता तो कहीं गरीबी की चाशनी में लपेट कर इसे पेश किया गया. पुरानी पीढी जबतक रही ये आन्दोलन कमोबेश अपने रास्ते पर चलता रहा. लेकिन कहते हैं न कि जब भी ताकत सिस्टम पर हावी होने लगता है तो फिर निरंकुशता अपना रास्ता बनाने लगती है. यही इस आन्दोलन के साथ भी हुआ.
शुरुआत में आन्दोलन को जिन्दा रखने के नाम पर और जमींदारों और साहूकारों से रक्षा के नाम पर किसानों से वसूली होनी शुरू हुई और फिर धीरे-धीरे ये प्रोटेक्शन मनी का रूप लेता गया। नक्सलबारी से निकल कर इस वाद ने पहले उन क्षेत्रों में अपनी जड़े जमानी शुरू कि जहाँ शासनतंत्र की पहुँच कम थी. बंगाल से निकलकर जब ये आन्दोलन बिहार पहुंचा तब इसके खिलाफ भी कई संगठन तैयार हुए. बिहार में आकर इस लड़ाई ने पहले तो जातीय रूप धरा और फिर इसे कई विरोधी संगठनों के विरोध का सामना भी करना पड़ा. इस लड़ाई की आग में बिहार करीब दो दशकों तक जलता रहा. उडीसा, आंध्र और महारष्ट्र में इसे फलने-फूलने का खूब मौका मिला. कहीं कोई संगठन नहीं, कहीं कोई विचारधारा नहीं. एक वाद का मुखौटा पहने नक्सलवाद अपराध को जायज ठहराने का एक जरिया बन गया.
(( देश के एक लोकप्रिय समाचार पत्र में नक्सलवाद पर एक स्टोरी छपी थी जिसके अनुसार ब्रांड नक्सलवाद रंगदारी और वसूली जैसे संगठित अपराध को छुपाने का एक जरिया बन चुका है। आप भी इस खबर को पढ़ सकते हैं...

रंगदारी व्यवसाय बना नक्सलवाद, 1500 करोड़ का साम्राज्य

जन आंदोलन से शुरू हुआ नक्सलवाद अब लेवी के रूप में 1500 करोड़ का संगठित रंगदारी व्यवसाय बन गया है। पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा अधिकारियों ने कहा कि भाकपा (माओवादी) खासकर इससे जुड़े समूह रंगदारी से जो रकम हासिल करते हैं उसका इस्तेमाल वे आंदोलन चलाने के लिए नहीं, बल्कि अपने नेताओं की ऐशो-आराम वाली जीवनशैली को बरकरार रखने के लिए करते हैं।
विभिन्न अभियानों के दौरान केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों और राज्य पुलिस द्वारा जब्त किए गए नक्सल साहित्य और दस्तावेज से नक्सली समूहों द्वारा वसूली जाने वाली लेवी के बारे में विस्तृत खुलासा हुआ है जिसका हर साल का आंकड़ा करोड़ों रुपये का है। भाकपा (माओवादी) हालांकि झारखंड में अब भी प्रमुख नक्सली समूह है लेकिन अन्य भी बहुत से छिटपुट समूह हैं जिन्होंने अपहरण, लूटपाट और मादक पदाथरें की तस्करी के अलावा लेवी लगाने का काम शुरू कर दिया है। इसके तहत राज्य से सालाना लगभग तीन अरब रुपये की वसूली होती है। यदि नक्सलवाद से सर्वाधिक प्रभावित सात राज्यों तथा लाल गलियारे के रूप में जाना जाने वाले झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र से लेवी के जरिये हासिल होने वाली रकम के बारे में सुरक्षा एजेंसियों के आंकड़ों पर भरोसा किया जाए तो सालाना लगभग 1500 करोड़ रुपये की आमदनी बैठती है।
सुरक्षा बलों द्वारा बरामद किए गए दस्तावेज से नक्सलियों की आय के बारे में खुलासा हुआ है जिनमें ठेकेदारों, पेट्रोल पंप मालिकों तथा भूस्वामियों से वसूली जाने वाली लेवी राशि के सही आंकड़े स्पष्ट दिखाई देते हैं। सड़कें बनाने की परियोजना में जहां आम तौर पर 10 फीसदी लेवी वसूली जाती है वहीं छोटे पुलों और अन्य परियोजनाओं के मामले में पांच प्रतिशत लेवी वसूल की जाती है। तय लेवी के अलावा वाम विचारधारा वाले चरमपंथी समूह क्षेत्र में काम करने वाले उद्योगपतियों से भी धन की मांग करते हैं। इतना ही नहीं, वे वसूले गए धन के लिए रसीद भी जारी करते हैं। सीआरपीएफ के उप महानिरीक्षक (झारखंड) आलोक राज ने बताया कि राज्य में वाम विचारधारा से जुड़े छह चरमपंथी समूह काम कर रहे हैं जिनमें से पीपुल्स लिबरेशन फंट्र ऑफ इंडिया ज्यादातर अपराधियों से बना है। इस समूह को पहले झारखंड लिबरेशन टाइगर्स कहा जाता था। उन्होंने कहा कि ये समूह लंबे समय तक विचारधारा के लिए नहीं बल्कि रंगदारी के लिए काम करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि धन के लिए सिर्फ नक्सली ही ठेकेदारों से संपर्क नहीं करते बल्कि कुछ मामलों में ठेकदार खुद धन के साथ नक्सलियों से संपर्क साधते हैं।
झारखंड के पुलिस महानिदेशक वीडी राम ने कहा कि कुछ मामलों में देखने में आया है कि ठेकेदारों ने अपने द्वारा बनाई गई सड़कों को विस्फोट से उड़वाने के लिए नक्सलियों से खुद संपर्क किया क्योंकि उन्होंने सड़क बनाने में घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया था। ऐसे ठेकेदारों का मानना होता है कि यदि उनके द्वारा बनाई गई सड़कों को नक्सली उड़ा देंगे तो उनमें लगाई गई सामग्री की गुणवत्ता की कोई जांच नहीं हो पाएगी। अधिकारियों ने कहा कि माओवादी नेता सभी तरह की आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं। हालांकि वे अपने संगठन में दूसरों के बच्चों की जबरन भर्ती करते हैं लेकिन उनमें खुद के बच्चे अच्छे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। माओवादी पूवरेत्तर राज्यों के विद्रोहियों की तरह ग्रामीणों को अफीम की खेती करने के लिए भी उकसाते हैं।))

No comments: