Wednesday 24 June 2009

लो भई, फिर आ गया स्वयंवर का जमाना!

किसी महान आदमी ने कहा था कि इतिहास खुद को दोहराता है। हिंदुस्तान की सरजमीं पर इतिहास एक बार फिर पूरा एक चक्कर लगाकर वहीँ पहुँचने वाला है जहाँ से उसने प्राचीन काल में अपनी यात्रा शुरू की थी. हम बात कर रहे हैं स्वयंवर प्रथा की जिसे आर्यों ने शुरू किया था और जिसके बल पर महिलावादी लोग आर्य संस्कृति को महिला अधिकारों के मामले में स्वर्णकाल ठहराते नहीं थकते. चलिए इससे पहले कि हम मुद्दे से भटके... आ जाते हैं अपने मूल मुद्दे "स्वयंवर" पर.
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जहाँ तक मुझे याद है तो हमने कभी स्वयंवर नाम की किसी वस्तु को नहीं देखा। वो तो बचपन में रामायण और महाभारत सीरियल में देखकर जानकारी मिली थी कि स्वयंवर एक प्रकार की विवाह की विधि है जिसमें लड़की अपने लिए दुल्हे का चयन लाइन में खड़े असंख्य लड़कों (लड़के भी कोई ऐरे-गैरे नहीं बल्कि सर्वगुन्संपन्न हुआ करते थे) में से करती है. प्राचीन काल में ऐसा करने का मौका केवल बड़े राजा-महाराजाओं की बेटियों को ही मिलता था. फिर जैसा कि टीवी सीरियल्स के माध्यम से जान सका हूँ- कि मध्ययुग में राजकुमारी संयोगिता के लिए भी स्वयंवर रचा गया. आगे चलकर विवाह के लिए तमाम तरह के नए तरीके प्रचलन में आ गए और फिर स्वयंवर नामक सिस्टम आउट ऑफ़ फैशन हो गया.

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फिर आजाद भारत में विवाह नामक पध्द्ध्ती ने नया रूप लिया। उस दौर की फिल्मों से पता चलता है कि शादियों के लिए लड़के के घर वाले लड़की देखने जाते थे और लड़की की तो बात ही छोड़िये लड़का तक अपनी शादी की बात पर शरमा जाता था. तब के मां-बाप बड़े शान से कहा करते थे अजी लड़के-लड़की से क्या पूछना जब हमने हाँ कर दी तो वे ना थोड़े ही कहेंगे. लेकिन आगे के दशकों में मां-बाप की यही स्थिति नहीं रही. लड़के बोल्ड हुए और उन्होंने शादी के लिए लड़की देखने का बोझ मां-बाप के कंधो से उतारकर खुद अपने ऊपर ले लिया. कुछ समय तक मां-बाप निर्णय लेने की अपनी शक्ति छीन जाने की बात ये कहकर छुपाते रहे की भई पढ़ा-लिखा लड़का है लड़की के मामले में एक बार उसकी भी राय ले ली जाये. लड़कों के बाद बोल्ड होने की बारी थी लड़कियों की. शहरी लड़कियों ने इस मामले में अग्रदूत की भूमिका निभाई और आत्मनिर्भरता के साथ ही लड़कियों ने शादी के मामले में अपनी राय को दबाना छोड़ दिया. इसका असर टीवी के माध्यम से आम घरों में भी पहुंचा. वहां भी अब लड़कियों से उनके होने वाले रिश्तों के बारे में राय ली जाने लगी. २१वी सदी शुरू होते-होते समाज के एलिट वर्ग ने शादी-व्याह के मामले में काफी हद तक पश्चिमी समाज के तौर-तरीको को आत्मसात कर लिया था. इस समाज के लिए शादी-व्याह और तलाक़ तक एक ही सिक्के के दो पहलू बन चुके थे. लेकिन जैसा की प्राचीन काल में स्वयंवर जैसी बोल्ड प्रथा केवल उच्च यानि की एलिट वर्ग तक ही सिमित थी उसी तरह अब भी मध्य वर्ग शादी-व्याह को लेकर काफी प्राचीन मान्यताओं को जारी रखे हुए था. शादी-व्याह उसके लिए अब भी एक धार्मिक रीति-रिवाज से जुडी हुई एक प्रथा थी और उसे जीवन भर निबाहना उसकी जिम्मेदारी थी.

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वक्त अपना कदम आगे बढ़ता है और इतिहास एक करवट लेता है. एक बड़े स्वयंवर की तैयारी शुरू होती है. हमेशा ख़बरों में रहने वाली एक टीवी अदाकारा इसकी जिम्मेदारी लेकर आगे आती है. स्वयंवर में उसके हाथों अपना वरन करवाने को उत्सुक लोग सामने आने लगते हैं. लेकिन अब का समय प्राचीन काल जैसा नहीं है और बदले हुए समय के अनुसार लोग इसे व्यावसायिक नज़रिए से देखते हैं. वैसे ये गलत भी नहीं है. ऐसे समय में जब एलिट समाज के कुछ लोग बच्चे के जन्म से लेकर मौत तक को ऑनकैमरा करना पसंद करने लगे हैं तो स्वयंवर जैसी अद्भूत चीज को लेकर ऐसा प्रयोग क्यूँ नहीं किया जाये. जल्द ही ये स्वयंवर टीवी के परदे के माध्यम से लोगों के ड्राइंगरूम तक पहुँचने वाला है और लोग उत्सुकता में इसे देखेंगे जरूर. लेकिन ये भी सच है कि लोग अभी भी इस असमंजस में हैं कि क्या ये सच्ची में होने वाला है. अब कल क्या होने वाला है ये तो कोई नहीं बता सकता लेकिन इतिहास की इस करवट को देखने के लिए कुछ इंतजार करना होगा...दिल थाम के रहिये और देखिये-- नयी बोतल में प्रस्तुत पुरानी शराब को...

3 comments:

Nikhil ranjan said...

aji shubh kaam mein der kis baat ki. lekin dekhna ye hoga ki ye kahin tamasha bankar na rah jaye.

Udan Tashtari said...

देखो, किस दिशा में जाता है सब कुछ!!

निर्मला कपिला said...

्राखी के तमाशे को इतनी गम्भीरता से ना लें तो सही है स्वयंबर तो दूर गावों मे अभी भी रिश्ते लडकियों की मर्ज़ी के बिना होते है और इसे अगर गम्भीरता से सोचें तो समाज की बरबादी के लिये इस से बडा काम कोई नहीं होगा अच्छा है ये राजा महाराजाओं तक ही सीमित रहा ----खैर पोस्ट बहुत अच्छी लगी आभार्