Sunday 24 February 2008

क़ानून असफल होगा तो सफल होगा ही भीड़तंत्र!

एक ही दिन यानी की २३ फरवरी को दो खबरें आई। दिल्ली में 'जुडिसिअल रीफोर्म' (न्यायिक सुधार) पर एक सम्मेलन में राष्ट्रपति ने कहा की देश में लंबित पड़े मामलों की सुनवाई के लिए जरुरी है की न्यायिक सुधार हों। ठीक इसी दिन बिहार के हाजीपुर में भीड़ ने हत्या के आरोप में पुलिस हिरासत में बंद आरोपी को खीचकर मार डाला। इस तरह के कई मामले समय-समय पर सामने आते रहते हैं जब लोग न्याय मिलने में देरी को पचा नहीं पाते और ख़ुद न्याय करने पर उतारू हो जाते हैं।

कुछ सालों पहले इसी तरह के एक मामले पर बनी फ़िल्म गंगाजल काफ़ी मशहूर हुई थी। जो बिहार के भागलपुर में दो दशक पहले हुए भीड़तंत्र के न्याय पर बनी थी, इसके बाद इस मामले पर देश में काफ़ी बहस हुई थी। तमाम लोगों ने इसपर अपनी राय दी। जहाँ तक मुझे याद है तो महाराष्ट्र के अकोला में एक गुंडे के आतंक से परेशान होकर महिलावों ने ख़ुद ही क़ानून अपने हाथ में लिया। क़ानून और न्यायपालिका के लिए इस तरह के सवालों का जवाब देना उतना आसान नहीं है की क्यों लोगों को समय पर न्याय नहीं मिल पा रहा है। हर मामले में कुछ न कुछ अपने-अपने कारण होते हैं। लेकिन लोगों को न्याय चाहिए और समय पर चाहिए। और उसके लिए लोग अपने बचाव के लिए भीड़ का सहारा लेते हैं। और न्याय के नाम पर भीड़ को भड़काना वैसे भी मुश्किल काम नहीं है। इस कारण लोगों का ये प्रयास अक्सर सफल होता है। भारत की जनता वैसे भी काफ़ी भावुक मानी जाती है।

देश में हालांकि इस समस्या के निदान के लिए तरह-तरह के कदम उठाये जा रहे हैं। जैसे गुजरात ने शाम में न्यायलय का काम शुरू कर लंबित पड़े मामलों को निपटाने के लिए नई पहल की है। वैसे ही कई अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या बधाई जा रही है ताकि लोगों को समय पर न्याय मिले और लोग भीड़ का हिस्सा बन ख़ुद न्याय करने पर मजबूर ना हों। कई बार भीड़ तंत्र का इस्तेमाल लोग अपना निजी हित साधने के लिए करते हैं। एक बार फ़िर मैं हाल में आई फ़िल्म हल्ला बोल का उदाहरण देकर समझाने का प्रयास करूंगा। फ़िल्म में अपनी बात कहने के लिए कई बार भीड़ तंत्र का सहारा लेते हुए दिखाया गया है। उसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के मकसद साधने का काम करते हुए दिखाया गया है।..........

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