Wednesday 6 February 2008

देश की राजधानी दिल्ली में ७५,००० भिखारी?

देश की राजधानी दिल्ली में २०१० में राष्ट्रमंडल खेल होने हैं। इसके लिए राज्य सरकार ने अभी से तैयारियां शुरू कर दी है। दिल्ली को लक-दक बनाने के लिए रोज नए-नए प्लान सामने आ रहे हैं। इसके अलावे भी दिल्ली में रोज नयी-नयी समस्याएं पैदा होती रहती है। जैसे बंदरों को पुनर्वासित कर इनके आतंक से लोगों को सुरक्षित करना, या दिल्ली की सड़कों और चौक-चौराहों को भिखारियों से मुक्त कराना। भिखारियों के मामले पर सरकारी अधिकारियों की कई बैठकें हो चुकी है। और जो परिणाम बैठकों के बाद निकला है उसपर ४ फरवरी को हिन्दुस्तान टाइम्स में एक खबर छपी थी। जिसके अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में ७५००० भिखारी रहते हैं। और उनके लिए राजधानी में ११ पुनर्वास केन्द्र हैं।


अगर देखा जाये तो भीख मांगना कोई सामजिक समस्या नहीं है। इसका किसी जाति या धर्म से कोई नाता नहीं है। कानूनी रुप से भीख मांगना अपराध भले ही हो लेकिन भारत जैसे देश में भीख देना धार्मिक काम माना जाता है। और यही कारण है कि यहाँ के शहरों से लेकर गाँव तक में इस पेशे ने अब संगठित रुप अख्तियार कर लिया है। लेकिन राजधानी दिल्ली में भिखारियों की इतनी बड़ी संख्या हैरान करने वाली लग रही है। क्योंकि देश में सडकों पर रह रहे लोगों खासकर बच्चों के कल्याण के नाम पर सैकड़ों ग़ैर सरकारी संगठन काम कर रही हैं और जाहिर है उनमें से सबसे अधिक संगठनों का ध्यान राजधानी पर ज्यादा होगा। फिर भी इतनी बड़ी संख्या कैसे अब भी इस पेशे से जुडी हुई है।


राजधानी में आज ये एक बड़ी समस्या बन गयी है। आप कहीं भी बाहर निकलते हैं और छोटे-छोटे बच्चे आपको किसी भी सार्वजनिक स्थान पर घेर सकते हैं और आपसे पैसा मांगते हुए आपको अच्छा-खासा जलिल कर सकते हैं। मैंने इन लड़कों को अपने शिकार तक पहुँचने के पहले योजना बनाते हुए देखा है। मांगने वाले लोग पूरे समूह में होते हैं और ज्यादा पैसा देने वाले शिकार की पहचान करने के बाद उसमे से एक अपने काम पर लगता है। और वो सरेआम तबतक उस आदमी के आगे हाथ फैलाना जारी रखता है जबतक की वो आदमी शर्म से बचने के लिए उसे पैसे दे न दे।

देश की राजधानी दिल्ली में रेलवे स्टेशनों के बाहर कई लोग देश के झंडे की छोटी-छोटी तस्वीरें लेकर खड़े रहते है और जैसे ही कोई बाहरी आदमी मिलता हैं उसकी ओर लपक लेते हैं। इससे पहले की वो आदमी कुछ समझे। तीरंगा उसके पॉकेट पर लहराने लगता है। अब होता है उससे किसी स्कूल या किसी आश्रम के कल्याण के नाम पर पैसे मांगने का काम शुरू। और २०-२५ रूपये तक देकर लोग इस जनकल्याणकारी टीम से पीछा छुराने में सफल होकर जल्द से विजयी मुस्कान लिए वहा से आगे बढ़ते हैं। मुझे नहीं समझ में आता की ये कैसी जन कल्याण है।

इस पेशे को ख़त्म करते वक्त एक चीज का ध्यान जरूर रखना चाहिए। जैसे कुछ लोग अगर विकलांगता और अधिक उम्र के कारण इस काम को अपना रहे हैं तो उन्हें इसकी अनुमति देनी चाहिए। लेकिन वो भी खुलेआम सडकों पर नहीं। इसके लिए केवल धार्मिक स्थानों पर ही अनुमति मिलनी चाहिए।

2 comments:

S R I J A N SRIVASTAVA said...
This comment has been removed by the author.
S R I J A N SRIVASTAVA said...

sandip sach mein yeh ek choti si dekhne waali lekin ek bhout badi samasaya..tumhara yeh blog padkar mein sach mein kafi der tak une palo ke bare sochta raha jab mein kai baar sharminda hone ke daar se woh sab karna pada jo shayad mein nahien karta...sach mein kafi accha likha hai...lekin ek sawal pooch sakta hoon, kiya ye kabhi kahatam ho sakta hai..kiya sach mein logo ke haalat yeh sab karatate hai ya baat kuch aur..i m waiting for ur reply.