Sunday 8 March 2009

कौन कहता है कि गाँव वहीँ ठहरे हुए हैं?

हाल ही में गाँव से लौटा हूँ। पिछले कई सालों से एक हफ्ते में लौट आना होता था इस बार पूरा महिना बिताने का मौका मिला इसलिए गाँव को करीब से देखने का मौका मिला. इस बार देखा- गाँव पहले की अपेक्षा काफी बदल गए हैं। पक्की सड़क(हमेशा मरम्मत के काम में मशगुल भी) गाँव-गाँव में बन गयी है, जगह-जगह मोबाइल के टावर लगे दिखे, घर-घर में दोपहिया वाहन और काफी संख्या में चौपहिया वाहन भी(ज्यादातर व्यवसायिक उदेश्य के लिए जिनकी मांग शादी-ब्याह में ज्यादा रहती है) आ गए हैं। गाँव के चौक पर दुकानों की कतार लम्बी हो गयी है. सौंदर्य प्रसाधन से लेकर तरह-तरह के इलेक्ट्रोनिक सामान(ज्यादातर को लोग चाईनीज़ माल बोलते हैं) भी बिक रहे हैं. बिजली रहती नहीं और रौशनी के लिए लोगों ने बैटरी पर चलने वाले तमाम उपकरणों को अपना लिया है. बिजली कम रहने के कारण अभी भी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी कार्यरत हैं. सबसे ज्यादा भीड़ मोबाइल और सीडी की दुकानों पर दिखी. तरह-तरह के भोजपुरी फिल्मों और गानों की सीडी से दुकाने अटी पड़ी है. बाज़ार में घूमते हुए २-३ छोटे बच्चे एक गाना गुनगुना रहे थे, उस समय समझ में नहीं आया. घर आकर पूछा तो मेरा भतीजा जो कि अभी ४ साल का हुआ है उसने वो गाना सुना दिया--गाना कुछ इस तरह था--- "दिन पर दिन दुबराईल जात बारू, दिन पर दिन सुखाईल जात बारू, हईं, हम हईं दिल के डॉक्टर मिलल कर, लव के टॉनिक पियल करअ"... मेरा भतीजा अक्सर इस गाने को गुनगुनाता रहता था। अब पता नहीं ४ साल का लड़का इसका क्या मतलब समझ रहा है?

गाँव के चौक पर दुकानों की कतारों के आखिर में कुछ दुकानों देखी। पता किया वहां देसी-विदेशी दारु मिलती है. तार के पेड़ से निकलने वाली ताड़ी भी कई जगह सजी थी. इसे बेचने वालों के पास दुकाने नहीं हैं वे खुले में बेचते हैं. ये दारु का खर्च न उठा सकने वालों का पसंदीदा पेय है, कई बार लोग टेस्ट बदलने के लिए इसे चखते हैं. लेकिन ऐसा नहीं हैं कि केवल यही पसंदीदा है. दुकानों में कोल्ड ड्रिंक्स भी खूब बिक रहे थे और बच्चों को हर ब्रांड की खबर भी है. हाँ दूध मिलना जरूर कम हो गया है. बचपन में हर घर में गाय-भैंश होते थे, अब इक्का-दुक्का घरो में ही दीखते हैं. लोगों को ग्वाले द्वारा लाये गए दूध पर भरोसा नहीं है और बच्चे उसमें होर्लिक्स मिला कर पी रहे हैं और तंदुरुस्त होने के सपने के साथ जवानी की ओर बढ़ रहे हैं.

मेरे साथ मेरे गाँव का समाज भी जवान हो गया है. बचपन में देखे हुए अधिकांश परिवार टूट चुके हैं. लगभग हर परिवार में नई पीढी ने कमान संभाल ली है. लोग जागरूक हो गए हैं. पीठ पर झोला लादकर स्कूल जाते बच्चे अब भी दीखते हैं लेकिन बहुत सारे बच्चों के पीठ पर झोले की जगह स्कूल बैग ने ले लिया है. स्कूली बच्चे बोरे से उठकर बेंच पर आ गए हैं. बच्चे धुले हुए स्कूल ड्रेस पर टाई लगाकर जाने लगे हैं. मिटटी के घडों की जगह पक्के माकन दिखने लगे हैं हालाँकि अभी भी गाँव के बाहरी इलाकों में बसे काफिघर मिटटी के ही हैं और हर साल बरसात के बाद लिपे जाते हैं. खेती में भी बड़ा बदलाव आ गया है. बैल नहीं दीखते और उनकी जगह ट्रैक्टर और अन्य मशीनों ने ले लिया है. शहर की तरह गाँव में भी क्रिकेट ने गहरी पैठ बनायीं है. बच्चे बर्थडे पर बैट गिफ्ट मांगने लगे हैं और अपने प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री-राष्ट्रपति के नाम उन्हें याद हो न हो देशी-विदेशी क्रिकेट खिलाडियों के नाम उन्हें जरूर याद हैं...ये पिछले एक दशक में आया हुआ परिवर्तन है और अब शायद मैं ये कहने के पहले कई बार सोचूंगा कि गाँव बदलाव की बयार से अछूते हैं और वहीँ के वहीँ रह गए हैं.

2 comments:

अभिषेक आर्जव said...

सच है .....!

संगीता पुरी said...

देश के हरेक गांव के बारे में तो बदलने की बात नहीं कही जा सकती है ... पर कुछ गांवों में तो बदलाव अवश्‍य आया है।