Sunday, 1 February 2009

हमारे तालिबान.उनके तालिबान...

तालिबान क्या है... शायद एक नकाबपोश चेहरा। तालिबान कहे जाने वाले इस कौम का चेहरा बहुत ही कम दिखता है. लेकिन नकाब पहना ये कौम पिछले कुछ सालों में कई देशों में दिखा। ये अफगानिस्तान में दिखा...पाकिस्तान में दिखा और हाल के दिनों में भारत में भी दिखने लगा है. ऐसा मैं नहीं कहता ऐसा हमारी मीडिया कहती है. बेंगलूर में पब में डांस करती लड़कियों की पिटाई की गई. हमला करने वालों ने कहा ये लड़कियां हमारी संस्कृति को तबाह कर रही हैं और हम संस्कृति को बचाने के लिए आगे आए हैं. लड़कियों का कहना है कि ये हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है. इसके विरोध में देश और दुनिया में आवाज उठाई गई. इसपर देश भर में राजनीति भी शुरू हो गई है. इसका विरोध करने वाले हमला करने वाले लोगों को तालिबान के नाम से संबोधित कर रहे हैं. हममे से कई लोग तालिबान शब्द के मतलब को लेकर बँटे हुए हैं. कई लोग अपने इस तालिबान को समाज के हित में मानते हैं तो दूसरे देशों के तालिबान को ग़लत मानते हैं.

जहाँ तक मुझे याद है तो ये शब्द मुझे सबसे पहले अफगानिस्तान के सन्दर्भ में सुनने को मिला था। वहां दशकों तक चले सत्ता संघर्ष में विजेता के रूप में कुछ नकाबपोश लोग दिखने लगें। जैसा कि मैंने सुना और ख़बरों में पढ़ा उन्होंने पूरी सभ्यता को बंधक बना लिया. इसके बाद पाकिस्तान में भी लगातार ये बढ़ता रहा. अफगानिस्तान आने से पहले भी इसकी उपज पाकिस्तान में ही होती हुई दिखी थी. इन दोनों देशों में 'तथाकथित तालिबान' ने कई स्वघोषित कानून लागू किए---लाठी के बल पर. लड़कियों का स्कूल जाना बंद कर दिया गया. उन्हें परदे में रहने का फरमान सुनाया गया. उनपर वो सारी पाबंदियां लागू की गई जो शायद मध्यकालीन समाज के लिए भी स्वीकार्य नहीं कहा जा सकता. पाकिस्तान में पिछले महीनों में स्वात घाटी में कट्टरपंथियों और सरकारी व्यवस्था में घमासान जारी है. कौन हावी होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन फ़िर भी अभी कट्टरपंथी हावी हैं. १०० से ज्यादा स्कूल तबाह कर दिए गए हैं. स्कूलों को साफ़ कहा गया है की लड़कियों को मत पढाये. लोगों को कहा गया है कि अपनी कुंवारी बेटियों की शादी आतंकियों से कर दें वरना गंभीर परिणाम भुगतने को तैयार रहें. इन इलाकों में पुरूष वैसे ही आतंकी गतिविधियों के लिए सुलभ हैं और अब महिलाओं को भी जबरन इसका परिणाम भुगतने को मजबूर किया जा रहा है. वैसे भी किसी समाज में पुरूष और महिला की किस्मत एक दूसरे से जुड़ी होती है.

बेंगलूर की घटना की निंदा करने वाले ऐसा करने वालों को फासीवादी और तालिबान और न जाने क्या-क्या कह रहे हैं. इसका तरीका भले ही ग़लत कहा जा सकता है और इसे रोकना भी चाहिए लेकिन इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि क्या पब संस्कृति को रोका नहीं जाना चाहिए. अगर ये जरूरी नहीं है तो क्यूँ गोवा के बीच पर नए साल के दौरान पार्टी वगैरह पर रोक लगाई गई थी. मुंबई के डांस बार पर रोक क्यूँ लगाई गई. गोवा का स्कारलेट केस क्यूँ हुआ. देश की राजधानी दिल्ली में रोज-रोज पकड़ा जाने वाला नशीला और मादक द्रव्य किसके लिए आता है. जाहीर है कि जितना पकड़ा जाता है उससे कई गुना ज्यादा माल शहर में खप जाता होगा. इन सब कामों में शामिल लोग कौन हैं, हमारे बीच के लोग ही न. इन्हें रोकने का तरीका जरूर बदला जाना चाहिए लेकिन इन्हें रोकने वालों को तालिबान कहना कहीं से भी उचित नहीं लगता. इन्होने न तो लड़कियों के घर से बाहर निकलने पर रोक लगाई है और न ही परदे के भीतर जिंदगी जीने को मजबूर किया है. हा इन्हे रोकने के तरीकों को जरूर बदला जाना चाहिए.

2 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

लेकिन भाई जो लोग लडकियों पर डंडों का प्रयोग कर रहे हैं क्या उन्हें ये डंडे उस व्यवस्था पर नहीं चलाने चाहिए जो पब संस्कृति का पोषण करती है? आख़िर पबों को लाइसेंस किसने दिए हैं? और एक जगह पब को रोक कर ही क्या कर लीजिएगा, जब देश भर में रोज दसियों पब खुल रहे हों?

Udan Tashtari said...

कई नजरिये हैं इन बातों को देखने के..एक यह भी है, जैसे आप देख रहे हैं.