टीवी पर एक विज्ञापन इन दिनों लगातार देखने को मिल रहा है। जागो रे... इसकी लाईने हैं--अगर वोट नहीं कर रहे तो आप सो रहे हैं। ये अभियान पिछले साल राजधानी दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव के समय शुरू किये गए पप्पू अभियान से मिलता-जुलता है. लेकिन सिक्के का एक और पहलू है. आप किसी को पप्पू कह लें और अपने मन को तसल्ली कर लें आपकी मर्जी... लेकिन ये भी तो सोचिये कि लोग अपने मताधिकार का प्रयोग करने की अपेक्षा पप्पू कहलाना क्यूँ पसंद करते हैं. अच्छी बात है अच्छा उद्देश्य है इन विज्ञापनों का...लेकिन ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि बाल मजदूरी रोकने का विज्ञापन है. जिसमें इसे अपराध तो बताया जाता है लेकिन इसका कोई हल भी कोई बताता तो बेहतर होता.
हम-आप में से कई लोग अपने वोट का इस्तेमाल करते ही हैं... और शायद जम्मू-कश्मीर के लोग इस काम में सबसे हिम्मत का प्रदर्शन करते हैं वहां के जो लोग पप्पू कहलाना पसंद नहीं करते उन्हें बम-गोलों का भी सामना करना पड़ता है। शायद हमारे जैसे लोगों के कारण ही पिछले ५० सालों से भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी चल रही है. लेकिन कई अच्छाईयों के साथ-साथ हमारे लोकतंत्र का एक बदरंग चेहरा भी है. जो लोग खुद को पप्पू न कहला पाने के मुगालते में जी रहे है उन्ही के कारण संसद और विधानसभा दागी छवि वाले इंसानों, अपराधियों, हत्यारों और अन्य अवांछित लोगों का सबसे सुरक्षित अड्डा बना हुआ है. अगर इन्हें गैर-पप्पू लोगों ने नहीं चुना है तो किसने चुना है. कोई अपराधी किसी एक के वोट से सांसद-विधायक नहीं चुना जाता. बल्कि कई-एक लाख लोग मिलकर किसी माननीय को चुनते हैं और अगर ऐसे लोग चुने जाते है तो हमारे समाज और उसके सभ्य होने के हमारे मुगालते पर एक करारा तमाचा है.
मैं बिहार प्रान्त से आता हूँ। जब मैं वोट देने का अधिकार नहीं रखता था तब से देख रहा हूँ अपने यहाँ की लोकतांत्रिक व्यवस्था को. मैंने बूथ कैप्चरिंग का दौर भी देखा है. तब वोट मत-पत्रों से डलते थे. उस दौर में मेरे गाँव में चुनाव के दिन शाम को जो भी मिलता अपनी बहादुरी के किस्से सुनाता. मसलन आज दिन में उसने किस तरह से मतदानकर्मियों को उल्लू बनाया और किस चालाकी से वह कई बार वोट डालने में कामयाब हुआ. फिर समय बदला और तकनीक ने हम सभी लोगों को एक मौका दिया है पप्पू बन जाने का. ये भी एक सच्चाई है कि अगर हम व्यवस्था से दूर भागेंगे तो बदलाव कैसे आयेगा लेकिन जो चीज पूरा देश देख रहा है उसे क्या रोका जा सका है. अभी हाल ही में देश की संसद में सरकार बचाने को लेकर पैसे बाँटने(करोड़ो में) का किस्सा सबने देखा, संसद में नोट के बण्डल लहराते भी सबने देखा तो क्या. क्या वे सारे लोग चुनावी परिदृश्य से गायब हो गए. नहीं....
सच्चाई ये है कि हम भले ही पप्पू न कहलाने के मुगालते में रहें लेकिन बदलाव कुछ नहीं आने वाला. अगर ऐसा होता तो चुनाव के दौर में शराब की बिक्री इतनी नहीं बढती और प्रशासन को शराब बाँटने वाले लोगों पर शिकंजा कसने के लिए कसरत नहीं करनी पड़ती. लोगों का मत शराब के पौवे पर तय नहीं होता और अगर हम वाकई सुधरने के लायक होते तो हमारा नेतृत्व और उसकी मांग करने चुनाव में उतरने से पहले लोग कई बार सोचते.हम ये तय भी करते कि हमारा भविष्य तय करने वाला पढ़ा-लिखा भी होना चाहिए और योग्य भी होना चाहिए. हम उसकी जवाबदेही भी तय करते और उससे सवाल करने की हिम्मत भी रखते. और फिर तब हमें पप्पू कहलाने में शर्म भी आती और पप्पू कहलाने से बचने के लिए मतदान केन्द्रों तक पहुचना हमारी मजबूरी भी होती. लेकिन अभी के हालात में अगर हम पप्पू हैं तो कोई बुरे नहीं है...
2 comments:
पप्पू पास होना चाहता है... लेकिन कई समस्याएं हैं... आपका पीस पढ़कर अच्छा लगा...
but pappu can't dance sala...
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