Sunday 5 July 2009

बेकार की बात... बजट से काहे का एक्सपेक्टेशन भाई!

जब से बजट का समय नजदीक आया है इन मीडिया वालों ने नाक में दम कर रखा है। हर अख़बार में, हर समाचार चैनल पर एक ही राग अलापे हुए हैं॥बजट से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं एसएमएस कर बताएं। अरे अब क्या-क्या बताएं और अगर बता ही दिया तो का हो जाएगा। वैसे भी मर रहे हैं और ऐसे भी मरेंगे। दिन भर कमर-तोड़ मेहनत करके का मिलने वाला है। किसी भी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जा रहा है। दिन भर खेतों में पसीना बहाते रहता हूँ और सोचता हूँ कि इस बार फसल अच्छी हो जाए तो कुछ बात बने , लेकिन कहाँ कुछ हो पा रहा है। देश में किसानों के दिन फिरेंगे, लेकिन कब फिरेंगे। इसी इंतज़ार में उमर ख़त्म होने को आई। बापू के ज़माने से ही सुनते आ रहे हैं कि देश के विकास का रास्ता गाँव से होकर ही आता है। लेकिन अब तक विकास की ये रौशनी हमारे यहाँ से होकर नहीं गुजरी।


टीवी पर जगमग शहर की दुनिया देखकर कभी-कभी मन करता है कि मैं भी भागकर शहर चला जाऊँ। वहीँ जाकर जीवन के आखिरी पल सुकून से बिताऊ। लेकिन इधर कई दिनों से शहर से आ रही ख़बर देखकर सहमा हुआ हूँ। टीवी पर कल ही देखा था बिजली-पानी की कमी ने शहर वालों की नींद हराम कर रखी है। पानी के लिए लोग आपस में लट्ठ चला रहे हैं और बिजली बिना लोग रात-रात भर सडकों पर नाईट वाक् कर रहे हैं। अरे अब आप नाईट वाक् भी नहीं समझते- अरे भाई ऐसा लोग शहरों में करते हैं, आप तो बस यूँ समझो टहल रहे हैं। हाँ तो लोग रात-रात भर घर के नीचे गलियों में टहल रहे हैं ताकि गली से गुजरती हुई कोई हवा उन्हें नसीब हो जाये और पसीने से तर-बतर उनका शरीर थोड़ा आनंद प्राप्त कर सके.


वैसे तो कई दिनों से सुन रहा हूँ कि इन्फ्लेशन माइनस में चला गया है यानी कि महंगाई दर शून्य से भी नीचे चली गई है। लेकिन बाज़ार में ऐसा कुछ नज़र तो नहीं आता। अब कल ही देश की राजधानी दिल्ली में रह रहे एक अपने रिश्तेदार से बात हो रही थी. उनकी ऐशों-आराम से चल रही जिंदगी की तारीफ करते ही वे बरस उठे. कहने लगे अमा यार कहाँ है ऐश. तुम तो गाँव के अपने घर के इर्द-गिर्द साग-शब्जी उगा कर अपना काम चला लेते हो लेकिन हमें तो बाज़ार जाना पड़ता है. पहले से ही सब्जियों के दाम आसमान छू रहे थे लेकिन इधर जब से सरकार ने पेट्रोल-डीजल के दाम बढा दिए हैं सब्जियों की ओर देखने का मन भी नहीं करता है. मन करता है कि साधू-संतों की तरह दूध-रोटी खाकर मगन रहना सीख लूँ.


पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने का जिक्र सुनकर मन तो किया कि अपना दुःख भी उनसे कह डालूं लेकिन क्या करता, उनके मन में मेरे ऐशो-आराम वाले ग्रामीण जीवन को लेकर जो गलतफहमियां थी उसे ख़त्म कर खुद को हल्का कर लेने की हिम्मत नहीं हुई। अब उनसे क्या कहता कि भाई धान की रोपाई का समय सर पर आ गया है और गाँव में नहर के पानी के आने का कोई संकेत नहीं दिख रहा है. अगर मानसून ने धोखा दे दिया तो कहाँ से लाऊंगा इतना डीजल और कैसे पटेगा मेरा खेत. पहले हीं डीजल की कीमत अपने बस से बाहर जा रही थी अब तो सरकार ने और भी महंगा कर दिया है इसे. फसल तो मुर्झायेगी हीं और इसके साथ हीं मेरी उम्मीदे भी मुरझा जायेगी.


कल ही खेत से लौटते वक्त पता नहीं कौन से मीडिया वाले थे. रोककर पूछने लगे. इस साल के बजट से आपकी क्या उम्मीदे हैं? अब क्या बताते? क्या कहते कि हमारी खेतो की सिचाई की व्यवस्था की जाये. अरे भैया हमारे पूर्वज कहते-कहते निकल लिए. क्या हो गया. अगर मैं ये कहूँ कि महंगाई पर लगाम लगायी जाये तो कहाँ होने वाला है. हाँ मंहगे होते हैं तो बीज, खाद, खेती के लिए काम आने वाले उपकरण और मजदूर. लेकिन जब इतनी मुश्किलों से तैयार कर हम फसल बाज़ार में भेजते हैं तब महंगाई काबू में आ जाती है और फिर हम वहीँ के वहीँ रह जाते हैं. खेती के हर मौसम में कुछ न कुछ कर्ज लेते हम इसी उम्मीद में जी रहे हैं कि कभी तो वह सुबह आएगी जब बापू का कहा सच हो जायेगा और विकास की कुछ रौशनी हमारे गाँव में भी बिखरेगी. तब हम भी बजट से अपनी एक्सपेक्टेशन आपको बता पाएंगे. अभी कुछ कहके अपना मजाक क्यों बनाये.