Thursday 23 July 2009

कौन सोचेगा देश के आम आदमी के बारे में?

आज दोपहर में टीवी न्यूज़ चैनलों पर हमारे सांसद छाये हुए थे। टीवी पर चल रहे एक कार्यक्रम सच का सामना को लेकर वे अपना विरोध जता रहे थे। उनके अनुसार इस कार्यक्रम में निहायत ही निजी सवाल पूछे जाते हैं और यह देश के सांस्कृतिक माहौल के लिए ठीक नहीं है। इतना ही नहीं इस मामले पर संसद के सभी सदस्य एकमत थे॥भले ही वे किसी भी दल के क्यूँ न हों॥जाहीर है हमारे सांसदों को देश की बड़ी फ़िक्र है...इसके कुछ ही दिन पहले देश में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमते बढ़ाई गयी. ये मसला कोई आम मसला नहीं था. इसका सीधा असर देश के हर परिवार पर होने वाला था. एक बार नहीं बल्कि रोजाना दिन भर में कई-कई बार लोगों से ये बढ़ी कीमते वसूली जानी थी. जो गाड़ियों पर चलता है उसे डीजल-पेट्रोल की बढ़ी कीमते चुकानी थी॥जो नहीं चलता उसे साग-सब्जी की ढुलाई के नाम पे ये बढ़ी हुई कीमत चुकानी थी. और भी न जाने कहाँ-कहाँ इस कीमत बढोतरी का असर हुआ ये तय कर पाना मुश्किल है...लेकिन उस मसले पर देश में विरोध का स्वर कहीं सुनाई नहीं दिया.
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इस बढोतरी ने लोगों की थालियों को दाल से महरूम कर दिया॥चावल के साथ खाया जाने वाला दाल ९० रूपये किलो बिकने लगा। इसी बीच देश का बजट आया और पता नहीं किन-किन विभागों के नाम पर करोडों-करोड़ बाँट दिया गया..लेकिन जो लोग सब्जियां लाने बाजार जाते थे उनके लिए बजट संभालना मुश्किल हो गया. लौकी, टमाटर ३० रूपये किलो बिकने लगे...कोई भी सब्जी खरीदो १० रूपये में पाव भर से ज्यादा मिलना बंद हो गया. इसके बाद भी कोई विरोध के लिए सड़क पर नहीं उतरा...अभी चंद महिनो पहले हुए चुनाव के दौरान जनता का हितैषी बनने को बेचैन दिखने वाले हजारो चेहरे इस विपरीत समय में जनता की नज़र से ओझल थे. जनता उन्हें ढूंढ भी नहीं रही थी..अपने देश की जनता हर ५ साल पर अपने हितैषियों को देखने की आदि हो चुकी है. पेट्रोल-डीजल के दाम बढे तो देश की रीढ़ माने जाने वाले किसानों की भी शामत आ गयी. इन्द्र भगवान के भरोसे हर साल अपनी नैया पार लगाने वाले किसानों से इस बार इन्द्र भगवान ने बेवफाई क्या की...उनके तो जैसे होश फाख्ता हो गए...लेकिन राजनेता यहाँ भी चुप्प नहीं बैठे. राज्यों की सत्ता पर काबिज दलों के नेता राज्य की जनता की सहानुभूति पाने के लिए केंद्र सरकार पर बरस पड़े और केंद्र ने पल्ला झारते हुए गेंद फिर राज्यों के ऊपर फेंक दिया. बीच में असहाय जनता क्या करती...टक-टक देखते रहना ही उसके बूते की बात थी सो उसने अपना कर्तव्य पूरी शिद्दत से निभाया।
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देश के हित में सोचने के लिए बने संसद के सदस्य रोजाना बहसों में उलझे रहे. देश-विदेश से और इन्टरनेट से जुटाए गए आंकडे रोजाना संसद में देश के आम लोगों की बदहाली का रोना रोते रहे...देशी-विदेशी मीडिया बदहाल भारत के गाँव और पानी और बिजली के लिए जूझते महानगरों की कहानी को रंगीन परदे पर दिखाती रही. संसद में कभी किसी नेता के किसी और के बारे में दिए गए विवादस्पद बयान के बारे में हंगामा हुआ तो कभी टीवी पर आ रहे कार्यक्रम के बारे में. तो कभी नेता अपनी सुरक्षा घटाने पर बवाल काटते रहे...आम जनता को भी फुर्सत कहा थी...जो शहरों में था वो अपनी नौकरी बचाने और रोज सडकों पर गुत्थम-गुत्था कर कार्यालय पहुचने की लड़ाई में लगा रहा और जो गाँव में था वो किसी भी तरह अपने खेतो में अनाज बोने के लिए धुप-बरसात में मरता-खपत रहा...

1 comment:

संगीता पुरी said...

आज आम आदमी की हालत बहुत ही भयावह है .. सरकार को कृषि क्षेत्र में अधिक से अधिक ध्‍यान देना चाहिए .. पता नहीं इतने कृषि वैज्ञानिक कर क्‍या रहे हैं ?