हरियाणा के पूर्व पुलिस कप्तान इन दिनों मीडिया की सुर्ख़ियों में हैं. छेड़छाड़ के आरोप में उन्हें महज ६ माह की सजा मिलने के बाद अचानक देश की जनता जाग पड़ी है...मीडिया जाग पड़ा है और इन सबके बाद अचानक सरकार भी जाग गई है. सब कड़ी से कड़ी सजा की मांग कर रहे हैं...अचानक सब न्याय व्यवस्था की सुस्ती पर सवाल उठाने लगे हैं. केंद्र सरकार जाग पड़ी है, राज्य सरकार जाग पड़ी है. सब ने मिलकर उस पुलिस अधिकारी को दिए गए मेडल छीनने की मुहीम शुरू कर दी है. देश के गृह सचिव ने कहा है कि सरकार ऐसी व्यवस्था बना रही है जिसमे दोषी साबित हुए अधिकारियों से उन्हें मिले मेडल आटोमेटिक तरीके से वापस ले लिए जाएँ...क्या यहाँ एक सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि जब दोषी पुलिस अधिकारी से उसका मेडल वापस लिया जा सकता है तो फिर दोषी राजनेता से उसका पद क्यूँ नहीं छीन लिया जाना चाहिए. चलिए मान भी लें कि दोषी और सजायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने पर पाबन्दी है लेकिन क्या उन लोगों को चुनाव लड़ने से रोक नहीं देना चाहिए जो लम्बे समय से जेल की रोटी तोड़ रहे हैं या फिर जिनपर हत्या जैसे गंभीर अपराध के लिए मुकदमा चल रहा हो. या फिर जिनपर दर्जनों मुक़दमे चल रहे हों. या फिर जो चुनाव जैसे लोकतान्त्रिक कार्य के दौरान धन-बल की मदद लेते पाए गए हों..या फिर क्यूँ नहीं ऐसे राजनीतिक लोगों को समाज और देश के जिम्मेदार पद से अलग कर दिया जाये जिनपर भ्रस्टाचार जैसे मामले चल रहे हों.. ऐसे आदमी को कैसे किसी जिम्मेदार पद पर रहने दिया जा सकता है जो अपने अधिकार का गलत उपयोग करते हैं. क्या अधिकारियों को सुधारने के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था में सुधार की भी पहल नहीं होनी चाहिए?
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