Monday 25 May 2009

इन तीस हज़ार लोगों का पेट क्या प्रभाकरण भरेगा!

श्रीलंका में लड़ाई ख़त्म हो गई है। लिट्टे का मुखिया मारा गया. श्रीलंका की सरकार ने राहत की सांस ली. दशकों से जारी खूनी लड़ाई का अंत हो गया. पूरी दुनिया ने श्रीलंका में सैनिकों का फ्लैगमार्च देखा, मौत बरसाती बंदूकों की गड़गडाहट और तोपों से बरसते शोले टीवी पर देखे. इस माहौल में जान बचाने के लिए घर-बार छोड़कर इधर-उधर छुपते शरणार्थी रुपी जीवों को भी पूरी दुनिया सहानुभूति से देखती रही. मैं खुद श्रीलंका की लड़ाई के फुटेज टीवी पर देखते हुए बड़ा हुआ हुं और हर दिन की लड़ाई में मारे गए लोगों(सैनिक, श्रीलंका के सिंहली और तमिल समुदाय के लोग सभी) की संख्या को गिनकर अपने मूड के अनुसार खुश और दुखी होता रहा हुं. लड़ाई शुरू हुई, चलती रही और अब ख़त्म हो गई--मेरे लिए ये बस एक खबर भर है और इसका मेरे सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. लेकिन॥लेकिन अब जब लड़ाई ख़त्म हो गई तो इस दौरान आई एक खबर दुनिया भर में जारी लड़ाई --चाहे वो किसी भी नाम पर हो-- की कलई खोलती है. खबर ये है कि जब लिट्टे का सफाया करने के लिए श्रीलंकाई फौज निर्णायक लड़ाई लड़ रही थी तब बमों की बारिश से बचने के लिए लाखों लोग अपना घर-बार छोड़कर भागे थे. इसमें कई मारे गए और कई अपनी जान बचने में सफल रहे. लेकिन इन दोनों प्रकार के इंसानों के बीच ३० हज़ार लोग ऐसे भी हैं जो जिन्दा तो रह गए लेकिन अपंग हो गए. राहत एजेंसियों के मुताबिक तब क्षेत्र से भागे दो लाख 80 हजार लोगों में हर दस में से एक व्यक्ति अपंग हो गया है। ऐसे लोगों की संख्या 25 से 30 हजार है।


लड़ाई ख़त्म हो गयी है और दुनिया भर की राहत एजेंसियों ने इस इलाके में काम शुरू कर दिया है। शायद कइयो की जिंदगी फिर पटरी पर आ भी जाये लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है. ये ३०,००० लोग हमेशा अपंग रहेंगे और बहुत होगा तो इन्हें प्लास्टिक के हाथ-पैर दे दिए जायेंगे. जिससे ये घसीट-घसीट कर अपनी जिंदगी काट सकें. तमिल समुदाय को आज़ादी दिलाने के नाम लड़ाई लड़ रहा प्रभाकरण मारा गया और लड़ाई ख़त्म होने के बाद फौजी भी अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर वापस लौट जायेंगे लेकिन इन लोगों की जिंदगी में जो तूफ़ान आ चुका है उसकी भरपाई कौन करेगा. कौन इनकी रोजाना की जिंदगी में आने वाली समस्याओं को हल करेगा.


ऐसा नहीं है कि ऐसे अभागे लोग केवल श्रीलंका में ही हैं. इतिहास हमेशा इस तरह के घाव छोड़ता रहता है. राजा-महाराजाओं के काल से लडाइयां होती रही है. राजा-महाराजा अपनी नाक के लिए बड़ी-बड़ी लडाइयां लड़ते रहे हैं. टीवी पर रामायण-महाभारत में हमने गाज़र-मूली की तरह लोगों को कटते-मरते हुए देखा. आधुनिक काल में हथियार बदले और हमने परमाणु बमों की जद में आये जापान के लोगों को चीखते-कराहते सुना.हजारों-लाखों लोग दशकों तक इस घाव को लिए इस दुनिया से चले गए. विएतनाम, युगोस्लाविया, अफगानिस्तान, इराक जैसे देशों के आधुनिक शासकों ने भी बड़ी-बड़ी लडाइयां लड़ी. आज भी अफगानिस्तान, इराक, सोमालिया, कांगो, रवांडा, पाकिस्तान और अन्य देशों के लोग टीवी के परदे पर दिखते रहते हैं. कभी बम और मिसाइलों से उडे हुए चिथरों के रूप में तो कभी उनसे बचने के लिए दौड़ते-भागते शरणार्थियों के रूप में. कई बार शरणार्थी दिवस के दिन अपने शरणार्थी शिविरों में बेठौर जिंदगी जीते हुए भी ये कैमरे से सामने दिख जाते हैं. शासक आये और गए, कबीले कब के ख़त्म हो गए लेकिन मरने का कबीलाई अंदाज अभी भी हमने जिन्दा रखा है. तभी तो हजारों-लाखों लोगों को खोने के बाद भी मानव सभ्यता आपस की लड़ाई का कोई तोड़ नहीं निकाल सकी. सदियों से हम ऐसे ही लड़ते आये हैं और लड़ते रहेंगे. ये एक अनथक कहानी है और यु हीं जारी रहेगी ये लड़ाई...दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालिए...बस देश-दुनिया के नजारे देखते रहिये और गिनते जाइये लाशों को...

3 comments:

Anonymous said...

सही कहा आपने. कबीले तो हम भूल आये लेकिन कबीलाई मानसिकता अब तक हमारे साथ चिपका हुआ है. ये केवल उन देशों की ही कहानी नहीं है बल्कि हमारे देश में भी कबीलाई मानसिकता के कारण ही हमारे अखबारों के पन्ने रोज हिंसा और संघर्ष की खबरों से भरे रहते हैं...हम इसके आदि हैं और हमें तब तक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता जबतक ये हमपे नहीं आ गुजरे...

Prabhat Joshi said...

ऐसा नहीं है...कई बार समय ऐसा आ जाता है कि इंसान को बुद्धिमानी छोड़कर लड़ाई का रास्ता अपनाना पड़ता है. समाज में कोई-कोई ही आगे बढ़कर किसी बात का विरोध करता है लेकिन ये लड़ाई वो अकेले नहीं लड़ सकता. इसलिए कई बार पूरे समुदाय को भी इसमें शामिल करना पड़ता है. इसे गलत नहीं ठहराया जा सकता. गांधीजी अफ्रीका गए और वहां उनके साथ जो दुर्व्यवहार हुआ उसे उन्होंने आम आदमी की लड़ाई बनाई. लोगों को एकजूट किया और फिर लड़ाई जीतने में कामयाब हुए.

Manjit Thakur said...

संदीप चीजों पर ितनी जल्दी राय न बनाइए। सिंहलियों के खिलाफ लड़ने वाले लोगों ने जान हथेली पर रखकर लड़ाई शुरु की थी। पेट की चिंता नही थी उन्हें। और पेट ही हमेशा हर चीज़ नहीं होता। अपने देश के भगत सिंह ने क्या पेट की चिंता की थी कि उनके जाने के बाद उनके मां-बाप क्या खाएंगे? क्या यार संदीप तुम तो ऐसे न थे? युद्ध महज सनक के लिए नहीं लड़ा जाता अधिकारों के लिए भी लड़ा जाता है। वरना हमारा १८५७ सा विद्रोह भी तो युद्ध ही था..।