Saturday 11 April 2009

ऐसी चुनावी नौटंकीबाजी के लायक ही हैं हम...

एक राष्ट्रीय दल की रैली का नज़ारा। पार्टी के सभी बड़े नेता मंच पर मौजूद. एक-दो वरिष्ट नेताओं के बोलने के बाद माईक थमाई जाती है एक जाने माने चेहरे को. मंच के सामने मौजूद भीड़ में अचानक उबाल आ जाता है. अचानक जोश में आई भीड़ नारे लगाने लगती है. जैसे इसी लम्हे के लिए सबने अपनी साँसे थाम रखी थी. कौन है यह शख्स जिसे देख कर हजारों की भीड़ अचानक उत्साह से भर उठती है. इस शख्स को पूरा देश जानता है. इसने हाल ही में फिल्मों की दुनिया से राजनीति में कदम रखा है. उसे पहले इस दल का उम्मीदवार बनाने का फैसला किया गया था लेकिन देश की सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहकर इसे चुनाव लड़ने से रोक दिया कि २ साल से ज्यादा की सजा पाया कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता. यह शख्स एक भूतपूर्व सांसद और फिल्म अभिनेता का बेटा है. फिल्मों में भी इसने खूब नाम कमाया है. लेकिन इस शख्स पर १९९३ में मुंबई में हुए धमाकों में शामिल लोगों से संपर्क रखने का आरोप लगा और सालों तक इसे अदालती कार्यवाही का सामना करना पड़ा. अदालत ने इसे उन्हीं आरोपियों में से किसी एक से एके-४७ राइफल लेकर रखने का दोषी करार दिया और ६ साल की सजा सुनाई. यह शख्स अभी जमानत पर है और चुनाव लड़ना चाहता था. अदालत ने लड़ने नहीं दिया. पार्टी स्टार प्रचारक नहीं खो सकती थी सो उसने पार्टी में बड़ा पद दे दिया. अब यह शख्स पार्टी के हर मंच पर गाँधी टोपी लगाये दीखता है. यहाँ गाँधी टोपी की भी अपनी कहानी है. कुछ साल पहले एक फिल्म आई थी. जिसमें इस शख्स ने ऐसे व्यक्ति का किरदार निभाया था जो पहले अपराधी होता है और फिर गांधीजी के सिधान्तों से प्रभावित होकर अहिंसा का मार्ग अपना लेता है और लोगों को मार-पीट के बदले जादू की झप्पी देता फिरता है. फिल्म हिट रही और दर्शकों की जुबान पर गांधीगिरी शब्द चिपका गयी. इस शख्स ने रियल लाइफ में भी गांधीगिरी को अपने साथ चिपका लिया. व्यवहार में अपनाया कि नहीं कह नहीं सकते लेकिन अब हर मंच पर यह शख्स गाँधी टोपी के साये में गांधीगिरी शब्द का इस्तेमाल जरूर करता है.

हाँ तो हम फिर उस नज़ारे पर आते हैं जब इसे मंच पर माइक पकड़ा दिया जाता है। शख्स माइक लेता है और लोगों की सहानुभूति लेने के अंदाज में शुरू होता है. कहता है- मैंने टाडा कानून का दर्द झेला है. मुझपर जो आरोप लगाये गए हैं गलत हैं. मुझसे जबरन आरोप कबूलवाया गया, मारपीट कर. टाडा और पोटा जैसे कानून हटा देने चाहिए. सामने खड़ी जनता हो-हो करती है. नारे लगाती है. भीड़ चिल्लाती हैं--मुन्ना भाई जादू की झप्पी दे दो. मंच से आवाज आती है पहले हमें चुनाव में जिताओ और दिल्ली पहुचाओ फिर जादू की झप्पी मिलेगी. भीड़ फिर चिल्लाती है मुन्नाभाई जिंदाबाद...पार्टी जिंदाबाद...वगैरह...वगैरह.

राजनीति को फ़िल्मी नौटंकी बनाती इस भीड़ में कौन शामिल है. हम-आप और कौन. ऐसी भीड़ देश में रोज हो रही सैकडों रैलियों में शामिल है. पार्टियों के बैनर-पोस्टर से सजी यह भीड़ लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहरुआ मानी जा रही है. गाड़ियों में भर-भरकर यह भीड़ एक शहर से दूसरे शहर में, एक राज्य से दूसरे राज्य में लाई जा रही है. महीने भर के इस महापर्व में जाने भीड़ में शामिल कितने लोगों का गला बैठ जायेगा. चुनाव ख़त्म होगी, नयी सरकार बनेगी फिर यह भीड़ भी चैन की सांस ले सकेगी. लेकिन अपने नेताओं की शान में कशीदे पढने और नारा लगाने की आदत लगा चुकी यह भीड़ कब तक चुप रहेगी. फिर जीतने के बाद जब यह नेता लोग अपने इलाके में पहुचेंगे तो उनके स्वागत कार्यक्रम में नारा लगाने के लिए यह भीड़ फिर से एक-जूट हो जायेगी. अपने बैठे हुए गले को तर करके फिर से भीड़ जीवंत हो सकेगी और लोकतंत्र की रक्षा के नारे लगा सकेगी...

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

विचारणीय पोस्ट लिखी है।

श्यामल सुमन said...

जनता के उत्थान की फिक्र इन्हें दिन रात।
मालदार बन बाँटते भाषण की सौगात।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

अनुनाद सिंह said...

इसे तो देखकर किसी महान विचारक की वह उक्ति याद आती है - "जनता को वैसा ही नेता मिलता है जिसके वह लायक होती है।"

क्या लोग समझने की कोशिश करेंगे कि यह एक देशद्रोही है, आतंकवादी है, भयंकर अपराधी है! सिनेमा और वास्तविक जीवन में जो अन्तर होता है वही अन्तर इसके बाहरी रूप और वास्तविक रूप में है ।