Thursday, 9 April 2009

जूता क्या... नए ज़माने का हथियार कहिये इसे...

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढने जाने को हुआ तो उससे जुडी कई कहानियां दादाजी ने सुनाई। उनमें से एक था हैदराबाद के निजाम के जूते की महिमा की दास्तान. कहानी कुछ यूँ थी कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को बनाने के लिए चंदे का जुगाड़ करने के क्रम में मालवीय जी हैदराबाद के निजाम के दरबार तक पहुंचे. लेकिन जब निजाम को पता चला कि ये आदमी हिन्दुओं के लिए विश्वविद्यालय बना रहा है और उसके लिए चंदा मांगने मेरे पास आया है तो निजाम गुस्से से भड़क उठा और अपना जूता मालवीय जी की ओर दे मारा. शांतचित मालवीयजी जूते को उठाकर आये और अगले दिन नीलामी पर रख दिया. बदनामी के डर से फिर निजाम ने मुहमांगा दाम देकर अपना जूता वापस मंगाया. वो पैसा विश्वविद्यालय के निर्माण में लगा. निजाम के जूते की ये कहानी करीब १०० साल पुरानी है. अब तो जूते के इस्तेमाल की ये कहानी पुराने ज़माने की बात हो गयी. तब हथियार भी बड़े परंपरागत हुआ करते थे. अब जमाना बदल गया है. परमाणु बम बन गए हैं और कई देशों के पास हैं. एक-दो परमाणु बम तो फूट भी चुके हैं.

जैसा कि हम अक्सर सुनते हैं कि पुरानी शैली के कपडे कुछ समय बाद फिर फैशन में आते हैं उसी तरह से जूते का फैशन भी फिर से लौट आया है। इसका श्रेय जाता है इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी को. बम-गोलों-मिसाइलों की मार झेलकर टूट-फूट चुके इराक के नागरिक जैदी(नागरिक के आलावा पत्रकार भी लेकिन वो बाद में) ने जूते को अपना हथियार बनाकर अमेरिका पर प्रहार किया और भरी सभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के मुंह पर जूता दे मारा. जैदी के साथ जो हुआ वो हुआ लेकिन पूरी दुनिया ने अमेरिका को जूता खाते देखा. अधिकांश लोगों के लिए ये मौका काफी खास रहा. चीनी राष्ट्रपति बेन जियाबवो के ऊपर (कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में) जूता भी जल्दी चल गया. लेकिन सहनशील भारत में जूता इतनी जल्दी चलेगा इसकी उम्मीद किसी ने नहीं की थी.

१९८४ में हुए दंगों की टीस को यहाँ की सिख बिरादरी अभी तक नहीं भूली है और न्याय की आस अब भी उसके मन में जिन्दा है इसका संकेत दिया एक सिख पत्रकार जरनैल सिंह ने. जरनैल सिंह ने साबित किया कि वो पत्रकार हैं लेकिन उसके पहले एक इन्सान है जो अच्छे-बुरे को महसूस करता है और शरीर पर लगे जख्म उसके दिल में भी दर्द पहुचाते हैं. पत्रकार वार्ता के दौरान जरनैल ने गृह मंत्री के ऊपर जूता उछाल दिया. जरनैल का कहना था कि सत्ताधारी दल ने १९८४ दंगों में शामिल अपने नेताओं को बचाने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया है और पीडितों को न्याय मिलना चाहिए. जरनैल का जूता ऐसा तगड़ा लगा कि देश भर में सिख बिरादरी न्याय के लिए सड़कों पर आ गयी और वोट बैंक की चिंता में पार्टी को अपने इन दोनों नेताओं को लोकसभा चुनाव से हटानी पड़ी...कहते हैं न कि आम आदमी बोलता नहीं है और जब बोलता है तो जमकर बोलता है...जैदी और जरनैल के रूप में आम आदमी बोला और बोला तो ऐसा बोला कि अब तक बोलते रहने वालों की बोलती बंद हो गयी.

1 comment:

संगीता पुरी said...

कहावत है कि जब सीधी उंगली से घी न निकले ... तो उंगली टेढी करनी पडती है ... अब इतनी टेढी करनी पड रही है कि ... कि घुटिटयों में मिले संस्‍कार भी भूलने पड रहे हैं।