Friday 19 September 2008

मीडिया ने बनाया आम लोगों को असुरक्षित!

१९९३ के मुंबई धमाकों ने पहली बार आम लोगों को आतंकवाद का शिकार बनाया। इसके पहले तक भारत में आमतौर पर ये माना जाता था कि आतंकवादी अपनी मांगे मनवाने या प्रतिशोध लेने या फ़िर मीडिया में जगह बनाने के लिए केवल वीआइपी लोगों को ही निशाना बनाते हैं. इंदिरा जी और राजीव जी आतंकवाद के इस रूप का शिकार हो चुके हैं. दुनिया के कई और नेता भी इस आतंकवाद का शिकार हो चुके हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी हों, मिस्र के अनवर सद्दात हों, बांग्लादेश के शेख मुजीबुर रहमान आदि नेता तमाम सुरक्षा बंदोवस्त के बावजूद आतंकी हमले के शिकार हो गए. १९८० के बाद का दौर पूरी दुनिया में मीडिया के विकास का दौर कहा जा सकता है. लेकिन जैसे-जैसे मीडिया की ताकत बढती गई-(ख़बरों तक जल्द से जल्द पहुचने, उसे जल्द से जल्द दिखाने और ज्यादा से ज्यादा जगह की खबरों को एक साथ दिखाने की क्षमता) वैसे-वैसे आतंकवादियों ने भी मीडिया का इस्तेमाल करना बखूबी सीख लिया. पहले उन्हें लगता था कि ख़बरों में आने के लिए बड़े लोगों को निशाना बनाना पडेगा, लेकिन मीडिया के मजबूत होने के साथ ही इनका काम आसान हो गया। वीआइपी हमलों को अंजाम देने के लिए उन्हें जहाँ काफ़ी मश्शकत करनी पड़ती थी वही ये रास्ता उन्हें काफ़ी आसान लगा. फ़िर दहशतगर्दों ने अपना तरीका बदला और मुंबई में सिलसिलेवार धमाके कर आम जनता को निशाना बनाया. ऐन इसी वक्त दुनिया के कई हिस्सों में आतंकवादियों ने आम लोगों को निशाना बनाकर कई हमले किए और अपने नए तरीके को लॉन्च किया. अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर २००१ में हुआ हमला इस कड़ी की सबसे बड़ी घटना थी.

मुंबई में जो सिलसिलेवार धमाके हुए उसे पूरे देश और पूरी दुनिया ने देखा। आतंकवादियों के मकसद को, उनके द्वारा अंजाम दिए गए मकसद को और लोगों में उसकी दहशत को मीडिया में खूब जगह मिली। इस सफलता से उत्साहित होकर इन संगठनों ने एक-एक कर कई हमलों को अंजाम दिया। पिछले कुछ सालों में दिल्ली, मुंबई, जयपुर, आँध्रप्रदेश, बनारस, बेंगलोर, अहमदाबाद समेत कई शहरों में आतंकी हमले हुए। ये सारे हमले आम लोगों को निशाना बनाकर सार्वजानिक जगहों पर किए गए थे। हर हमले के बाद सरकार ने आतंरिक सुरक्षा को मजबूत करने का आश्वासन दिया और सुरक्षा तथा खुफिया एजेंसियों को सक्रीय तथा आक्रामक बनाने का प्रण लिया. इन हमलों ने एक बात साफ़ कर दी कि अब तक वीआइपी सुरक्षा को प्राथमिकता देती आ रही सुरक्षा एजेंसियों को अपना तरीका बदलना होगा. अगर आतंकवाद से लड़ना है तो आम लोगों को सुरक्षा प्रदान करना होगा. इस दौरान आम लोगों की अपेक्षाएं बढ़ न जाए इसके लिए बार-बार कहा गया कि देश के एक अरब से ज्यादा आबादी में से हर एक को सुरक्षा प्रदान करना सम्भव नहीं है.

ऐसे वक्त में मीडिया ने काफ़ी हद तक सकारात्मक भूमिका निभाई। सरकार और खुफिया एजेंसियों कि खूब खिंचाई की गई लेकिन कई मौको पर खबरों को सनसनीखेज बनाने और जल्द से जल्द ब्रेकिंग न्यूज़ देने की होड़ में मीडिया ने कई बार आतंवादियों को नए रस्ते भी सुझाए। पिछले सप्ताह दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद मीडिया के द्वारा किए गए २ कामों का मैं जिक्र करना चाहूँगा। दिल्ली में धमाकों के तुंरत बाद जब सभी टीवी चैनलों पर ये ख़बर लाइव चल रही थी तभी एक गुब्बारा बेचने वाला लड़का जो कि बाराखम्भा रोड पर हुए धमाकों का प्रत्यक्षदर्शी था को पुलिस ने पकडा। अचानक सभी चैनलों ने अफरा-तफरी में उसे मानव बम घोषित कर दिया. फिल्ड से लाइव कर रहे और उन्हें स्टूडियो से संचालित कर रहे खबरनवीसों ने आपाधापी में थोडा संयम बरतने का प्रयास भी नहीं किया. उस समय अचानक मानव बम की ख़बर को सबसे अहम् बना दिया गया. रिपोर्टर्स ने यहाँ तक कह दिया कि बच्चे के शरीर पर बम बंधा हुआ है और उसे गुब्बारे का लालच देकर आतंकवादियों ने उसके शरीर पर ये बाँध दिया था. बाद में जब पुलिस ने मामला स्पष्ट किया तब तो मीडिया बैकफूट पर आई और इस ख़बर को हटाया गया. अगर आतंकियों ने अबतक ऐसा करने की कभी सोची भी नहीं हो तो आगे के लिए उन्हें मीडिया ने एक नया तरीका दे दिया. मीडिया की गैरजिम्मेदारी का दूसरा किस्सा प्रिंट मीडिया से आता है। हादसे के २ दिन बाद एक राष्ट्रिय समाचारपत्र ने धमाकों के लिए इस्तेमाल किए गए अमोनियम नाइट्रेट का पूरा विवरण छाप डाला. मसलन ये क्या होता है और किन-किन चीजों के साथ इसे मिलाकर किन-किन विधियों से इससे बम बनाया जा सकता है. इसके एक दिन बाद केन्द्र सरकार ने अमोनियम नाइट्रेट को विस्फोटक की श्रेणी में लाते हुए निर्देश दिया कि इसकी बिक्री में ध्यान दिया जाए.

समाचार के आलावा मीडिया के अन्य माध्यमों ने भी इस मामले पर कम गैरजिम्मेदारी नहीं दिखाई है. सस्पेंस वाले नोवेल पढ़कर अपराध करने के कई किस्से तो हम पहले भी सुन चुके हैं लेकिन अहमदाबाद में जब हाल में हुए धमाकों में से एक अस्पताल में किया गया तब कहाँ गया कि ये हमला हाल ही में आई एक बॉलीवुड फ़िल्म से प्रेरित थी. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सृजनात्मकता की रक्षा के नाम पर इसका बचाव तो किया जा सकता है लेकिन इससे आम लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ सकती है और मीडिया को अपनी इस जिम्मेदारी को भी ध्यान में रखना पडेगा.

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