Sunday, 28 September 2008

ऐसे तो मिट गया आतंकवाद...

दिल्ली में आज फ़िर एक ब्लास्ट हुआ। इस बार धमाका महरौली में फूलों के बाज़ार में हुआ। १३ सितम्बर को हुए सिलसिलेवार धमाके को भी लोग अभी कहाँ भूल पाए हैं। तब से अब तक लगातार चर्चा जारी है कि कैसे आतंकवाद पर काबू पाया जाए। आज जब फ़िर धमाका हुआ तब विदेश मंत्री ने कहा कि पूरी सख्ती से कुचला जाएगा आतंकवाद। विदेश यात्रा पर गए प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में सरकार के शीर्ष नेता प्रणब मुखर्जी ने गृह मंत्री शिवराज पाटिल को घर बुला कर हालात पर चर्चा की। इसके बाद उन्होंने कहा, 'सरकार किसी को नहीं छोड़ेगी और सख्त कार्रवाई करेगी।'--- अगर मैं भूला नहीं हूँ तो ऐसा १३ सितम्बर को हुए धमाको के बाद भी कहा गया था। सरकार ने संसद पर हुए हमले, लाल किले पर हुए हमले, सरोजिनी नगर में हुए हमले और लगभग हर हमले के बाद ऐसा ही कहा था। लेकिन हालत क्या है। संसद पर हमले के दोषियों की सजा राजनीतिक दांवपेंच में उलझ कर रह गई है। बाकी के हमलों में क्या हुआ किसी को पता नहीं। कुछ होने की उम्मीद भी किसी को नहीं।

दिल्ली में आज हुए धमाको में २ की जान चली गई। किसने लिए, क्यूँ गई किसी को नहीं पता। लेकिन गई और दो लोगों की गई। इसकी जिम्मेदारी किसी की नहीं। दो निर्दोष लोग मारे गए। उनके परिवार को शायद कुछ मुआवजा मिल जाए, सरकारी खाते में एक और केस शुरू हो गया। जांच शुरू हो गई। शायद कोई पकड़ा भी जाए और शायद ना भी। अगर पकड़ा भी गया तो शायद केस प्रूव नहीं हो पाए और वो छुट जाए। कुछ नहीं कहा जा सकता इस देश में। सब कुछ सम्भव है यहाँ।

१३ सितम्बर को हुए धमाकों के बाद पुलिस और गृह मंत्रालय पर कुछ करने का जब दबाव बना तो करवाई हुई। फ़ोन काल्स से मिले सुराग के आधार पर दिल्ली के जामिया इलाके में पुलिस ने छापे मारे। मुठभेड़ हुआ और २ आतंकी मारे गए। कई आतंकी पकड़ लिए गए। अब उनपर ये आरोप साबित होगा-नहीं होगा ये कानूनी मसला है। पुलिस का एक वीर जवान भी शहीद हुआ। पुलिस ने देश भर में हुए आतंकी हमलों के तार इस ग्रुप से जोड़ दिया और पूरे देश की पुलिस इस खुलासे में लग गई। कई आतंकी पकड़े गए...लेकिन हमारे यहाँ की राजनीति है कि थमने का नाम ही नहीं ले रही है। मारे गए और पकड़े गए सभी आतंकी एक समुदाय से है इसके लिए राजनीति शुरू हो गई। दुसरे समुदाय को कोई हैरानी नहीं हुई क्योंकि वो इस तरह की सुनने का आदि हो चुका है। लेकिन जिस समुदाय पर ये आरोप लग रहा है वो चुप कैसे रहता। उन लड़कों के घर वालों ने तो उन्हें आतंकी मानने से मना किया ही, धार्मिक गुरुओं ने भी अपने को शांत रखना मुनासिब नहीं समझा। हर हमले के बाद पकड़े गए लोगों के घर का दौरा करने वाले सबसे बड़े धर्मगुरु ने फ़िर वही किया। मुठभेड़ में मारे गए लोगों के अन्तिम संस्कार में गए और उन्हें क्लीन चिट दे दिया। इसके पहले गुजरात धमाकों में संदिग्ध पाए गए लोगों के घर जाकर भी वे ऐसा कर आए थे। उस विश्विद्यालय, जिससे ये kaii संदिग्ध जुड़े हुए थे ने तो इन्हे कानूनी सहायता मुहैया कराने तक की घोषणा कर दी. धार्मिक ध्रुवीकरण होता देख कई राजनेता भी अपना मुगदर भांजने में पीछे नहीं रहे। सभी ने बयां देना शुरू कर दिया। सिमी जैसे संगठनों तक को ye नेता लोग (जिसमें वर्तमान सरकार के कई मंत्री भी शामिल हैं) क्लीन चिट देने लगे. वो भी इतने विश्वास के साथ जैसे की उनकी सारी गतिविधियों की उन्हें पूरी जानकारी हो और कुछ भी करने से पहले इन संगठनों के नेता इनसे पूछ कर ही कोई कदम उठाते हों. कोई कहता कि आतंकवाद को किसी एक समुदाय से जोड़ कर कैसे देखा जा सकता है. जाहीर है ऐसा नहीं होना चाहिए. लेकिन जब हर मामले के बाद एक ही समुदाय के लोगों पर शक जाए तो कैसे यकीं नहीं हो.... ऐसा भी हुआ है कि उस समुदाय से बहुत सारे लोग देश के लिए काम करने के कारण प्रसिद्ध हुए हैं और देश ने उन्हें सर-माथे पर बैठाया भी है। इसलिए ये कहना कि देश एक समुदाय विशेष को निशाना बना रहा है बिल्कुल ग़लत है। इस समुदाय के लोगों को इसका उपाय तलाशना चाहिए कि उनके बच्चे देशविरोधी कामों में शामिल न हों इसके बदले ये समुदाय गलती मानने से ही इंकार कर रहा है. ऐसे में अगर दुसरे धर्मों से जुड़े संगठन ध्रुइकरण कराने में सफल हो गए तो कौन रोक पायेगा उन्हें.

ये मौका धर्मनिरपेक्षता के नाम पर राजनीति करने वाले सभी नेताओं के लिए एक बड़ा अवसर बनता जा रहा है. यही सारे नेता हिंदूवादी संगठनों पर लगातार प्रतिबन्ध लगाने की मांग करते आ रहे हैं. उनका आरोप है कि ये हिंदूवादी संगठन देश में साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं. इनके अनुसार सिमी जैसे संगठनों को to वैसे ही बदनाम किया जा रहा है. सच कहें तो अगर ये अपनी बातों पर कायम रहना चाहते हैं तो इन्हे पहले विपक्ष के बदले अपनी सरकार से लड़ाई लड़नी चाहिए. जिस सरकार का गृह मंत्रालय सिमी पर प्रतिबन्ध जारी रखने के लिए अदालत में लड़ाई लड़ रहा है उसी सरकार के मंत्री उसी संगठन को क्लीन चिट कैसे दे सकते हैं. दूसरी बात ये कि अगर कोई धर्मगुरु क़ानून से आगे बढ़कर किसी आपराधी को क्लीन चिट देने का प्रयास करता है तो उसे भी क़ानून के दायरे में लाना चाहिए. अगर इतनी इक्छाशक्ति हो तो फ़िर आतंकवाद से लड़ा जा सकता है और अगर ऐसा सम्भव नहीं है तो फ़िर ये बयान आगे भी हर हमले के बाद जारी रहेगा और जनता भी इसे हर शनिवार को अखबारों में छपने वाली फिल्मी गॉसिपस की तरह पढ़ती रहेगी.....

Thursday, 25 September 2008

यहाँ तो सबकुछ पहले से ही उल्टा-पुल्टा है...

मशहूर अमेरिकी जादूगर डेविड ब्लेन न्यूयार्क के सेंट्रल पार्क में ६ मंजिल की ईमारत जितनी ऊँचाई पर एक तार के सहारे उलटा लटक गए हैं। ब्लेन ६० घंटों तक बिना खाए, बिना सोये लटके रहेंगे. लेकिन इसमें कोई नई बात थोड़े ही है ब्लेन अमेरिकी बाज़ार की नक़ल ही तो कर रहे हैं. अमेरिकी बाज़ार भी तो इन दिनों उल्टा लटका हुआ है और अपनी ताल पर दुनिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं को भी उलटा लटकाए हुए है. लेकिन एक बात बिल्कुल साफ़ है कि हमारा देश इस मामले में अमेरिका से बिल्कुल भी पीछे नहीं है. प्राचीन काल से ही हमारे यहाँ ऐसे बड़े-बड़े जादूगर हुए हैं जिन्होंने ख़ुद के आलावा बड़ी-बड़ी हस्तियों और कई बार तो पूरे देश को ही उलटा लटका दिया. अब विक्रम-वैताल के किस्से को ही देख लीजिये. डेविड ब्लेन तो एक बार उल्टे लटक कर दुनिया भर में ख़बरों में छा गए लेकिन अपने वैताल जी तो बात-बात पर विक्रम से रूठकर पेड़ पर उल्टे लटक जाया करते थे और फ़िर अपनी कहानी सुनने कि हामी विक्रम द्वारा भरने के बाद ही नीचे उतरते थे.

आधुनिक भारत में भी ऐसे सूरमा कम नहीं हैं जिन्होंने बड़े-बड़े तीसमार खान तक को उल्टे लटकाने में सफलता पाई है. अब बंगाल में तृणमूल प्रमुख ममता जी का जादू ही देख लीजिये. पूरी दुनिया में अपनी धाक जमाकर अपना बाजू दिखाने वाले टाटा को तो उन्होंने उलटा लटकाया ही, साथ-साथ इस साल जाड़े के मौसम तक घर के बाहर लखटकिया कार खड़ी करने का ख्वाब पाले लाखों लोगों की उम्मीदों को भी उन्होंने खूँटी पर टांग दिया. जिस हड़ताल और धरने-प्रदर्शन के बल पर अबतक वामपंथी भाई लोग सबको लटकाया करते थे उसी जादू का इस्तेमाल कर ममताजी ने उलटा उन्हीं को लटका दिया. वैसे अपने वामपंथी लोग भी कम जादूगर नहीं हैं। अमेरिका के साथ परमाणु करार मसले पर उन्होंने सरकार को ही उल्टा लटका दिया था. वो तो भला हो छोटे भैया का जिनका जादू उनपर भरी पडा और उन्होंने सरकार को रस्सी से उतारकर फ़िर से खडा किया.

अपने जल देवता के जादू को ही देख लीजिये। बाढ़ के पानी की शक्ल में आए जल देवता ने देशव्यापी जादू दिखाया. फ़िर क्या दिल्ली, क्या बिहार और क्या उडीसा सब जगहों पर लोग पेड़ों और खंभों पर लटके नज़र आए.

अपने मीडिया वालों का जादू भी देखने लायक है। दिल्ली में हुए ब्लास्ट के बाद गृह मंत्री महोदय की बार-बार कपड़े बदलने के लिए ऐसी खिचाई की कि बेचारे की कुर्सी जाते-जाते बची. अब तो किसी धमाके के बाद दौरा करते वक्त बेचारे अपने गंदे कपड़े बदलने से पहले भी १० बार सोचेंगे.

इशु को सूली पर टंगे देखकर उडीसा और कर्णाटक वाले इतने प्रेरित हो गए की उन्होंने पूरे कौम को ही टांग दिया। और इतने जलवे दिखाए की उसकी गूँज रोम और अमेरिका तक में सुनाई देने लगी.

वैसे पड़ोसी पाकिस्तान में भी जादोगारों की कोई कमी नहीं है। अब अपने जरदारी साहब को ही देख लिजिए. तोपची मुशर्रफ़ साहब पर उनका जादू ऐसा चला कि वो कहीं गुमनामी में खोते चले गए. पता चला हैं कि मुश् साहब इन दिनों अपने घर पर रहकर कागज़ काले कर रहे हैं. हो सकता हैं कि कल को उनका भी जादू चल जाए और दुनिया के बेस्ट सेलर राइटर्स में उनका भी नाम शुमार हो जाए. अपना जादू चलने कि खुशी लेकर इधर जरदारी साहब न्यूयार्क पहुंचे और उधर वजीरिस्तान में कबायली लडाकों ने अमेरिकी जासूसी विमान को पाकिस्तान में घुसते ही मार गिराया. इससे पहले कि जरदारी साहब लोकतंत्र बहाली के नाम पर बुश साहब से पीठ थपथपाने की गुजारिश करते विमान गिरने की ख़बर अमेरिका पहुँच गई. जरदारी साहब की हालत ऐसी की जनरल असेम्बली के हॉल में अंत समय तक बुश साहब से नज़रें चुराते फिरेंगे.

ये तो केवल भारत और पाकिस्तान के जादूगरों की सूची हैं. ऐसे ही न जाने दुनिया में और भी कितने जादूगर पड़े हुए हैं जो अमेरिकी जादूगरों को कड़ी टक्कर दे सकते हैं. ये तो एक सैम्पल भर हैं.

Wednesday, 24 September 2008

बातें हैं बातों का क्या...

आज अचानक मुझे नई दिल्ली स्टेशन जाना पडा। वहां बैठे हुए मैं बातें कर रहा था। अचानक मेरे सामने एक हाथ बढ़ा और साथ ही एक महिला की आवाज भी आई- कई दिनों से भूखी हूँ खाने के लिए कुछ दे दो बेटा. अपनी आदत के अनुसार मैंने आगे बढ़ने का इशारा किया और खुश होता हुआ अपनी बातों में लग गया. सामने खड़ी महिला आगे बढ़ गई. अचानक मेरी नज़र उसपर गई. एकदम कमजोर सी दिख रही उस महिला के उम्र का अंदाजा लगा पाना सम्भव नहीं था, फ़िर भी ऐसा लग रहा था कि उम्र ६० साल से ज्यादा ही होगा. कपड़े के नाम पर शरीर पर एक पुरानी सी साड़ी थी और चेहरे से उसकी दयनीयता झलक रही थी। मेरे बाद वो महिला करीब १५ लोगों के सामने हाथ फैलाती रही और सब ने उसे कुछ देने से नकार दिया. तब जाकर मुझे लगा कि शायद मुझे कुछ करना चाहिए. मैंने अपनी जेब टटोली और उसके खाने भर पैसे निकाल कर उसे देते हुए बोला जाकर कुछ खा लीजिये. उस महिला ने मुझसे पूछा कि खाना कहाँ मिलेगा. मैंने दूकान की ओर इशारा करते हुए कहा कि वहां जाओ वहीँ मिलेगा. वो महिला मुझे हाथ जोड़ते हुए दूकान की ओर बढ़ गई. मेरी नज़र उसे जाते हुए देखती रही. अचानक मुझे महसूस हुआ की मेरी आँखे भर आई है। मेरे आगे एक सवाल था कि इस उम्र में आके क्यूँ इस महिला के सामने ऐसा वक्त आया है? मेरी मदद से उस महिला का कुछ नहीं होने वाला है। इस उम्र में वो काम करने में सक्षम नहीं है और मैं सोचता हुं कि वो महिला अब स्टेशन पर ही कहीं वैसे ही सोई होगी और फ़िर कल दिन में खाने के लिए उसे किसी के आगे हाथ फैलाना होगा। और ये सिलसिला उसके जीवन के आखिरी वक्त तक चलता रहेगा। हम चाहे तो ऐसे लोगों को धिक्कार सकते हैं लेकिन मेरा मानना है कि ऐसा तबतक सम्भव नहीं है जबतक इंसान बहुत बेबस नहीं हो। किसी के आगे हाथ फैलाना इतना आसान काम नहीं है। लेकिन ऐसी स्थिति का होना हमारे समाज के लिए बड़ी असफलता है.


अक्सर सड़क चलते चौक-चौराहों पर या फ़िर कहीं सार्वजानिक स्थानों पर बैठे हुए कोई जब हमारे सामने हाथ फैला देता है हम आदतन ये सोचते हैं कि ये सब तो चलते रहता है। हम अक्सर हाथ फैलाने वालों को आगे बढ़ने का इशारा कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो लेते हैं। ऐसा करते वक्त कई बार अपने साथ खड़े लोगों पर इम्प्रेशन जमाने के लिए हम कह बैठते हैं कि इन लोगों को तो कोई काम ही नहीं। जहाँ देखों हाथ फैला देते हैं. बस स्टेशनों या रेलवे स्टेशनों पर कई बार जब छोटे बच्चे ऐसा काम करते हैं तो हम उनके माँ-बाप को उनको जन्म देकर कोसते हुए कह बैठते हैं कि जब पालना-पोषना ही नहीं था तो पैदा क्यूँ किया. लेकिन मेरे विचार में ये इतना छोटा सवाल नहीं है. ये सवाल मेरे कुछ सोचने या नहीं सोचने से ज्यादा सामाजिक है. सवाल सामजिक सुरक्षा का है. हम क्यूँ ऐसा समाज नहीं बना पाये हैं जिसमे सभी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान किया जा सके. जो काम करने में सक्षम हैं उनकी बात नहीं है लेकिन जो बच्चे काम करने लायक नहीं है और अनाथ हैं या फ़िर ऐसे बुजुर्ग जो कुछ कर सकने में सक्षम नहीं है और उनके पास जीविका का कोई साधन भी नहीं है उनके लिए व्यवस्था को कुछ जरूर करना होगा. केवल राजधानी दिल्ली में ७५,००० ऐसे लोग है जो सड़कों पे अपनी जिंदगी बिताते हैं और दिन में चौक-चौराहों पर मांगते हैं। लोग उन्हें कुछ दे रहे हैं या फ़िर उसे देश की समस्या बताकर चुप रह जाते हैं ये उनका अपना मामला है। लेकिन हमारे समाज को इस बारे में कुछ करना चाहिए।


"जिस्म तो ख़ाक हो गया बेबसी के बोझ से,
आँखों में भी बेहिसाब पानी ही पानी था।".....

Monday, 22 September 2008

और अब पढिये लादेन के लिखे नज़्म!

अखबार पर नज़र गई। सॉफ्ट स्टोरिज में ओसामा बिन लादेन का नाम देखकर हैरानी हुई। अक्सर अखबार के इस इलाके में सनसनी फैलाती और धमाका करती सिने तारिकाओं और सिने स्टार्स के अफेयर्स के किस्से छपते हैं इस लिए पहले तो भरोसा नहीं हुआ। लगा कहीं नीचे -बुरा न मानो होली है- तो नहीं लिखा हुआ है। लेकिन जब दूर-दूर तक इसका कोई निशाँ नहीं मिला तब जाकर कुछ संतोष हुआ. ख़बर की शीर्षक थी- एक बेहतरीन कवि भी है लादेन. लादेन जी की तस्वीर के साथ ख़बर छपी गई थी.


धमाके के अंदाज में इस पेज को पढने की आदत के कारण हमने इस ख़बर को इस अंदाज में पढ़ा। लीजिये आतंकवाद की दुनिया से एक और धमाका आपके सामने आ गया. दुनिया भर को और खासकर चौधरी अमेरिका को अपने बाजुओं की ताकत दिखाने वाले आतंकवाद सनसनी ओसामा बिन लादेन के बारे में नया खुलासा कि वह एक 'बेहतरीन कवि' भी है। कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी में अरबी के प्रोफ़ेसर फ्लाग मिलर जल्द ही ओसामा की साहित्यिक कृतियों को प्रकाशित करने वाले हैं। एक अमेरिकी अखबार में ख़बर छपी है कि अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद अफगानिस्तान में ओसामा के अड्डे से टेप मिले, जिनमें 1990 के दशक में शादी और अन्य महफिलों में उसके गाए नगमे थे। मिलर ने इनका अध्ययन किया है। मिलर का मानना है कि लादेन एक 'सुलझा हुआ' शायर है। उसकी मात्राएं चुस्त हैं और यही कारण है कि बहुत से लोगों ने उसकी नज्मों को टेप किया है। अपनी नज्मों और नगमों में लादेन ने खुद को 'जंगजू शायर' या योद्धा कवि के रूप में पेश किया है।


सहसा मेरे दिल में आने वाले समय की एक तस्वीर उभर आई। अब आगे आने वाले समय में विरह-वेदना के काल में प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं को लादेन जी की शायरी एसेमेस करके भेजेगा और समझायेगा कि जैसे लादेन जी ने विरह का काल काटा वैसे ही हमें भी हिम्मत से इस समय को बिताना होगा और जब कोई सैनिक पति लड़ाई पर नहीं जाना चाहेगा तो उनकी हिम्मतवाली पत्निया उन्हें लादेन जी द्वारा लिखी हुई वीर रस वाली नज़्म सुनाकर भेजेंगी. आख़िर उनसे बड़ा प्रेरणास्रोत और कौन होगा.


चलिए सिलेब्रिटी शायरों की दुनिया में एक नया नाम तो जुडा। वैसे भी चाचा गालिब जैसे पुराने धुरंधर शायरों को पढ़ते-पढ़ते अब बोरीअत सी लगने लगी थी और वो भी ये पुराने शायर टीवी पे दिखने वाले सिलेब्रिटी शायर जैसे तो थे नहीं जिनके नगमें कैसेटों और नए-नए रूप में बिके। लेकिन लादेन जी के इतिहास को देखते हुए लग रहा है कि वे जल्द ही महानतम शायरों की सूची में शामिल हो जायेंगे. भाई कौन नहीं चाहेगा उनके लिखे हुए शब्दों को पढ़ना, और कौन प्रकाशक नहीं मना करेगा उनकी किताबों को छापने से. और रही मार्केटिंग की बात तो दुनिया भर में फैले हुए उनके एजेंट भाई लोग ये काम तो आसानी से कर लेंगे. सबसे ज्यादा प्रतियाँ तो दुनिया भर में फैले हुए उनके अनुयायी लोग और उनके विचारो को चारो तरफ़ फैलाने में लगे लोग ही खरीद लेंगे. भारत से लेकर, पाकिस्तान, अमेरिका, लन्दन, अफ्रीका और हर जगह उनकी वीर रस वाली कविताएं खरीदी जाएँगी...हो सकता है कि आगे चलकर वे दुनिया के पहले ग्लोबल शायर के रूप में विख्यात हो जाएँ.

Friday, 19 September 2008

मीडिया ने बनाया आम लोगों को असुरक्षित!

१९९३ के मुंबई धमाकों ने पहली बार आम लोगों को आतंकवाद का शिकार बनाया। इसके पहले तक भारत में आमतौर पर ये माना जाता था कि आतंकवादी अपनी मांगे मनवाने या प्रतिशोध लेने या फ़िर मीडिया में जगह बनाने के लिए केवल वीआइपी लोगों को ही निशाना बनाते हैं. इंदिरा जी और राजीव जी आतंकवाद के इस रूप का शिकार हो चुके हैं. दुनिया के कई और नेता भी इस आतंकवाद का शिकार हो चुके हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी हों, मिस्र के अनवर सद्दात हों, बांग्लादेश के शेख मुजीबुर रहमान आदि नेता तमाम सुरक्षा बंदोवस्त के बावजूद आतंकी हमले के शिकार हो गए. १९८० के बाद का दौर पूरी दुनिया में मीडिया के विकास का दौर कहा जा सकता है. लेकिन जैसे-जैसे मीडिया की ताकत बढती गई-(ख़बरों तक जल्द से जल्द पहुचने, उसे जल्द से जल्द दिखाने और ज्यादा से ज्यादा जगह की खबरों को एक साथ दिखाने की क्षमता) वैसे-वैसे आतंकवादियों ने भी मीडिया का इस्तेमाल करना बखूबी सीख लिया. पहले उन्हें लगता था कि ख़बरों में आने के लिए बड़े लोगों को निशाना बनाना पडेगा, लेकिन मीडिया के मजबूत होने के साथ ही इनका काम आसान हो गया। वीआइपी हमलों को अंजाम देने के लिए उन्हें जहाँ काफ़ी मश्शकत करनी पड़ती थी वही ये रास्ता उन्हें काफ़ी आसान लगा. फ़िर दहशतगर्दों ने अपना तरीका बदला और मुंबई में सिलसिलेवार धमाके कर आम जनता को निशाना बनाया. ऐन इसी वक्त दुनिया के कई हिस्सों में आतंकवादियों ने आम लोगों को निशाना बनाकर कई हमले किए और अपने नए तरीके को लॉन्च किया. अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर २००१ में हुआ हमला इस कड़ी की सबसे बड़ी घटना थी.

मुंबई में जो सिलसिलेवार धमाके हुए उसे पूरे देश और पूरी दुनिया ने देखा। आतंकवादियों के मकसद को, उनके द्वारा अंजाम दिए गए मकसद को और लोगों में उसकी दहशत को मीडिया में खूब जगह मिली। इस सफलता से उत्साहित होकर इन संगठनों ने एक-एक कर कई हमलों को अंजाम दिया। पिछले कुछ सालों में दिल्ली, मुंबई, जयपुर, आँध्रप्रदेश, बनारस, बेंगलोर, अहमदाबाद समेत कई शहरों में आतंकी हमले हुए। ये सारे हमले आम लोगों को निशाना बनाकर सार्वजानिक जगहों पर किए गए थे। हर हमले के बाद सरकार ने आतंरिक सुरक्षा को मजबूत करने का आश्वासन दिया और सुरक्षा तथा खुफिया एजेंसियों को सक्रीय तथा आक्रामक बनाने का प्रण लिया. इन हमलों ने एक बात साफ़ कर दी कि अब तक वीआइपी सुरक्षा को प्राथमिकता देती आ रही सुरक्षा एजेंसियों को अपना तरीका बदलना होगा. अगर आतंकवाद से लड़ना है तो आम लोगों को सुरक्षा प्रदान करना होगा. इस दौरान आम लोगों की अपेक्षाएं बढ़ न जाए इसके लिए बार-बार कहा गया कि देश के एक अरब से ज्यादा आबादी में से हर एक को सुरक्षा प्रदान करना सम्भव नहीं है.

ऐसे वक्त में मीडिया ने काफ़ी हद तक सकारात्मक भूमिका निभाई। सरकार और खुफिया एजेंसियों कि खूब खिंचाई की गई लेकिन कई मौको पर खबरों को सनसनीखेज बनाने और जल्द से जल्द ब्रेकिंग न्यूज़ देने की होड़ में मीडिया ने कई बार आतंवादियों को नए रस्ते भी सुझाए। पिछले सप्ताह दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद मीडिया के द्वारा किए गए २ कामों का मैं जिक्र करना चाहूँगा। दिल्ली में धमाकों के तुंरत बाद जब सभी टीवी चैनलों पर ये ख़बर लाइव चल रही थी तभी एक गुब्बारा बेचने वाला लड़का जो कि बाराखम्भा रोड पर हुए धमाकों का प्रत्यक्षदर्शी था को पुलिस ने पकडा। अचानक सभी चैनलों ने अफरा-तफरी में उसे मानव बम घोषित कर दिया. फिल्ड से लाइव कर रहे और उन्हें स्टूडियो से संचालित कर रहे खबरनवीसों ने आपाधापी में थोडा संयम बरतने का प्रयास भी नहीं किया. उस समय अचानक मानव बम की ख़बर को सबसे अहम् बना दिया गया. रिपोर्टर्स ने यहाँ तक कह दिया कि बच्चे के शरीर पर बम बंधा हुआ है और उसे गुब्बारे का लालच देकर आतंकवादियों ने उसके शरीर पर ये बाँध दिया था. बाद में जब पुलिस ने मामला स्पष्ट किया तब तो मीडिया बैकफूट पर आई और इस ख़बर को हटाया गया. अगर आतंकियों ने अबतक ऐसा करने की कभी सोची भी नहीं हो तो आगे के लिए उन्हें मीडिया ने एक नया तरीका दे दिया. मीडिया की गैरजिम्मेदारी का दूसरा किस्सा प्रिंट मीडिया से आता है। हादसे के २ दिन बाद एक राष्ट्रिय समाचारपत्र ने धमाकों के लिए इस्तेमाल किए गए अमोनियम नाइट्रेट का पूरा विवरण छाप डाला. मसलन ये क्या होता है और किन-किन चीजों के साथ इसे मिलाकर किन-किन विधियों से इससे बम बनाया जा सकता है. इसके एक दिन बाद केन्द्र सरकार ने अमोनियम नाइट्रेट को विस्फोटक की श्रेणी में लाते हुए निर्देश दिया कि इसकी बिक्री में ध्यान दिया जाए.

समाचार के आलावा मीडिया के अन्य माध्यमों ने भी इस मामले पर कम गैरजिम्मेदारी नहीं दिखाई है. सस्पेंस वाले नोवेल पढ़कर अपराध करने के कई किस्से तो हम पहले भी सुन चुके हैं लेकिन अहमदाबाद में जब हाल में हुए धमाकों में से एक अस्पताल में किया गया तब कहाँ गया कि ये हमला हाल ही में आई एक बॉलीवुड फ़िल्म से प्रेरित थी. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सृजनात्मकता की रक्षा के नाम पर इसका बचाव तो किया जा सकता है लेकिन इससे आम लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ सकती है और मीडिया को अपनी इस जिम्मेदारी को भी ध्यान में रखना पडेगा.

Sunday, 14 September 2008

दहशतगर्दी का सिलसिला तो थामना ही पड़ेगा...

वाराणसी-दिल्ली-मुंबई-हैदराबाद-जयपुर-बेंगलूर-अहमदाबाद और अब फ़िर दिल्ली...इससे पहले भी आतंकवादी हमलों का ये सिलसिला चलता रहा है और आगे भी इसके अनवरत चलते रहने में किसी को कोई संदेह नहीं है। इसी सिलसिले के तहत १३ सितम्बर को देश की राजधानी दिल्ली में ५ सिलसिलेवार धमाके हुए. २४ लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पडा और दर्जनों लोग घायल हुए. ये सारे हमले ऐसे जगहों पर हुए जहाँ भीड़-भाड़ ज्यादा थी. करोलबाग के गफ्फार मार्केट में पहला धमाका हुआ...यहाँ दिल्ली के लोग और बाहर से यहाँ आने वाले लोग खरीददारी के लिए आते हैं. इसके बाद कनाट प्लेस में बाराखंभा और सेंट्रल पार्क में धमाके हुए और फ़िर पॉश ग्रेटर कैलाश के मार्केट में धमाके हुए। बाराखंभा जैसे जगह पर लोग ऑफिस से छूटने के बाद बस पकड़ने के लिए आते हैं, शनिवार का दिन होने के कारण ग्रेटर कैलाश के बाज़ार में चहल-पहल थी. वीकएंड मनाने के लिए बड़ी संख्या में लोग सेंट्रल पार्क में जमा थे. तभी इन जगहों पर धमाके किए गए और लोगों को शिकार बनाया गया...

दिल्ली में आतंकी हमलों की ख़बर टीवी चैनलों पर दिखने लगी। दिल्ली में अफरा-तफरी क्या मची पूरे देश से यहाँ रह रहे लोगों के पास फ़ोन आने लगें। अफरा-तफरी के माहौल में पूरा देश अपने-अपने लोगों की कुशलता जानने के लिए व्यग्र था. दिल्ली में मोबाइल नेटवर्क जाम हो गया. लोग डरे-सहमे थे. दिल्ली के लिए पिछले कुछ सालों में ये दूसरा मौका था. लोग अभी भी सरोजिनी नगर और अन्य जगहों पर हुए धमाको की दर्द से उबर नहीं पाये हैं. यही मकसद दहशतगर्दी फैलाने वालों का था और वो अपने मकसद में कामयाब दिखे. लोग गुस्से में थे. अस्पतालों में राजनीतिक नेताओं के दौरे होने लगे. सरकार की ओर से मृतकों को मुआवजे का ऐलान भी कर दिया गया. गृहमंत्री ने टीवी के सामने आकर कह दिया कि लोग शान्ति बनाए रखे और घबराए नहीं. लेकिन लोगों को सरकार के किसी भी आश्वासन पर भरोसा नहीं हुआ . पुलिस ने जांच शुरू कर दी...और हर हमले की तरह देश के इतिहास में ये भी एक किस्से के रूप में दर्ज हो गया...हर साल १३ सितम्बर को कुछ मनाने के लिए.

प्रधानमंत्री से लेकर सभी लोगों ने हमले की निंदा की. गृह मंत्री महोदय ने कहा कि दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा. इसी समय देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी आईबी का बयान आया कि उन्होंने पहले ही इन हमलों का अंदेशा जताया था. बेंगलोर में भाजपा का सम्मलेन चल रहा था. भाजपा ने लगे हाथों सरकार की निंदा कर दी और सरकार की लापरवाही को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया. पोटा जैसे कड़े क़ानून की वकालत करते हुए भाजपा ने कह दिया कि अगर वो सत्ता में आई तो १०० दिनों में पोटा लागू किया जाएगा. टेलिविज़न चैनलों पर आने वाले बड़े-बड़े विशेषज्ञों ने तमाम तरह से हमलों का विश्लेषण किया. पिछले हमलों से उसकी समानताओं का अवलोकन किया जाने लगा और विभिन्न शहरों में हुए हमलों को जोड़कर आतंकी ऑपरेशन को कोई नाम देने का प्रयास किया जाने लगा. सुबह के अखबारों में बड़े-बड़े अक्षरों में बेंगलोर और अहमदाबाद से दिल्ली हमलों को जोड़कर ऑपरेशन-बीएडी नाम दे दिया गया.

सबके बयान आए लेकिन इससे लोगों को ये भरोसा दिला पाना मुश्किल दिख रहा है कि अगली बार जब वे किसी बाज़ार में खरीददारी के लिए जायेंगे, किसी पार्क में घुमने जायेंगे, सिनेमा हॉल में फ़िल्म देखने जायेंगे, ट्रेन और बस से सफर करने जायेंगे या फ़िर कहीं भी सार्वजानिक जगह पे जायेंगे तो सुरक्षित रह पाएंगे. दूसरी समस्या ये भी है कि क्या हमला करने वालों को रोका जा सकता है... इतना आसान नहीं लगता ये सब लेकिन क्या ये ऐसे ही होता रहेगा और लोग इसके शिकार होते रहेंगे या फ़िर इसके ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी जायेगी. क्या देश के लोगों को सुरक्षित रखने के लिए बाहर से आने वाले आतंकवादियों और हथियारों को सीमा के बाहर ही नहीं रोका जा सकता. क्या अपने देश के हर नागरिक को पहचान-पात्र देकर अवैध लोगों को पहचाना नहीं जा सकता. बाहर से हमलावर नहीं आ पायें इसके लिए क्या पड़ोसी देशों पर कडाई नहीं की जा सकती और सबसे बड़ी बात कि देशविरोधी काम में शामिल अपने देश के लोगों को क्या दण्डित नहीं किया जा सकता। वो कोई भी हो और किसी भी समुदाय से क्यूँ न हो उन्हें दण्डित करना पड़ेगा और उनका समर्थन करने वाले हर शख्स की गिरेबान पकड़नी होगी। पोटा जैसा या उससे भी कडा कानून अब नहीं लाया जाएगा तो कब. क्या देश के लोगों को इस मामले पर खुलकर खडा नहीं होना चाहिए. लोग जब तक खड़े नहीं होंगे तबतक राजनीतिक नेतृत्व पर कड़े कदम उठाने का दबाव नहीं बनेगा और लोग ऐसे ही इस दहशतगर्दी के शिकार होते रहेंगे...

Friday, 12 September 2008

चलो एक दिन कुछ पॉजिटिव सोच लें...

लगातार सुबह से ही कई टीवी चैनलों, समाचार वेबसाइट्स और अखबारों में खबरें आ रही थी। पहले तो मुझे समझ में नहीं आया कि माजरा क्या है लेकिन जब उत्सुकता बढ़ी तो हमने इस ख़बर की तह में जाने का फ़ैसला किया। पता चला कि ये सब १३ सितम्बर को लेकर हो रहा है। दरअसल सकारात्मक सोच को बढ़ावा देने के लिए पश्चिमी देशों में हर साल 13 सितंबर को पाजिटिव थिंकिंग डे (सकारात्मक सोच दिवस) मनाया जाता है। जिस दिन लोग सही सोच के साथ दिन शुरू करते हैं और सामाजिक कल्याण में भागीदारी करते हैं। इसे वहां के लोग जीवन पर लगातार हावी हो रहे नकारात्मकता पर काबू पाने के हथियार के रूप में देख रहे हैं। इसे हमारे देश की मीडिया ने भी इस बार खूब तवज्जो देनी शुरू की है। हो सकता है पिछले सालों में भी हमारी मीडिया ने १३ सितम्बर को मनाया हो लेकिन मेरे लिए इस दिवस का अनुभव पहला है। इमानदारी से कहूँ तो जितना दिवस पश्चिम के लोग मानते हैं उतना मना पाना हमारे बस की बात नहीं है। यहाँ तक कि वे लोग तो फादर्स डे, मदर्स डे और न जाने ऐसे ही कितने दिवस मनाते हैं। अब इसके लिए तो एक देरी रखनी पड़ेगी और किन लोगों को साल के किस तारीख को याद करना है इसकी पूरी सूची बनानी पड़ेगी।

वैसे जहाँ तक मेरा मानना है कि पॉजिटिव थिंकिंग के लिए हमारे देश में कई सारे दिवस पहले से ही फिक्स हैं। हमारे यहाँ जीतने भी त्योहार हैं सब इसी सोच पर आधारित हैं। इन दिनों पर लोगों को पॉजिटिव थिंकिंग रखना पड़ता है, पॉजिटिव लाइफ जीना पड़ता है और सब-कुछ पॉजिटिव ही करना पड़ता है। इस दिन पॉजिटिवीटी अनिवार्य हो इसके लिए धार्मिक डर भी होता है। लेकिन ये बात पश्चिम के पाजिटिव थिंकिंग डे में नहीं है। वैसे एक चीज इस डे में अच्छी है। भारत में ज्योतिष हस्तरेखा, रूद्राक्ष आदि का सहारा लेकर जो अपने जीवन में पॉजिटिवीटी लाना चाहते हैं उनके बनिस्पत तो ये दिवस मनाना ज्यादा व्यावहारिक ही कहा जाएगा। हो सकता है ये समाज के लिए नई परिपाटी गढ़ रही हो... और आने वाले समय में समाज कि दिशा तय करे...समय के बदलते रुख पर किसी कवि ने सच ही कहा है...
"जानें क्या रौंदें
क्या कुचलें
इनकी मनमानी
लगता है
अब तो सिर तक
आ जाएगा पानी
आने वाला कल
शायद इनके
तिलिस्म तोडे।