Sunday 25 May 2008

कुछ सपनों के मर जाने से.जीवन नहीं मरा करता...

कवि नीरज ने कहा था -
’छिप छिप अश्रु बहाने वालों
मोती व्यर्थ लूटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है।"

आज सुबह अखबार पढ़ते-पढ़ते ये पंक्तियाँ याद आ गई। टीवी और अखबार में इधर कई दिनों से देश के दो बड़े शहरों में हुई दो घटनाएँ छाई हुई है। पहली है राजधानी दिल्ली से सटे नॉएडा शहर की- आरुषी हत्याकांड, और दूसरी भी देश के एक मेट्रो शहर की है, मुम्बई का मशहूर नीरज ग्रोवर हत्याकांड। आधुनिक होते भारतीय समाज में इन दोनों घटनाओं ने सामाजिक मूल्यों को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। तमाम मंचों पर ये चर्चा शुरू हो गई है कि कहीं भारतीय समाज आधुनिक बनने के फेर में अपना आधार तो नहीं खोता जा रहा है। इसमें सबसे ज्यादा निशाना टीवी द्वारा भारतीय घरो में फैली जा रही संस्कृति को बनाया जा रहा है। इसी के साथ आज के अखबार में एक सर्वे भी छपा था- भारतीय शहरों में हो रहे ज्यादातर अपराधों का कारण प्रेम और सेक्स है। गाँव में अपराध के पीछे कारण अलग हैं लेकिन शहर के अपराध ज्यादातर आधुनिकता से पैदा हुए हैं। जाहीर है जब समस्या इतनी गंभीर रूप लेती जा रही है तो आधुनिकता की ओर देखकर आगे बढ़ रहे भारतीय समाज में इन बातों पर बहस होगी ही।

नॉएडा और बेंगलोर में हुए अपराधों की प्रकृति भी कुछ अलग है। नॉएडा के अरुशी हत्याकांड में जैसा की पुलिस बता रही है मामला परिवार व्यवस्था के टूटने का है। मामला अवैध प्रेम संबंधों के आगे परिवार की स्थिरता और प्रेम के हथियार डालने का है। जाहीर है ये पिछले कुछ सालो से चर्चा में रहे उन्मुक्त जीवन और प्रेम की उन्मुक्तता जैसे सवालों से उपजी हुई सामाजिक विकृति है जो वैवाहिक रिश्तों में विस्वास को स्पेस नहीं देती और फ़िर अपनी गलतियों को छुपाने के लिए किसी रिश्ते की पहचान नहीं करता और इसी उधेर्बुन में पूरे परिवार की तबाही का कारण बनता है। दूसरा मामला मुम्बई का नीरज ग्रोवर हत्या काण्ड है जो अतिआधुनिक उच्च वर्ग से सम्बन्ध रखता है। इसमें एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को किसी और के साथ रंगे हाथों पकड़ता है और फ़िर लड़ाई में एक की हत्या हो जाती है। लाश को छुपाने के लिए फ़िर प्रेमी-प्रेमिका मिलकर उसे टुकड़े-टुकड़े करते हैं और फ़िर बाद में पकड़े जाते हैं। दोनों अभियुक्तों अपने जीवन में सफल लोग हैं लेकिन निजी जीवन में उनकी असफलता उनकी सारी सफलता को बेकार कर देती है। ये दोनों किसी फिल्मी कहानी का हिस्सा नहीं है बल्कि हमारे आज के समाज में हुई दो घटनाएं हैं जो टीवी की संस्कृति से उपजी है और आगे आने वाली सामाजिक समस्यायों की ओर इशारा करती है। लेकिन सवाल यहाँ यही है हमें ही इन समस्यायों से उबरने का रास्ता भी दुन्धना पडेगा। कैसे इन चीजों से उबरकर समाज में, परिवार व्यवस्था में बिश्वास बनाये रखा जा सकता है। फ़िर कवि नीरज के इन्हीं पंक्तियों से ख़त्म करते हैं अपनी बात-
याद रख जो आँधियों के सामने भी मुस्कुराते,
वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते ...!

2 comments:

ghughutibasuti said...

हमारी नई पीढ़ी इन दुखद घटनाओं से कुछ सीख लेने का यत्न कर रही है यह जानकर खुशी व आशा का संचार होता है। हर नई चीज बुरी नहीं होती हर पुरानी चीज अच्छी नहीं होती। हमें दोनों में से बेहतर चीजें चुननी होंगी।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

घुघूती जी पूर्णतः सहमत.