Thursday 3 April 2008

कहाँ हैं हमारे देश के बर्नी और कार्टर!

पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तान के पूर्व मानवाधिकार मंत्री अंसार बर्नी ख़बरों में छाये हुए है। खासकर भारत के मामले में इन दिनों बर्नी काफ़ी चर्चा में है। कश्मीर सिंह की रिहाई का काफ़ी श्रेय जाता है। इतना ही नहीं अब इससे भी आगे जाकर बर्नी सरबजीत सिंह के मामले में भी आगे आए हैं। वे इस काम के लिए भारत की यात्रा भी करना चाहते हैं, ताकि यहाँ आकर सरबजीत सिंह कि बेगुनाही के साबुत जुटा सकें। जाहीर है अगर बर्नी के प्रयासों को समर्थन मिले तो भारत और पाकिस्तान की जेलों में बंद कैदियों की रिहाई का काम आसान हो सकता है। और सकदों परिवारों को रहत मिल सकती है। ऐसी ही एक ख़बर और है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर को अमेरिका ने नेपाल में चल रही राजनीतिक विवाद के समाधान के लिए वार्ताकार नियुक्त किया है। बिल क्लिंटन भी राष्ट्रपति पद से हटने के बाद संयुक्त राष्ट्र के लिए हमेशा सक्रिय रहे हैं।

हमारे यहाँ भी लोकतंत्र है। इन दोनों देशों से ज्यादा मजबूत लोकतंत्र का दावा हम करते हैं। हमारे यहाँ नेताओं की एक बड़ी जमात भी है। लेकिन हमारे यहाँ राजनीति की परम्परा उतनी मजबूत नहीं है जितनी की इन देशों में दिखती है। अमेरिका के जिम्मी कार्टर सत्ता से बाहर हुए तो मध्य-पूर्व शान्ति वार्ता में सक्रिय हो गए। इस काम के लिए उन्हें शान्ति का नोबल पुरस्कार भी दिया गया। अमेरिका में सत्ता बदली तो वहाँ के राष्ट्रपति क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र की sansathon के साथ काम करना शुरू कर दिया। पूर्व मेरिकी उपराष्ट्रपति अल गोर ने सत्ता से हटने के बाद पर्यावरण संरक्षण के काम में अपना जीवन लगा दिया। उन्हें इस काम के लिए इस साल नोबल पुरस्कार भी मिला। ऐसे ही दुनिया में ना जाने और भी कितने उदाहरण हैं जो राजनीति से आगे समाज के लिए काम करने के मशहूर हुए है।

इन सब में भारत और पाकिस्तान का मामला कुछ अलग है। कश्मीर को लेकर दोनों देशों के सम्बन्ध हमेशा ख़राब रहे हैं। पाकिस्तान के अंसार बर्नी सत्ता से बाहर हुए तो अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था से जुड़ गए। पूरे उपमहाद्वीप के लिए नासूर बने भारत-पाकिस्तान के समबंधो में हाथ आजमाने की हिम्मत कम ही लोग करते हैं, लेकिन बर्नी ने विरोध और धमकी की सारी संभावनाओं को देखते हुए भी इस नेक काम में हाथ डाला। लेकिन ऐसा भारत में नहीं होता हमारे यहाँ राजनेता tab तक सत्ता में बने रहना चाहते हैं जबतक उनकी काफ़ी ज्यादा उम्र नहीं हो जाती। यहाँ के राजनेता सत्ता से अलग बहुत कम ही अपनी पहचान बना पाते हैं। कुछ अगर बनाते भी हैं तो इक्के-दुक्के। या फ़िर यहाँ ये भी माना जाता है की जो लोग समाजसेवा के काम में लग जायेंगे उनके लिए राजनीति में सफलता की संभावना काफ़ी कम हो जाती है। लोग फ़िर उन्हें राजनीति से दूर ही देखना पसंद करते हैं। अब हम मेधा पाटकर का उदाहरन लेते हैं। देश की जनता आम लोगों के लिए उनकी लड़ाई की कायल है लेकिन जब उन्होंने राजनीतिक पार्टी बनाकर चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमाई तो उन्हें लोगों ने साफ नकार दिया। हमारे यह इस तरह कि परम्परा नहीं बन पा रही है क्योंकि हमारी जनता ऐसा नहीं चाहती और ऐसे लोग राजनीति में नहीं आ पाते जो समाज के लिए आगे बढ़कर कोई कदम उठाने कि हिम्मत करते हैं.........वरना हमारे देश में भी कार्टर, बर्नी, गोरे और क्लिंटन जैसे नेताओं कि कमी नहीं रहती.......

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