Sunday 27 November 2011

स्टूपिड कॉमन मैन का गुस्सा और कल्लन काका की चिंता..! (....वयंग्य...)

रोज बढ़ती महंगाई और देश के सार्वजनिक धन की लूट और घोटालों की खबरों से आजिज आकर एक आम आदमी द्वारा राजधानी दिल्ली में देश के कृषि मंत्री साहब को चांटा जड़ने की खबर जब से आई है हमारे गांव के सरपंच कल्लन काका ख़ासे चिंतित दिख रहे हैं। काका का दाहिना हाथ मोहन उनकी इस चिंता को समझ रहा है और सूख-सूख कर कांटा होता जा रहा है। आखिर काका गांव के सार्वजनिक जीवन के एकलौते चिराग हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेताओं की तरह उन्हें भी तो गांव के विभिन्न मोहल्लों में रोजाना आयोजित होने वाले बहस-मुबाहिसों और सार्वजनिक कार्यक्रमों में गरीबों और गरीबी पर चर्चा के लिए जाना पड़ता है। और अगर लोगों में इस कदर रोष बढ़ता गया तो काका के लिए चिंता की बात तो है हीं।
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वैसे भी जब से देश में ग्लोब्लाइजेशन आया है कल्लन काका दुनिया भर में होने वाली गतिविधियों पर बड़ी पैनी नज़र रखते हैं। काका सोचने लगे- एक उनका जमाना था जब दुनिया में होने वाली किसी-किसी घटना की जानकारी गांव के लोगों तक पहुंच पाती थी और अगर पहुंचती भी थी तो हफ्ते-दो हफ्ते बाद। तब हालात आज के ट्विटर युग की तरह नहीं था कि इधर घटना घटी और उधर नेता जी ने ट्विट कर उसपर प्रतिक्रिया दे दिया। तब जनता के पास भी फेसबुक, ट्विटर और ऑर्कुट जैसे आधुनिक संचार अस्त्र नहीं हुआ करते थे। तब इतना क्विक रिएक्शन नहीं होता था। नेता लोगों की भी तब कितनी इज्जत होती थी। अगर कोई नेता गांव में पहुंच जाये तो लोग कभी उसके बराबर नहीं बैठते थे। आम लोग हाथ जोड़े सामने नीचे बैठते थे और मांई-बाप जैसी फीलिंग देते थे। आज पता नहीं ये कौन सा जमाना आ गया। आज नेता लोगों की कोई सुनता तो है नहीं, उल्टे पीठ पीछे पता नहीं कितनी गालियां रोज सुननी पड़ती है। किसी को नौकरी नहीं मिली तो गाली, किसी को अस्पताल में जगह नहीं मिली तो गाली, कोई सड़क पर पैदा हो गया तो गाली, गांव-कस्बे की सड़क में पानी जमा हो गया तो गाली,  किसी को स्कूल में एडमिशन नहीं मिली तो गाली, कोई भूखा है तो गाली, कोई अमीर हो रहा है तो गाली। अब भला क्या-क्या जिम्मेदारी निभाये बेचारे अकेले नेताजी। अच्छा कुछ हो तो कोई याद नहीं करता लेकिन कोई भी समस्या हो तो आरोप लगाने के लिए नेता जी मिलते हैं बेचारे सबसे दीन-हीन। कितना भी इस आम जनता के लिए पसीना बहाओं लेकिन पीठ पीछे ये लोग कहते हैं कि नेता लोग कुछ करते ही नहीं। काका के मुंह से अचानक निकल पड़ा- उफ्, क्या जमाना आ गया।
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इधर कुछ दिनों से काका महसूस कर रहे हैं कि जब भी वे चौपाल पर जाते हैं कुछ लोग आपस में फुस-फुसा कर बात कर रहे होते हैं। कल काका से रहा नहीं गया तो उन्होंने रमेश से पूछ ही डाला की भई बात क्या है जो आप लोग आपस में फुस-फुसा रहे हैं। रमेश ने कहा कि काका गांव की नीतियां आम लोगों के हित में नहीं हैं और लोगों को इस व्यवस्था से कोई फायदा नहीं हो रहा। काका की टीम के लोगों ने रमेश को तो चुप्प करा दिया लेकिन उसके पीछे कई और लोग भी बोल रहे थे। काका को काफी गुस्सा आया। पता नहीं आज अचानक इस कॉमन मैन को अपनी चिंता कहां से होने लगी। आखिर हम नेता लोग पिछले 64 साल से किसकी चिंता कर रहे हैं? इसी आम आदमी की ना। काका ने मंच पर खड़ा होकर लोगों को आश्वासन दिया कि पंचायत ने आम लोगों के भले के लिए बहुत सारे कदम उठाये हैं, बहुत सारी योजनाएं बनाई है और और भी कई कदम उठाये जा रहे हैं। इसलिए आप लोग निश्चित होकर लोकतंत्र का सुख भोगिये हम आपको कोई तकलीफ नहीं होने देंगे। गांव में आपकी भलाई के लिए सारी व्यवस्थायें की गई हैं। आपके बच्चों की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल खोले गये हैं, आपके इलाज के लिए सरकारी स्वास्थ्य केंद्र, पशुओं के इलाज के लिए पशु स्वास्थ्य केंद्र, आपके चलने के लिए ईंट की सड़के, आपके पानी पीने के लिए गांव में दो नलकूप लगवाये गये हैं, सिंचाई के लिए तालाब आदि सभी व्यवस्थाएं हैं। एक दम रामराज्य हैं गांव में।
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ये अलग बात है कि गांव के स्कूल में टीचर नहीं है और जो हैं वे दोपहर के खाने की तैयारी में इतने व्यस्त रहते हैं कि पढ़ाई-लिखाई पर कंस्ट्रेट नहीं कर पाते, लेकिन काका को पता है कि पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा जरूरी खाना है इसलिए मास्टर जी को काका का सख्त निर्देश है कि दोपहर के खाने में कोई देरी नहीं होनी चाहिए। गांव में स्वास्थ्य केंद्र तो है लेकिन डॉक्टर नहीं है। वहां काका ने अपनी बहु को नर्स के रूप में भर्ती तो करा दिया था लेकिन भला उनकी बहुरिया स्वास्थ्य केंद्र में जाकर कैसे बैठ सकती है। वैसे शहर से कोई दवा वगैरह भी नहीं मिल पाता है। ये अलग बात है कि आज तक कोई भी गांव वाला काका के घर तक आकर इलाज की मांग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। गांव में पशुओं के इलाज का अस्पताल भी काका के बथान में ही चलता है और काका के नौकर बब्बन का नाम पशु चिकित्सक के नाम पर दर्ज है। वैसे मवेशियों के करीब रहते-रहते बब्बन जी अब पशुओं की कई बीमारियों का इलाज भी ठीक-ठाक करने लगे हैं। गांव में सड़कों की बात मत पूछिये। पिछले साल ही चुनाव से पहले काका ने 20 हजार ईंटे गिरवाकर गांव के मुख्य मार्ग का पुननिर्माण कराया था लेकिन ससुरी बरसात की कौन कहे। बारिश की बूंदे गिरती नहीं है कि साली सड़क कीचड़ से भर जाती है और ये गांव के गंवार लोग पता नहीं कैसे चलते हैं कि सड़क की दुर्दशा कर डालते हैं। अब गांव के लोगों को सड़क पर चलना तो काका सिखा नहीं सकते लेकिन काका ने तय कर लिया है कि अगले चुनाव आने से ठीक पहले ही अब मरम्मत करवाएंगे। ये अलग बात है कि शहर के प्रखंड कार्यालय में उन्हें हर साल गांव के सड़क की मरम्मत के खर्च का बजट पेश करना पड़ता है और काका ने दो माह पहले ही मरम्मत का खर्च दिखाकर चार लाख की रकम हासिल की थी। अब इसी से काका की इकॉनामी भी तो चलती है। काका ने सोचा आखिर वे गांव के थाती ही तो हैं उनका विकास भी तो गांव के विकास बराबर ही है।
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काका समझ नहीं पा रहे थे कि जो आम आदमी नेता बिरादरी के लिए चुनावों के मौसम में सबसे बड़ी थाती हुआ करता था वही आज उसके खिलाफ क्यों होता जा रहा है। काका को याद आया कि पिछले माह पास के मुहल्ले के दौरे के दौरान कैसे कुछ असामाजिक तत्वों ने उन्हें काला झंडा दिखाते हुए पोस्टरों के जरिये कैसे उन्हें आम आदमी के विरोधी के रूप में प्रचारित किया था। हालांकि तब काका की युवा सेना ने उन बिगड़ैल युवाओं के हाथ-पांव सही-सलामत नहीं छोड़े थे। अगले दिन थानेदार साहब को बुलाकर काका ने कार्रवाई की रिपोर्ट ली थी और जब थानेदार साहब ने उन्हें बताया कि काला झंडा दिखाने वालों पर देश-द्रोही होने और असमाजिक तत्व होने जैसे तमाम चार्ज लगा दिये गये हैं तब जाकर काका को गांव में लोकतंत्र के सुरक्षित हाथों में होने का सुकून मिला। आखिर इतने सालों तक प्रशासन के साथ काका की नजदीकी गांव की सुरक्षा में काम तो आनी ही थी।
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काका की चिंता बढ़ती जा रही थी और ऐसे में उनकी सलाहकार टीम ने मोर्चा संभाला। आनन-फानन में काका ने अपनी कोर टीम की बैठक बुलाई और गांव के आम आदमी की चिंताओं के समाधान के लिए चार सदस्यीय एक कमिटी की गठन कर दिया। कमिटी के अध्यक्ष बनाये गये काका के दायें हाथ कहे जाने वाले मोहन जी। कमिटी के अन्य सदस्य थे काका के पुराने सिपहसलार और पिछले 40 सालों से गांजा का कश लेने में उनके सहयोगी रहे गोवर्द्धन भाई, काका के कार्यक्रमों के आयोजनों के प्रमुख फाइनेंसर और गांव के प्रसिद्ध लिक्वुअर व्यापारी खेदन जी और काका की युवा मुस्टंडों की टीम के प्रमुख कालीचरण जी। कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में गांव के समक्ष प्रमुख चुनौतियों की सूची प्रस्तुत की- यूरोजोन क्षेत्र में आर्थिक मंदी से गांव को कैसे सुरक्षित रखा जाये? गांव में प्रशासन को सुविधाजनक बनाने के लिए गांव को कैसे चार भागों में बांटा जाये, और उसकी रूपरेखा क्या हो? कैसे आम आदमी की समस्याएं दूर करने के लिए नई योजनाएं लाने की काका सोच रहे हैं? आदि..आदि। काका से समूचे गांव की मीटिंग बुलाकर घोषणा कर दी कि पंचायत गांव की बेहतरी के लिए और लोगों की समस्याओं को खत्म करने के लिए कमिटी की इस रिपोर्ट पर जल्द ही अमल करेगी। काका ने घोषणा कर दी कि पंचायत की सरकार लोगों के लिए हित के लिए काम कर रही है और आम लोगों का भविष्य उनके हाथों में एकदम सुरक्षित है।
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काका गांव के बदलते माहौल से चिंतित थे कि जिस आम आदमी की तरक्की और कल्याण की बात कर पिछले 40 सालों से वे औऱ उनके जैसे नेता बिरादरी के लोग देश में पिछले 64 सालों से देश में लोकतंत्र का पोषण कर रहे हैं अचानक आज वो आम आदमी इतना हिंसक क्यों होता जा रहा है। आखिर क्या नहीं किया इस आम आदमी के लिए हमारी बिरादरी ने। चावल-गेंहू से गोदाम और चक-मक इलेक्ट्रॉनिक आइटमो और फैशनेबल कपड़ों जैसे विदेशी आइटमों से बाजार भर दिये। अंतरराष्ट्रीय संधियों के जरिये हमारी बिरादरी ने एक से बढ़कर एक अत्याधुनिक लैपटॉप, मोबाइल फोन, आइफोन, ब्लैकबेरी और न जाने कौन-कौन से आधुनिक यंत्र इस देश के लोगों के लिए मंगाये लेकिन ये आम आदमी उसे बाजार से खरीद भी नहीं सकता। अब क्या सारी चीजे राजनीतिक बिरादरी उन्हें मुफ्त में उनके घर तक पहुंचाये। कहां हम लोग चांद-सूरज की बातें सोचते हैं और ये आम लोग आज भी हमें रोटी-कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सवालों में ही उलझाये हुयें हैं।
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काका को आम लोगों के बीच बढ़ती उग्रता काफी चिंतित किये जा रही थी। आखिर अहिंसावादी गांधी के इस देश के लोगों को क्या हो गया है? काका ने तुरंत गांव में अहिंसा को प्रचारित करने के लिए एक दिन के उपवास, चरखा काटने और गांव भर में शांति यात्रा की घोषणा कर दी।

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