Saturday 5 November 2011

लाचार है तो ये सरकार क्यों है?


टीवी पर समाचार चल रहा था। स्क्रीन पर लिखित में खबरें चल रही थी-
{ 12 माह में 11वी बार पेट्रोल कीमतों में इजाफा़. महंगाई पर होगा इसका सीधा असर.
वित्त मंत्री ने कहा- कीमतें नियंत्रणमुक्त और इसमें कुछ भी कर पाने में सरकार है लाचार। }

अचानक पीछे से आई पत्नी की टिप्पणी से तंद्रा टूटी-
"लाचार है तो ये सरकार क्यों हैं?
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इस टिप्पणी ने सोचने को मजबूर कर दिया कि हम किस लोकतंत्र में रह रहे हैं। जिस राजनीतिक बिरादरी को चुनकर इसलिए दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठानों पर देश की जनता ने काबिज कराया है कि वे उनकी समस्याएं कम करेंगे, उनकी बेहतरी के लिए योजनाएं बनाएंगे और इसके एवज में जनता द्वारा दिये जा रहे कर में से बड़ी राशि इस जमात पर खर्च किया जाता है तो फिर उसी जनता का काम करने में ये जमात खुद को लाचार क्यों महसूस कर रहा है। पिछले तीन-चार सालों में महंगाई लगातार बढ़ रही है, सरकार कहती है ये प्रगति की निशानी है। वैसे भी अगर कागजी आंकड़ों को देखे तो हमारे राजनीतिक नेतृत्व, योजनाकारों और प्रशासनिक तंत्र ने आजादी के इन 64 सालों में देश की प्रगति के लिए बहुत कुछ किया है। लेकिन जमीनी हकीकत इससे कुछ अलग नज़र आती है।

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आज सफलता के तमाम आंकड़ों के बावजूद हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां के 26 करोड़ लोगों(लगभग अमरीका की आबादी के बराबर) को एक समय भूखे सोना पड़ता है, जहां के 42 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं, जहां की आबादी में से 79 फीसदी लोग 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम की आय पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। खेती बर्बाद हो रही है, किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। रख-रखाव भंडारण की पर्याप्त सुविधा होने से हरेक साल 50,000 करोड़ से ज्यादा का खाद्यान्न बर्बाद हो रहा है। दूसरी तरफ आलम ये है कि देश में कोई भी परियोजना भ्रष्टाचार की भेंट चढे बिना अगर पूरी हो जाये तो गनिमत ही है। बड़े-बड़े पदों पर जिन लोगों को बैठाया गया वे हजारो-लाखों करोड़ के घोटालों के साथ जेल जा रहे हैं ये अलग बात है कि जेल में रहकर भी वे महामहिम ही होते हैं। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जिस संसद को सर्वोच्च माना जाता है उसी संसद में 162 सांसद आपराधिक मामलों से सुसज्जित हैं इसे लेकर देश की सर्वोच्च न्यायपालिका चिंता भी जता चुकी है। फिर भी हमे अपने लोकतंत्र पर गर्व है। 
64 सालों से तिरंगा ढोते भारत की इस बदरंग होती तस्वीर को देखकर फैज की ये पंक्ति याद आती है-
वो 
इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर  तो नहीं।"
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देश को भोजन देने वाले खेती की हालत ऐसी है कि खेती की परंपरागत व्यवस्थाएं खत्म होने के कगार पर हैं, और आधुनिक तकनीक की पहुंच इतनी महंगी है कि भारत का किसान उसके साथ चलकर अपना खर्चा भी नहीं निकाल सकता। ग्रामीण इलाकों से लोगों का पलायन रूकने का नाम नहीं ले रहा। सिंचाई के परंपरागत साधन सूख रहे हैं, पशुपालन खत्म होने के कगार पर है। वैसे परंपरागत व्यवस्था त्यागने की कीमत हमारे अन्नदाता किसान लगातार आत्महत्याओं के रूप में चुका रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 1997 से लेकर पिछले साल के अंत तक के 13 सालों में दो लाख सोलह हजार पांच सौ किसानों ने आत्महत्या की। इस दौरान शहरी भारत में तरक्की के प्रतीक माने जाने वाला सेंसेक्स सफलता की नई ऊंचाईयां भरता रहा। ये अलग बात है कि इस सेंसेक्स की कुंलाचों का मतलब और उसका अर्थ देश के अधिकांश लोगों के लिए आज भी एक रहस्य ही हैं।
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फिर भी तरक्की के तमाम आंकड़ों को गिनाती ये सरकारें और योजनाकार हर बहस-मुबाहिसें में कहते हैं कि हम आम आदमी के लिए चिंतित हैं औऱ उन्हीं के लिए काम कर रहे हैं। शायद इसी मौके के लिए शायर दुष्यंत कुमार ने लिखा था-
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
,आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा।"
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अगर हम ये सोचे कि समस्याएं केवल ग्रामीण भारत में ही हैं तो ये सही नहीं होगा। शहरों में भी जीवन कम मुश्किल नहीं होता जा रहा है।  आबादी बढ़ रही है, शहर फैल रहे हैं। लोग गांवों से काम के लिए शहर की ओर भागते रहे हैं। पानी खत्म हो रहा है, जगह कम पड़ती जा रही है। नौकरियां खत्म हो रही हैं। वगैरह.वगैरह।
समस्या केवल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की ही नहीं है सबसे पुराने और सबसे मजबूत लोकतंत्र की भी हालत कुछ अलग नहीं है। आर्थिक समृद्धि और पूंजीवादी कॉरपोरेट कल्चर का प्रतीक माने जाने वाले न्यूयॉर्क के वॉल स्ट्रीट से शुरू हुआ पूंजीवाद विरोधी प्रतिरोध आज ब्रिटेन और यूरोप के देशों समेत 82 देशों के 951 शहरों तक फैल चुका है। सत्ता के खिलाफ उपजे असंतोष में इस बीच अरब के कई देशों की सरकारें उखड़ चुकी हैं। इन सबका संदेश एक ही है कि अगर सरकारें लोगों की खुशहाली नहीं ला सकती, लोगों की समस्याएं दूर नहीं कर सकती, उनकी बेहतरी के लिए योजनाएं नहीं बना सकती और उसे जमीन पर लागू नहीं कर सकती तो फिर उनके होने का औचित्य क्या है? जिस आम आदमी के नाम पर आज तक लोकतांत्रिक देशों के सत्तानशीन राज करते रहे हैं उनकी जनता के मन में आज एक ही सवाल कौंध रहा है कि अगर वे अपने लोगों के लिए काम नहीं कर सकते तो फिर उन्हें जनता के पैसे पर क्यों होना चाहिए?
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आर्थिक मंदी के नाम पर अमेरिका समेत तमाम देशों में कई तरह की खर्च कटौतियों की बातें सरकारों की ओर से की जा रही है लेकिन कोई इन हुक्मरानों से ये पूछे कि कटौती केवल आम जनता की नौकरियों, उनकी जरूरी सुविधाओं, उनके कल्याण के कामों पर हो रहे खर्चों में ही क्यों होती हैं? राजनेताओं को दिये गये आलीशान बंगलों, गाड़ियों के काफिलों, जहाजी यात्राओं, उनको मिल रही भारी-भरकम सुविधाओं आदि में क्यों नहीं कटौती की जाती? आखिर वे देश के लिए बनाये गये हैं और अगर कटौती होनी चाहिए तो पहले ऊपर से होनी चाहिए।
कभी विश्वविजय का सपना देखने वाले सिकंदर के देश यूनान यानि ग्रीस के लोग आज इसी बात के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें इसी बात की शिकायत है कि कोई एजेंला मार्केल और सारकोजी क्यों इस बात का फैसला करें कि उसके देश में कितनी नौकरियां कम होनी चाहिए, पेंशन में कितनी कटौती होनी चाहिए और नौकरीपेश लोगों के वेतन में कितने की कमी की जानी चाहिए। इसके बदले वहां की जनता ये  चाहती है कि इस सारे घाटे औऱ देश के आर्थिक दिवालियेपन के जिम्मेदार लोगों को सजा दी जा रही। अपनी इन मांगों को लोकतांत्रिक तरीके से रखने वाले लोगों के तरीके को ये तथाकथित सरकारें अंग्रेजी में -uprising- कहती हैं। पूंजीवाद के सामने खुद को असुरक्षित महसूस कर रही हर देश की जनता आज अगर अपनी आवाज उठा रही है तो सरकारें वाकई अब तक के इतिहास के सबसे असुविधाजनक स्थिति में है।
शायद इसी हालात के लिए जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त ने लिखा था-
"
अखबार का हॉकर सड़क पर चिल्ला रहा था

कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है

अब कड़े परिश्रम, अनुशासन आदि दूरदर्शिता के अलावा

और कोई रास्ता नहीं बचा है

एक रास्ता और है कि

सरकार इस जनता को भंग कर दे

और अपने लिए नई जनता चुन ले।"

1 comment:

Anonymous said...

सरकारों के बुरे दिन आ रहे हैं जनाब, सब जगह अरब जैसे हालात बने इससे पहेल चेत जाने की जरूरत है.