Tuesday 16 August 2011

हमारा नेतृत्व भूल गया है अपना काम...अन्ना जैसो को तो आगे आना ही पड़ेगा!

15 अगस्त 2011 को ऐसा पहली बार हुआ कि लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए माननीय प्रधानमंत्रीजी की हर एक बात ऐसी लग रही थी जैसे कोई झूठ का पुलिंदा पढ़ रहा हो। विकास और इमानदारी की एक-एक बात मन को ऐसे चुभ रही थी जैसे भुख से बिलखते किसी इंसान के सामने कोई आर्थिक तरक्की के अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों और परिभाषाओं का ज्ञान बघार रहा हो। हर साल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर तरक्की और विकास के नारों से लबरेज भाषण को सुन-सुनकर पक चुकी देश की जनता अब ऐसे नारों को सुनना पसंद नहीं करती। ये बात हमारे हुक्मरानों को अब समझ जाना चाहिए।

{महंगाई रोकने के लिए हरसंभव कदम उठाए जा रहे हैं।
रोजगार के अवसर और समग्र विकास के लिए योजनाएं बनाई जा रही है।
भारत को शिक्षा का केंद्र बनाने के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे हैं।
गांवों का विकास सरकार की प्राथमिकता है।
और
कृषि के विकास के लिए दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है।
आदि-आदि जैसे भाषण रोज-रोज सुन-सुनकर लोग वाकई बोर हो गये हैं।}

क्योंकि रोज-रोज भाषण देने वाला हमारा नेतृत्व कभी ना तो कुछ ठोस करता हुआ दिखता है और ना ही उसकी ऐसी नियत दिखाई पड़ती है। आज ये सोच केवल मेरी नहीं है बल्कि देश में लगातार बेकाबू होती महंगाई, लूट-खसोट, बेइमान और भाई-भतीजावाद वाली इस व्यवस्था में जी रहे देश के हर आम आदमी की आज यही सोच बनती जा रही है। आज हमारे देश के नेतृत्व को इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर क्या कारण है देश में ऐसी निराशावाद के बढ़ने की। क्यों अण्णा हजारे, अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी जैसे लोगों की अपील पर लोग अपने द्वारा चुनी हुई सरकारों के खिलाफ खड़े होते जा रहे हैं।

यहां असल सवाल उठ रहा है नेतृत्व के काम-काज और उसके द्वारा निभाई जा रही जिम्मेदारी को लेकर। आखिर किसी भी लोकतांत्रिक समाज में समाज या राष्ट्र के नेतृत्व का काम क्या है?
हमें ये बात अब साफ करना होगा कि कोई भी समाज कुछ लोगों को चुनकर सत्ता सौंपता है और नैतिकता और अनुशासन के सामुदायिक नियमों का इसलिए स्वेच्छा से पालन करता है ताकि ये चुने हुए लोग उनके सामूहिक उन्नति के लिए काम करे। सामूहिक तरक्की की योजनाएं बना सकें, उन्हें लागू कर सकें, वर्तमान जीवन की सामूहिक सुविधाओं जैसे अस्पताल, सड़क, स्कूल आदि का विकास कर सके। समाज के बेहतर भविष्य के लिए योजनाएं बना सके। ताकि वर्तमान के साथ-साथ आने वाली पीढ़ियों के लिए भी दुनिया को सुरक्षित और बेहतर बनाया जा सके। लेकिन क्या हमारे देश के हुक्मरानों में ऐसी कोई भावना, दूरदृष्टि या योजना दिखाई देती है या फिर ऐसा कुछ करने का नियत दिखाई देती है? बिल्कुल नहीं। बस उनके भाषणों में तरक्की और सबके उन्नयन की बातें होती हैं..एक तरफ देश भर में लोग भूखमरी के शिकार हो रहे हैं, बेरोजगारी और असुरक्षा बढ़ती जा रही है, किसान अपनी जमीनों से बेदखल किए जा रहे हैं, खेती की बदहाली बढ़ती जा रही है, देश कर्ज में डूबता जा रहा है और दूसरी ओर हमारी व्यवस्था के संचालक भ्रष्टाचार में लिप्त हुए पड़े हैं और इन्हें जनता की आवाज सुनाई ही पड़ती। सिविल सोसाइटी के सदस्य जनता की इसी पीड़ा की आवाज बनकर सामने आए हैं और अगर जल्द इसे नहीं सुना गया तो सत्ते के नशे में चूर ये राजनीतिक शक्तियां जनता के प्रत्यक्ष गुस्से का भी जल्द शिकार बनने लगेंगी। इसलिए जरूरत है कि वक्त रहते ये संभल जाएं और देश की तरक्की के लिए इमानदारी के साथ काम करना सिख जाएं।

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