अगर सीधे शब्दों में कहें कि आधा बिहार राजनीतिक हो गया है तो कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। हाल ही में अपने गाँव गया था। पिछले २० सालों से वहां के बदलाव को मैं देख रहा हूँ लेकिन इस बार जो देखा वाकई गौर करने लायक है. बदलाव की ये बयार पिछले ४-५ सालों में बहुत प्रबल हुई है और अब उसका असर गाँव-गाँव में दिखने लगा है. इसका श्रेय जाता है देश के शीर्ष नेतृत्व की सोच और लोकतान्त्रिक संस्थाओं की मजबूती को. हर जगह विकास का अपना अलग-अलग रास्ता होता है, बिहार में बदलाव और प्रगति का ये काम राजनीति के जरिये हो रहा है. वैसे भी बिहार को राजनीतिक पहचान वाली जमीन के रूप में बहुत पहले से जाना जाता है. मुझे याद है ५-६ साल पहले का वह वक्त... जब बिहार में ग्राम प्रधान का चुनाव हुआ था तब बिहार में गांवो के स्तर पर पहली बार राजनीतिक हलचल मचते दिखी थी, इसके पहले चुनावों में उतरने का काम कुछ खास लोगों तक ही सीमित था. तब गांवो के लोगों को पहली बार लगा था कि सत्ता में उनकी भी भागीदारी हो सकती है. उस बार कई स्तर पर चुनाव हुए थे. ग्राम प्रधान के लिए, वार्ड मेंबर के लिए, पंचायत समिति के लिए और प्रखंड स्तर की संस्थाओं के लिए भी. तब जाकर काफी संख्या में लोग चुनाव मैदान में दिखे थे. यूँ कहें तो राजनीति घर-घर के बीच शुरू हो गई और साथ ही वहां आगे बढ़ने की होड़ भी शुरू हुई, एक प्रतियोगिता का माहौल पैदा हुआ. देश के अन्य राज्यों में जाकर काम करने वाले कईयों ने गाँव वापस आकर राजनीति में अपनी किस्मत आजमाई और सफल भी रहे। इसके बाद बड़े पैमाने पर शिक्षक बहाली के सरकारी कदम ने गाँव में रह रहे शिक्षित युवा वर्ग के लिए रोजगार की एक उम्मीद पैदा कर दी। शिक्षामित्र, आंगनवाडी जैसे कार्यक्रमों ने स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा किये और करीब हर गाँव के ८-१० लोग इन कार्यक्रमों के जरिये रोजगार पाने में सफल रहे॥वहीँ स्थानीय राजनीति के उभाड़ ने कईयों को इस राजनीति में लगा दिया...इसके आलावा ग्रामीण रोजगार गारंटी के कार्यक्रम और सस्ते अनाज के कार्यक्रमों ने भी वहां बदलाव की उम्मीद जगाई है.
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ग्राम प्रधान के चुनाव के बाद सत्ता के विकेंद्रीकरण की दिशा में पैक्स का चुनाव अगला कदम साबित हुआ है. हाल में जब गाँव गया हुआ था तब वहां पैक्स के चुनाव की धूम थी. पैक्स ग्रामीण कृषि और सहकारी समिति है और पंचायत स्तर पर इनके सदस्यों का चुनाव होना था. इस बार हर जगह धूम थी... पैक्स अध्यक्ष और सदस्यों के पद पर कब्जा ज़माने के लिए लोगों ने पूरा जोर लगा रखा था. खैर इस कार्यक्रम के तहत भी काफी लोग राजनीति में शामिल कर लिए जायेंगे और कई अन्य लोग भी इनसे लाभान्वित होंगे. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वहां की ग्रामीण आबादी राजनीति की प्रक्रिया में शामिल होकर सशक्त हो रही है. हालाँकि अभी भी चुनावों में कई जगह बाहुबल का प्रयोग देखने को मिल रहा है और राजनीति में जातीय गोलबंदी भी जारी है..वैसे इसमें कुछ भी नया नहीं है और ऐसी स्थिति शुरूआती दौर में देखने को मिलती ही है. उम्मीद है कि आने वाले समय में बिहार इन कुछ नकारात्मक बातों को पीछे छोड़कर बदलाव की प्रक्रिया को आत्मसात कर लेगा.
1 comment:
इतना उत्साहित मत होइए जनाब, मानसिकता अभी भी लालू युग की ही है। राजनैतिक समझ की कमी बिहार में कभी नही रही, हां अगर जाति आधारित राजनीति की बात कर रहे हैं तो वह नीतिश युग में भी है और उसी सोशल-इंजीनीयरिंग के दम पर नीतिश भी जीते हैँ। ज्यादा चपड़-चपड़ किए ना नीतिश बाबू और जाति-फाति का चक्कर तोड़े तो नप जाएंगे। देख लेना।
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