Sunday, 4 October 2009

खगड़िया नरसंहार के सन्देश!

बिहार के खगड़िया जिले में नरसंहार हो गया...बाहर वालों के लिए ये एक नक्सली हमला भर है जैसा रोजाना छत्तीसगढ़, झारखण्ड और दक्षिण बिहार के कई इलाकों में होते रहता है। उनके लिए ये बस एक खबर भर है लेकिन जो लोग बिहार को समझते हैं. जिन्होंने बिहार को करीब से देखा है और जो पिछले कुछ सालों से बिहार में कोई नरसंहार न होने के कारण सुकून की सांस लेने लगे थे उनके लिए खगडिया वाली घटना कोई आम घटना नहीं है क्यूंकि वे जानते हैं कि यह आने वाले तबाही की एक झलक भर है और उन्हें ये भी मालूम है कि कहीं न कहीं इस आग को भड़काने में हमारे यहाँ की जातीय राजनीति जिम्मेदार है। बिहार में भूमि विवाद बहुत पुराना है और इसी का फायदा उठाकर रणवीर सेना और नक्सली वहां दशकों से अपना धंधा करते रहे और यह आज भी बदस्तूर जारी है।
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लेकिन कहा जाता है कि जब भी मामला संवेदनशील हो तो शासन सत्ता को गंभीरता के साथ पेश आना चाहिए...जिसका आज बिहार के राजनीतिक नेतृत्व में आभाव सा दिखने लगा है। जब नीतिश कुमार की सरकार बिहार में आई थी तब सबने उम्मीद की थी कि ये बिहार के लिए नई करवट होगी और जातीय राजनीति से ऊपर उठकर यह सरकार बिहार के लोगों को प्रगति के रास्ते पर ले जाने में कामयाब होगी. लेकिन हाल में जब पूर्व राजस्व और ग्रामीण विकास सचिव डी बंदोपाध्याय ने भूमि सुधारों पर अपनी रिपोर्ट सौंपी तो उम्मीद की जा रही थी कि सरकार का रुख बहुत सधा हुआ होगा और ऐसा कुछ नहीं किया जायेगा जिससे बिहार फिर जातीय और वर्गीय लड़ाई की आग में कूद पड़ेगा. लेकिन जब सरकार की इसपर प्रतिक्रिया सामने आई तो जमीन के मालिकों को बेचैन कर देने वाला था. बटाईदारों को जमीन का मालिक बना दिया जायेगा ऐसा सुनकर भला कैसे समाज में टकराव नहीं होगा? सरकार के इस रुख को देखते हुए जमीन के मालिक बटाईदारों से अपनी जमीन वापस लेने लगे और राजनीतिक दांव-पेंच में स्थानीय नेताओं ने इस आग को हवा दी. नक्सलियों को फिर से मजबूत होने का मौका मिल गया. इसी की परिणति थी खगडिया में हुआ नरसंहार.
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लेकिन अगर दूरदर्शी नजरिये से देखा जाये तो इसमें नुकसान बटाईदारो का ही ज्यादा है. अबतक जमीन पर खेती की एक परिपाटी होती थी..जो जमीन का मालिक है अगर वह अपनी जमीन पर खेती नहीं कर कोई और काम कर रहा हो तो वह खेती के काम में लगे लोगों को अपनी जमीन बटाई पर दे देता था और उसके बदले एक निश्चित रकम या फिर उगे हुए अनाज का निश्चित हिस्सा उसे मिलता था. खेती करने वाला शख्स मेहनत करके अपना हिस्सा पाता था.. सच कहें तो इसमें बटाईदार को आधे से भी ज्यादा हिस्सा मिलता था. लेकिन जब यह कहा जायेगा कि जो बटाईदार है जमीन उसी की हो जायेगी तो फिर मुश्किलें बढेंगी ही न.. मालिक अपना जमीन ले लेगा और अपना जमीन भले ही खाली रखेगा लेकिन बटाई पर नहीं देगा. इससे बटाईदार के घर जो अनाज जाता था वह रुक जायेगा और देश के हिस्से में जो उत्पादन हो रहा था वह भी रुक जायेगा...ये तो विकास ठप्प करने वाला और सामाजिक संघर्ष बढ़ने वाला कदम ही साबित होगा. ये बिलकुल वैसे ही होगा कि कोई अपनी मेहनत की कमाई से घर बनाये और उसे किसी को किराये पर रहने को दे और सरकार कहे कि जो रह रहा है वही घर का मालिक होगा..फिर कोई क्यूँ अपना घर किसी को किराये पर देगा. खगडिया में हुई घटना तो एक शुरुआत है और अगर बिहार की सरकार व्यावहारिक नजरिया नहीं अपनाती तो जमीन की लड़ाई की ये आग पूरे बिहार में फ़ैल जायेगी और खेती प्रधान बिहार राज्य उत्पादकता भूलकर तबाही के काम में लग जायेगा.

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