कल दिवार पर लगी एक पोस्टर देखी। उसपर यही लिखा हुआ था. प्रचार था किसी बाबा का. जो सतयुग आने का सपना दिखा रहे थे. जैसे सबकुछ बदलने वाला ही हो, बस. अब राम राज्य आने ही वाला हो. ऐसे न जाने कितने सपने बेचने वाले बाबा लोग रोजाना टीवी पर दिखते रहते हैं. जिन बाबा लोगों का बाज़ार बन चुका है उन्होंने अपना खुद का टीवी चैनल खोल लिया है और जिनका उतना बाज़ार नहीं बन पाया है वे किसी और के चैनल पर दिखकर अपना काम चला ले रहे हैं. रोजाना सुबह-सुबह टीवी के इन चैनलों पर बाबा लोग और झूमते-गाते आनंदित से दिखते उनके भक्त लोग आकर आसन जमा लेते हैं और फिर चलता है धर्म का एक लम्बा सिलसिला. अब इस धर्मवाद के साथ बाज़ार भी जुड़ चुका है और इसी का नतीजा है दीवारों, बसों और जगह-जगह लगे बाबा लोगों के पोस्टर.
कल इसी से जुडी हुई एक और घटना आँखें खोलने वाली थी. मेरे एक परिचित के यहाँ बच्चा हुआ था. किसी ने उन्हें एक पंडित जी का फोन नंबर दिया. फोन पर उन बाबा से बात हुई और पूजा का मामला फिट हो गया. तय हुआ कि बाबा पूजा का सारा सामान लायेंगे और पूजा संपन्न कराएँगे और जजमान केवल तैयार होकर आ जाये. बाबा आये, उनके साथ एक अस्सिस्टेंट भी थे. बाबा अपने साथ पूजा की पूरी सामग्री लाये थे. यहाँ तक कि चलता फिरता हवनकुंड भी. बाबा ने पूजा निपटाया..अपनी फीस ली और जजमान भी इस झंझट से मुक्त हुए. दोनों ने अपनी धार्मिक जिम्मेदारी निभाई और फिर चल पड़े अपने-अपने रस्ते.
2 comments:
मार्क्स ने कहा था धर्म अफीम की तरह है. आज हमारे यहाँ वाकई इसे अफीम की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. धर्म का मकसद क्या है और इसका स्वरुप क्या होना चाहिए इसे लेकर आज की दुनिया कन्फ़ीउज है. इस भ्रमित स्थिति का फायदा उठा रहे हैं हमारे ये पूज्य बाबा लोग.
संदीप बाबू धर्म अफीम तो नहीं लेकिन बदलते दौर में शराब की तरह है। कुलीन चूतिए इसे मज़े लेने के लिए पीते हैं, दुनिया को अपने ... पर रखकर शैंपेन की तरह और गरीब लोग पीते हैं ठर्रा, पाउच हंडिया-महुआ की तरह..नमक चाटकर...बिना चखने के। देसी..। पीते दोनों वर्ग के लोग हैं, एक साई बाब मंदिरक में जाकर चैक से दान देता है, दूसरा वर्ग सवा रुपये का लड्डू अगर कहीं मिलता हो तो- चढाता है। ससुर भगवान भी घूसखोर हो गए हैं बिना चढावे के सुनते ही नहीं, और कोई सबूत भी नहीं, चढावा लेकर भी नहीं सुनते
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