कहते हैं भारत विविधताओं से भरा देश है, विविध लोग...विविध नज़ारे और विविध प्रकार की बातें.....हर बार जिंदगी का नया रूप और नई तस्वीर....लेकिन सब कुछ हमारी अपनी जिंदगी का हिस्सा...इसलिए बिल्कुल बिंदास...
Thursday, 27 March 2008
आओ मिलकर मैकाले को गाली देते हैं!
अब आइये स्टोरी में दिए गए कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं। भारत के 85 प्रतिशत विद्यालय सरकारी स्कूलों की श्रेणी मे आते है।यह पूरी दुनिया का दूसरा सबसे बडा स्कूली तंत्र है लेकिन ये भी एक सच है की सबसे ज़्यादा अशिक्षित लोग भारत में ही हैं। अगर अंग्रेजों को दोष देकर हम ये कहें की उन्होंने हमे पढाने के लिए कुछ नहीं किया तो ये ग़लत होगा। पिछले ६० सालों में जब हम अपने लिए ऐसा नहीं कर पाये तो अंग्रेज भला हमारे लिए क्यों करते। आज के वक्त में जब हम अपने लोगों को सही रस्ते पर ला नहीं पा रहे हैं तो १८वि शताब्दी में भला अंग्रेज ये काम कैसे कर सकते थे। वो तो भला हो की अंग्रेजी, रेल और ऐसे ही ना जाने कितने चीज वे हमे दे गए वरना हम शायद इन तक पहुँचने में सदियों लगा देते।
हमने बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए कई योजनायें शुरू की। उन्हें मुफ्त में किताबे दी गई, मुफ्त ड्रेस दी गई, इतना ही नहीं बच्चों के लिए दोपहर के खाने तक की व्यवस्था की गई। लेकिन फ़िर भी ६० साल में हम अपनी अधिकांश आबादी को नहीं पढ़ा सके। हालांकि इस दौरान काफ़ी बड़ी संख्या में लोग पढे-लिखे भी और दुनिया भर में अपनी काबिलियत का लोहा मंवाये भी लेकिन ये सब केवल अंग्रेजी की बदौलत सम्भव हो सका और इसके लिए हम मैकाले को गाली नहीं दे सकते। जहाँ हमें कुछ करना चाहिए वहाँ हम असफल रहे हैं। सरकार एक ऐसी व्यवस्था है जिसे इसलिए बनाया जाता है की जिस समुदाय का वह प्रतिनिधित्व करती है उसके लिए सामुहिक काम वो करे। ६० सालों में ऐसा शासन नहीं दे पाए जो हमे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाये दे सके। जाहीर ये हमारी कमी है। हम ख़ुद के लिए लोकतंत्र नहीं बना पाये। इसे भी किसी और देश से कॉपी किया और गले में टांग कर घूमते रहे और हालत ऐसी हो गई की कौन आपका नेता बनेगा ये आप नहीं तय कर सकते बल्कि आपको ये नेता लोग अपने प्रचार माध्यमों से मजबूर कर बताते हैं।
भारत में 53 प्रतिशत छात्र प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते और पढ़ाई छोड़ देते हैं। इसको रोकने के लिए सरकार ने बाल मजदूरी सहित कई बुराइयों को रोकने के लिए कानून भी बनाये लेकिन फ़िर भी ये नहीं रुका। बचे आज भी दुकानों से लेकर खेतो में काम करते हैं और पढाई कर पाने की औकाद उनकी बन पाये इसके लिए कुछ ठोस सामने नहीं आ पा रहा है। प्राथमिक स्कूलों में बच्चे आज भी पढ़ नहीं पाते, मास्टर चुनाव सहित तमाम काम में लगे रहते हैं और उन्हें बच्चों को पढाने का समय नहीं हैं। उल्टे अब तो उन्हें दोपहर का भोजन बनवाकर बच्चों को खिलाने का भी काम मिल गया है। अब तो उनकी व्यस्तता और भी बढ़ गई है। जब हम ख़ुद अपने बच्चों को पढाने के लिए समय नहीं निकल पा रहे हैं तो भला ६० साल हो जाए या फ़िर ६ शताब्दी। हम कभी भी अपने लिए कुछ नहीं कर सकते.....
Sunday, 9 March 2008
किसान अचानक लाईमलाईट में क्यों आ गए!
हमेशा किसानों की बदहाली का रोना रोने वाले हमारे देश में किसान अचानक लाईमलाईट में आ गया है। चुनाव का साल है और लगभग सभी पार्टियां अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए नए-नए तरिएक तलाशने में जुट गई है। इसकी शुरुआत इस साल के आम बजट में किसानों का कर्ज माफ़ करने की घोषणा कर केन्द्र सरकार ने की। बजट के इस फैसले को अपने पक्ष में भुनाने के लिए जहाँ सत्ता में साझी पार्टियां इसे अपने दबाव का परिणाम बताने लगीं वहीं विपक्ष जब कुछ नहीं कह सका तो कहा गया की ये फैसला देर से लिया गया। इस फैसले से अपने टीवी चैनल वालों को भी खूब मसाला मिल गया। कई चैनलों में तो तुरंत खटिया (ग्राफिक्स वाला) बिछाया गया और रोज टाई-सूट में दिखने वाले पुरूष और महिला एंकर खटिया पर धोती-लुंगी-कुरता और साड़ी पहने नजर आने लगे। ताकि मीडिया के मार्फ़त दर्शक भी इस फैसले के बाद किसानों के चेहरे पर आयी खुशी को महसूस कर सकें।
अब जब किसानों का मौसम (सच कहें तो चुनावी मौसम) आ ही गया तो चुनाव की तैयारी तो करनी ही पड़ेगी। देश की एक बड़ी पार्टी के राजकुमार ने भारत को खोजने के लिए अपनी देश-व्यापी यात्रा शुरू कर दी। ये यात्रा देश के सबसे गरीब इलाके के रूप में मीडिया में जाने जाने वाले उडीसा के कालाहांडी से शुरू किया गया। युवराज ग्रामीण इलाको और आदिवासी इलाकों का दौरा कर भारत की खोज करेंगे। जहीर है जल्द ही अन्य पार्टियां भी जल्द ही इसकी काट के लिए कोई नई यात्रा शुरू करेंगे।
इन सबसे आगे रहे बिहार में विपक्ष के विधायक( इनकी पार्टी पिछले १५ साल से बिहार में राज कर रही थी।)। किसानों की समस्याओं पर नीतिश सरकार का ध्यान दिलाया जाए इसके लिए इस दल के ४ विधायक बैलगाडी पर बैठकर विधानसभा चले और मीडिया का ध्यान खीचने का पुरा प्रयास किया। बैलगाड़ी में चारों तरफ ईख बंधा था। और पीछे-पीछे इन विधायकों की नई माडल की चमचमाती गाड़ी। विधानसभा के बाहर खड़े पत्रकारों को उस दिन का मसाला यूं ही मिलगया।
आप भी सोच रहे होंगे की जब सबको किसानों की फिक्र हो रही है तो अब जरूर किसानों की हालत सुधरेगी। लेकिन ये इंडिया है और जो दिखता है वैसा होता नहीं। बिल्कुल उस मदारी वाले के करतब की तरह - जो पूरे भीड़ को अपने तरह-तरह के करतब से खुश कर देता है और वैसा होता कुछ भी नहीं है। लेकिन चुकी सबको किसानों को खुश करना है क्योंकि राजनीति की दिशा अब भी भारत का किसान ही तय करता है। और किसी भी दल को भारत पर राज करने के लिए किसानों की रहम की जरूर्रत पड़ेगी ही इस लिए जरूरी है की किसान लाइम्लाईट में ही रखे जायें। और सब फील गुड करते रहें........
Saturday, 8 March 2008
चलो अब महिला दिवस भी मना ही लें!
चलिए फ़िर बात करते हैं दिवस वाले मामले पर। अब सवाल उठता है की कल महिला दिवस है तो फ़िर पुरूष दिवस कब मनाया जाता है। जहाँ तक मुझे मालूम है ऐसा कोई दिवस मनाया ही नहीं जाता। कई लोग इसे पुरुषों के प्रति जुल्म कह सकते हैं लेकिन अगर ये सच है तो सच है। हमारे देश में पहले ये दिवस कुछ कम थे, जैसे की गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस जैसे कुछ बड़े-बड़े दिवस मनाने का ही चलन था। लेकिन इधर जब से देश में आधुनिकता का चलन कुछ बड़ा है दिवसों की संख्या भी बढ़ती चली जा रही है। जबसे हम ग्लोबल बनने का सपना सजाने लगे हैं तबसे कई ग्लोबल दिवस हमारे देश में अपनी पैर पसारने लगे हैं। इन ख़ास दिनों पर अब दिवाली-दशहरा से भी ज्यादा रौनक दिखने लगी है। इन ग्लोबल त्योहारों में वैलेंताईन डे को कुछ ख़ास रूतबा हासिल है। इस दिन को इंडियन मीडिया भी खूब कवरेज़ दे रही है। ऐसा नहीं है की सभी ग्लोबल त्यौहार निजी मामलों से ही जुड़ी हाउ है । कुछ ऐसे भी त्यौहार आयत हुए हैं जो परिवार से ताल्लुक रखते हैं। इनमें फादर्स डे, मदर्स डे, फ्रेंडशिप डे जैसे त्यौहार भी शामिल हैं। जो भारत में परिवर्तन के ताजे हवा का झोंका ला रहा है।
मेरे जैसे न-आधुनिक लोगों के लिए ये नई संस्कृति थोडी चुभने वाली जरूर है लेकिन उससे कुछ होने वाला नहीं है। मेरे लिए हमेशा से किसी एक खास घंटे को, खास दिन को या फ़िर किसी खास दिवस पर ही खुश होना और उस खुशी के लिए लोगों से बधाई लेना तकलीफदेह रहा है। जैसे अगर दिसम्बर माह के ३१ तारीख की रात को १० बजे अगर किसी मित्र से मिलिए तो सबकुछ आम दिनों की तरह रहेगा लेकिन जैसे ही रात के बारह बजे अचानक लोग एक-दुसरे के गले लग कर बधाई देने लगेंगे। इस पल में मेरे लिए सहज रह पाना थोडा मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा कुछ नए दिवस भी मुझे तकलीफ पहुचाने वाले रहे है। जिनका आयात भी पश्चिम से ही हुआ है। जैसे मदर्स डे, फादर्स डे। इसे कुछ और दिवस भी जल्द ही जुड़ सकते हैं- जैसे सिस्टर्स डे, ब्रोद्र्स डे, सन् डे, डॉटर डे, वाइफ डे। इन सबसे ऊपर फमिली डे हो सकता है जिस दिन एक परिवार से जुड़े हुए लोग अपने परिवार को याद करेंगे। हालांकि ग्लोबल और आधुनिक होते समाज में परिवार को बाकी परिवार से अलग करके देखना एक चुनौती साबित हो सकती है।
लेकिन इतनी बातों के बारे में सोचकर अपना भेजा ख़राब करने के बाद मैंने सब से अच्छा रास्ता निकला है एसेमेस का। जैसे फ्रेंडशिप डे है तो अपने दोस्तओं की लिस्ट निकालिए और सबको एक ही मैसेज भेज कर छुट्टी पा लीजिये। इसी तरह सारे दिवस पर उससे जुड़े लोगों को मैसेज करिये और उनके करीब आ जाइए। वैसे भी मैसेज करना आजकल महंगा नहीं रह गया है। मोबाइल कंपनियां कई ऐसे स्कीम लाती रहती हैं जिसमें महीने में सैकड़ों या फ़िर हजारों मैसेज फ्री होते हैं। फ़िर तो हम अनलिमिटेड मैसेज सुविधा के साथ अनलिमिटेड दिवसों को मनाने का लुत्फ़ उठा सकते हैं।तो फ़िर देर किस बात की है कल महिला दिवस है और मुफ्त मैसेज की सुविधा भी फ़िर चलिए मानते है महिला दिवस.....
Friday, 7 March 2008
कश्मीर सिंह और किशन सिंह दोनों भारतीय हैं?
पहले हम कश्मीर सिंह की बात करते हैं। कश्मीर सिंहकी उम्र अब ६० साल है। उनकी कहानी थोडी भावुक है- वे पंजाब के रहने वाले हैं, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में पकड़े गए, उनपर जासूसी का आरोप लगा, उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। उन्होंने ३५ साल पाकिस्तान की जेलों में गुजारा। फ़िर उन्हें माफ़ी मिली और अब वे आज़ाद होकर अपने परिवार के बीच खुशी से वापस लौट आए हैं।
किशन सिंह की उम्र ३७ साल है। वे एक भारतीय हैं, और भारत में ही रहे। लेकिन आम भारतीयों की तरह वे नहीं है क्यूंकि वे बिहार के रहने वाले हैं। वे भारत के अन्दर बसे एक "दूसरे मुल्क" में पकड़े गए। और वहाँ के बासिंदों के अत्याचार के शिकार हो गए। अपनी ३७ साल की उम्र में से उन्होंने २७ साल अपने प्रान्त बिहार में gujaare और आखिरी १० साल महाराष्ट्र में। बिहार के सिवान जिले के अपने गाँवको छोड़कर १० साल पहले वे पुणे चले गए। वहाँ उन्होंने चने बेचने का काम शुरू किया। चने बेचने से उनकी इतनी कमाई नहीं होती थी अपना घर खरीद सके या किराए पर ले सके। इसलिए वे दिनभर चने बेचते और जब सारी दुनिया अपने घर को वापस लौट जाती तो वे सड़क किनारे फुटपाथ पर सो जाते। उन्हें लगता था की अपने देश में ही हैं। और उन्हें कोई खतरा नहीं है। उन्होंने संविधान में कहीं पढ़ा तो नहीं था की उन्हें देश के किसी भी हिस्से में जाकर रहने और रोजी रोटी के लिए कोई काम करने का अधिकार है। लेकिन पता नहीं कहाँ से उन्हें ये मालूम था की वे ऐसा कर सकते हैं। लेकिन वे चैन से अपना ये काम नहीं कर सके। पिछले महीने की एक रात उनपर और उन जैसे काम करने वाले और फुटपाथ पर जीवन गुजारने वाले लोगों पर भीड़ ने हमला किया। भागते वक्त वे गिरे और बेहोश हो गए और फ़िर जब होश में आए तो उनके दोनों हाथ गायब थे। अब वे चने नहीं बेच पाएंगे, क्योंकि हाथ के बिना चने बेचने का काम सम्भव नहीं है। मामला संसद में भी उठा, गृहमंत्री महोदय ने कहा की ऐसे हमलों के शिकार सभी लोगों को फ़िर से बसाया जाएगा। लेकिन क्या किशन सिंह को फ़िर से बसाया जा सकता है। भले ही किशन सिंह कश्मीर सिंह की तरह दूसरे मुल्क में नहीं पकड़े गए थे, उन्होंने संविधान के अनुसार कोई अपराध भी नहीं किया था लेकिन क्या करें मुल्क के अन्दर कई मुल्कों को वे पहचान नहीं पाए और यही उनका अपराध था.......
Thursday, 6 March 2008
उजड़े शहर दोबारा बसते नहीं है क्या!
आज एक साथ दो खबरें मीडिया में छाई रही। राज ठाकरे के पूज्य चाचाजी(पहले राज उनके नक्शे-कदम पर चल रहे थे, लेकिन अब समय बदल गया है) बाल ठाकरे साहब ने सामना में एक लेख लिखकर बिहार के लोगों को खूब गाली दी। कई लोगों ने कहाँ "ई चाचा बिहार के लोगों से इतना फ्रस्टिया काहे गए हैं" जबकि कई लोगों ने कहाँ नहीं चाचा तो अपने भतीजे के कदम से फ्रस्टिया गए हैं। हालांकि कई लोग तो ये कहकर उन्हें बख्शने के मूड में थे की उम्र का असर है। अक्सार लोग इस उम्र में अनाप-शनाप बोलने लगते हैं। हमारे देश की संस्कृति रही है की ऐसे लोगों की बातों का लोग बुरा नहीं मानते। दूसरी ख़बर हमारे देश के गृहमंत्री जी के इसी मामले पर आए बयां से बना था। गृहमंत्री आज राज्यसभा में बोल रहे थे। उन्होंने महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय लोगों पर हो रहे हमलों की निंदा करते हुए कहा कि सरकार उन लोगों को फ़िर से वहा बसायेगी। उन्हे वहाँ सुरक्षा प्रदान की जायेगी।
आज से एक दिन पहले यानी की कल एक ख़बर देखी थी- जम्मू-कश्मीर के बडगाम में सरकार के द्वारा बनाए गए फ्लैटों में कश्मीरी पंडितों के ३० परिवारों को लाया गया। इस तरह के कई और आवासीय परिसर राज्य में बनाकर सरकार राज्य से भाग कर गए लोगों को फ़िर वापस लाएगी(वहाँ से पलायन का सिलसिला दशकों से जारी है)। कुछ इसी तरह का वाकया असम में भी हो रहा है। वहाँ के कुछ आतंकी संगठन असम में रह रहे बाहरी लोगों के ख़िलाफ़ अभियान चलाये हुए हैं। ये अभियान अब हिंसक हो चुका है। कुछ इसी तरह का काम पिछले दिनों महाराष्ट्र में राज ठाकरे के लोगों ने भी शुरू किया। जिससे आजीज आकर बिहार और उत्तर प्रदेश के काफ़ी लोग महाराष्ट्र छोड़कर भागने को मजबूर हुए। सरकार कह रही है की वो फ़िर से इन लोगों को वहाँ बसायेगी। लेकिन सवाल है की कब तक ये लोग ख़ुद को वहाँ सुरक्षित मानेंगे।
ऐसा नहीं है की इस तरह की राजनीति केवल भारत में ही होती है। मैं खबरों कि दुनिया में हूँ इस लिए कई होनी-अनहोनी खबरें रोज देखनेको मिल जाती हैं। सबसे ज्यादा ह्रदय विदारक खबरें अफ्रीकी महाद्वीप से आती है। अभी पिछले महीने केन्या में नस्ली हिंसा कि खबरें काफ़ी छाई रही। वहाँ भी चुनावी राजनीति ने लाखों लोगों को बेघर किया। इसी तरह रवांडा, कांगो, नाईजीरिया सहित कई देशों और खाड़ी के कई देशों में भी इसी तरह की लड़ाई जारी है। अगर यही हाल यहाँ भी जारी रहा तो लाखों लोग जो देश के अन्य इलाकों में रह रहे हैं उनके लिए सरकार को बार-बार आशियाने बनाकर देते रहने पडेगा। और आगे चलकर इसके लिए अलग से बजट बनाना पडेगा। लेकिन आशियाने देने के बदले सरकार को लोगों को ये समझाने में ज्यादा ताकत लगाएं की लोगों को संविधान ने देश में कहीं भी बसने और कोई भी वैध कारोबार करने का हक़ दिया है।
Wednesday, 5 March 2008
किसानों की कर्ज माफ़ी का श्रेय किसे दिया जाए!
ये फैसला जैसा की मीडिया में दिखाया जा रहा है इस साल के बजट का सबसे बड़ा फैसला माना जा सकता है। लेकिन मेरे विचार में इस मामले को लोक सभा चुनाओं के अलावे दो और मसलों से जोड़कर देखा जाना चाहिए। हालांकि बजट के एक दिन पहले कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी प्रधानमंत्री जी से मिले और आम लोगों का बजट पेश करने का आह्वान किया। फ़िर जो फैसला आया वो सबके सामने हैं।
१- संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन द्वारा शासित राज्यों में से महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश। जहाँ कि अगले साल चुनाव होने हैं, और इन्ही २ राज्यों में किसानों की आत्महत्या का मामले सबसे ज्यादा सामने आता रहा है। जहीर है सरकार के इस फैसले के पीछे इन दोनों राज्यों कि सरकारों का दबाव भी काफ़ी कारगर रहा होगा।
२। बजट के २ दिन पहले पंजाब के किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल कांग्रेस नेताओं के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन संघ और सप्रंग अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मिला। मीडिया में पीएम का जैसा बयान चल रहा था उसके अनुसार प्रधानमंत्री जी ने उन्हें कहा था की बजट से २ दिन पहले मैं आप लोगों को साफ-साफ कुछ नहीं बता सकता लेकिन आपकी मांगों पर जरूर कदम उठाया जायेगा। प्रधानमंत्री जी का ये बयान पंजाबी भाषा में था।
इसके अलावे एक और सवाल जो उठाया जा रहा है की किन किसानों को इस फैसले से फायदा होगा। जहीर है की पंजाब, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को इससे फायदा होगा। इसका फायदा ज्यादातर बड़े किसानों को हो सकता है। छोटे किसान कभी कर्ज लेकर खेती नहीं करते, अगर लेते भी हैं तो साहूकारों से आगे उनकी पहुँच नहीं हो पाती। मैंने बिहार के किसानों को बैंक से खेती के लिए लोन लेते नहीं देखा है। वे अपने खेती के लिए या तो साहूकारों से पैसा उधार लेते हैं या फ़िर अपने खेत बेचकर खेती के काम को आगे बढाते हैं।
इधर हाल के वर्षों में देश के जो इलाके किसानों की समस्याओं के लिए चर्चा में रहे हैं उनमें- विदर्भ, तेलंगाना और बुंदेलखंड सबसे आगे हैं। इन इलाकों को इस फैसले से सबसे ज्यादा फायदा मिलना चाहिए। सच कहें तो उन किसानों को इस फैसले का श्रेय देना चाहिए जिन्होंने अपनी जान देकर सरकार को ये फैसला लेने को मजबूर किया। लेकिन सरकार को ऐसे किसानों को भी कर्ज मुक्त कराने का जिम्मा उठाना चाहिए जो बैंक से कर्ज न लेकर साहूकार से लेते हैं। और जो पीढियों से कर्ज के बोझ में दबे हुए हैं। मैंने ग्रामीण इलाकों में कई ऐसे किसानों को देखा है जो सहुकारो के कर्ज से मुक्त होने में असमर्थ हैं। वे कर्ज की राशी से ज्यादा व्याज दे रहे हैं और भारी बोझ में दबे हुए हैं। इस कर्ज को ख़त्म करने का श्रेय भी किसी को लेना चाहिए।
यूपी विधानसभा में विधायकों पर नजर रखेगा सीसीटीवी!
भारत के उतारी राज्य जम्मू-कश्मीर से लेकर लगभग सभी राज्यों की विधानसभा मार-पीट की गवाह बन चुकी है। इन घटनाओं से लोकतंत्र को कितना नुकसान पहुँचा है ये कहना तो मुश्किल है। लेकिन लोकतंत्र के हमारे स्थल जरूर इन घटनाओं से खबरों में आते रहते हैं। सरकार के इस फैसले से एक बात और साफ हो गई की अब सरकार भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगी है की विधानसभा में गरम खून वाले लोग पहुँचने लगे हैं। इस नतीजे तक पहुचाने के पहले सरकार ने पूरे तथ्य जरूर जुटाए होंगे। अधिकारियों ने इस फैसले की घोषणा करते हुए बताया की करीब 81 सीसीटीवी कैमरों को परिसर में कई महत्वपूर्ण जगहों पर लगाया गया है। ये कैमरे विशेष तौर पर सत्र के दौरान विधायकों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए लगाए जा रहे हैं। यह भी बताया गया कि हाल ही में बजट सत्र के दौरान समाजवादी पार्टी के विधायक गैस से भरे गुब्बारे अपने शॉल में छुपाकर विधानसभा में लेकर आ गए थे। इस तरह की हरकतें दोबारा न होने देने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया है।