Tuesday 14 February 2012

वैलेंटाइन डे की तिलिस्मी दुनिया के पार--


1997 में आई हिंदी फिल्म -दिल तो पागल है- ने "वैलेंटाइन डे" की जानकारी भारतीय समाज के घर-घर में पहुंचाई। तब समाज के अधिकांश लोगों ने इस उत्सव को एक अनोखे मौके के रूप में और कौतुहल के साथ देखा। लेकिन महज डेढ दशक में जिस तरह इस पर्व ने देश में प्रेम उत्सव के रूप में अपनी जगह बनाई है उससे साफ लगता है कि यहां का समाज प्रेम और निजी भावनाओं को लेकर किस कदर अकुलाहट का सामना कर रहा था। वैलेंटाइन दिवस को तेजी से अपनाने वाली देश की नई पीढी ने दिखाया कि किस कदर हमारे देश में निजी संबंधों की स्वतंत्रता को लेकर खालीपन था और उसे एक आवाज की दरकार थी जिसे वैलेंटाइन डे के मौके ने भरा। 
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उदारीकरण के बाद उभरे तरूणाई वाले भारत में प्रेम को लेकर किस कदर अकुलाहट थी और किस कदर समाज के अंदर पुराने केंचुल को उतार फेंक कर प्रेम के नए प्रतीक गढ़ने को लेकर तीव्र भावना पनप रही थी। वैसे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि भारत में प्रेम जैसी कोई अवधारणा इससे पहले नहीं थी। लेकिन उसे सभ्यता के मोटे पर्दे के पीछे कहीं -कहीं पनपने का मौका मिल पाता था। क्या आज खुलकर प्रेम का इजहार करने वाली और वेलैंटाइन डे को प्रेम उत्सव के रूप में मनाने वाली ये पीढ़ी कभी इस बात पर भरोसा करेगी कि कभी इस देश में शादी के पहले लड़के-लड़कियां एक-दूसरे को देखने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वो तो छोड़िये पति-पत्नी तक दिन के उजाले में एक-दूसरे के सामने नहीं आते थे। परिवार के लोगों के सामने बात करना तो बहुत दूर की बात थी। इस दौर के बीते अभी बहुत ज्यादा वक्त भी नहीं हुआ। आज वही भारत है और वही समाज है जहां कि मीडिया वेलैंटाइन डे आने से कई हफ्ते पहले से उपहार और कार्ड आदि की मंडी सजाकर बैठा है और टीवी चैनलों पर तथाकथित विशेषज्ञों की लंबी-चौड़ी फौज प्रेम के इतिहास, वर्तमान और उसके भविष्य को लेकर जेरो-बहस में मशगूल हैं।
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वो दौर बीते भी ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब अभिभावक अपने बच्चों को वेलैंटाइन दिवस के दिन घर पर रोकेने के लिए हर तरकीब अपनाते थे। अगर जोर-जबर्दस्ती भी करनी पड़े तो लोग पीछे नहीं हटते थे। आज वही समाज है और वही अभिभावक लेकिन नज़ारा बिल्कुल बदला हुआ है। आज निजी जीवन में उन्मुक्त व निजी विचारों के सम्मान करवाने की भावना इतनी प्रबल है किअभिभावक भी इस रास्ते में बाधा बनने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। कही बच्चे कह न दें---
"Mind your own business, this is my life"..

1 comment:

Manjit Thakur said...

बाजार है और कारोबार है। चलने दो, दिक्कत क्या है। समाज और संस्कृति नदी की नाईँ बहती रहे, बदलती रहें तभी शुभ...जकड़न खतरनाक है।