Tuesday 15 December 2009

मुद्दे हम बनाते हैं...

महंगाई के इस दौर में
जार-जार होकर जनता
बस इतना ही कह पाती है-
हमारी कोई नहीं सुनता
किसी को नहीं हमारी फिकर...
लेकिन क्या हम अपनी बदहाली के
खुद जिम्मेदार नहीं...
आज़ादी के ६ दशकों बाद भी
नहीं है हम
अपनी पेट भरने को आश्वस्त
और ना ही है हमें
रोजगार पाने की गारंटी।

हाँ, मजदूरी के लिए
है हमारे पास गारंटी स्कीम
लेकिन क्या सोचा है हमने कभी
देश का पढ़ा-लिखा वर्ग
कैसे पायेगा रोजगार।
क्या वो भी
सड़क निर्माण में
ईंट-पत्थर ढोकर रोजगार की गारंटी पाए
और कहे खुद को
महाशक्ति बनने को आतुर
२१वी सदी के इंडिया का .नागरिक
जहाँ कुछ सालों में ही
राजनेताओं की तिजोरियों में
आ जाते हैं हजारो-हज़ार करोड़ रूपये
और फिर सालो-साल चलने वाले
मुकदमों की दौड़ में
खो जाती हैं यादे देश को लूटने वाले लोगों की
और फिर हम चल पड़ते हैं अगली
चोट खाने को
लोकतंत्र के हाथों॥

हमारे यहाँ मुद्दे कभी नहीं चुकते
रोटी की बढ़ी हुई कीमते
हमें एकजुट नहीं करती,
नहीं करती हमें तोड़-फोड़ पर उतारू
बेरोजगारी की मार भी,
लेकिन जब राज्य बाटना होता है
तो हम उतर पड़ते हैं सडको पर,
जब करने होते हैं दंगे
हमारी मर्दानगी जाग उठती है
और फिर शान से सर उठाये
हम बन पड़ते हैं अपने समुदाय के पहरुए।
लेकिन अपने लोगों की दुर्दशा
हमें नहीं बिचलाती
क्यूंकि हमारे पेट को
मिल जा रहा है अनाज फ़िलहाल!

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सही व सटीक लिखा है---

लेकिन जब राज्य बाटना होता है
तो हम उतर पड़ते हैं सडको पर,
जब करने होते हैं दंगे
हमारी मर्दानगी जाग उठती है
और फिर शान से सर उठाये
हम बन पड़ते हैं अपने समुदाय के पहरुए।
लेकिन अपने लोगों की दुर्दशा
हमें नहीं बिचलाती
क्यूंकि हमारे पेट को
मिल जा रहा है अनाज फ़िलहाल!